30 वर्षों से रचनारत कुमार मुकुल के कविता परिदृश्य का रेंज विशाल और वैविध्य से भरा है , प्रस्तुत कविताओं में आज के समय को कुमार मुकुल ने मूलतः लोकतंत्र के भगवाकरण की समीक्षा के बतौर सामने रखा है।
‘परिदृश्य के भीतर’ , आलोचना पुस्तक अंधेरे में कविता के रंग, डॉ राम मनोहर लोहिया और उनका जीवन दर्शन, ‘ग्यारह सितंबर और अन्य कविताएं’ से लेकर पिछले साल आये कविता संग्रह ‘ एक उर्सुला होती है’ तक कुमार मुकुल का कविता-रचना-परिदृश्य है। मनोवेद पत्रिका के संपादक व साहित्यकार विनय कुमार ने मुकुल के नये कविता संग्रह के लोकार्पण में कहा था कि मुकुल अपने जीवन के तमाम फैसले कविता से पूछकर करते हैं। इसलिए मैंने इसे लेखन-परिदृश्य नहीं कविता-रचना-परिदृश्य कहा है।
विकासक्रम में आज कुमार एक सचेत राजनीतिक दृष्टि-संपन्न कवि में बदल गए हैं , जिसकी संवेदना आसिफा के साथ खड़ी होकर भगवा सत्ता जो बलात्कारोपितों को संत की उपाधि दे रही है उसकी शिनाख्त करती है। मुकुल भगवा सत्ता के ‘ अपाहिज होते लोकतंत्र में’ जहां ‘धन तो बहुगुणित होता जा रहा’ पर ‘जन गण का जीवन बदलता जा रहा / एक विराट चीख में’ बदलते देखते हैं कि
यह आज एक ऐसे लोकतंत्र में बदल दिया गया है जहां शाहों और थैलीशाहों के धन 50 हजार गुणा बढ़ जा रहे वहीं जन-गण पर तरह-तरह के टैक्स , तबाही , खान-पान ,रहन-सहन की बंदिशें हैं।
जब कवि आदमी से एक दर्जा ऊपर के नागरिक, यानि बाबा(साधु-संत जहां मंत्री का दर्जा प्राप्त कर रहे हैं) से पूछता है कि ‘तुम्हारे इस प्रोजेक्ट की एक्सपायरिंग डेट क्या है’ तो लगता है कि जैसे पूछ रहा हो कि बाबा तुम्हारे ‘ हिंदुत्व के प्रोजेक्ट ‘ को कब तक चलना है। क्योंकि ‘एक जमाने से ‘ — — — ‘चले आ रहे हम’ और
‘गांधी बाबा के ये तमगे धूमिल पड़ रहे हैं’ यानि आजादी के संघर्ष के मूल्य जो पुराने पड़ गए हैं , उससे उपजे शून्य पर ये बाबा-राज(भगवा-राज) खड़ा किया जा रहा है।
उस ‘गली-मुहल्ले-कस्बे-बाजार-किवाड़-कबाड़’ और हर ‘खाली-देखी-भाली जगह ‘ को भरने ‘ वाला तुम्हारा यह आशीर्वाद जो आ चिपका है’ (लोकतंत्र के बरअक्स आशीर्वाद-तंत्र या हिंदू-राष्ट्र या बाबा-राज या भीड़तंत्र) वे पूछते हैं कि ‘क्या यह गरीबी रेखा के नीचे भी काम करता है’ या ‘क्या यह आबादी के दलित हिस्से पर भी फलित होता है’। यह तय है कि दलित , गरीब व आसिफा के लिए इस तंत्र में कोई जगह नहीं होगी सिर्फ उनकी ‘विराट चीख ‘ होगी।
मुकुल की कविता में विरासत की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। वो भोजपुर में जन्मे हैं और उस माटी के ‘बारूदी छर्रे की खुशबू ‘ लिए हैं और मिथिलांचल की भाषिक विरासत से समृद्ध हैं , इन्हें पढते बाबा नागार्जुन यूं ही याद नहीं आ रहे।
व्यंग्य , वक्रोक्ति से भरी शीषर्क कविता ‘ क्या थे नेहरू – – – देशभक्तोवाच’ में कवि की संवेदना आजादी के आन्दोलन के सांप्रदायिकता-विरोधी नेता नेहरू के कई रंगों को सामने लाती है ।
मुकुल की ज्ञानात्मक संवेदना अम्बेडकर को भगवा रंग का वस्त्र पहना देने की उन्मादग्रस्त कार्रवाई व ‘भगवा की जगह/ हरे को फैलाना’ को अपराध बताने वालों को स्पष्ट तौर पर ‘तुम्हारा मानस पीलियाग्रस्त है ‘ बताती है।
कुमार मुकुल की कविताएँ-
मन ना रंगाये
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हरी दीवारों को
