मेहजबीं
ख़ुदेजा ख़ान की कविताएँ अपने वर्तमान समय का दस्तावेज़ हैं। उनकी कविता के केन्द्र में आम लोग हैं, मतदाता हैं, बूढ़े हैं, बच्चे हैं, गांधी हैं, शासक वर्ग हैं, शोषित पीड़ित वर्ग है, साम्राज्यवाद का घिनौना अमानवीय चेहरा है।
ख़ुदेजा बहुआयामी दृष्टि रखती हैं। उनकी नज़र चारों तरफ के समसामयिक मुद्दों विषयों, समस्याओं पर है। उनकी कविता पढ़ने के लिए शब्द कोश की सहायता नहीं चाहिए। बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा में गद्यात्मक शैली में वो अपनी बातें पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। बहुत कम शब्दों में बड़ी बात कह देती हैं। उनकी छोटी छोटी कविताएँ हैं, मगर उनमें समस्याएँ गंभीर और संवेदनशील हैं।
लंबे समय तक ग़ुलामी ब्रिटिश साम्राज्य का आर्थिक सामाजिक राजनैतिक शोषण भारतीय लोग झेल रहे थे। गांधी जी ने इस स्थिति को देखा महसूस किया। अपने देश को आर्थिक सामाजिक राजनैतिक आज़ादी दिलाने के लिए उन्होंने सत्याग्रह का रास्ता चुना। एक लंबा दौर चला सत्याग्रह का जनांदोलन का। देश तो आज़ाद हो गया मगर व्यवस्था में कोई विशेष सुधार नहीं आया। पूंजीपतियों द्वारा किया जाने वाला आर्थिक शोषण आज भी जारी है। पूंजीवादी व्यवस्था की मार जनता आज भी बर्दाश्त कर रही है। देशवासी गांधी जी की पूजा अर्चना तो करते हैं, गांधीवाद पर सेमिनार आयोजित करते हैं, किताबें लिखते हैं, काव्य संग्रह लिखते हैं, मगर उनकी विचारधारा पर कोई अमल नहीं करता। इसी पाखंडी आचरण पर ख़ुदेजा ख़ान लिखती हैं।
दलित, पिछड़े, निम्न वर्ण की
जेबों से होते हुए
सवर्ण की जेबों तक
नोट अपनी यात्रा
निर्विवाद रूप से करता है तय
जेबों और तिजोरियों में
सुरक्षित रख लिया गया बापू को
और मूर्तियां बिना प्रतिकार के
खड़ी कर दी गईं चौराहों पर
गांधी की विचारधारा
नोट पर अंकित
उन चौदह भाषाओं की तरह
अनेकता में एकता का सबूत देतीं
मौन चीत्कार में बदल गई
और नोट अस्पृश्यता का पालन करते हुए
कभी अछूत नहीं हुआ
न कभी उसका मूल्य ही घटा
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व की महाशक्ति के तौर पर अमेरिका विश्व की महाशक्ति के रूप में उभरा। अमेरिका में हथियार बनते हैं, हथियार की बिक्री होती रहे इसलिए अमेरिका महाशक्ति की भूमिका राष्ट्रों को लड़ाकर रखता है। “फूट डालो शासन करो की निति उसने आज भी बनाई हुई है। नाटो देशों में शामिल है। खाड़ी के देशों में फूट डालता है, उन्हें लड़वाकर अपने हथियार बेचता है। उसकी भूख बहुत बड़ी है। अपनी भूख मिटाने के लिए अमानवीय व्यवहार करता है। सामने से रक्षक बनता है पीछे से चाल चलता है। यह क्रूरता अपने साम्राज्यवाद को बढ़ाने के लिए करता है। इज़राइल की स्थापना करने का उद्देश्य भी यही है। इज़राइल के पीछे पश्चिमी देशों का हाथ है। इज़राइल को कठपुतली बनाकर वो धीरे धीरे अपना साम्राज्यवाद बढ़ा रहा है। सौ साल से इज़राइल फलिस्तीन का नरसंहार ज़ारी है। खाड़ी देशों के संसाधनों की लूट-खसोट के लिए बच्चों पर बम गिराए जाते हैं। अपनी भूख मिटाने के लिए नर पिशाच बन गये हैं। इस नरसंहार अमानवीयता पर ख़ुदेजा ख़ान लिखती हैं।
हमने सपना देखा
एक सुन्दर दुनिया का
उन्होंने इसे युद्ध में बदल दिया
तीन पूजनीय स्थलों की पवित्र भूमि
नरसंहार में बदल गई
दैनिक जीवन छिन्न-भिन्न करके
जीवन को मृत्यु का जामा पहना दिया
अनगिनत हत्याओं के पाप
कैसे धो पाएंगे ये धार्मिक स्थल
दो विरोधी शक्तियों के टकराव में
