संजय कुमार कुंदन
मेहजबीं की कविताएँ और नज़्में बातें करती हैं, दुनिया-जहान की बातें. कविताएँ और नज़्में बस हिन्दी और उर्दू के शब्दों की उल्लेखनीय उपस्थिति को लेकर कहा. और शिल्प को लेकर कहें तो ये कविताएँ गद्य-पद्य या नस्त्री नज़्म हैं लेकिन इन रचनाओं को पढ़ते हुए लगता है कोई आपसे लगातार बातें कर रहा है, आपका कोई दोस्त, आपकी कोई महबूबा, कोई किसान, कोई मज़दूर, युगों के कुहरे को चीरकर निकला कोई एकदम प्राचीन मानव या इसी सदी के नवीनतम पल से जन्मा कोई मनुष्य. और बातें भी ऐसी-वैसी नहीं, बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन और गहरे अनुभव से निकली हुईं. और यह अनुभव भी किसी एक उम्र के पकते जाने का व्यक्तिगत अनुभव नहीं बल्कि कई युगों के क्षणों के पकने का अनुभव है.
अगर मेहजबीं की रचनाओं पर एक सरसरी निगाह डालें और जल्दबाज़ी में कोई निर्णय लेना चाहें तो इन रचनाओं को कुछ पूर्व-निर्मित और लोकप्रिय सुविधाजनक हिस्सों में बाँटा जा सकता है जैसे स्त्रीवादी, राजनीतिक, सत्ता-विरोधी इत्यादि. लेकिन मेरे विचार से ऐसी लेबलिंग, मार्किंग, पैकिंग उसी वस्तुवादी, बाज़ारवादी संस्कृति के पक्ष में होंगी, ये रचनाएँ जिसका विरोध करती हैं. ये रचनाएँ कुछ स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्तियाँ हैं उस क़लम की जो किसी भरोसेमन्द काग़ज़ को देखकर उससे अपने ह्रदय की, अपने मन की बातें करती है. मुक्त होकर, छन्दों के बंधन से, काव्य के पंडितों के अकाव्यात्मक अनुशासनों से मुक्त होकर ये कविताएँ किसी विश्वस्त कान में अपने अनुभव, अपने रहस्य, अपने दुःख, अपनी प्रसन्नता को साझा करना चाहती है:-
क्या यह रचना तटों में
छंदों में बंध पाएगी?
छंद तो रचना तक सीमित हैं….
… ऐसी कितनी ही रचनाएँ
उपेक्षित हैं, हाशिये पर हैं
जो कहीं आश्रमों में सड़कों पर
धूल मिट्टी में पड़ी हैं
इस आशा में
शायद कभी कोई कवि, कोई बेटा
हम उपेक्षित रचनाओं को महत्वपूर्ण बनाए
हमें हाशिये से उठाकर
अपने अनुभव के केंद्र में ले आए
(एक उपेक्षित रचना)
मेहजबीं की कविताएँ और नज़्में चूँकि बात करती हुई हैं और एकदम रोज़मर्रे की बातें तो उनकी उपमाएँ भी रोब डालती हुईं साहित्यिक ओज से भरी हुईं क्लिष्ट और भारी भरकम नहीं हैं, एकदम साधारण और हल्की-फुल्की हैं जिसमें थैले, दस्तरख़ान, गिलाफ़, पर्दे ,आटे की लोई, बेसन, मैदा, कुल्फी, रबड़ी, लिपस्टिक और न जाने कितनी ऐसी उपमाएँ हैं जो उनकी कविताओं के गूढ़ अर्थ को खोलने में बहुत ही सहज और स्वाभाविक रूप से सहायता करती नज़र आती हैं. ‘लिबास’ शीर्षक कविता में लिबास के सहारे से मेहजबीं ने तीन पृष्ठभूमि वाली स्त्रियों और उनकी अंतहीन बेचैनी और बेबसी और एक क्रूर अर्थ व्यवस्था को बहुत कुशलता से चित्रित किया है:-
वो नहीं बदलती बार – बार रंग
वो हर मौसम में
एक जैसे रंग में ही ढली रहती है
सर्दी गर्मी बरसात के
बुनियादी लिबास भी उसके पास नहीं
(लिबास)
मेहजबीं की रचनाओं में एक ऐसा वर्तमान है जिसके तार भूत से जुड़े हुए हैं और अपनी कविताओं और नज़्मों के माध्यम से वे भावनाओं की तीव्रता और बेबसी, आम आदमी की समस्याओं, परम्पराओं के खोखलेपन और दोगलेपन एवं सत्ता के कपटी और क्रूर चरित्र पर जो विमर्श कर रही हैं, वे अचानक से अस्तित्व में आए हुए नहीं हैं.