भगवा कर रहे तुम
क्या अब दीवारें
बांटने की जगह
जाति-बिरादरी
और तमाम फिरकों को
एक करने का काम करने लगेंगी
तब इस अछोर हरियाली
का क्या करोगे तुम
जो मौसम की एक थाप पर
चतुर्दिक अपनी विजय पताका
लहराने लगते हैं
हल्की हवा में झूमते पत्ते
क्या पागल बनाते हैं तुम्हें
क्या बस धूसर शमशानी रंग ही
पसंद हैं तुम्हें
अंबेडकर को तुमने
पहना दिये भगवा वस्त्र
कल को क्या
संस्कृति का मुंडन कर
शमशान में बिठाने का इरादा है
रंगों के आधार पर कोई निष्कर्ष
कैसे निकाल सकते हो तुम
तब तो बिष्ठा का रंग तुम्हे भायेगा
क्योंकि वह तुम्हारे प्रिय रंग के
निकट का पड़ता है
गोबर तो पहले से पवित्र है
क्या बिष्ठा को भी
पवित्रता का तमगा प्रदान करोगे
जैसे बलात्कारोपितों को
संत का मुखौटा प्रदान कर
हताशाराम की आशाएं जगा रहे
जबकि हरियाली को चारो सिम्त
फैलाने वाले अन्नदाता
आत्महत्या पत्र पर
तुम्हारा नाम दर्ज कर
राम जी के पास जा रहे
कहीं भगवा की जगह
हरे को फैलाना
उनका अपराध तो नहीं है
क्या तुम्हारा मानस
पीलियाग्रस्त है।
आसिफा
इस अपाहिज होते लोकतंत्र में
कोई क्या कर सकता है
श्यापा पसारने के सिवा
जब प्रधान जी ही मजबूर हैं
और लोकतंत्र बचाने की गुहार लगाते
उपवास कर रहे स दल बल
पूर्व सेनानायक ने भी कहा
कि जो हुआ उससे यही लगता है कि
इन्सान होना एक गाली है।
कैसी मजबूरी है कि भारत माता के तमाम लाल
जटट के जटट लगे हैं बेटी बचाने में
पर वही नहीं बच पा रही
अपना तन मन धन सब बचा पा रहे वे
धन तो बहुगुणित होता जाता है
दिन महीना सालों साल
पर जन गण का जीवन
बदलता जा रहा
एक विराट चीख में।
कुछ बिंदास बाबाओं के नाम
// 2003 की डायरी से
तुम्हारा यह ‘आशीर्वाद’ जो आ चिपका है
गली-मुहल्ले-कस्बे-बाजार-किवाड-कबाड और हर खाली-देखी-भाली जगह पर
इसकी रेंज क्या है बाबा
क्या यह गरीबी रेखा के नीचे भी काम करता है
तुम्हारे चेहरे की तरह तुम्हारा नारा भी सुललित है बाबा
पर इसका बजट क्या है क्या आबादी के दलित हिस्से पर भी फलित होता है यह
या अखिल जगत में समान भाव से विचरण ही करता है केवल
तुम्हारे इस प्रोजेक्ट की एक्सपायरिंग डेट क्या है बाबा
हम भी अपना सारा सरो-सामान बदलना चाहते हैं
एक जमाने से यह सत्य-अहिंसा-उपवास लिए चले आ रहे हम
गांधी बाबा के ये तमगे धूमिल पड रहे हैं
अपनी छवि सा बिंदास कुछ हमें भी दो ना बाबा
यह छूंछा आशीर्वचन तो बस बजेगा खूब हमारी खाली थाली में
पर हम भूखे पेटों को तो तुम्हारे लालत्यि का आमलेट चाहिए
इसके बदले ले लेना हमारी ढिबरी का घासलेट
कुछ स्वाहा व्वाहा करने के काम आ जाएगा।
क्या था नेहरू – – -(देशभक्तोवाच)
नहर किनारे रहता था तो नेहरू हो गया
जैसे मैं मनमोदक बेचता हूँ तो
मनमोदक कहलाता हूँ
वह आजादी की लड़ाई में जेल गया
तो बहुत से लोग गए थे
जेल में भी क्या किया भला
किताब पढ़ा और किताब लिख दिया
आज देखो मुझपर कितने लोग
किताब लिख रहे तो
क्या वे महान हो गए
जेल में भी शीर्षासन करता था
सोचो – कैसा देशद्रोही था
जेल में भी देश के बारे में नहीं
अपने स्वास्थ्य के बारे में सोचता था
उससे अच्छा तो अपना दामदेव बाबा है
योगा कर कर के पंजरी का
सब हड्डी निकाल लिया है।
(कवि कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं. टिप्पणीकार नवीन संस्कृतिकर्मी हैं.)
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