Friday, September 22, 2023
Homeसाहित्य-संस्कृतिकहानीनेसार नाज़ की कहानी 'मीरबाज़ खान'

नेसार नाज़ की कहानी ‘मीरबाज़ खान’

        
   

(नेसार नाज़ कथा साहित्य में बहुत परिचित नाम नहीं है | छत्तीसगढ़ के एक निहायत ही छोटे से कस्बे बैकुंठपुर (जो अब जिला मुख्यालय बन गया है) में अपनी खूबसूरत मुस्कान के साथ लंबे डग भरते इन्हें आसानी से देखा जा सकता है | आज उनकी उम्र लगभग 62 साल है, पढ़ाई के नाम पर कक्षा सातवीं पास हैं पर हैं हिन्दी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी के उस्ताद | नेसार नाज़ का कथाकार रूप कहीं बहुत अंधेरे में खो चुका था लेकिन भला हो कवि व आईएएस अधिकारी संजय अलंग का कि वे इतने लंबे अरसे बाद नेसार नाज़ को रोशनी में ले आए | उनके प्रयासों से ही नेसार साहब की 40 साल पहले लिखी गई कहानियाँ ‘हाँफता हुआ शोर’ नामक संग्रह की शक्ल में हमारे सामने हैं जिसे किताब घर ने प्रकाशित किया है | यूं तो इस संग्रह की हर कहानी में कुछ खास बात है, खासकर यदि इस तथ्य पर ध्यान दिया जाय कि यह एक 22 साल के नौजवान द्वारा लिखी गई थीं | आज हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए इसी संग्रह की एक कहानी ‘मीरबाज़ खान’ लेकर आए हैं | मीरबाज़ के पूर्वज पेशावर से आए थे । वह यहीं की मिट्टी में जन्मा और यहीं का होकर मरा | विभाजन के समय जब परिवार का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान जाने लगा तब भी माटी का मोह मीरबाज के पिता पर भारी पड़ा | इसी मिट्टी में वे लोग थे जिनका भरोसा पहाड़ की तरह हौसला देने वाला था | विभाजन बहुत भयानक था फिर भी मुहब्बत और दोस्ती ने बहुत कुछ बचा रखा था और उन्हीं बचे हुए खजाने में मीरबाज़ का परिवार भी था | कहानी यहाँ नहीं है वह इसके काफी आगे चलकर मीरबाज़ की पीढ़ी में घटित होती है |

चालीस साल पहले लिखी इस कहानी से गुजरते हुए 2018 के कुछ खौफ़नाक दृश्य हमारी आँखों के सामने एक फ़िल्म की तरह चलने लगते हैं | कहानी चालीस साल पहले फिज़ा में घुलते जहर और उससे समाज के रागात्मक संबंध में आने वाली दरार तथा मोहब्बत के नफ़रत में बदलने की प्रक्रिया को सामाजिक और मनोजगत दोनों स्तरों पर बहुत सूक्षमता से घटित होते हुए दिखाती है | कथा के ताने बाने का आधार एक गाय है | भारतीय समाज में गाय बहुतेरे गरीब परिवारों को पालती रही है | गर्मी में सूखे पपड़ियाये पहाड़ से भी वह अपना गुजारा कर लेती है | छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी झुंड की झुंड देशी गायें और बैल चरते हुए दिखाई पड़ जाते हैं जो कि इस पहाड़ी अंचल के किसानों का जीवन आधार हैं. गाय के बारे में कहानी के एक पात्र कन्हैया का कथन है “-पहले मैंने इसे पाला, अब यह मेरे पूरे परिवार को अकेले पाल रही है” इस वाक्य से गुजरते हुए मुझे मेवात के उस मुस्लिम किसान के परिवार की याद हो आई जिसे गो आतंकियों ने पीट –पीट कर मार डाला था | जब किसी पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता ने अकबर की बिटिया से यूं ही पूछ लिया कि – जब इतना खतरा है तो तुम लोग गाय क्यों पालते हो ? उसका जबाब था -“हम गाय को नहीं गाय हमें पालती है |”