साथ ही भविष्य के एक लुभावने आश्वासन पर वे समस्याओं से भरे जीवंत वर्तमान को टालने के पक्ष में नहीं हैं.:-
…तुम्हें ख़्वाहिश है जन्नत की
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
बातचीत के मौज़ू तो इस ज़मीन पर मौज़ूद हैं
तुम कहते हो चुप रहो
बताओ जन्नत में
मैं तुमसे क्या और किस मौज़ू पर बात करूंगी
न वहाँ भूख होगी न ग़रीबी
न फिक्र होगी नौकरी की
न मशक्कत करनी होगी रोजगार की
न चिंता खाएगी बेटियों की शादी की
न ख़्वाब होगा अपना घर बनाने का
न बारिश में घर की छत चूएगी
न कोई बीमार होगा न इलाज का क़र्ज़
सारी ज़रूरत तो
पलक झपकते अल्लाह पूरी कर देगा
फिर हम-तुम
किस परेशानी को हल करने का मश्विरा करेंगे वहाँ…
(मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ)
मेहजबीं की कविताओं और नज़्मों की सच्चाई और विशिष्टता से साक्षात्कार के लिए आवश्यक है कि उन्हें पढ़ा जाए बल्कि उनकी कविताएँ जो बातें करती हैं, उस वार्तालाप को सुना जाए जो हमारे इस कठिन समय का अनुवाद करती नज़र आती हैं.
मेहजबीं की कविताएँ
1. मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
तुम्हें ख़्वाहिश है जन्नत की
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
यक़ीनन जन्नत में
सेब और मेवों के बाग़ होंगे
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ
एक दरख़्त लगाना चाहती हूँ
दो पल उस दरख़्त की छाँव में
तुम्हारे साथ बैठना चाहती हूँ
सुना है जन्नत में दूध शहद की नदियाँ होंगी
ज़मीन पर भी ख़ुदा ने
पानी की नदियाँ और समन्दर
किसी मक़सद से बनाएं होंगे
तुम किसी शाम मुझे
इन्हीं पानी की नदियों के क़रीब ले चलो।
तुम्हें ख़्वाहिश है जन्नत की
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
बातचीत के मौज़ू तो इस ज़मीन पर मौज़ूद हैं
तुम कहते हो चुप रहो
बताओ जन्नत में
मैं तुमसे क्या और किस मौज़ू पर बात करूंगी
न वहाँ भूख होगी न ग़रीबी
न फिक्र होगी नौकरी की
न मशक्कत करनी होगी रोजगार की
न चिंता खाएगी बेटियों की शादी की
न ख़्वाब होगा अपना घर बनाने का
न बारिश में घर की छत चूएगी
न कोई बीमार होगा न इलाज का क़र्ज़
सारी ज़रूरत तो
पलक झपकते अल्लाह पूरी कर देगा
फिर हम-तुम
किस परेशानी को हल करने का मश्विरा करेंगे वहाँ।
तुम्हें ख़्वाहिश है जन्नत की
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
तुम्हारे पास तो जन्नत में हूरें होंगी
ख़ुदा मुझे भी उनकी सरदारी देगा
मैं चाहती हूँ
तुम इसी ज़मीन पर मुझसे बात करो
बताओ तुम्हें कौनसी किताब पसंद है
यूं चुपचाप चाए न पिया करो
दस्तरख़ान पर बैठकर
तुम मुझसे कभी कोई ज़रूरी बहस करो।
तुम्हें ख़्वाहिश है जन्नत की
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
मुझे मालूम है
जन्नत में आलीशान महल होगा
ज़मीन पर ये छोटा सा घर भी
अल्लाह की दी हुई नियामत है
एक बार आओ इसे सजा लो मेरे साथ मिलकर
इसकी दीवारों पर तुम रंग करो
और मैं ख़ाना क़ाबा की तस्वीर टंगा दूं
तुम टेबल पर फूलदान रखो मैं घड़ी रख दूंगी
मैं दरवाज़ों पर पर्दा लगा दूं
तुम खिडकियों के पर्दे उठा दो
तुम्हें ख़्वाहिश है जन्नत की
मैं ज़मीन पर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ।
2. एक उपेक्षित रचना
नदी जल की धारा है
तो कविता शब्दों की
तट नदी की धारा को बांधते हैं
उसे व्यवस्थित रखते हैं
और छंद
छंद कविता के किनारे तट हैं
उसकी पंक्तियों को व्यवस्थित करते हैं
ऐसे ही
एक रचनाकार की रचना है
“माँ”
माँ का प्रेम सरिता जैसा गहरा होता है
पवित्र होता है
माँ कविता की परिभाषा है
क्या ये रचना तटों में
छंदों में बंध पाएगी?
