विनय सौरभ
सुभाष यादव की कविताएँ आपको चौंकाएँगी नहीं। न ही किसी विस्मय से भरेंगी ! ये कविताएँ वैसी ही हैं जैसे किसी निर्जन पठार पर आपने खिले हुए फूलों का गुच्छा देख लिया हो। इन कविताओं में अनगढ़पन का एक सौंदर्य भी है और पहली बारिश के बाद जमीन से उठ रही वह परिचित गंध भी, जो हमें जीवन के सुख से भर देती है।
प्रेम, अकेलेपन, दुनियादारी के झमेले में जीवन के पर्व- त्योहारों और उत्सवों के पीछे छूट जाने या उसके अर्थहीन जाने की पीड़ा, स्कूल का जीवन, दांपत्य प्रेम, ग्रामीण जीवन में घटती रागात्मकता और उसकी पहचान का ह्रास, परिवार, बिटिया, माँ-पिता इस संग्रह की कविताओं में सभी आए हैं। कहना न होगा कि इन कविताओं को पढ़ते हुए हम कुछ न सही, थोड़े और संवेदनशील और बेचैन हो उठते हैं। हमारे निम्न मध्यवर्गीय समाज की विविध निश्छल छवियाँ इस कवि के यहाँ देखी जा सकती हैं।
सौंधी मिट्टी, नर्म हवाएँ, नदियों की किलकारी,
ललकी गैया की छोटी-सी बछिया प्यारी-प्यारी,
याद आ रहा मुझे आज वो बरगद वाली छाँव रे।
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
जीवन में प्रेम और उसकी अनभूतियों के स्वर कितनी सरलता से मिलते हैं और बिना किसी अलंकारिकता के साथ-
तुम्हारा प्रेम मौन था
एक स्पंदन उसमें भी
जो छूता था मुझे
अंतः स्थल की गहराइयों तक
संग्रह की कविताओं में छंद बहुत जगहों पर उसी स्वाभाविकता से व्यक्त हुआ है, जैसा उसे होना चाहिए। कविता की संरचना में एक तो वह स्थिति है कि वह छंद में रची जा रही होती है और दूसरे कि छंद उसके भीतर बहता हुआ दिखाई पड़ता है। इस संग्रह की बहुत सारी कविताओं में वह नैसर्गिक रूप से आबद्ध है।
सुभाष की कुछ कविताओं में आए दृश्य और बिम्ब इतने पास के और परिचित लगते हैं कि पाठक सहज जुड़ाव महसूस करता चलता है।
पिता और माँ पर अधिकांश कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। यहाँ माँ और पिता वाली कविताएँ एक मरोड़ की तरह, एक हूक ही तरह सीने में उठती लगती हैं और याद का हिस्सा बन जाती हैं।
गाँव के मूल्य, संस्कृति, कुदाल, बारिश, चुक्का, हुक्का, कोठी खटिया, मलवा जैसे देशज उपादानों के खो जाने या कट जाने की पीड़ा जब कवि कहता है तो यह कविता उसके परिवेश की न होकर पूरे भारतीय गाँव की कथा बन जाती है।
वे ‘बहामय’ और ‘सोनाली’ जैसी आदिवासी प्रतिभाशाली छात्राओं की पहचान करते हैं और उसके विवरण में जाकर वे भारतीय गाँव की दयनीय हो गई शिक्षा व्यवस्था और एक लड़की के स्वप्न और संघर्ष की मार्मिक तस्वीर को दिखा पाने में सफल होते हैं।
आज की संवेदनहीन व्यवस्था और वर्तमान राजनीति पुख्ता समझ से कवि की दृष्टि बनी है। इस संग्रह में इसका संकेत देती हुई कई महत्वपूर्ण कविताएँ हैं। इन कविताओं में राजनीति और समाज का वह विद्रूप चेहरा है जिसमें काम करते बच्चे हैं, हाथरस की घटना है और आम आदमी की लाचारी शामिल है।
सुभाष युवा कविता को समृद्ध करने की दिशा में आशान्वित करते हैं। उनकी कविताओं में निम्न मध्यवर्गीय जीवन, स्वप्न और उसके अंतर्विरोध सब धड़कते हुए आते हैं।
‘मैं अखबार हूँ’ जैसी कविता लिखते हुए मुझे असीम संभावनाओं से भरे लगते हैं। यह कविता सफदर हाशमी की कविता ‘किताबें कुछ कहती हैं’ की अनायास ही याद दिलाती है।
सुभाष यादव की कविताएँ
1. पढ़ाई मत छोड़ना सोनाली!
पढ़ाई मत छोड़ना सोनाली!
मैं जानता हूँ
ऐसा करना कठिन है तुम्हारे लिए
पर नामुमकिन नहीं
मैं जानता हूँ
एक दिन स्कूल आने के लिए
तुम्हें चलानी पड़ती है
बाईस किलोमीटर साइकिल
मैं जानता हूँ
स्कूल में दिनभर
तुम्हें रहना पड़ता है भूखे
सच कहूँ तो मुझे भी आश्चर्य हुआ था
पहली बार यह सब जानकर
पर तुम्हें मालूम है
कलम पकड़े हुए तुम्हारे हाथ
कितने सुंदर लगते हैं?
कंप्यूटर के की-बोर्ड पर
नर्तन करती तुम्हारी ऊँगलियाँ
कितनी सुंदर लगती हैं?
तुम्हें मालूम है
तुम जब मारती हो साइकिल की पैडल पर लात
तो साइकिल का सारा गुमान उतर जाता है
साइकिल की कान पकड़कर
जिस तरह तुम उसे
सही रास्ते पर ले जाती हो
ठीक उसी तरह
जब पढ़ लोगी न तुम
तो न जाने कितनों का गुमान उतार दोगी
और कितनों को ला दोगी
सही रास्ते पर
इसलिए पढ़ाई मत छोड़ना
ईट भट्टों में खप जाने के लिए
नहीं बनी हो तुम
जंगल के लिए प्रतिशोध करते हुए
पूरी जिंदगी गुजार देने के लिए भी
नहीं बनी हो तुम
तुम्हें धान रोपना है, रोपो
तुम्हें धान काटना है, काटो
खेतों में काम करते माँ-दादा के लिए
कलेवा लेकर जाना है,जाओ
पर पढ़ाई छोड़ने की बात मत करना
तुम रजिया सुल्तान नहीं हो
कि विरासत में गद्दी मिल जाएगी
तुम लक्ष्मीबाई भी नहीं हो
कि हाथों में तलवार पकड़कर अमर हो जाओगी
तुम्हारे पास बस एक ही रास्ता है
पढ़ो, खूब पढ़ो, मन लगाकर पढ़ो
इतना पढ़ो कि संविधान पढ़ सको
भूत,भविष्य और वर्तमान पढ सको
संसद पढ़ सको,हर विधान पढ़ सको
तुम किसी से कम हो क्या?
संथाली टोला की कोई भी लड़की
किसी से कम है क्या?
2. बाहामय
बाहामय खुश है
तैंतीस प्रतिशत अंकों के साथ
जो मिले हैं उसे
2020 की माध्यमिक परीक्षा में,
वह अपने परिवार की पहली
मैट्रिक पास लड़की है।
वह रोज साइकिल चलाकर
जाती है अपने स्कूल,
उसके स्कूल में नहीं हैं
गणित और अंग्रेजी के शिक्षक,
नहीं है पंखा-बिजली,
नहीं है शुद्ध पानी की व्यवस्था।
वह भींग जाती है अकसर
गर्मी में
पसीने से
क्लासरूम के अंदर
और बरसात में
घर लौटते वक्त।
टीवी,रेडियो,मोबाइल
कुछ नहीं है उसके घर में,
धान,गेहूँ,खेत,कोठी,ढेकी
देखकर बड़ी हुई है वह।
बाहामय नाच सकती है,
गा सकती है,
कई संताली गीतों के
एक-एक बोल उसे याद हैं।
बाहामय बनाती है
सुंदर गोल रोटियाँ,
पर नहीं बनती उसकी
सुंदर,गोल हैंडराइटिंग,
चला सकती है साइकिल
कई किलोमीटर तक,
पेड़ों पर चढकर
तोड़ सकती है आम,जामुन,
रोपनी-कटनी,
झाड़ना-बुहारना
सब आता है उसे
पर उसको मिले हैं केवल
तैंतीस प्रतिशत अंक,
फिर भी वह खुश है
क्योंकि वह जानती है
कि इन सब बातों के
नहीं मिलते कोई अंक,
उसे कोई गम नहीं है
कि अखबारों में
नहीं छपी है उसकी तस्वीर
उसे विश्वास है कि इंदिरा आवास
या किसी कल्याण योजना के तहत
नेताजी से चेक लेते हुए
एक दिन अखबारों में
उसका बड़ा-सा फोटो छपेगा।
3. दीदी
‘रक्षा’ और ‘बंधन’
‘रोड़ी‘ और ‘चंदन‘
मिठाई-थाली-दीपक
हाथों का स्पर्श
नयनों का स्नेह
और
तुम्हारे आशीर्वाद के बीच
माँ की ढलती उम्र
पापा की खाँसी
छोटी के कैंसर को
कंधे पर लादे
मैं अब बत्तीस का हो चला
निहारता हूँ रोज उगते सूर्य को
यमराज के पास बाकी बचे जीवन-वर्ष को
तौलता हूँ इसे जीवन की मुश्किलों की तुला पर
तो झुक जाता है यह
समस्याओं की ओर हर बार
और
खड़े हो जाते हैं कई प्रश्न सामने-
‘क्या हार ही हार जीवन का सार?’