72वां स्वतन्त्रता दिवस मना रहे हमारे देश की तमाम लोकतान्त्रिक संस्थाओं के समक्ष आज यह बहुत बड़ा सवाल है कि क्या सांप्रदायिक उन्मादी भीड़ संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के अधिकार का मखौल उड़ती रहेगी ? वह यह तय करेगी कि कौन गाय पलेगा कौन नहीं ? आखिर भीड़ द्वरा मारे गए उन तमाम लोगों के परिवारों को हम स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामना किस मुँह से देंगे ? फिलहाल आइए पढ़ते हैं नेसार नाज़ की कहानी – ‘मीरबाज खान’.-दीपक सिंह)

 

मीरबाज़ खान’

रात काफी हो गई थी, मगर मीरबाज़ की आंखों में नींद का नामो-निशान नहीं था. दूर कहीं कुत्तों के रोने और भौंकने की आवाज से काली रात की खामोशी सिहर रही थी. मीरबाज़ बेचैन सा कभी सोने की कोशिश में आंखे बंद करता तो कभी बेचैनी में बिस्तर से उठ बैठता. अजीब हालत हो गई थी उसकी. वह बेचैनी की हालत में उठ बैठा और घर के बाहर आ गया. घुप्प अंधेरा ऐसा की कोई अपने आपको भी नहीं पहचान सकता था. वह श्यामा के बाड़े की तरफ बढ़ गया. श्यामा उसे पहचान गई थी. श्यामा के मुंह से ‘मां’ जैसी आवाज निकली। मीरबाज़ गर्दन से लेकर पीठ तक उसे सहलाता रहा. एक किनारे उसका बछड़ा बंधा था. घुप्प अंधेरे में भी बछड़ा बेचैन हो गया था. मीरबाज़ उसे टटोलता उसके पास बैठ गया और उसे गले से लगा लिया.
मीरबाज़ को तसल्ली हुई. दोनों बहुत अच्छे हैं. वह चुपचाप आकर अपने बिस्तर पर बैठ गया. मीरबाज़ को आज ऐसी बेचैनी क्यों थी – जैसे उसके जिस्म से उसकी जान को कोई खींचने की कोशिश कर रहा हो.
आज सुबह से ही शहर में उथल-पुथल का माहौल था. शहर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस मुस्तैद थी. वह समझ नहीं पा रहा था कि माजरा क्या है ? ऐसा तो कभी नहीं हुआ था.
तभी लोगों का एक रेला जुलूस की शक्ल में उसके घर के सामने से निकला. जुलूस में शामिल लोग अजीब से नारे लगा रहे थे. उनके हाथों में हथियार भी थे. भीड़ के नारों ने उसके दिल को चोट पहुंचाई. कई लोग उसकी तरफ इशारे करके भी नारे लगाने लगे थे – वह घबरा सा गया था. उसे हैरत हुई. भीड़ की अगुवाई शंकर कर रहा था. शंकर बचपन से उसका अजीज़ था. मगर आज उसको देखा तो हमेशा वाली मुस्कराहट नहीं थी उसके लबों पर. शंकर तो उस के अकेलेपन का साथी हुआ करता था, मगर आज वह उसका अजीज़ दोस्त नहीं- नीचे से ऊपर तक हिन्दू लग रहा था.
भीड़ आगे बढ़ गई थी. नारों की आवाज अब भी उसके कानों में पड़ रही थी. सहमा सा मीरबाज़ पास ही में खड़े पुलिस वाले से पूछ बैठा, तब पता चला कि मुल्क के किसी हिस्से में मुसलमानों ने गौकशी की है – जिससे हिन्दू समाज के लोग ग़म और गुस्से में हैं और हिन्दू तंजीमों की अपील पर मुल्क में बंद का ऐलान किया गया है। परेशान मीरबाज़ ने अपनी मुठ्ठियां कस ली थी और उसे लगा वह बंधी मुठ्ठियों को अपने सिर में दे मारे.
आंखों-आंखों में रात कट गई. कौओं की आवाज एक नई सुबह का ऐलान कर रहे थे. ताजी हवा के लिए निकले इक्का-दुक्का लोगों के कदमों की आवाज वह सुन रहा था. तभी श्यामा की आवाज ने उसके बदन में हरकत दी. हां, आ रहा हूं – की आवाज लगाता मीरबाज़ श्यामा के बाड़े के पास आ गया. श्यामा उसकी आवाज को पहचानती थी. श्यामा का बछड़ा उसे देख कर उछल कूद करने लगा. मीरबाज़ जानता था वह अपनी मां के पास जाने के लिए बेचैन है।.
