आशीष कुमार
रेखा चमोली की कविताएँ
1. पेड़ बनी स्त्री
एक पेड़ उगा लिया है मैंने
अपने भीतर
तुम्हारे प्रेम का
उसकी शाख़ाओं को फैला लिया है
रक्तवाहिनियों की तरह
जो मज़बूती से थामे रहती हैं मुझे
इस हरे-भरे पेड़ को लिए
डोलती फिरती हूँ
संसार भर में
इसकी तरलता नमी हरापन
बचाए रखता है मुझमें
आदमी भर होने का अहसास
एक पेड़ की तरह मैं
बन जाती हूँ
छाँव, तृप्ति, दृढ़ता, बसेरा ।
2. कोंपले
छोटी-छोटी चींटियां
सरपट दौड़ रही हैं
यहां से वहां
चिड़ियां चहचहाकर
बना रही है घोंसला
कभी धीरे कभी तेज
चलती बसन्ती हवा के
स्पर्श से
रोमांचित है सारा बदन
छोटे-छोटे हरे धब्बों
से सजा
गर्व से खड़ा
उपस्थिति का भास
दे रहा है ठूंठ
फिर से कोपलें
फूटने लगी हैं
उसने हार नहीं मानी
और ढूंढ ली
जीवन की संभावनाएं।
3. अस्तित्व
दुनिया भर की स्त्रियो !
तुम ज़रूर करना प्रेम
पर ऐसा नहीं की
जिससे प्रेम करना उसी में
ढूँढ़ने लगना
आकाश, मिटटी, हवा, पानी, ताप
तुम अपनी ज़मीन पर रोपना
मनचाहे पौधे
अपने आकाश में भर लेना
क्षमता-भर उड़ान
मन के सारे ओने-कोने
भर लेना ताज़ी हवा से
भीगना जी भर के
अहसासों की बारिश में
आवश्यकता भर ऊर्जा को
समेट लेना अपनी बाँहों में
अपने मनुष्य होने की संभावनाओं को
बनाए रखना
बचाए रखना ख़ुद को
दुनिया के सौन्दर्य व शक्ति में
वृद्वि के लिए
दुनिया के अस्तित्व को
बचाए रखने के लिए ।
4. प्रेम
क्या कोई रोक पाया है कभी
हवा का बहना
बीज का अंकुरित होना
फूलों का खिलना
फिर कैसे रोक पाएगा
कभी कोई
संसार की श्रेष्टतम भावना
प्रेम का फलना-फूलना
5. आओ हमारे साथ
हम पहाड़ की महिलाएँ हैं
पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक
हम नदियाँ हैं
नसें हैं हम इस धरती की
हम हरियाली हैं
जंगल हैं
चरागाह हैं हम
हम ध्वनियाँ हैं
हमने थामा है पहाड़ को अपनी हथेलियों पर
अपनी पीठ पर ढोया है इसे पीढ़ी दर पीढ़ी
इसके सीने को चीरकर निकाली है ठंडी मीठी धाराएँ
हमारे कदमों की थाप पहचानता है ये
तभी तो रास्ता देता है अपने सीने पर
हमने चेहरे की रौनक
बिछाई है इसके खेतों में
हमी से बचे हैं लोकगीत
पढ़ी लिखी नहीं हैं तो क्या
संस्कृति की वाहक हैं हम
ओ कवि मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता
खुदेड़ गीत
मैतियों को याद करती चिट्ठियाँ
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की तरह
धीमे-धीमे जलाती हैं
हमारे हाथों में थमाओ कलमें
पकड़ाओ मशालें
आओ हमारे साथ
हम बनेंगे क्रांति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी और सम्मान से देखो।
6. मुक्त
लकीरें
एक के बाद एक
फिर भी छूट ही जाता है
कोई न कोई बिन्दु
जहाॅ से फूटतीं हैं राहें
चमकती हैं किरणें
इन्हीं राहों से होकर
इन्हीं किरणों की तरह
निकल जाना तुम
लकीरों से बाहर
रचना अपना मनचाहा संसार
जिसमें लकीरें
किसी की राहें न रोकंे
न ही एक-दूसरे को काटें
बल्कि एक-दूसरे से मिलकर
तुम्हारे नये संसार के लिए
बनें आधार।
7. बस एक दिन
नहीं बनना मुझे समझदार
नहीं जगना सबसे पहले
मुझे तो बस एक दिन
अलसाई सी उठकर
एक लम्ऽऽबी सी अंगड़ाई लेनी है
देर तक चाय की चुस्कियों के साथ देखना है
पहाड़ी पर उगे सूरज को
सुबह की ठंडी फिर गुनगुनी होती हवा को
उतारना है भीतर तक
एक दिन
बस एक दिन
नहीं करना झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन
कुछ भी नहीं
पड़ी रहंे चीजें यूं ही उलट पुलट
गैस पर उबली चाय
फैली ही रह जाये
फर्ष पर बिखरे जूते-चप्पलों के बीच
जगह बनाकर चलना पड़े
बच्चों के खिलौने, किताबें फैली रहे घर भर में
उनके कुतरे खाये अधखाये
फल, कुरकुरे, बिस्किट
देखकर खीजूं नहीं जरा भी
बिस्तर पर पड़ी रहें कम्बलें, रजाइयां
साबुन गलता रहे, लाईट जलती रहे
तौलिये गीले ही पड़े रहें कुर्सियों पर
खाना मुझे नहीं बनाना
जिसका जो मन है बना लो, खा लो
गुस्साओ, झुंझलाओ, चिल्लाओ मुझ पर
जितनी मर्जी करते रहो मेरी बुराई
मैं तो एक दिन के लिए
ये सब छोड़
अपनी मनपसंद किताब
के साथ
कमरे में बंद हो जाना चाहती हूं।
8. प्रेम में लड़की
प्रेम करना किसी लडकी के लिए
ऐसा ही है
जैसे हथेली पर गुलाब उगाना
हथेली बन्द कर
काॅटों की मीठी चुभन
सहन की जा सकती है
पर खुशबू
उसकी तो हवाओं संग पक्की यारी है
और खुशबू फैलते ही
फूलों के शौकीनों की भीड लगते
देर नहीं लगती
कई विकल्प तत्पर रहते हैं
धार्मिक उत्सवों , मंगल कार्यो में
स्वागत समारोहों ,घर सजाने ,रस्मों रिवाजों में
सूर्ख फूलों की रंगत बिखरती चली जाती है
और हथेली हो जाती है लहूलूहान
इस पूरी प्रकिया में
लडकी के कुशल अभिनय पर
किसी का ध्यान ही नहीं जाता
जो सारा रक्त खुद में ही
सोख लेती है
बिना कहीं टपकाए।
9. कविता
कविता नहीं है सिर्फ कुछ शब्द या पंक्तियाॅ
कविता
सहमति और असहमति जताती दृढताएॅ हैं
रुॅधे हुए गले में रुकी हुई पीडाएॅ हैं
सच्चाई को हारता देख
बेबस लागों का बिलाप हैं
तो बार बार गिरने पर
फिर फिर उठने का संकल्प भी हैं
कविता अपने बचाव में हथियार उठाने का विचार हैं
साहस की सीढियाॅ हैं
कविता उमंग हैं उत्साह हैं
खुद में एक बच्चे को बचाए रखने का प्रयास हैं।
10. चुप्पी की संस्कृति
चुप्पी की संस्कृति
पढ़े लिखे समझदार लोग
सीधे सीधे न नहीं कहते
न ही उंगली दिखाकर दरवाजे की ओर इशारा करते हैं
वे तो बस चुप्पी साध लेते हैं
आपके आते ही व्यस्त होने का दिखावा करने लग जाते हैं
आपके लायक कोई काम नहीं होता उनके पास
चुप्पी समझदारी है हमेशा
आप पर कोई आरोप नहीं लगा सकता ऐसा वैसा कहने का
ज्यादा पूछने पर आप कह सकते हैं
मैंने क्या कहा?
ये चुप्पी की संस्कृति जानलेवा है।
(2013 के समकालीन सूत्र सम्मान से सम्मानित कवयित्री रेखा चमोली । जन्म : 8 नवंबर 1979, कर्णप्रयाग, उत्तराखंड
कविता, कहानी और निबंध के क्षेत्र में सक्रिय। देश की प्रमुख पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। ‘पेड़ बनी स्त्री’ के नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित। मेरी स्कूल डायरी “ नामक स्कूली अनुभवों पर आधारित पुस्तक प्रकाशित।संप्रति: रा0 प्रा0 वि0 गणेशपुर , उत्तरकाशी में अध्यापन।
पता: जोशियाडा निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान, उत्तरकाशी-249193, उत्तराखंड. ई-मेल
chamolirekha08@gmail.com
सुधाकर महिला पोस्ट -ग्रेजुएट कॉलेज,खजुरी, पांडेयपुर, वाराणसी ।)