छंद तो काग़ज़ी रचना तक सीमित हैं
लेकिन माँ
माँ का संबंध हकीक़त से है
ये जो काग़ज़ वाली कविता है
ये पहले कवि के हृदय में समायी
फिर शब्दों के रूप में
अभिव्यक्ति पन्नों पर उतर आई
ये अनुभव कवि के ह्रदय में
कहां से आया?
वहीं से जहाँ माँ रहती है
वो परिवार जिसे वो आधार देती है
व्यवस्थित बनाती है।
जिन स्थितियों-परिस्थितियों को
कवि अनुभव करता है
माँ उस हक़ीक़त से जूझती है
और जूझते – जूझते एक दिन
वह महान रचना बूढ़ी हो जाती है
तब उस रचना को
उस वक्त कोई नहीं देखता
क्योंकि
उस रचना में
अब किसी को रस नहीं मिलता
उसकी भाषा अब चिड़चिड़ी हो गयी है
उसका समस्त कला कौशल
समाप्त हो गया है
शेष है बस उसका तड़पता हृदय
ऐसी कितनी ही रचनाएँ
उपेक्षित हैं, हाशिये पर हैं
जो कहीं आश्रमों में सड़कों पर
धूल मिट्टी में पड़ीं हैं
इस आशा में
शायद कभी कोई कवि कोई बेटा
हम उपेक्षित रचनाओं को महत्वपूर्ण बनाएं
हमें हाशिये से उठाकर
अपने अनुभव के केंद्र में ले आए।
3. मेरे शहर में कोई तन्हा रहता है
अपने जज़्बात के
बंद दरिचों से झांक
तू क्यों अजनबियों की मानिंद
दूर – दूर खड़ा रहता है
बाज़ार से निकल
ज़रा घरों के क़रीब आ
जहाँ दिलों में प्यार मिलता है
मेरे शहर में तू क्यों तन्हा रहता है।
ख़ामोश हैं तेरी नज़रें
बेज़ारी का अहसास लिए
रक़ीब की तलाश में
यहाँ सभी ख़ुदग़र्ज़ नहीं
अपनापन है यहाँ भी
तू क्यों उदास रहता है
मेरे शहर में तू क्यों तन्हा रहता है।
माना सब्ज़ ज़मीं
दरख़्तों – फूलों का बाग़
मेरे शहर में नहीं
गहरी- गहरी नदियाँ, झरने
पहाड़, सहरा, चमकते जुगनू
तितलियाँ मेरे शहर में नहीं
मगर आसमान वही है
चाँद सितारें वही हैं
वही सूरज है
जो रोज़ तेरे गाँव में निकलता है
मेरे शहर में तू क्यों तन्हा रहता है।
ऊँची ऊँची इमारतों से
बाहर आकर देख
इन छोटी-छोटी बस्तियों में
राब्ता बना के देख
ग़रीब मज़दूर छोटे आदमी के
नज़दीक जाकर देख
इनसे दोस्ती का हाथ बढ़ाकर तो देख
इनके दिलों में मुहब्बत का फ़व्वारा बहता है
मेरे शहर में तू क्यों तन्हा रहता है।
तेरी किताबों की दुनिया से बाहर
युनिवर्सिटी, कम्पनी की सड़कों से दूर
इस महानगर में
फैक्ट्री बंगलों के पिछे
खुले आसमान के नीचे
तेरे जैसे ही एक सीधे-सादे
लोगों का गाँव बस्ता है
मेरे शहर में तू क्यों तन्हा रहता है।
यहाँ कौन है क़दीमी?
शहर का क्या है अपना?
किसकी है ये बेशुमार भीड़?