उसकी दिनचर्या शुरू हुई. वह बाड़े की सफाई में लग गया. इत्मिनान के बाद उसने बछड़े को आजाद कर दिया. बछड़ा श्यामा के थन में मुंह लगा चुका था. वह एक किनारे बैठ गया.
‘ऐ मीर ……! लक्ष्मी आई थी.
‘हां लच्छो आपा.’
‘ये ले …. आलू-भाटा की कलौंजी. तेरे को पसंद है न ? रोटी भी है, खा लेना. साले, जवानी गला दिया. मैं कितना कही कि अपने लाइक देख के निकाह कर ले, लेकिन नहीं …. जांगर टूट जाएगा तो तेरा सेवा जतन कौन करेगा- देखूंगी.
मीरबाज़ मुस्करा कर उसके हाथ से पोटली में बंधा बर्तन ले लिया. लक्ष्मी आती तो उसका मिजाज़ ऐसा ही रहता. अम्मा की तरह वह मीरबाज़ को डांटती-फटकारती रहती. लक्ष्मी ऐसी ही थी. ब्याह के मुहल्ले में आई तो मीरबाज़ को भाई बना लिया. अब उसके लिए वह लच्छो आपा हो गई थी. राखी के त्योहार में तो वह सुबह से नहा धोकर तैयार रहता. लच्छो सबसे पहले आती थाल में राखी, मिठाईयां एक रूमाल लेकर. वह पालथी मारकर बैठ जाता. लच्छो उसके सिर को रूमाल से ढंकती, हल्दी चावल का टीका लगाती. उसके हाथ में राखी बांध कर अपने हाथ से मिठाई खिलाती और मीरबाज़ उसके पैर छूता. लच्छो उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेर कर ढेर सारी दुआएँ देती. यह दस्तूर आज तक चल रहा और दोनों के रिश्तों को मजबूती दे रहा था.
‘अरे ऐ मीर ! लच्छो लौट आई थी.
‘हां आपा ?’
‘ये कल काहे का जुलूस निकला रहा ?’
मीरबाज़ सकपका गया ! और अपने को सम्हालता हुआ बोला – ‘कुछ नहीं आपा. उनकी कोई मांग थी इसीलिए हड़ताल किए रहे.’
‘अइसे मांग करते हैं भला…. हाथ में लाठी-डंडा-तलवार! मांगने वाला तो हाथ फैलाता है. तेरे जीजा बता रहे थे मामला दूसरा है, आदमी को बांटने वाला ………..’
‘नहीं आपा, ऐसा नहीं है.’
‘तैं मत जाना जुलूस में …… लड़ाई-झगड़ा वाला बात है.’ लच्छो जाने और क्या-क्या बकती अपने घर की तरफ चली गई.
फित्री तौर पर मीरबाज़ की जिन्दगी अपनी जिन्दगी थी. उसकी जिन्दगी में किसी का दखल नहीं था. वह एक टूटा हुआ इंसान था-अकेला. जिन्दगी ने उसे बहुत कुछ दिया था, मगर उसे अफसोस इस बात का रहा कि उसी जिन्दगी ने उससे कहीं ज्यादा ले लिया था. उसने जिन्दगी में इतने उतार चढ़ाव देखे कि उसका ज़मीर मर गया. उसके पास चन्द सांसे और उम्र से झुलसा एक बदन था बस. जमाने के कई रंग उसने देखे थे.
उसे सब कुछ याद है- उसके पूर्वज पेशावर के रहने वाले थे. जिसे आज भी वह अपना मुल्क मानता है. कई परिवारों के साथ उसके बाप दादा भी जीने के लिहाज से इस खित्ते में आकर बस गए थे. सब कुछ ठीक था. मुल्क की आज़ादी की लड़ाई जारी थी. मुल्क आजाद भी हो गया. आज़ादी के तराने गाए जाने लगे, मगर इस आजादी ने ऐसा जख्म दिया जो उसे आज तक सालता है. उसे ही क्यों, हजारों परिवार को इस आजादी ने तोड़ दिया. लाखों दिल टूट गए या तोड़ दिए गए. एक आज़ाद मुल्क़ के सीने में एक लकीर खींचने की कोशिश या साजिश कामयाब हो गई.
