भ गवान स्वरुप कटियार
वरिष्ठ पत्रकार एवं जनसंदेश टाइम्स के प्रधान सम्पादक सुभाष राय का कविता संग्रह भले ही देर से आया हो पर अपने समय को सम्बोधित महत्वपूर्ण कविता संग्रह है. वे लम्बे समय से लिख रहे हैं. वे एक मंजे हुए सशक्त और परिपक्व कवि हैं. उनके कविता संग्रह का शीर्षक सलीब पर सच सटीक और अपने समय को निरुपित करता है. कौन कह सकता है कि आज सच सलीब पर नहीं है. उनकी पैनी नजर अपने समय को देखती-परखती है और हर कड़वी सच्चाई को बेख़ौफ़ और बेबाकी से बयां करती है.
“हे राम ! सुनो तुम” कविता में वे राम को संबोधित करते हुए कहते हैं –इतिहास के मलबे पर / पत्थर की तरह पड़े हो /… तुम बोल नहीं सकते /सुन नहीं सकते /खुश नहीं हो सकते / रो नहीं सकते / अब तो तुम न्याय भी नहीं कर सकते / ….वे जान गये हैं कि / तुम्हें घिस –घिस कर / मनचाही शक्ल दी जा सकती है.
हवा में डर कविता की ये पंक्तियां मौजूदा समय का आइना है, घरों की खिड़कियाँ बंद रहती हैं आजकल / आसानी से नहीं खुलते दरवाजे / पार्कों में सन्नाटा है, बच्चे नहीं आते खेलने / पेड़ों की जड़ों के पास चौपाल भी नहीं जमती. मौजूदा समय के सच की इससे सटीक एवं बेबाक व्याख्या और क्या हो सकती है. उनकी कलम बन्द बयान कविता चुने हुए तानाशाह की मंशा को रेखांकित करती है, मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है / फूलों का मनमाने रंग में खिलना / मैं चाहता हूँ कि सारे फूलों में एक रंग हो / एक आभा, एक मूल, एक बीज. इसी कविता में वे लिखते हैं, मैं कहता हूँ कमल, वे सुनते हैं कीचड़ / मैं कहता हूँ सवा सौ करोड़ / वे सुनते हैं हिन्दू / मैं कहता हूँ काम-काम / वे सुनते हैं राम –राम / मैं कहता हूँ संविधान / वे सुनते हैं गीता- गान.
जरा दिमाग पर जोर डाल कर सोचिए कि क्या कविता की कोई सामाजिक भूमिका भी होती है. हाँ, बिल्कुल हर सर्जना की कोई न कोई सामाजिक भूमिका होती है. वह पैदा ही सामाजिक जरूरत के तहत होती हैं. दिमागों में उथल –पुथल करती सुभाष राय की कविताएँ अपनी सामाजिक भूमिका को भी रेखांकित करती हैं .
सुभाष राय पेशे से पत्रकार हैं पर उनकी कविताओं में उनके पेशे का साया नहीं दिखता जबकि अमूमन ऐसा होता नहीं है. पाकिस्तान के एक स्कूल पर आतंकी हमले में मारे गये बच्चों पर लिखी गयी उनकी कविता बच्चे आयेंगे उनके कवि व्यक्तित्व की विराटता का दर्शन कराती है, बच्चों को खेलने दो, पढ़ने दो / उन्हें मत मारो / मार नहीं पाओगे सारे बच्चों को / क्या करोगे जब तुम्हारी बन्दूकें देने लगेंगी / बच्चे आ रहे होंगे और तुम्हारे पास गोलियाँ नहीं होंगी / बच्चे फिर भी तुम्हें मारेंगे नहीं / तुम्हें मरने देंगे खुद ब खुद.
कविता की ये पक्तियां जितनी मार्मिकता से भरी हैं, उतने ही आक्रोश और फौलादी आत्मबल से भी. सृजन में अस्वीकार की भी अपनी भूमिका होती है और हमें उन सारी परिस्थितियों को दृढ़ता से अस्वीकार करना आना चाहिए जो समाज को किसी भी स्तर पर नुक़सान पहुँचा सकती हैं, इन पंक्तियों में यह सन्देश भी है. वैयक्तिकता को सामाजिक और सार्वभौम में रूपांतरित करने की कला उन्हें आती है.
