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निराला का वैचारिक लेखनः राष्ट्र निर्माण और हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल

निराला ने रचनात्मक साहित्य के साथ साहित्यिक पत्रकारिता भी की है। अपने समय में प्रेमचंद के अलावा निराला ही थे, जो रचनात्मक साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता दोनों में, हिंदी जगत में बड़ी लकीर खींचते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के साथ निराला ने राजनीतिक टिप्पणियां भी खूब लिखी हैं।

अंग्रेजी शासन या ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की नीतियों के साथ, निराला ने आजादी की लड़ाई के नेतृत्व पर भी लिखा है। आजादी के लिए चलने वाले राजनीतिक संघर्ष और तत्कालीन कांग्रेस की नीतियों पर तो वह अपनी कविताओं और कहानियों में भी लिखते हैं, उसे विषय बनाते हैं, लेकिन अपनी वैचारिक टिप्पणियों में भी निराला ने बहुत लिखा है।

इसके साथ ही निराला की जो खासियत उन्हें नवजागरण के दूसरे चरण में सर्वथा अलग करती है, वह है सामाजिक समस्या को केंद्र में रखना। जाति, स्त्री और सांप्रदायिकता पर उन्होंने गंभीर, सुचिंतित टिप्पणियां लिखी हैं। खासकर, हिंदी समाज में जाति, लिंग और सांप्रदायिकता की जो स्थिति वे पाते हैं, उसके संदर्भ से राजनीतिक नेतृत्व की सीमाएं दिखाने वाले वे विशेष लेखक हैं। विरल और अनूठे भी।

निराला एक पदबंध कई जगह इस्तेमाल करते हैं, ‘बापू  मुर्गी खाते यदि तुम’। यह उनकी कविता भी है। उनकी कहानी कला की रूपरेखा में भी यह आता है और राजनीतिक-सामाजिक वैचारिक लेखन में भी आता है। यह कांग्रेस में सांप्रदायिक समस्या के समाधान पर चलने वाली बहस और कवायद या व्यावहारिकता के सापेक्ष निराला का अपना समाधान है।

गांधी खुद वैष्णव व्यावहारिकता के करीब थे। कांग्रेस के हिंदी पट्टी के प्रायः नेता ब्राह्मण संस्कार से संचालित थे और यही नेतृत्व हिंदू-मुस्लिम एकता और सांप्रदायिक समस्या पर विचार करता था,  और नीतियों का प्रस्तावक भी होता था। निराला इन सभी नेतृत्वकारी लोगों  के लिए लिखते हैं,  ‘मुर्गी खाते यदि तुम’! अर्थात, बिना खान-पान की एकता के सांप्रदायिक समस्या का कोई समाधान इन नेताओं के पास हो ही नहीं सकता था। निराला के यहां इसीलिए यह पदबंध बहुत सायास और सरोकार के साथ आया है।

निराला के यहां आधुनिक राष्ट्र निर्माण और नागरिकता पर जो चिंतन है, उसी में यह सन्निहित है। निराला अकेले हैं, जिन्होंने नागरिकता पर स्वतंत्र टिप्पणी  लिखी है। उनकी टिप्पणी का शीर्षक है, ‘पौरत्व’।

इसमें निराला  नागरिक संवेदना की बात तो करते ही हैं, साथ ही हिंदी लेखकों से आह्वान करते हैं, कि वे नागरिक संवेदना के निर्माण और आधुनिक राष्ट्र निर्माण में उसके महत्व पर लिखें।

1932 ईस्वी में निराला  लिखते हैं कि हिंदी में नागरिकता पर कोई लेखन ही नहीं है। निराला की इस बात से पूरे हिंदी नवजागरण की तब तक की स्थिति का पता चलता है। नागरिक निर्माण के इसी चिंतन के तहत निराला जाति व्यवस्था, सांप्रदायिकता, हिंदू-मुस्लिम समस्या, स्त्री स्वाधीनता आदि को भी अपने चिंतन के दायरे में लाते हैं।

औद्योगिक क्रांति के बाद जिस आधुनिक मनुष्य के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, वैयक्तिक स्वतंत्रता का स्वर उठा, उसका प्रभाव बंगाल से शुरू होकर भारत में अन्य जगहों पर पहुंचा। लेकिन इस वैयक्तिक स्वतंत्रता की चेतना के साथ सामाजिक स्वाधीनता या सामाजिक मुक्ति का सवाल प्रायः राजनीति और साहित्य दोनों में अनुपस्थित था। निराला ऐसे कवि, लेखक, विचारक हैं, जिनके यहां वैयक्तिक स्वाधीनता की चेतना के साथ सामाजिक स्वाधीनता की चेतना भी संयुक्त है।