मीरबाज़ को याद है – काली रात थी और सन्नाटे में घिरे घर. दबी-दबी आवाजें, कब्रगाह सी खामोशी डर पैदा कर रही थी. उसके बड़े अब्बू दबे पैर घर में दाखिल हो गए थे – वह उसके अब्बू से दबी जुबान ऐसे कह रहे थे मानो वह बहुत बड़ा गुनाह कर रहे हों – ‘शाहबाज, बुरा हुआ — मुल्क आजाद नहीं हुआ – दो कौमों का बंटवारा हो गया — पाकिस्तान बन गया, हमारे हिस्से का मुल्क — हमारा मुल्क — हर तरफ दंगा, फसाद, खूंरेजी. अभी आंच यहां नहीं पहुंची है, तैयारी कर लो वक़्त रहते निकल चलते हैं. हमें वहीं इज्जत मिलेगी.
मीर के अब्बू का चेहरा पसीने से तरबतर हो गया था. लालटेन की टिम-टिमाती रोशनी में उनकी आंखे अंगार हो रही थी. लग रहा था उनका सिर फट जाएगा. वह चीखते से बोले –‘भईया — हम तो भारत में थे — हम पाकिस्तान को नहीं जानते-क्या लेकर पाकिस्तान जाएंगे ? यहां का अमन, यहां की आबोहवा, यहां के रिश्ते-प्यार, भाईचारा-इतना बोझ लेकर हम कहां जा सकते हैं. कौन मारेगा हमें-कौन लूटेगा-हमारी मुहब्बत का मुहताज हो जाएगा हमारा भारत. चाहे जो हो जाए हम यहां से नहीं जाएंगे. हम यहां से जाएंगे तो वह गांधी हार जाएगा जिसने हमें आजादी दिलाने के लिए अपना बहुत कुछ खोया. मीर के अब्बा चीख पड़े थे. उन्होंने उसे और उसकी छोटी बहन ज़ीनत को जोर से अपनी बाहों में समेट लिया था.
रिश्तों के बंटवारे के बाद भी उसके अब्बा जिन्दा रहे. सभी तो उन्हें छोड़ कर चले गए थे. शायद उन्हें इसी बात का गम था और वह अकेले में रो लिया करते थे.
वक्त गुजरता जा रहा था. ज़ीनत की शादी हो गई थी. उनकी दिली तमन्ना थी कि मीरबाज़ की भी शादी हो जाए तो उनका फर्ज पूरा हो और वह चैन से मर सकें. ऐसा हुआ भी-मीरबाज़ की शादी हुई. इस जिम्मेदारी को निभाने के चन्द दिनों के बाद वह अल्लाह को प्यारे हो गए. बीवी नेक थी. उसे बहुत बड़ा सहारा मिल गया था. कुछ ही महीने अच्छे से गुजरे थे, लेकिन मीरबाज़ की जिन्दगी का अफ़साना किसी और किरदार को अपने भीतर बरदाश्त नहीं कर पा रहा था. मौत, सीने में दर्द का बहाना लेकर आई और अपने हमराह ले गई उसकी बीवी को. अकेला मीरबाज फूट-फूट कर रोया, और उसने कसम खा ली कि वह अकेला ही रहेगा. लेकिन शायद अल्लाह को यह मंजूर नहीं था.
कन्हैया उसका खैरख़्वाह था. उसे अपने घर ले गया था. उसने गाय पाल रखी थी. वह मीरबाज़ को बता रहा था -‘मीर तुम पूछ रहे थे न, मैं दिखता नहीं हूं ? यही है मेरी गाय. बड़े प्यार से पाला है इसको, पूरा वक्त देता हूं इसको. मेरे सिवा इसके सामने कोई फटक नहीं सकता. तुम्हें यकीन आएगा. पहले इसे मैंने पाला, अब यह मेरे पूरे परिवार को अकेले पाल रही है.
मीरबाज़ एकटक उसकी गाय को देख रहा था – मक्खन जैसा चमक रही थी. गले में घुंघरूओं और बड़े मोतियों की माला. उसकी बछिया उछल कूद करके ममता पाने उसके पास जाती तो जैसे वह न में अपनी गर्दन हिलाती जिससे उसके गले मे बंधे घुंघरू छमछमा जाते.
वो दिन था. उसने कन्हैया का हाथ पकड़ लिया –‘कन्हैया, यह बछिया मुझको दे दे.’ उसकी आवाज में याचना थी. वह गाय की बछिया को बड़ी हसरत से देख रहा था.
‘कभी जानवर पाला है ? सेवा कर पाएगा ? प्यार दे पाएगा ?’