और सबसे बड़ी बात है उन्हें दोहरापन कतई पसन्द नहीं है. अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ को वे दोगलापन कहते हैं. मेरा परिचय कविता में वे लिखते हैं, मेरा परिचय / उन अनगिनत लोगों का परिचय है / जो उबल रहे हैं लगातार / जो सोये नहीं हैं जन्म के बाद. कुछ नया में वे एकरस और बजबजाती ज़िंदगी की ऊब किस तरह व्यक्त करते हैं, काबिले गौर है, मैं मरना नहीं चाहता कुर्सी में धंसे –धंसे / सोचता हूँ उखाड़ लूँ इसके हत्थे / उसे जला कर थोड़ी आग पैदा करूँ. गांव की उन्हें कितनी फ़िक्र है, यह उनकी गाँव की तलाश कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है, मेरा गाँव कहीं खो गया है समय के कुहासे में / पोखरे, तालाब के ऊपर खड़ी हो गयी हैं ऊंची इमारतें / पानी ठहरता नहीं उड़ जाता है भाप बन कर.
आज के इस खौफनाक दौर में भी उन्हें शब्दों पर कितना भरोसा है, इसे वे अपनी शिनाख्त कविता में बयां करते हैं, हमने मनुष्यता के शब्द फेंके तुम्हारी ओर / पर तुमने उन पर दागी मिसाइलें / तुम्हें नहीं मालूम शब्द जितनी बार घायल हुए / उतने ही मजबूत होते चले गये.
सुभाष राय का जीने का अन्दाज बिलकुल फकीराना है और इसलिए वे कबीर के बेहद नजदीक हैं. एक तरह से कहें तो कबीर को उन्होंने आत्मसात कर लिया है. जब हम कार्ल मार्क्स की बात करते हैं तो वे कहते हैं इतना दूर क्यों जाते हो, क्या अपने देश के कार्ल मार्क्स से कम है कबीर. मैं कहता हूँ कार्ल मार्क्स कबीर का विस्तार हैं सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक विस्तार. आज मार्क्स के दास कैपिटल और कबीर के बीजक को एक साथ पढने की जरुरत है, उनकी कबीर कहाँ है कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें, यज्ञ की धूम पर सवार महारथियों ने / घोषणा की मनुष्य नही शूद्र हो तुम / बुद्ध देख रहा था सारा पाखंड / बाहें फैलाए मुस्कराता हुआ / आ जाओ सभी मेरे साथ / आदमी केवल आदमी होता है / जन्म से नहीं कर्म से होती है ऊंचाई /…. उन्हें न ईश्वर की फ़िक्र थी / न जगत का मोह / वे मनुष्य को जगा रहे थे. आगे इसी कविता में वे फिर लिखते हैं, गुजर गये सैकड़ों बरस / आईने पर जम गयी है धूल / खलनायकों के हाथों में नाच रही है सत्ता / गरीब रोटी के लिए तरस रहा है मारा–मारा / क्यों नही आ रहा है / मंच पर कोई कबीर / आखिर कैसे बदलेगी / देश की शापग्रस्त तक़दीर.
जरा सोचिए सुभाष राय की कविताएँ क्या कोई वैचारिकी नहीं रचतीं ? क्या वे अपने समय से मुठभेड़ नहीं करतीं ? क्या उनकी कविताएँ जनपक्षधरता से लैस नहीं या उनकी कविताओं में प्रगतिशीलता के तत्व नहीं हैं ? इन सारे सवालों का जवाब यह है कि सुभाष राय की कविताएँ एक सशक्त वैचारिकी से लैस समय से मुठभेड़ करती आमजन के दुःख दर्द की कविताएँ हैं जो उन्हें मार्क्सवाद के करीब ले जाती हैं. सुभाष जी से जितना दोस्ती करने में मजा आता है उतना ही झगड़ा करने में. उनका लोकतांत्रिक और कबीराना व्यक्तित्व अपने दुश्मन को भी आत्मसात कर लेता है. उनके व्यक्तित्व की यही ख़ासियत उन्हें एक कवि के रूप में रचती है.