बच्चे, बूढ़े, औरतों की चकनाचूर हुई दुनिया
फिर नहीं संवर पायेगी
काश! ये आहें और कराहें
मिसाइल की तरह जा लगतीं
पापियों के सीने पर
ये नौबत ना आती
बच्चे अपने हाथों पर
अपना नाम लिख रहे हैं
ताकि मलबे में मिली लाशों में
उनकी शिनाख़्त हो सके।
पूंजीवादी व्यवस्था की शोषणकारी चक्की में ग़रीब मज़दूर तबके के लोग पिस्ते हैं। आर्थिक सामाजिक राजनैतिक असमानता को दूर करने का संपना आज भी अधूरा है। अधूरा ही रहेगा। राजनीति के केन्द्र में ग़रीब मज़दूर आदमी कभी नहीं होता। राजनीति के केन्द्र में होना चाहिए रोज़गार, शिक्षा स्वास्थ नौकरी बिजली पानी। मगर होता क्या है चुनाव जाति धर्म के आधार पर लड़े जाते हैं। मिडिया की भूमिका ने मतदाता को भी ऐसी मानसिकता का बना दिया है कि वो भी जाति धर्म के आधार पर मतदान करते हैं। इस स्थिति में शरीफ महनती ग़रीब आदमी का उद्देश्य है ज़िंदा रहने भूख मिटाने की जद्दोजहद। मनोरंजन तो बहुत दूर है उनके लिए। ज़िन्दा रहने के लिए संघर्ष करना ही उनकी ज़िंदगी का एकमात्र उद्देश्य है। ख़ुदेजा सिस्टम की मार सहते नागरिक के लिए लिखती हैं।
अपने अंदर की
छुपी हुई आग को
मैंने हरे पत्तों से ढंक रखा है
ये हरापन मुझे बचाए रखता है
ईंधन बनने से
जब तक हरा हूं
बचा रहूंगा
जब तक आंधी नहीं गिराती
खड़ा रहूंगा इसी तरह
अगर काटा नहीं गया तो
जीवित रहूंगा सदियों तक
और सूख गया तो
कह नहीं सकता
चूल्हे में जाऊंगा या चिता में।
ख़ुदेजा ख़ान को विस्तार से जानने समझने के लिए उनकी कविताओं का अध्ययन ज़रूरी है। अपने भूतकाल, वर्तमान काल, भविष्य काल के साथ ख़ुदेजा ख़ान अपनी रचनाओं में उपस्थित हैं। आइये उनकी कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ते हैं।
ख़ुदेजा ख़ान की कविताएँ
1.
हज़ारों- हज़ार
ज़मींदोज़ मृतकों में
पड़े- पड़े
शुरू हो गई बात-चीतें
घनिष्ठता बढ़ने लगी
जाति- नस्ल- कुल- गोत्र की बात पर
वे ठठा कर हंसे
ये सारे फसाद की जड़
देखो हमें, बिल्कुल एक जैसे
निरे कंकाल के कंकाल
वही दो सौ छै हड्डियों का ढांचा
है कि नहीं
वो फिर हंसने लगे।
2.
मान लिया कि
कुछ नहीं है जनता
ताश के पत्तों की तरह
दुक्की ,तिक्की, चौकी
सारी ताक़त
बादशाह की मुट्ठी में
मगर इन से भी बड़ा होता है
तुरुप का पत्ता
ट्रंप कार्ड जब चलता है
बाज़ी उलट देता है
दुक्की कर सकती है
मतदाता की तरह
कभी भी तख़्तापलट
साधारण जन के
ट्रंप कार्ड में बदलते ही
घटित होती है असाधारण घटना।
3.
अपने अंदर की
छुपी हुई आग को
मैंने हरे पत्तों से ढंक रखा है
ये हरापन मुझे बचाए रखता है
ईंधन बनने से
जब तक हरा हूं
बचा रहूंगा
जब तक आंधी नहीं गिराती
खड़ा रहूंगा इसी तरह
अगर काटा नहीं गया तो
जीवित रहूंगा सदियों तक
और सूख गया तो
कह नहीं सकता
चूल्हे में जाऊंगा या चिता में।
4.
कमाल ये कि
प्यादे से लेकर राजा तक
हर मोहरे की तरह
चलना पड़ा मुझे
वक़्त – ज़रुरत
हाथी, घोड़ा,ऊंट
बनना पड़ा मुझे
जीने का फार्मूला यही
बिना शिकायत
हर ख़ाने में फ़िट बैठना
मगर रानी के तेवर अलग
उसे मंज़ूर नहीं
वज़ीर की सुरक्षा में रहकर
खेल के आनंद से वंचित रहना।
5.
हे! श्रमजीवी तुमने
पहरों आंखों को थका कर
हाथों को व्यस्त रखा कामों में
चित्त को लगाए रखा
एक ही जगह एकाग्र होकर
कि कहीं चूक न हो जाए
एक-एक नगीना तराश कर
स्वर्ण की जालीदार नक्काशी में
जड़ते रहे
और बनाया एक ख़ूबसूरत ताज
देखो अब यह ताज
सजा है पूंजी के सर पर
ऐसे देख रहा है तुम्हें
जैसे कि पहचानता नहीं।
6.
जो था अब नहीं है
जो है नहीं रहेगा
सांस- सांस समय के साथ गुज़रता हुआ
ये जो ‘है’
‘था’ बनकर अटका रहता है
अचेतन मन के पानियों में
काई, पत्थर, दरारों के बीच
था और है का पेंडुलम
तीनों कालों को
रखता हुआ नियन्त्रित
साधता है संतुलन
कुछ ऐसे कि-
‘था’ का साथ छूटने नहीं देता
‘है’का बंधन टूटने नहीं देता।
7.
पीछे मुड़कर देखने का
समय नहीं अब
पीछे जाने का मतलब
इतिहास की काली परछाईयों से घिर जाना
अतीत के दलदल से
निकलने के प्रयास में
और गहरे धंसते चले जाना
समय की रफ़्तार से
तेज़ दौड़ना भी संभव नहीं
नाॅस्टेल्जिक होकर
उड़ना और खो जाना
क्षणिक आवेश व आनंद के क्षण में
अतीतजीवी लड़खड़ाते रहे
चलने के पहले
आगे बढ़ने के लिए
निरंतर चलना ही विकल्प
वर्तमान के बस्ते में संचित
भविष्य की पोथी- पत्रियों को
सीखना हैं बांचना
कठिन से कठिनतम हो रहे
समय के लिए।
8.
दलित, पिछड़े, निम्न वर्ण की
जेबों से होते हुए
सवर्ण की जेबों तक
नोट अपनी यात्रा
निर्विवाद रूप से करता है तय
जेबों और तिजोरियों में
सुरक्षित रख लिया गया बापू को
और मूर्तियां बिना प्रतिकार के
खड़ी कर दी गईं चौराहों पर
गांधी की विचारधारा
नोट पर अंकित
उन चौदह भाषाओं की तरह
अनेकता में एकता का सबूत देतीं
मौन चीत्कार में बदल गई
और नोट अस्पृश्यता का पालन करते हुए
कभी अछूत नहीं हुआ
न कभी उसका मूल्य ही घटा।
9.
हमने सपना देखा
एक सुन्दर दुनिया का
उन्होंने इसे युद्ध में बदल दिया
तीन पूजनीय स्थलों की पवित्र भूमि
नरसंहार में बदल गई
दैनिक जीवन छिन्न-भिन्न करके
जीवन को मृत्यु का जामा पहना दिया
अनगिनत हत्याओं के पाप
कैसे धो पाएंगे ये धार्मिक स्थल
दो विरोधी शक्तियों के टकराव में
बच्चे, बूढ़े, औरतों की चकनाचूर हुई दुनिया
फिर नहीं संवर पायेगी
काश! ये आहें और कराहें
मिसाइल की तरह जा लगतीं
पापियों के सीने पर
ये नौबत ना आती
बच्चे अपने हाथों पर
अपना नाम लिख रहे हैं
ताकि मलबे में मिली लाशों में
उनकी शिनाख़्त हो सके।
10.
बचा के रखा है अस्तित्व
अस्थि मज्जा सूख गए तो क्या
शरीर में जान बाक़ी है
फिर -फिर हरहरा के
लहलहा जाऊंगा
देखते नहीं
ठूंठ हूं परन्तु
अपने बूते खड़ा हूं मैं।
11.
और फिर पता चलता है
धार्मिक कट्टरता की परिणति
हो गई युद्ध में
युद्ध में हथियारों की खपत
सबसे सुगम रास्ता
हथियारों के व्यापार का
हथियार शक्तिशाली हाथों में जाकर
बन गए क्रूर, हिंसक, जानलेवा
साम्राज्यवाद के बिगुल के सिवा
कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती
निर्मम शासको को
हर धमाके के साथ
बढ़ा देते हैं वे
नारकीय जीवन की त्रासदी
लगातार हो रहे हमलों से
असंख्य पीड़ित मनुष्यों का नाम
दर्ज हो रहा है
मृतकों की सूची में
घोर विडंबना की सूचक
इस सूची का अंत दिखाई नहीं देता
जैसे निर्दोषों का जान गंवाना
अलिखित क़ानून हो युद्ध का।
________________________________
कवयित्री ख़ुदेजा ख़ान, जन्म- 12 नवम्बर. हिंदी -उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और संपादक के रूप में कार्य।
तीन कविता संग्रह। उर्दू में भी दो संग्रह प्रकाशित।साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध।
समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध।
जगदलपुर(छत्तीसगढ़) में निवासरत।
फोन-7389642591
टिप्पणीकार मेहजबीं, जन्म 16/12/1981. पैदाइश, परवरिश और रिहाइश दिल्ली में पिता सहारनपुर उत्तरप्रदेश से हैं माँ बिहार के दरभंगा से। ग्रेजुएट हिन्दी ऑनर्स और पोस्ट ग्रेजुएट दिल्ली विश्वविद्यालय से, पत्रकारिता की पढ़ाई जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय
व्यवसाय: सेल्फ टीचिंग हिन्दी उर्दू अर्बी इंग्लिश लेंग्वेज
स्वतंत्र लेखन : नज्म, कविता, संस्मरण, संस्मरणात्मक कहानी,फिल्म समीक्षा, लेख
सम्पर्क: 88020 80227