‘नहीं – कभी नहीं पाला, लेकिन इसकी खिदमत करके बताऊंगा. इतना प्यार दूंगा कि यह मुझसे बातें करेगी.’
उस दिन कन्हैया उसके चेहरे को पढ़ रहा था. अचानक उसने मीरबाज़ के कंधे पर हाथ मारा था -‘चल, आज ही मैं इस बछिया को दे रहा हूं , बस अपने वादे से मत मुकरना. इससे बातें करना-देखना तेरे सारे दुख दर्द हर लेगी. अभी अबोध है, अपनी मां को भूलेगी नहीं कभी-कभी ले आना. तेरा प्यार मिलेगा तो मां को भूल जाएगी. गाय को जहां बांध दो, वह वहीं की हो जाती है.’
एक वह दिन था और अब आज का दिन है. उसने छोटी सी बछिया का नाम श्यामा रख दिया था. दिन रात श्यामा. श्यामा सचमुच उससे बातें करने लगी थी. शहर के लोग श्यामा को देखते रह जाते थे. श्यामा जब मां बनने वाली थी, वह पागल सा हो गया. उसके समझ में कुछ नहीं आ रहा था. कुछ नहीं सूझा तो वह भागा गया था लच्छो के पास, वह हकला गया था. लच्छो आपा-आपा श्यामा बच्चा देने वाली है. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. चल ना … देख लेना.’
लच्छो मुस्कुरा पड़ी थी– ‘चल –’ कुछ नहीं होगा, मैं हूं न.’
उस दिन के बाद से तो मीरबाज़ श्यामा के बछड़े को गोद में लिए दुलारता, उससे बातें करता, उसकी मासूम आंखों को सहलाता. मीरबाज़ जैसे कन्हैया से किए वादे को पूरा कर रहा था. यह सच था कि श्यामा और उसके बछड़े ने उसका सारा दुख हर लिया था. सभी देखते थे – श्यामा और उसके बछड़े से उसके अनुराग को. इंसान और जानवर के रिश्तों के बीच पनपती मुहब्बत की दिल आवेज़ दलील बन गया था मीरबाज़.
काफी दिनों के बाद मीरबाज शहर की गलियों में निकला था. वह सोच रहा था- काफी दिन हो गए, वह लोगों से मिलेगा और उनके हाल-चाल जानेगा. उसे हैरत हो रही थी. लोग आ रहे थे-जा रहे थे इसके बावजूद खामोशी पसरी थी. गली कूचे खामोश थे. यह शहर कभी मरता नहीं था, न जाने अब इसे क्या हो गया है. सभी लोग डरे-डरे से. हिन्दू बस्ती की गलियों में मुसलमान जाने से परहेज कर रहे थे, यही हालत मुस्लिम आबादी की गलियों का था. हालात एक दूसरों के मुख़ालिफ था. शहर की फज़ा को जाने क्या हो गया. इस शहर में तो ऐसा कभी नहीं हुआ था कि, लोगों को या कौम को अपनी पहचान बताने की जरूरत पड़ती. वह पागलों सा हो गया था. कौमों के दरमियान यह खाई कौन खोद रहा था ? उसका दिमाग सुन्न हो रहा था – लगता था कि, सारे बदन को फालिज़ मार गया है . उसकी आंखे यह देखकर परेशान थीं कि, बस्ती के घरों में ऊंचाई तक कहीं भगवा तो कहीं सब्ज़ झंडे शहर की हवा को बरगला रहे थे. इंसान झंडों के रंग से पहचाना जाने लगा था. यह अनासिर कौन थे, जिन्होंने लोगों के दिलों में आपसी मुहब्बत, अख़लाक और भाईचारे को लहूलुहान कर दिया था ? मंदिर और मस्जिदों में भी फितना पसन्दी के झंडे मुल्क और इंसानियत के झंडे को सिर झुकाने पर मजबूर कर रहे थे.
मुल्क का बंटवारा हुआ तब उसके नतीजे को उसने देखा और महसूसा था. अब फिर एक बंटवारा शहर का, मुहल्ले का, लोगों के दिलों का, इंसानियत और भाई-चारे का. मीरबाज़ को लगा उसकी सांसे रूक रही है. लोगों से उसके मिलने का अरमान जख्मी हो गया था. वह अपने घर की तरफ लौटने लगा.