धीरे-धीरे आकर यहाँ गाँव ही बस्ता है
बनती हैं ईद पर सवईयाँ
होली पर गुजिया
दिवाली पर मिठाइयाँ
छट पूजा होती है यहाँ
ताज़िया भी निकलता है
मेरे शहर में तू क्यों तन्हा रहता है।
4. अंधेरे में
आवारा फ़िरता है जुगनू
इतराता हुआ
रात के अंधेरे में
जैसे उससे ख़ूबसूरत कोई है ही नहीं।
दड़बे में एक के ऊपर एक क़ैद हो जाते हैं
मुर्ग़ा- मुर्ग़ी अपने चूज़ों के साथ
कैसी दिखती हैं उनकी आँखें
रात के अंधेरे में
कोई जानना चाहता ही नहीं
चमकीली रौशन
आँखों वाली बिल्ली भी
बैठी रहती है रात भर
खाट के नीचे कभी छत पर
रात के अंधेरे में
उसे किसी किस्म का ख़ौफ़ है ही नहीं
वहीं अपनी दादी-नानी के सिरहाने
बच्चे सो जाते हैं
सवाल पूछते – पूछते
आसमान में कितने सितारें हैं?
सूरज रात को क्यों नहीं दिखता?
चाँद के अंदर काला- काला सा क्या है?
जुगनू दिन में कहाँ चला जाता है?
रात के अंधेरे में
उन्हें यह रहस्य समझ आता ही नहीं।
5. आदमी का आदमी पर ज़ोर चलता है
कितनी क़ुव्वत है आपकी
बस आदमियों पर ज़ोर चलता है
बादल को गरजने से रोक दें
बिजली को कड़कने से रोक दें
हवा को ठहरने से रोक दें
चलने से रोक दें, मचलने से रोक दें
कलियों को खिलने से रोक दें
फूलों को महकने से रोक दें
कितनी क़ुव्वत है आपकी
बस आदमियों पर ज़ोर चलता है
सूरज को निकलने से रोक दें
ढलने से रोक दें
सितारों को चमकने से
टिमटिमाने से रोक दें
चाँद को निकलने से रोक दें
कितनी क़ुव्वत है आपकी
बस आदमियों पर ज़ोर चलता है
रोक दें रात को आने से रोक दें
दिन की आमद को रोक दें
लगा दें पाबंदी शामो – सहर पर
कितनी क़ुव्वत है आपकी
बस आदमियों पर ज़ोर चलता है
रोक दें तितलियों को उड़ने से
भंवरों को मचलने से
रोक दें – रोक दें चिड़ियों की चहचाहट
बंद कर दें परिंदों की चहल-पहल
मसल दें चींटियों को
तोड़ दें पहाडों की चोटियों को
रोक दें – रोक दें दरिया को
बहने से रोक दें
हवा के रुख़ को बदल दें
बादल का रस्ता बदल दें
कितनी क़ुव्वत है आपकी
बस आदमियों पर ज़ोर चलता है
ज़र्रे – ज़र्रे को सब पता है
किसकी कैसी ख़ता है
आँधी को रोक दें, तूफां को रोक दें
रोक दें – रोक दें ज़लज़लें को रोक दें
ज्वाला को उबलने से रोक दें
क्या रोक सकेंगे सैलाब को
क्या रोक सकेंगे शेर की दहाड़ को
मज़लूमों की फरियाद को
ज़मींदोज़ों की आह को?
