समकालीन जनमत
स्मृति

अखिलेश मिश्र : एक जन बुद्धिजीवी

अखिलेश मिश्र जन्मशती (20.10.2022) पर

स्मृतियों के लोप के इस दौर में अखिलेश मिश्र को याद करना वर्तमान के संघर्ष का हिस्सा है। यह उनका जन शताब्दी का वर्ष रहा है। उन्हें प्रगतिशील और जनवादी बौद्धिक समाज द्वारा याद किया जाना वर्तमान की चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में याद करना है। वे प्रखर पत्रकार, लेखक, शिक्षक, मार्क्सवादी बुद्धिजीवी और आंदोलनकारी थे। आज के समय में एक पद चर्चा में है। वह है ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ यानी जन बुद्धिजीवी। अखिलेश मिश्र सही मायने में जन बुद्धिजीवी थे। ऐसे जुझारू व प्रतिबद्ध जन बुद्धिजीवी जिन्होंने अपना सारा जीवन गहरे सामाजिक सरोकार व उच्च मानवतावादी आदर्शों के लिए समर्पित कर दिया हो। आज के इस अवसरवादी और मतलबपरस्त समय में ऐसे मनीषी का मिलना दुर्लभ है। वेे तेज-तर्रार मिजाज के लिए जाने जाते थे। वहीं, उनका लोगों की समस्याओं और दुख-दर्द से गहरा भावनात्मक जुड़ाव था। इसी से उन्हें ताकत मिलती थी। । उनके हाथ में कलम थी तो उनका पैर सड़क पर था। कहने का आशय यह है कि जहां वह अखबार जगत से जुड़े थे, वहीं उनका सजीव रिश्ता जनशिक्षा, जनजीवन और जन आंदोलनों से था।

अखिलेश मिश्र का जन्म 22 अक्टूबर 1922 को सेमरौता, रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके सामाजिक जीवन की शुरुआत उसी समय हो गयी थी जब वे यूनिवर्सिटी के छात्र थे। वे स्टूडेन्ट फेउरेशन ऑफ इंडिया से जुड़े थे। वह दौर था जब बंगाल दुर्भिक्ष से पीड़ित था। बंगाल के इस अकाल के दौरान लखनऊ से अकाल पीड़ितों की राहत के लिए छात्रों का दल बंगाल गया था। अखिलेश मिश्र इस दल के अगुआ थे। उस दौर की मुसीबतों को झेलते, सारा-सारा दिन भूखे-प्यासे रहकर पीड़ितों की सहायता में उन्होंने जिस तरह अपने को लगा दिया था, उनके दल के कामों व उसके लगन की सराहना अखबारों तक ने की। यह उनके लिए बड़ा अनुभव था। वे अक्सर उन दिनों की यादों को बड़ी तन्मयता से सुनाया करते। मुसीबतों का कैसे मुकाबला किया जाय, इस दौरान उन्होंने सीखा। बंगाल से वे तपकर लौटे थे। आगे जो उन्होंने राह अपनाई वह सुविधा के जीवन की जगह कठिन व कठोर जीवन की राह थी। वे इसी राह पर बढ़ चले। इसी दौरान वे कम्युनिस्ट बने। उन दिनों पार्टी भूमिगत थी। अखलेश मिश्र को भी भूमिगत होना पड़ा। कम्युनिस्ट आंदोलन का विभाजन ऐसे आंदोलनकारियों के लिए बड़ी दुखद त्रासदी थी। बाद में वे औपचारिक रूप से किसी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं रहे लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों तक मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं थी। शोषण मुक्त और बराबरी का समाज उनका जीवनादर्श था।

अखिलेश मिश्र हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, पालि, प्राकृत, गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र के विद्वान थे। अपनी इस ज्ञान-प्रतिभा के बूते किसी भी विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य उन्हें बड़ी आसानी से मिल सकता था। इस तरह का प्रस्ताव भी उनके सामने था। लेकिन उन्होंने पत्रकारिता का पेशा चुना। यह दौर था जब पत्रकारिता एक मिशन होती थी। उनके लिए कलम जन जागृति का माध्यम था। इसका इस्तेमाल उन्होंने जन जागरण के हथियार की तरह किया। उन्होंने पत्रकारिता को अपना पेशा बनाया और स्वाभिमानी व जनपक्षधर पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। अपने जीवन के अन्तिम समय तक उनमें वैचारिक ताजगी और सामाजिक सक्रियता मिलती है। नवम्बर 2002 में निधन हुआ। उनके गुजरे करीब 20 साल हो गये लेकिन आज भी उनकी याद हमारे दिलों में ताजा है। लोग उन्हें भूल नहीं पाये है। जब भी प्रखरता, स्वाभिमान और वैचारिक दृढ़ता व प्रतिबद्धता की बात होती है, अखिलेश मिश्र याद आते है। उनका जीवन और कर्म हमारे समक्ष उदाहरण के रूप में प्रस्तुत होता है।

अखिलेश मिश्र जी ने कई अखबारों में काम किया। उन्होंने जन पत्रकारिता से लेकर वैकल्पिक पत्रकारिता के मानक भी गढ़े। पत्रकारिता का आरंभ ‘अधिकार’ पत्र से किया। वहीं स्वतंत्र भारत (लखनऊ), दैनिक जागरण (गोरखपुर), स्वतंत्र चेतना (गोरखपुर) स्वतंत्र मत (जबलपुर) आदि दैनिक समाचार पत्रों के संपादक रहे। वे अखबार जगत से इस कदर जुड़े थे कि कर्मचारियों व पत्रकारों के जो आंदोलन हुए, उसके अग्रणी नेताओं में शामिल थे। उन्होंने प्रबंधकों के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। यह दौर था जब स्वतंत्र भारत, नेशनल हेराल्ड, नवजीवन आदि अखबारों में कर्मचारियों और पत्रकारों के अनेक आंदोलन हुए। वे मार्क्सवादी थे और इसी नजरिए से समय, समाज और जीवन को देखते थे। उनकी चिंता और चिंतन के केंद्र में वैकल्पिक विचार व वैकल्पिक व्यवस्था रहती थी। इसी प्रक्रिया में उन्होंने ‘वर्कर्स हेराल्ड’ अखबार की शुरुआत की।

भले ही अखिलेश जी ने पत्रकारिता का पेशा चुना हो लेकिन उनके अन्दर एक कुशल शिक्षक की सारी खूबियां थीं जिनका इस्तेमाल उन्होंने बच्चों को ही नहीं बल्कि उनके पिताओं, बड़े-बुजर्गों को जीवन ज्ञान देने में किया। गांवों के बीच आसानी से मिल जाने वाले वाले साधनों जैसे धूल की पर्तों से मढ़ी जमीन, हाथ की उंगली, मिट्टी की ढ़ेली, घास चरती या खूंटे से बंधी भैंस की पीठ आदि का इस्तेमाल करना अखिलेश जी के दिमाग की देन थी। उनका यह ‘विचित्र शिक्षक’, ‘लोक शिक्षक’ का रूप स्वतंत्र भारत और अन्य अखबारों के पत्रकार के रूप में भी दिखाई पड़ता है। वे साक्षरता को समाज परिवर्तन का हथियार मानते थे। इसके लिए मीलों उन्होंने पैदल यात्राएं की। आमलोंगों के बीच गये। इस संबंध में उन्होंने कई पुस्तके लिखीं जिनमें 1990 में लिखी ‘मुकद्दर का गीत’, 1992 में ‘बन्द गोभी का नाच’, 1997 में ‘प्रधान का इलाज’, 2001 में ‘इन्सानियत’ आदि प्रमुख है। ये हजारों की संख्या में छपी, वितरित हुई और खूब पढ़ी गई।

प्रेस कर्मियों का आंदोलन हो, मजदूरों-मेहनतकशों के साथ हो रही नाइंसाफी व उनकी मांगों को लेकर कोई संधर्ष हो, ऐसे किसी भी आंदोलन के साथ अखिलेश जी का गहरा जुड़ाव था, इसके समर्पित कार्यकर्ता के रूप में मोर्चे पर वे दृढ़ता से डटे थे। अखबारकर्मियों के तो वे नेता ही थे। जब प्रेस कर्मियों के वेतनमान को लेकर लखनऊ में आंदोलन चला और यह आंदोलन लम्बा खिंचने लगा तब इसका एक प्रतिनिधिमंडल प्रदेश के राज्यपाल से जाकर मिला। अखिलेश मिश्र ने इसकी अगुआई की। उन्होंने प्रेस कर्मचारियों के हालात और उनकी भावनाओं को व्यक्त करते हुए राज्यपाल महोदय से बड़े तल्ख लहजे में कहा कि आप तो पचपन लाख की इमारत, राजभवन में बैठे झक मार रहे है, क्या आपको इस बात का आभास है कि प्रदेश का मजदूर किन हालतों में जी रहा है। अखिलेश जी की बातें राज्यपाल महोदय को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा कि पत्रकारों की भाषा तो बहुत संयत होती है। इस पर अखिलेश जी का जवाब था कि पत्रकार भी मजदूर है और मजदूरों की भाषा तीखी होती है और तब तो और भी जब उसे न्याय न मिले और अन्याय सहते-सहते उसके र्धर्य का बांध टूट जाय। ऐसे में उससे किसी शालीन व संयत भाषा की उम्मीद नहीं की जा सकती। सच्चाई की भाषा ऐसी ही तीखी व कड़वी होती है।

अखिेलेश मिश्र का जीवन व कर्म मानवीय साहस और निर्भीकता का अप्रतिम उदाहरण है। उन्होंने भय को ही नहीं लोभ, लालच को भी सत्ता के दमन का हथियार माना था। उन्हें न भय तोड़ सका और न लोभ ही। यहां इस प्रसंग की चर्चा करना जरूरी है कि जब उन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव मिला जिसमें प्रधानमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों सम्मानित होना था, उन्होंने इसे ठोकर मार दिया। उनका जीवन ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा है जिसमें पुलिस-प्रशासन से पंजा लड़ाना आम बात रही। एक कार्यकर्ता के रूप में वे सड़क पर एक योद्धा के रूप में मौजूद रहते थे तो वहीं अपनी कलम से इस व्यवस्था के खिलाफ वैचारिक व सांस्कृतिक संघर्ष किया। समाज के प्रतिगामी विचारों तथा सांप्रदायिकता जैसे मनुष्य विरोधी संस्कृति से सारी जिन्दगी संघर्ष किया। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद तो सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष में उनकी भूमिका रेखांकित करने वाली है। उन्होंने धर्म की मीमांसा करते हुए अखबार में स्तम्भ लिखा जो उनके निधन के बाद ‘धर्म का मर्म’ शीर्षक के रूप में प्रकाशित हुआ।

पत्रकारिता उनके लिए मिशन था। लेकिन अपने जीवन काल में ही उन्होंने पत्रकारिता में आ रही मूल्यगत गिरावट को महसूस किया था। इस समस्या पर विस्तार से उन्होंने विचार किया जो उनकी पुस्तक ‘पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तक’ में संग्रहित है। उन्होंने ‘1857: अवध का मुक्ति संग्राम’ जैसी ऐतिहासिक कृति की रचना की। बात अधूरी रहेगी यदि उनकी साहित्यिक कृतियों की चर्चा न की जाय। उन्होंने ‘पावों का सनीचर’ शीर्षक से उपन्यास लिखा जिस पर श्रीलाल शुक्ल जैसे शीर्षस्थ उपन्यासकार ने एक पत्रकार का स्फूर्तिदायक कथा प्रयोग माना। इसी संदर्भ में उनकी ‘प्रसाद का जीवन दर्शन’ की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। इसकी भूमिका जाने माने आलोचक कर्णसिंह चौहान ने लिखी है।

इस तररह अखिलेश मिश्र के व्यक्तित्व के इतने पहलू हैं कि इसे किसी एक आलेख में समेटना संभव नहीं है। हिन्दी-अवधी के जनकवि महेश प्रसाद श्रमिक ने उनके साथ के संवाद और विचार-विमर्श को ‘डेली मुलाकात’ किताब में संकलित कर डाला। इस तरह अखिलेश मिश्र जी हमारी धरोहर हैं।  महेश प्रसाद श्रमिक की इन काव्य पंक्जियों से उनको नमन-

तुम नहीं लकीरों के आदी, खुद नई लकीरें गढ़ते थे।
उत्पीड़ित दलित फकीरों के, मुरझाए चेहरे पढ़ते थे।।
मढ़ते थे नए विचारों की, तुम ढ़ोलक तगड़ी थाप दार।
तुम तर्कशास्त्र की सीढ़ी से, योग्यता-गगन पर चढ़ते थे।।
निर्भीक अक्खड़ पत्रकार। अखिलेश मिश्र को नमस्कार।।

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