‘मीरबाज !’
वह चौंका-पलट कर देखा, उसके बचपन का दोस्त शंकर था. उसे तसल्ली हुई. बेजुबान हो गए शहर में किसी ने तो पुकारा. बड़ी हसरत से वह शंकर से पूछा -‘कैसे हो शंकर ?’
‘हम तो ठीक हैं. तुम बताओ ? तुम्हारी श्यामा कैसी है ? वह पान की पीक थूकते हुए बोला -‘हमने सुना है तुम श्यामा को बेचने वाले हो ?’
‘नहीं तो ….’ मीरबाज़ सकपका गया. आगे के शब्द उसके गले की फांस बन गए. लगा वह किसी बवंडर में फंस गया था.
‘हां, तो सुनो, हमारा हिन्दू लॉ पास हो गया है. अब कोई भी मुसलमान गाय नहीं पाल सकता.’ शंकर ने जैसे तंज कसा.
शंकर ठट्ठा मार कर हंस पड़ा. साथ खड़े उसके दोस्तों की हंसी में भी उसका मज़ाक था. मीरबाज़ का पूरा खून सूख गया. उसे शंकर से कतई ऐसे बर्ताव की उम्मींद नहीं थी. उसे लग रहा था कि वह लड़खड़ा कर गिर जाएगा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था.
उलझती और हांफती सांसों के साथ वह वहां से हट गया. शंकर और उसके साथियों की हंसी अब भी उसका पीछा कर रही थी. वह किसी तरह अपने घर आया.
श्यामा जान गई थी कि, मीरबाज़ आ गया है. श्यामा का बछड़ा भी उसे देख कर मचलने लगा था. मीरबाज़ खड़ा श्यामा को निहारने लगा – उसकी आंखे जारो कतार रोने लगीं. अश्कों के कतरे हथेलियों से पोंछता मीरबाज बछड़े की गेरई खोल कर वहीं बैठ गया. बछड़ा उससे लिपट-लिपट जा रहा था. वह कभी उसके चेहरे को चाटता तो कभी उसकी गोद में पसर जाता. मीरबाज़ तो जैसे बेआवाज़ हो गया था. उसे उसके अब्बा की कही बातें याद आने लगीं -‘जानवरों को पालो तो बड़ी मुहब्बत से. ये हर आफत और बला से इंसान की हिफाज़त करते हैं और सारी आफत बला अपने ऊपर ले लेते हैं.
रात हुई. मीरबाज रह-रह कर बेचैन हो जाता था. बेचैनी की हालत में वह बार-बार श्यामा के पास आ जाता. लगता था अंधेरे उसे डरा रहे हैं. खामोशी चीख़ भी सकती है, उसे अहसास होने लगा था, उसे न जाने क्या हुआ- उसने श्यामा के गले की रस्सी खोल दी और उसे घर के अंदर ले गया. मीरबाज़ श्यामा और उसके बछड़े को सहलाता पुचकारता रहा. उन्हें ताकते-ताकते मीरबाज़ की आंखे कब लग गईं उसे नहीं पता.
मीरबाज का चेहरा सूख गया था. आंखे चेहरे में धंस गई थी. सफेद हो गई दाढ़ी मधुमक्खी के छत्ते की तरह उसके चेहरे को ढंक चुकी थी – लगता था वह बरसों का मरीज़ है. उसे ऐसी बीमारी लग गई थी जिसका इलाज कहीं नहीं था. वह हमेशा डरा-डरा रहता. लगता था कोई उसकी दुनिया की सबसे प्यारी चीज छीनने की कोशिश कर रहा है।. वह अचानक बड़बड़ाने लगता – ‘छीनोगे-छीनोगे.’ वह मुठ्ठियों को भींच लेता. उसका चीखने का मन होता मगर वह चीख नहीं पाता था. हां, उसकी चीख आंखों के पट खोल कर बहने लगती थी.
मीरबाज़ अब टूट कर एकदम बिखर सा गया था. लगता था उसके बदन का एक-एक कतरा लहू किसी ने निचोड़ लिया था. श्यामा और उसका बछड़ा आजाद थे. मीरबाज़ का दरवाजा हमेशा खुला रहता था ताकि उस की बेचैन रूह को निकलने में तकलीफ न हो. श्यामा और उसके बछड़े ने सुबह उसे जगाना छोड़ दिया था. श्यामा न रंभाती थी न उसका बछड़ा मीरबाज़ की गोद में मस्ती करता था. खाट में पड़ा मीरबाज बस उन्हें देखता था- श्यामा खाट के बगल में बैठी रहती और उसका बछड़ा कभी मीरबाज़ को तो कभी अपनी मां को देखता रहता।