कितनी क़ुव्वत है आपकी
बस आदमियों पर ज़ोर चलता है।
6. जब ऐतक़ाद टूटता है
शिद्दत से की गई इबादत के बाद
ख़िदमत के बाद
सिलारहमी के बाद
दिलज़ोईयों का – मुहब्बतों का
जब सिला कुछ इस तरह मिलता है
कि बस दिल टूटता है
दिल फटता है
जब वो नक़ाब हटता है
तब ऐतक़ाद टूटता है।
हमने तमाम सफे पढ़ डाले
हम ला-इल्म थे
अलफ़ाज़ का कोई हुनर नहीं था हमारे पास
ना मायने जानने की फिक्र थी ना ज़रूरत
बस उसे पढ़ने को तबीयत होती थी
और उसे किसी तरह
पढ़ ले रहे थे सकून था इसी में
इसी को ज़िंदगी बना लिया
उसे पढ़ने की चाहत में
अपने मायने भी भूल गए
अपनी तफसीर भी भूल गए
उसी का मुताअला करते रहे
तफसील में उलझे रहे
तब भी तफसीर की तह तक ना पंहुच सके
बहुत गहरे बहुत तहो में रखे
उसने अपने असल शख़्सियात वजूद के मायने
ना समझ में आने वाला तस्सवुर
जिस दिन वो किताब समझ में आती है
जब वो नक़ाब हटता है
तब ऐतक़ाद टूटता है।
ग़फ़लत में ही ठीक थे
अंधेरे में ही खुश थे
चढ़ा रहता वो अमलीजामा उसपर
खुली सांस आती थी उन बंद खिड़कियों से
जिस दिन से खुली दम घुटने लगा
बाहर निकालने के लिए
अम्मी हउआ के जमाने से ही खुले रहते हैं दरवाजे
और वापस अंदर आने के लिए बंद
ना अपनी मर्ज़ी से अंदर आ सकते हैं
ना बाहर जा सकते हैं
ख़ुदमुख़तार होने पर भी
यहीं रहना बेहतर है
क्योंकि जो ऐतक़ाद सड़क पर टूटता है
वो सबसे बूरा टूटता है
सड़ांद में बदबू में रहना है
दिल चाहे ना चाहे तब भी
इसी क़ैद में दर – ओ – दीवार में
उसी किताब को मुसलसल पढ़ना है
जब नक़ाब हटता है तब भी
जब दिल फटता है तब भी
जब दम धुटता है तब भी
जब ऐतक़ाद टूटता है तब भी।
7. हुस्न है हम पत्थरों में भी
हुस्न है हम पत्थरों में भी
कई रंग समाए हैं हम में भी
सिर्फ़ बुतशिकनी
बुतपरस्ती के ही क़ाबिल तो हम नहीं
हुस्न है हम पत्थरों में भी
उठा – उठा के मारो तुम मुझे
जब-तब किसी के माथे पर
क्या कोई हुनर
कोई सलाहियत हम में नहीं
मरने – मारने के लिए ही तो हम नहीं
हुस्न है हम पत्थरों में भी
सिर्फ़ ख़ामोशी ही दिखती है हम में
ज़बान है हमारे पास भी
कभी सुने तो कोई
बोलते हैं हमारे लब भी
देखती हैं हमारी नज़रें तुम्हें भी
भगवान बना लो
हथियार बना लो औज़ार बना लो
इसके सिवा कुछ सूझा ही नहीं
क्या – क्या ख़ुशबू कैसी -कैसी रंगत
है हम में भी
हुस्न है हम पत्थरों में भी
कभी देखी किसी मुसव्विर को छोड़कर
किसी और ने भी हमारी ख़ूबी
सिर्फ़ बुतशिकनी
बुतपरस्ती के ही तो क़ाबिल हम नहीं
हुस्न है हम पत्थरों में भी
ली जाए और कोई खिदमत हमसे
क्या आपकी नज़रों में कामिल हम नहीं
क्या कोई हुस्न हम में नहीं
क्यों हमारी जानिब से बंद किये
घुंघट के पट हैं
देखो तो ग़ौर से हम नदी के तट हैं
हां सच है हम पिंघलते नहीं
मगर संगदिल – तंगदिल तुम हो हम नहीं
सिर्फ़ बुतशिकनी
बुतपरस्ती के ही तो क़ाबिल हम नहीं
हुस्न है हम पत्थरों में भी
है और भी कुछ छुपा हम में भी
हुस्न – ओ – मुहब्बत है हम में भी
ज़ाहिरी ना सही बातिन में ही सही
सर फोड़ने की ख़ातिर
हमें ढेले ना बनाओ
अपने किरदार से तुम
हमें मैले ना बनाओ
दिलों को जोड़ने की
कुछ तो क़ुव्वत है हम में भी
मुहब्बत की चाहत है हम में भी
हुस्न है हम पत्थरों में भी।
8. क्या मुझे भी याद करता है कोई
कभी दरख़्त के निचे बैठकर
एक चाए की प्याली पी थी
मुझे याद रहता है
वो लम्हा वो दरख़्त वो चाए की प्याली
क्या वो दरख़्त भी
कभी याद करता है मुझे
कभी किसी लाइब्रेरी में बैठकर
किताबें पढ़ी थी
पत्रिका से एक तस्वीर फाड़ी थी
और घर लाई थी
मुझे याद रहती हैं
वो किताबें वो लाइब्रेरी वो तस्वीरें
क्या वो लाइब्रेरी भी
कभी याद करती हैं मुझे
कभी किसी बस स्टॉप पर बैठकर
मैं इंतज़ार किया करती थी बस का
देखती थी मेट्रो रेल की खुदाई
पत्थर जो खुदाई में निकलते थे
मजदूर जो धूप में मिट्टी खोदते थे
मुझे याद रहते हैं
वो बस स्टॉप वो मजदूर
क्या वो बस स्टॉप भी
कभी याद करते हैं मुझे
कभी किसी कमरे में बैठकर
मैं सुना करती थी
तुलसी सूर निराला प्रेमचंद जैनेंद्र की
रचनाओं की व्याख्या
मुझे वो कमरे वो दीवारें याद रहती हैं
क्या वो कमरे वो दीवारें भी
कभी याद करती हैं मुझे।
9. तौक़
दुल्हन की पसंद के बग़ैर उससे पूछे बग़ैर
सबकी पसंद से ढूंढ कर लाया गया
एक तौक़
फिर पहनाया गया उसे
दुल्हन के गले में ख़ूब शौंक़ से
चमकदार सफ़ेद चाँदी का बना
दमकता हुआ है तौक़।
बड़ी मुश्किल से गले में आता है
बहुत तक़लीफ़ होती है उसे पहनने में
गले के नाप से बिल्कुल फ़िट है
चुस्त और सख़्त है
उसे ऐसे ही पहनना पड़ेगा जबरदस्ती फंसाकर
उसमें कोई पेच नहीं है
न वो बंद होता है न खुलता है
पहनने के बाद भी
गले में फंसता है तौक़।
दम घुटता है दुल्हन का उसे पहनकर
खुलकर सांस नहीं आती
रिवाज़ के खातिर ख़ानदान के म्यार को
बरक़रार रखने की खातिर
अब पहने रहना है
हमेशा दुल्हन को वो ही नापसंद अनफ़िट तौक़।
एक बार जो मिल गया सो मिल गया
उसे बदलकर अपनी पसंद मुताबिक
आसानी से जो पहना जा सके
दूसरा ज़ेवर नहीं बना सकती अब दुल्हन
बुज़ुर्गों की दी हुई निशानी है
ता उम्र संभाल कर रखना है उसे अब वो तौक़।
सदियाँ गुज़र गई सबकुछ बदला
लेकिन नहीं बदला वो पुराना नुकीला तौक़
आख़िर क्यों नहीं
दुल्हन की पसंद मुताबिक
गले से थोड़ा ढीला आरामदायक मुलायम
नहीं बनाकर देता कोई उसे तौक़।
*तौक़ =एक ज़ेवर है जो गले में पहना जाता है, ख़ासकर बिहार के मुसलमान घरों में, दुल्हन को शादी में दिया जाता है, और तीज़ त्योहार पर पहना जाता है कहीं-कहीं इसे हंसुली भी कहते हैं।उपर्युक्त कविता में तौक़ का एक दूसरा साहित्यिक अर्थ कविता के संदर्भ में पति भी है।
10. गाड़ियाँ
यूं लगती है कभी आदमी की ज़िंदगी
जैसे प्लेटफार्म और रेलगाड़ी के दरम्यान
खड़ा है कोई आदमी तन्हा-अकेला
अपने संगी-साथी के इंतज़ार में
और ये गाड़ी वक़्त की मानिंद
गुज़रती रहती है कभी धीरे-धीरे
कभी तेज रफ्तार से
कभी शोरग़ुल करते हुए
कभी यूं ही ख़ामोशी से
ज़िंदगी के सफ़र में आती-जाती हैं गाड़ियाँ
कभी किसी गाड़ी के सारे दरवाज़े बंद रहते हैं
किसी की रफ्तार इतनी तेज होती है
कि ज़रा सा मौक़ा नहीं देती
थोड़ा सा भी इंतज़ार नहीं करती
आदमी उसमें चढ़ ही नहीं पाता
कभी वो ख़ुद पंहुचने में इतनी देर करता है कि
कोई-कोई गाड़ी उसका इंतज़ार करके चली जाती है
कभी वो पंहुच जाता है वक़्त पर किसी गाड़ी के लिए
गाड़ी भी रुकती है उसके लिए
मगर वो सोचता रहता है फैसला नहीं कर पाता
उसके लिए कौनसी गाड़ी सही है
उसे किसमें बैठना है
यही सोचते-सोचते आँखों के सामने से
कितनी गाड़ीयाँ आकर चली भी जाती हैं
और उसे ख़बर भी नहीं होती कि क्या छूट गया।
11. लिबास
एक औरत बदलती है लिबास
वक़्त और ज़रूरत के मुताबिक
क्योंकि वो सलीकेमंद है
उसे मआलूम है
कब कहाँ क्या पहनना है
कब सफ़ेद लिबास पहनना है
कब शियाह,कब ज़र्द
कब सूर्ख़ कब सब्ज़
कब आधा पहनना है कब पूरा
उसे सब तरह के वक़्त और जगह
सभ्यता संस्कृति की तमीज़ है।
एक और औरत है
जो लिबास बदलती है
सिर्फ़ अपनी ज़रूरत
अपनी मर्ज़ी के मुताबिक
ऐसा नहीं कि वो सलीकेमंद नहीं
उसने अपने लिबास का इंतख़ाब
खुद किया है
अपने वजूद के मुताबिक
अपनी पसंद नापसंद के मुताबिक
उसने अपने रंग खुद बनाए हैं
उसने सलीके की परिभाषा ख़ुद लिखी है।
एक और औरत है
जो लिबास बदलती है
अपनी औक़ात
अपनी आमदनी के मुताबिक
ऐसा नहीं की वो सलीकेमंद नहीं
ऐसा भी नहीं कि उसे
वक़्त और जगह की तमीज़ नहीं
उसे सब मआलूमात है
उसमें एक कमी है
कि उसके पास पैसा नहीं
और सलीकेमंद – बातमीज़
होने के लिए
पैसे की सख़्त ज़रूरत होती है
वो नहीं बदलती बार – बार रंग
वो हर मौसम में
एक जैसे रंग में ही ढली रहती है
सर्दी गर्मी बरसात के
बुनयादी लिबास भी उसके पास नहीं।
12. पैंतीस पार कर चुकी औरत
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
उसके आगे की लेजर कटिंग के बाल
आधे सुफ़ेद हैं आधे काले
आधी रात के बाद उसे नींद आती है
इतवार की सुबह से पहले वो
नींद में एक स्वप्न देखती है
एक बहुत लंबी पत्थरीली सड़क है
सड़क पर वो चलती जा रही है
लंबा रस्ता है जो ख़त्म नहीं होता
वो जहां जाना चाहती है
वो रस्ता ही नहीं मिलता
चलते चलते वह सड़क
एक टी पोइंट पर समाप्त हो जाती है।
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
खुश्क रहने लगी है उसकी त्वचा
वो अक्सर सोमवार की सुबह से पहले
नींद में एक स्वप्न देखती है
वो बड़े रेगिस्तान में गर्म रेत पर चल रही है
उसके आसपास न दरख़्त हैं न पानी
आसमान भी सुनसान है
उसे जहां जाना है वहां का रस्ता भूल गई है
चलते चलते गिर गई है रेत पर
वो रेत पर उल्टी लेटकर
हाथों में रेत भरना चाहती है
मगर रेत उसकी मुट्ठियों में ठहरती नहीं
धीरे-धीरे सब सरक जाती है।
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
उसकी आँखों के निचे काले घेरे हैं
रातों को वो चलती है बंद कमरे में
उठ-उठकर ठंडे पसीने को पोंछती है
एक सांस में पी जाती है पानी
फिर भी उसकी प्यास नहीं बुझती
मंगल की सुबह से पहले वो
नींद में एक स्वप्न देखती है
समुद्र में धीरे-धीरे बढ़ रही है
समुद्र के बीच में आकर डूबने लगी है
वहां कोई कस्ती कोई साहिल नहीं है
कितना तैरे थक गई है रस्ता ख़त्म नहीं होता
पानी को अपनी मुट्ठी मे भरना चाहती है
मगर पानी उसके काबू में नहीं आता।
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
वो अब बहुत कम बोलती है
बच्चों का शोर भी उसे जहर लगता है
शोकगीत सुनने में उसका मन लगता है
बुधवार की सुबह से पहले वो
नींद में एक स्वप्न देखती है
वो एक घने जंगल में जा रही है
जंगल में सारे पत्ते पीले हैं
कहीं हरयाली नहीं है
कहीं कोई फल-फूल भी नहीं है
उसे हर मोड़ पर मिलता है एक ज़हरीला साँप
वो साँप उसका पिछा कर रहा है
उसे अपनी मुट्ठी में दबाकर वो मारना चाहती है
साँप बहुत जिद्दी और ताक़तवर है
उसके काबू में वो नहीं आता।
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
वो ख़ाली समय बीताती है खिड़की के पास
गमलों के पौधों को निहारते-निहारते
खो जाती है पुरानी यादों में
बृहस्पतिवार की सुबह से पहले वो
नींद में एक स्वप्न देखती है
वो एक पेड़ पर चढ़ना चाहती है
कोशिश करके पेड़ की टहनियों तक पंहुचती है
पेड़ के अंतिम सिरे तक जाना चाहती है
टहनी पर से कभी निचे ज़मीन को देखती है
कभी ऊपर पेड़ के सिरे को देखती है
उसे दोनों तरफ़ देखते हुए डर लगता है
वहीं बीच में फंसकर खड़ी रह जाती है।
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
उसके चेहरे पर पड़ने लगी हैं अब झुर्रियाँ
डरती रहती है उपेक्षित होने से
रसोई के खाद्य पदार्थ उसके चेहरे पर पुते रहते हैं
शुक्रवार की सुबह से पहले वो
नींद में एक स्वप्न देखती है
वो भाग रही है एक शख़्स के पीछे
वो शख़्स भागते-भागते घुस गया है एक घर में
वो पंहुचती है तो उसे दरवाज़ा बंद मिलता है
वो दरवाज़े को ज़ोर-ज़ोर से पीटती है
तभी उसकी नज़र बाहर की कुंडी पर पड़ती है
कुंडी पर एक बड़ा सा ताला लगा हुआ है।
पैंतीस पार कर चुकी युवती
जो अब आधी औरत है
कभी भूल जाती है कही बातों को
कभी रीपीट करती है संवाद को
अब वो मनोचिकित्सक की मरीज़ है
शनिवार की सुबह से पहले वो
नींद में एक स्वप्न देखती है
भूकंप आ रहा है ज़मीन हिल रही है
हिलती ज़मीन पर वो संभलना चाहती है
कभी इधर गिरती है कभी उधर
किसी दीवार का सहारा पकड़ना चाहती है
संभलने से पहले मलबे में दब जाती है।
(कवयित्री मेहजबीं, जन्म 16/12/1981. पैदाइश, परवरिश और रिहाइश दिल्ली में पिता सहारनपुर उत्तरप्रदेश से हैं माँ बिहार के दरभंगा से।
ग्रेजुएट हिन्दी ऑनर्स और
पोस्ट ग्रेजुएट दिल्ली विश्वविद्यालय से,
पत्रकारिता की पढ़ाई जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय
व्यवसाय: सेल्फ टीचिंग हिन्दी उर्दू अर्बी इंग्लिश लेंग्वेज
स्वतंत्र लेखन : नज्म, कविता, संस्मरण, संस्मरणात्मक कहानी,फिल्म समीक्षा, लेख
सम्पर्क: 88020 80227
टिप्पणीकार शायर संजय कुमार कुन्दन, बिहार शिक्षा सेवा में कार्यरत रहे, 2015 में उप निदेशक, शिक्षा विभाग, बिहार सरकार के पद से सेवानिवृत्त, 2015-16 केयर इंडिया, अंतरराष्ट्रीय एन जी ओ में कंसल्टेंट रहे। किताबें-ग़ज़लों, नज़्मों की चार किताबें ‘बेचैनियाँ’, ‘एक लड़का मिलने आता है’, ‘तुम्हें क्या बेक़रारी है’ और ‘भले तुम और भी नाराज़ हो जाओ’ प्रकाशित। दलित विचारक कांचा इलैय्या की किताब ‘ ‘पोस्ट हिन्दू इंडिया’ का अनुवाद, सेज़ प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित। कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित। शिक्षा संबंधी कई पुस्तक निर्माण कार्यशालाओं का आयोजन एवं प्रशिक्षण.
संपर्क: संजय कुमार कुन्दन, 406, मानसरोवर अपार्टमेंट, रोड नं- 12-बी, अर्पणा कॉलनी, रामजयपाल पथ, गोला रोड के सामने, बेली रोड, पटना
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