हिंदी में अज्ञेय और जैनेन्द्र आदि का साहित्य  देखने पर आधुनिकता और वैयक्तिक  स्वाधीनता की चेतना और उससे निकले विचार सबसे उन्नत मिलते हैं। लेकिन, दोनों के यहां जाति व्यवस्था से मुक्ति का प्रश्न नहीं है। सांप्रदायिकता और हिंदू-मुस्लिम एकता, हिंदू-मुस्लिम समस्या का सवाल नहीं है। खान-पान का सवाल नहीं है। सामाजिक संस्थाओं को लेकर, ब्राह्मणवाद को लेकर, अंतरजातीय विवाह जैसे उन सवालों पर कोई विचार नहीं है, जिससे किसी देश, राष्ट्र  आदि का सांस्कृतिक निर्माण होता है।

जबकि, निराला लगातार इसी से जुड़ते जाते हैं। निराला नागरिक चेतना के निर्माण में जाति व्यवस्था, सांप्रदायिकता, भाषा, खान-पान की समस्या को बाधक मानते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है कि निराला इस विचार तक पहुंच गए थे कि सांप्रदायिकता और मुस्लिम विरोधी धारणा के मूल में हिंदू वर्ण विभाजन का विचार है।

अपनी टिप्पणी, ‘हमारे हिंदू और मुसलमान’ में निराला लिखते हैं,

“हिंदुओं की संकीर्णता के कारण ही मुसलमान, इस देश में संकीर्ण हो रहे हैं। यदि फ़ारस में वे बढ़े-चढ़े विचारों के हैं, रूस में उनके धर्म का चोला बदल गया है, टर्की में उनका कुछ और ही रूप हो रहा है, तो कोई कारण नहीं कि यहां के मुसलमान भी हिंदुओं के बढ़ते हुए विचारों और समाज सुधारों को देखकर अपना सुधार न करें।”

‘संस्कारों के बंधनों से जकड़ा हुआ हिंदू समाज’, ‘प्राचीन विचारों से पराधीन हिंदू’ ही एकता के विचार में बाधक है। निराला के इस कथन को जांचा जा सकता है।

आज भी उन प्रांतों  में, जहां सामाजिक सुधार आंदोलन तेज रहे,  वहां के मुसलमानों में भी प्रगतिशीलता और आधुनिकता के तत्व दिखते हैं,  जबकि हिंदी प्रदेश में ऐसा कोई सामाजिक सुधार आंदोलन नहीं हुआ, यहां हिंदू संकीर्ण विचार प्रबल बने रहे। इसका प्रभाव मुसलमानों पर भी पड़ा।

यहां तक कि जाति व्यवस्था का स्तरीकरण, भेदभाव, उँच-नीच मुसलमानों  में भी पाया जाने लगा। दूसरी बात कि संकीर्णता का हिन्दू संस्कार और विचार एकता में बाधक है। इसे भी कोई जांच सकता है कि आज की तारीख में,  हिन्दू-मुस्लिम एकता में सबसे बड़ी बाधा संकीर्णता की पोषक हिन्दूवादी सरकारें हैं। आधुनिक राष्ट्र निर्माण और नागरिक चेतना के सांस्कृतिक पहलू पर निराला इतना चौतरफा सोचते हैं, जैसे कोई सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता सोचता है।

उनकी टिप्पणियां एक तरफ वस्त्र समस्या, मांसाहार आदि पर है, तो एक टिप्पणी है, ‘पुस्तकालय, पुस्तक पाठ और उसका महत्व’। इतना विस्तृत चिंतन, आधुनिक राष्ट्र निर्माण की चिंता से जुड़ा है।

इसलिए निराला लगातार जाति, भाषा, धर्म पर विचार करते हैं। उसके सांस्कृतिक पहलुओं पर विचार करते हैं।

‘हिंदू’ और ‘हिंदवी’ शब्द पर विचार करते हुए निराला लिखते हैं,

“हिंदू शब्द से ‘हिंदवी’ में कोई फ़र्क नहीं। सिवा इसके कि प्रथमोक्त शब्द प्राचीन अनेक संस्कारों, अनेक ऐतिहासिक तथा राजनीतिक घृणाओं और आपत्तियों से मिला हुआ, दूसरों का दिया हुआ जातीय शब्द है, और शेषोक्त सुधार के शंखनाद से भरा हुआ, तमाम भेदों को दूर करने की ध्वनि करता हुआ, अपनी ही मौलिकता से चमकता हुआ शब्द। यदि इससे अच्छा और व्यापक तथा सुरुचि-संयुक्त दूसरा शब्द कोई गढ़ा जा सके, जो राष्ट्रभाषा के महत्व की रक्षा करता हुआ, राष्ट्र को एक ही भाव की रज्जु से बांध सकता हो, तो हमें उसे मान लेने में कोई एतराज नहीं।”