मीरबाज़ चारपाई में पड़ा छत को निहार रहा था. श्यामा उसकी चारपाई से अपना मुंह सटाए बैठी थी. तभी दरवाजे पर आहट हुई. उसे लगा कुछ लोग आ रहे हैं. वह अपने बदन की बची-खुची ताकत के साथ उठना चाहा, मगर ऐसा नहीं हुआ.
शंकर आया था. अपने चार छः साथियों के साथ. सभी लोग मीरबाज़ के आस पास नजरें दौड़ाते रहे. शंकर ने मीरबाज़ के सिर पर हाथ रखा. हमदर्दी जताई –‘बहुत कमजोर हो गया है. देखो, यह मेरे दोस्त गौ रक्षा वाहिनी के मेम्बर हैं. तुम बीमार हो, इनकी सेवा कर नहीं सकते. कितनी दुबली हो गई है श्यामा. भूखी मर जाएगी तो गऊ हत्या का पाप लग जाएगा तुम्हारे ऊपर.’ कहते हुए पास खड़ी श्यामा के पुट्ठ पर शंकर ने हाथ रखने की कोशिश की तो श्यामा बिदक गई और उसने पिछले पैरों को झटका दिया. जैसे शंकर को लात मार देगी.
आगे शंकर कहता रहा -‘हम श्यामा को लेने आए हैं. गौ सेवा संस्थान में यह हिफाजत से रहेगी. यह कुछ पैसे हैं – रख लो और अपना इलाज करवाओ.
मीरबाज चारपाई पर लाश की तरह पड़ा रहा. उसकी आंखों से बहता पानी उसके पिचके गालों में ढलकने लगा. उसके बदन में खून था नहीं – खौलता भी कैसे. रूपए उसके बिस्तर पर बिखरे थे.
शंकर की कही बातें उसे बस याद आ रही थीं-‘श्यामा को बेच रहे हो – अब कोई भी मुसलमान गाय नहीं पाल सकता.’ उधर शंकर और उसके साथी श्यामा पर टूट पड़े थे. उन लोगों ने श्यामा को अपने कब्जे में ले लिया था. वह चिल्ला रही थी. उसका बछड़ा कभी मां के पास तो कभी मीरबाज़ के पास दौड़ लगा रहा था. वह लोग श्यामा को शांत करने के लिए मार भी रहे थे.
शंकर और उसके साथी श्याम को लेकर जा रहे थे. श्यामा का बछड़ा अब भी कभी मां की तरफ भागता कभी मीरबाज़ की तरफ. तभी मुहल्ले में हलचल देख कर लच्छो दौड़ी आई और चिल्लाने लगी –‘ऐ! कहां ले जा रहे श्यामा को -छोड़ो उसको -छोड़ो. मार काहे रहे उसको ?
‘दीदी, अरे हम लोग गौ रक्षा वाहिनी वाले हैं. मीरबाज बीमार है, ये जानवर भूखे मर जायेंगे. हम तो सेवा करेंगे इनकी. देखो, बिना खाए पिए दुबली हो गई है. मीरबाज ठीक हो जाएगा तो वापस ले आएगा. ठीक है न ?
लच्छो का मन इस बात को मानने तैयार नहीं था. वह दौड़ती-हांफती मीरबाज़ के घर के तरफ भागी–‘मीरबाज-ऐ मीर – करम जला – मेरे को नहीं बताया कि श्यामा भूखे मर रही है… ऐ मीरबाज बोलता काहे नईं है … तेरा मुंह नई हैं बोलने का … बेच दिया का श्यामा को स्साला !’
वह अंदर गई. मीरबाज की आंखे खुली थी. चेहरे पर हमेशा के लिए खामोशी थी. लच्छो ने उसे झिंझोड़ा. मीरबाज पुरानी बंद घड़ी की तरह चारपाई पर पड़ा रहा. लच्छो उसके चेहरे पर हाथ फेरते चीख-चीख कर रो रही थी.

RELATED ARTICLES

1 COMMENT

Comments are closed.

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments