लखनऊ. जन संस्कृति मंच की ओर से फेसबुक पर चलाये जा रहे ‘कविता संवाद’ लाइव कार्यक्रम के तहत 3 मई को आठ रचनाकारों की कोरोना काल में लिखी कविताएं सुनायी गयी। यह कविता संवाद का पांचवा कार्यक्रम था जिसका शीर्षक था ‘सुन्दरपुर दूर है अभी’। इसका संयोजन और कविताओं का पाठ कवि व मंच के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर द्वारा किया गया।
पाठ का आरम्भ जवाहरलाल जलज (बांदा) की कविता ‘मई दिवस 2020’ से हुआ। देश-दुनिया में लाॅक डाउन होने की वजह से पारम्परिक तरीके से मई दिवस मनाना संभव नहीं हो रहा, इसी को कविता में व्यक्त किया गया ‘इस बार/मना नहीं पायेंगे मिलकर मजदूर दिवस/उत्साह के साथ/क्योंकि/बँधे हैं कड़े अनुशासन/की रस्सी से सबके हाथ/घिरी हुई है भीषण संकटों की बदली’।
पंकज चौधरी (दिल्ली) की कविता ‘कोरोना और दिहाड़ी मजदूर’ का पाठ हुआ। इसमें उस पीड़ा की अभिव्यक्ति है जिसकी वजह से गांव छोड़ना पड़ा। वहीं वे अधिक दुख व संताप के साथ लौट रहे हैं। जानते हैं इस लौटने की क्या कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी ‘वे उनसे इस बार कहीं ज्यादा कीमत वसूलेंगे/उन्हें उनकी मजूरी के लिए/दो सेर नहीं एक सेर अनाज देंगे/उनके जिगर के टुकड़ों को/बाल और बंधुआ मजदूर बनाएंगे।’
डा बलभद्र (झारखण्ड) इसी पीड़ा को नया अर्थ देते हैं ‘ये हजारों पाँव पैदल/जो गाँव जा रहे है हैं/इस समय को यहाँ से समझना/ज्यादा मुनासिब है/चंद बोतल पानी/भर पत्तल भात समझना/क्रूर मजाक होगा’।
कोरोना एक आईना है जिसमें देश के श्रमिकाके जीवन दशा-दुर्दशा को देखा जा सकता है। महामारी के बाद उन्हें किस तरह की जिल्लतों का सामना करना पड़ा, इसी हकीकत से रू ब रू कराती है अशोक श्रीवास्तव (लखनऊ) की कविता ‘घर वापसी’ में कुछ इस तरह ‘पुलिस लाठी मारती है/पहले चार लाठियां मिलती हैं/फिर दो रोटियां/मेहनत की कमाई नहीं/जिल्लत और हिकारत की रोटी…/गला सूख रहा है…./सिर चकरा रहा/मूर्छा आ रही है शायद/सुन्दरपुर दूर है अभी/शायद बहुत दूर !’
शोभा सिंह (दिल्ली) की कविता में स्थितियों का दारुण चित्र है पर वे बदलाव की उम्मीद नहीं छोड़ती। उनकी कविता में यह बात कुछ इस तरह आती है ‘सत्ता की संवेदनहीनता से/जड़ खामोशी से/उम्मीद के पत्ते झरते जाते हैं/फिर नये पत्ते फूट पड़ते हैं…/सहज सुंदर बनाते हैं हमारा संसार/वे लौटेंगे/तोड़ते जड़ सन्नाटे को’।
सुधीर सक्सेना (भोपाल) हमारे समय के महत्वपूण कवि हैं। उनकी तीन कविताओं का पाठ हुआ। ये कविताएं शस्त्र से लेकर शास्त्र तक सुसज्जित सत्ता संस्कृति के चरित्र व ताने-बाने को उजागर करती हैं ‘वध उनके लिए शोक की नहीं/उत्सव की वेला है/वे कभी अस्त्र से मारते हैं, तो कभी शस्त्र से/और तो और, शास्त्र से भी वे बखूबी मारते हैं/लोगों के/वधों का अंतहीन क्रम हैं उनके महाकाव्य’।
अनुपम सिंह (दिल्ली) की कविता ‘सुनो’ का भी पाठ हुआ जिसमें पवे बताती है कि जीवन के सभी रंगों में प्रेम का रंग सबसे चटक और गाढ़ा है। वे कहती हैं ‘मुझे मेरे भीतर एक आदिम स्त्री की गंध आती है/और मैं तुम्हें एक आदिम पुरुष की तरह पाना चाहती हूं/फिर अगली के अगली बार हम पठारों की तरफ चलेंगे…..! सुनो,तुम इस बार लौटो/तो हम अपने प्रेम के तरीके बदल देंगे।’
अन्तिम कवि थे जाने माने कवि आौर आलोचक जीवन सिंह (अलवर, राजस्थान)। इधर के दिनों में उन्होंने काफी दोहे लिखे। उनके करीब तीस दोहों का पाठ हुआ। इसमें समय का लम्बा विस्तार है। उनका कहना है कि साहित्य का काम जीवन के अंधेरे को छांटना और उसे प्रकाश से भर देना है। अपने दोहे में कहते हैं ‘दोहा की सीमा नहीं, धरती से आकाश/खोजै भावप्रकाश यदि, तम का करै विनाश।’