तुम्हारी कही हुई बातें
दिया हुआ स्नेह-आशीर्वाद को
दोनों हाथों से समेटकर
चल पड़ा हूँ
दो-दो हाथ करने
समय से
ताकि चुका सकूँ
लौटा सकूँ
तुम्हारा कर्ज, माँ की खुशियाँ
पापा के सपने
और
भूल सकूँ छोटी के कैंसर का दर्द
उम्र की डिपॉजिट रहते।
4. माँ
सुबह-सुबह
सखुए का दातुन
दूध से भरा कटोरा
दो रोटियाँ
माँ देती थी
दोपहर में
दाल-भात-सब्जी
पापड़-अचार
और ढेर सारा प्यार
माँ देती थी
रात में
थोड़ी-सी सब्जी
दो रोटियाँ
एक कटोरा दूध
सरसों तेल की मालिश
परियों की कहानी
जादू भरे हाथों का स्पर्श
माँ देती थी
कमर में डड़ोरी
गले में नजरबट्टू
और ललाट पर
काजल का टीका
माँ देती थी
माँ ने इतना दिया है
जितना आकाश धरती को देता है
और धरती मनुष्य को
माँ ने अपने हिस्से की मिट्टी
काटकर गढ़ा है यह तन
पानी की तरह बहाया है रक्त
ताकि चेहरे पर आ सके लालिमा
पसीने की बूँद-बूँद से सींचा है
हृदय के खुरदरेपन को
आज भी मैं जब बैठता हूँ
उदास या हताश होकर
माँ के पास
माँ आँचल से
ढक लेती है
मेरा दुख।
5. हाथरस
शर्म वाले
धर्म वाले
वीरता के कर्म वाले
छुप गए
जाने कहाँ?
चुप क्यों हैं
लोग सारे?
पुत गई कालिख
स्याह काली रात की
पूछती है मेहंदी
दी सजा किस बात की?
है दरिंदे चुप मगर
चुप रहेंगे नहीं,
शहर जला देने वाले
घाव सहेंगे नहीं।
सत्य में सुरंग खोज,
तर्क कई नंग खोज,
होंगे प्रकट सारे,
लेकर कुछ नए नारे,
नारों की गूँज में
अर्थियाँ व्यर्थ होंगी,
दाग खाकी के धुलेंगे,
सत्ताएँ समर्थ होंगी।
6. आज क्रिकेट हो रहा है
कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं
कुछ स्टेडियम में
कुछ टी.वी. के सामने बैठकर
क्रिकेट को झेल रहे हैं
कुछ अपना क्रिकेट-ज्ञान
जगह-जगह पेल रहे हैं
परंतु ग्राउंड पर पंद्रह दिनों से
काम कर रहा मजदूर
आराम से सो रहा है
आज क्रिकेट हो रहा है।
बाजार खाली
सड़क सुनसान है
स्कूल से बच्चे नदारद
शिक्षक परेशान हैं
ऑफिस का काम बंद है
क्योंकि अफसर गायब है
बाबूओं की संख्या कम है
अस्पताल में मैच का
ऑपरेशन हो रहा है
जबकि सरहद पर गोली खाया जवान
सुध-बुध खो रहा है
आज क्रिकेट हो रहा है।
मीडिया इसे क्रिकेट नहीं
युद्ध बता रहा है
उत्तेजित कर देने वाली
कुछ तस्वीरें दिखा रहा है
जबकि दबंगों की पिटाई से
एक दलित महिला मारी गई है
एक नाबालिग बच्ची की
सरेआम इज्जत उतारी गई है
एक बच्चा भूख से रो रहा है
आज क्रिकेट हो रहा है
7. रोटी का स्वाद
रोटी का नहीं होता है
अपना कोई स्वाद
रोटी का स्वाद निर्भर करता है
परिस्थितियों पर
जैसे आराम की रोटी फीकी
हराम की रोटी कड़वी
और मेहनत की रोटी
मीठी होती है
रोटी का भूगोल भी तय नहीं करता
रोटी का स्वाद
कई बार
छल की आग में पकाई जाती हैं
गोल और सुंदर रोटियाँ
कई बार
भ्रम की हवा से फुलाई जाती हैं
मुलायम और नरम रोटियाँ
कई बार
खून से गूँथा जाता है
रोटियों के लिए आटा
रोटियों की सफेदी
किसी चेहरे की
सफेदी हो सकती है
रोटियों की लालिमा
किसी के रक्तिम नेत्रों की
लालिमा हो सकती है
रोटी के पीछे छिपा होता है
उसका इतिहास
रोटी बनती है आटे से
आटा बनता है गेहूँ से
गेहूँ उपजता है खेत में
पिता जब हल की मूठ पकड़
धरती के सीने पर लिखते हैं
रोटी के इतिहास का पहला अध्याय
तभी तय हो जाता है
रोटी का स्वाद
दीदी जब प्यार से
गूँथती है आटा
बेलती-पकाती है रोटी
तभी तय हो जाता है
रोटी का स्वाद
माँ जब परोसती है
अपने हाथों से रोटियाँ
तभी तय हो जाता है
रोटी का स्वाद
सच कहूँ तो
गेहूँ उपजाने वाले हाथ
रोटी पकाने वाले हाथ
और रोटी खिलाने वाले हाथ पर
निर्भर करता है
रोटी का स्वाद
8. कहाँ गया मेरा गाँव?
सौंधी मिट्टी, नर्म हवाएँ, नदियों की किलकारी,
ललकी गैया की छोटी-सी बछिया प्यारी-प्यारी,
याद आ रहा मुझे आज वो बरगद वाली छाँव रे।
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
बड़की मैया, मनहर भैया, नटखट-सी नूनवतिया,
मंदिर, कुआँ और चबूतरा, सब साथी संगतिया,
छूटा साथ सभी का देखो, रहा न अब वो ठाँव रे,
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
पायल की छम-छम मेडों पर और कानों की बाली,
हल, कुदाल, बारिश की बूंदें, चहुँ ओर हरियाली,
चीं-चीं, टें-टें, कुहू-कुहू, कौए की काँव-काँव रे,
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
चोरी का अमरुद वो प्यारा, बैर वो पीले-पीले,
महुआ की मदमाती खूशबू, जामुन-आम रसीले,
ईख का रस,गुड़ की घानी, अपनो-सा बर्ताव रे।
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
छठ के गीत, मड़वा की गाली और लोरिक की तान,
होली वाले रंग निराले, नयकी भौजी की मुसकान,
करम की डाली, बजती ताली, नर्तन करते पाँव रे।
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
चुक्का, हुक्का, कोठी, खटिया, काँसे वाली थाली,
ढेकी, जाता, मलवा, डिबिया, गेहूँ की सुनहरी बाली,
मटर की छिमी, चने की झींगी, लहरों पर तैरते नाव रे।
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
नर्म हवाएँ गर्म हुईं, थमी है नदियों की धारा,
मिट्टी के घर पक्के हो गए, टूट गया रिश्ता सारा,
ललकी गैया, गोतिया-लैया, गाँव मेरा इतिहास बना,
भौतिकता का दामन पकड़े जीवन अब यह फाँस बना
सोऊँ-जागूँ , भटकूँ-भागूँ, हारा जीवन का दाँव रे।
कहाँ गया मेरा गाँव रे, कहाँ गया मेरा गाँव?
9. कॉमरेड
मुट्ठी भर चना, चार आने पैसे
निरक्षरता का अभिशाप
अपनों से दूर होने का दुख
और कुछ सपने –
बस यही तो थी पिताजी की पूँजी
जब वे पहली बार आए थे रानीगंज
यह उनके जीवन का चौदहवाँ ही तो बसंत था
जब पहली बार चानक के अंधेरे में
जीवन का उजाला ढूँढने उतरे थे
मजदूरी की भी भला कोई उम्र होती है!
उस समय खादानों का मालिकाना हक कंपनी के पास थी
कंपनी गुंडों को पालती थी
और सत्ता कंपनी को
विरोध का मतलब था
बॉयलर में जिंदा झोंक दिया जाना
झूके या लड़ें? – सवाल इतना ही था
और लड़ते-लड़ते बाबूजी ‘कॉमरेड‘ बन गए
एक सच्चे ‘कॉमरेड‘
कॉमरेड के पीछे माँ थी
जो उनके हिस्से का दुख बाँटने चली आई थी परदेस
माँ ने कभी हार नहीं मानी, न कॉमरेड को हारने दिया
अपना पेट काट-काट कर हमारा पेट भरती रहीं
अपना नाम भी न लिख पाने वाली माँ ने
बड़े जतन से हमारा नसीब लिखा था
धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया
कॉमरेड नहीं बदले
सड़कें पक्की हो गईं
पर घर कभी पक्का न हुआ
जमीन अपनी थी नहीं, न कभी हुई
उन्हें पता था कि वे परदेसी हैं
और एक दिन उन्हें लौट जाना है अपने गाँव,
अपनी जन्मभूमि, अपने परिवार, अपने साथियों के पास
पर ऐसा हो न सका
बच्चों के जीवन के लिए उजाला ढूँढते-ढूँढते
रानीगंज के इन्हीं खदानों में कॉमरेड कहीं खो गए।
10. स्कूल की दुनिया
साइकिल की घंटियों के शोर से
गूंज उठता है पूरा स्कूल
चहक उठते हैं पत्ते
बोल पड़ती हैं दीवारें
चमक उठते हैं बेंच-डेस्क के चेहरे
नाच उठता है पंखा
झूम उठती है खिड़कियाँ
और जी उठता हूँ मैं
क्लासरूम अपनी बाहों को खोल
सबको अपने अंदर समेट लेने को आतुर हो उठता है
स्वागत में बज उठती है स्कूल की घंटी
संताली टोला, यादव टोला, घटवारी टोला, मंडल टोला
और न जाने कितने टोलों से बच्चों के झुंड
जब दाखिल होते हैं स्कूल के गेट के अंदर
घंटियाँ बजाते हुए
तब घंटियों के शोर में ढक जाता है सारा दुख
मिट जाती है सारी थकान
अपनी पहचान बाहर छोड़कर
जब घुसते हैं बच्चे स्कूल के गेट के अंदर
तब बनती है उनकी एक नई पहचान
बनता है एक नया टोला
स्कूल का गेट ही तो है जो पल में मिटा देता है सारे फर्क
बाहरी दुनिया से कितनी अलग है स्कूल की दुनिया!
11. तुम्हारा नाम
व्हाट्सएप चैट में
कई समूहों के बीच
अकेला पड़ा तुम्हारा नाम
मुझे खींच लेता है अपनी ओर।
मैं बरबस
विपरीत दिशा में जाते तीरों को
छू देता हूं
और तीर पड़ जाते हैं नीले,
जैसे नीला आसमान,
अचानक सक्रिय हो जाते हैं
कई समूह, कई नाम,
चमकने लगती है माथे पर
गोल, अंडाकार
हरी-हरी टिकुलियाँ,
प्रियतम के आगमन का आभास पाकर
जैसे चमक उठी हो
नवविवाहित स्त्रियाँ,
हो जाता है हरा
आसपास का समय
जैसे सावन में हो जाते हैं हरे
पेड़, पौधे, पत्ते और मन,
पर तुम्हारा नाम
शांत है तुम्हारी ही तरह।
तुम्हें धकेलकर आगे निकल गए हैं
कई नाम,कई समूह,
तुम सरककर जा बैठी हो नेपथ्य में
उदास;चुपचाप।
तुम्हारे माथे के सूनेपन ने
सुना कर दिया है
वक्त और मेरे मन को,
सूनेपन के दर्द से
बुझ गई हैं आँखें,
मोबाइल का स्क्रीन
और मेरा चमकता चेहरा।
12. उठ! खड़ी हो जा
उठ! खड़ी हो जा,
दौड़,सरपट दौड़।
जीवन की आपाधापी को पीछे छोड़
छोटी-छोटी गलियों से होकर,
निकल जा, सबसे आगे
रिश्तो के बोझ;
समाज के बंधन;
दबा नहीं सकते;
बांध नहीं सकते तुम्हें
कैसे? कब? क्यों?-जैसे प्रश्नों के लिए
वक्त नहीं है तुम्हारे पास
इसलिए चेहरे की मुस्कान को जागृत कर,
निकल पड़,मंजिल की ओर
बहने दे पसीने की नदी
धूल जाने दे ललाट
धूलकर ही चमकेंगे एकदिन
तुम्हारे किस्मत के सितारे
और उस चमक में
दुनिया अपना रास्ता तलाशेगी।
उठ! खड़ी हो जा,
दौड़,सरपट दौड़।
13. मैं अखबार हूँ
मैं अखबार हूँ
पन्नों पर बिखरे
खबरों का संसार हूँ
मैं अखबार हूँ।
मैं सदियों पुराना हूँ
मैंने देखा है
इस दुनिया के हर रंग को
मुश्किलों का पहाड़ हो
या बाधाओं का समंदर
कभी रुका नहीं,
झूका नहीं,
हारा नहीं, थका नहीं
मैं सूचना, शिक्षा, ज्ञान
और मनोरंजन का अंबार हूँ
मैं अखबार हूँ।
नारद की वाणी में मैं था
संजय की कहानी में मैं था
अशोक के शिलालेख
मेरे ही शुरूआती रूप थे
कभी ‘वाकयानवीस’ की लेखनी बनकर
मुगलों के दरबार में पड़ा रहा
कभी हस्तलिखित ‘सिराजउल अखबार‘ बनकर
खड़ा रहा
दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक –
कई रूपों में स्वयं को गढ़ता रहा
निरंतर आगे बढ़ता रहा
पर इस महान देश भारत से मेरा परिचय
सन् 1780 में
जेम्स आगस्ट हिकी ने करवाया
जब बंगाल की धरती कोलकाता से
‘बंगाल गजट‘ के नाम से मैं प्रकाशित हुआ
यह शुरुआत थी
मेरी अनवरत चलने वाली यात्रा की
मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया
30 मई 1826 को
जब पंडित युगल किशोर शुक्ल ने
मुझे ‘उदंत मार्तंड‘ नाम से प्रकाशित किया
‘उदंत मार्तंड‘ यानी ‘उगता हुआ सूर्य‘ –
मेरे इस नाम को
हिंदी भाषा का प्रथम समाचारपत्र
होने का गौरव मिला
और मेरे जीवन को एक नया पड़ाव
फिर बंगदूत से लेकर प्रभात खबर तक
कई नामों से जाना गया
पहचाना गया
मेरे कई रूप, कई रंग हैं
पर हर रूप, हर रंग में
जनता की हुंकार हूँ
मैं अखबार हूँ।
लोगों ने मेरी शक्तियों को माना है
पहचाना है
सब मानते हैं कि मेरे अंदर
असीमित शक्तियों का भंडार है
परंतु मैं जानता हूँ
कि यह शक्ति मेरी नहीं है
यह शक्ति है आपकी
यह शक्ति है उन हजारों लोगों की
जिनकी लेखनी शब्द बनकर
लहू की तरह
मेरी रगों में दौड़ रहा है
मैं तो केवल माध्यम हूँ
लिखित संचार हूँ
आमजनों का उद्गार हूँ
मैं अखबार हूँ।
कई बार लगाई गई
मुझ पर पाबंदियाँ
कई बार मेरे पैरों में
डाली गई बेड़ियाँ
हर बार इन पाबंदियों
और बेड़ियों को तोड़कर
निकल आया
निकल आया आपको जगाने
आपका हक बताने
देश को आजादी दिलाने
समय के साथ मैं बदलता रहा
और बदलते रहे मेरे उद्देश्य
आजादी का लक्ष्य लेकर चला था
अब मुल्क को सँवार रहा हूँ
चौथा पाया हूँ लोकतंत्र का,
गरीबी, भूख और भ्रष्टाचार से
देश को ऊबार रहा हूँ
मेरे हिस्से का काम
मुझे आता है करना
मैं गाँधी, तिलक और
मालवीय का हथियार हूँ
अंग्रेजों की छाती पर
वज्र का प्रहार हूँ
मैं अखबार हूँ।
मेरे पन्नों में सिमटा है
इस देश का इतिहास
रोज लिखा जाने वाला इतिहास
इस देश का संघर्ष
मेरा भी संघर्ष है
गुलामी की जंजीरों को
तोड़ने की बात हो
या पूरे देश को एक सूत्र में
जोड़ने की बात
मैं खड़ा था हर समय
इस महान देश के साथ
शोषण, अकाल, आंदोलन
और आजादी की तारीख
दर्ज है मेरे पन्नों पर
मेरे पन्नों पर दर्ज है
25 जून, 1975 का आपातकाल
कानून, पाबंदियाँ, हत्याएँ,
करार, तकरार,
नोटबंदी, जी.एस.टी.,
नेताओं का उदय,
पार्टियों का विलय,
घोटालों का इतिहास
और देश का विकास-
सब दर्ज है मेरे पन्नों पर
मैं इस देश के संघर्षों का सार हूँ
मैं अखबार हूँ।
मैं तब भी था
मैं अब भी हूँ
मेरे माथे पर आजादी का तिलक है
चेहरे पर
वर्षों की उपलब्धियों की झलक है
मेरी छाती पर लॉकडाउन में
मीलों पैदल चलते मजदूरों के
पाँवों के छाले की छाप है
मेरे अंदर कैद
कई पुण्य, कई पाप हैं
मैं जनता और सरकार की कड़ियों को
जोड़ने वाला तार हूँ
मैं अखबार हूँ।
जानता हूँ कि मैं
एक चिंगारी हूँ
आग हूँ
पर कैसे कहूँ
कि मैं पूरी तरह बेदाग हूँ
मेरी आवाज को
दबाने की कोशिश जारी है
पूँजी के हाथों
कलम का बिक जाना
मेरी लाचारी है
वे चाहते हैं
कि मैं उनके लिए
इश्तेहार की तरह छप जाऊँ
पर मैं चाहता हूँ
जो सच है वही दिखलाऊँ
अपना धर्म निभाऊँ
क्योंकि मैं मिशन हूँ
जुनून हूँ
लोगों का ऐतबार हूँ
मैं अखबार हूँ।
कवि सुभाष यादव मूलतः कवि और पेशे से शिक्षक सुभाष इन दिनों गोड्डा जिले के एक ग्रामीण विद्यालय में पदस्थापित हैं। स्कूल में बच्चों के साथ समय बिताना उन्हें सर्वाधिक पसंद है। 3.2.1981 को पश्चिम बंगाल के रानीगंज में जन्मे सुभाष की शिक्षा दीक्षा रानीगंज और हजारीबाग में हुई । झारखंड की समकालीन कविता पर एक महत्वपूर्ण किताब का संपादन उन्होंने किया है। वे झारखंड सरकार के पाठ्य पुस्तक लेखन एवं पाठ्यचर्या निर्माण समिति के सदस्य रहे हैं। बच्चों को बेहतर किताबें मिल सके, यह उनके प्राथमिक प्रयासों में शामिल है। कुछ कविताएँ यत्र- तत्र प्रकाशित हुई हैं। कविता की पहली किताब “जीवन की परिधि” बस आने ही वाली है।
सम्पर्क: 9939943050
टिप्पणीकार कवि विनय सौरभ. झारखंड के नोनीहाट, दुमका में जन्म. भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता की पढ़ाई नब्बे के दशक में तेजी से उभरे युवा कवि. सभी शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन. पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. झारखंड सरकार के सहकारिता विभाग में सेवारत
संपर्क:binay.saurabh@gmail.com