हालांकि भाषा विज्ञान और बौद्ध साहित्य के नवीन अध्ययनों से यह बात कि ‘हिंदू’ शब्द बाहर का दिया है, खंडित हो गया है। ‘हिंद’ शब्द बौद्ध साहित्य में पहले से मौजूद था व भारतीय भूगोल के भीतर प्रचलित था। यह एक प्रामाणिक तथ्य है। लेकिन, बावजूद इसके, निराला ‘हिंदू’ शब्द के रूढ़ अर्थ में भेदकारी अर्थ देखते हैं, यह महत्वपूर्ण है। हर भारतीय को ‘हिंदू’ शब्द से पहचान करने को निराला आपत्तिजनक मानते हैं।  उसकी जगह वे ‘हिंदवी’ को ‘भेदों को दूर करने की ध्वनि करता हुआ’ कहते हैं।

निराला का यह विचार आरएसएस व सावरकर के तत्संबंधी विचार का प्रतिरोधी विचार है। जाहिर है, कि निराला राष्ट्र निर्माण में भाषा के सवाल में भी हिंदू-मुस्लिम एकता को कितना जरूरी मानते हैं व उसके लिए कितने सचेत और वैचारिक रूप से सक्रिय हैं। भारतवासियों के परिचय के लिए एक जातीय शब्द गढ़ना जरूरी मानते हुए निराला ‘हिंदवी’ का प्रस्ताव करते हैं।

‘हिंदवी’ को निराला जातीय शब्द मानते हैं।  जबकि आज के हिंदूवादी ‘हिंदवी’ को मुस्लिम समुदाय से संयुक्त कर विजातीय  कहते हैं।  इन हिंदूवादियों के पास जातीयता का भी कोई ज्ञान नहीं है, सिवा क्षुद्र, पतित राजनीतिक स्वार्थ के। इसीलिए हिंदूवादी राजनीतिक जमात के लोग निराला को ब्राह्मण और हिंदू धर्म के हितचिंतक के रूप में साबित करने के लिए व्याकुल रहते हैं। और, आश्चर्यजनक है कि अस्मितावादी  विमर्शकार निराला को वही साबित भी कर देते हैं।

इतना ही नहीं, तथाकथित स्वतंत्र लेकिन मूलतः व्यक्तिवादी विमर्शकार भी निराला को जाति के भीतर धकेलने के प्रति आग्रही रहते हैं, आतुर होते हैं।  अगर निराला ने सहानूभूति से दलित, स्त्री, वंचित  जीवन को देखा है तो कोई बताये कि ‘सहानुभूति’  उच्चतर मानवीय भाव है या हीनतर भाव।

दूसरे, अगर निराला जाति के भीतर ही चिंतन करते हैं, तो नवजागरण में आधुनिकता और प्रगतिशीलता के विचार को कैसे देखा जायेगा! आधुनिक मूल्यों के संघर्ष को कैसे देखा और विश्लेषित किया जायेगा! इसमें जो हिन्दूवाद की तीव्र आलोचना है, उसे कैसे देखा जाएगा!

ध्यान देने की बात है कि पूरे हिंदी नवजागरण की वैचारिक  स्थिति में प्रेमचंद व निराला दो ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने नवजागरण की वैचारिकी में  फ़र्क पैदा किया। हिंदी नवजागरण को आधुनिक, प्रगतिशील व सेकुलर मूल्य से जोड़ा, उस पर खड़ा किया।

ताज्जुब कि इन्हीं दो पर अस्मितावादियों का जोरदार हमला होता है। व्यक्तिवादी लेखन की तरफ से भी इन्हीं दो पर सर्वाधिक आक्षेप  होते हैं। अस्मितावादी और व्यक्तिवादी दोनों अपने तर्क पद्धति में वर्णवाद, हिन्दूवाद के करीब पहुंच जाते हैं।

ठीक  यही बात आज के समय में देखने को मिलती है कि जब फ़ासिस्ट हिंदूवादी राष्ट्र की बुनियाद को चौतरफा  नष्ट कर रहे हैं,  अस्मितावादी और व्यक्तिवादी दोनों हिंदूवादियों की बजाय वाम  सेकुलर शक्तियों पर लगातार हमलावर रहते हैं। खैर

कोई भी अपनी सामान्य बुद्धि से भी आधुनिक राष्ट्र निर्माण के बारे में सोचेगा, तो निराला और प्रेमचंद दो ही लेखक, बौद्धिक, विचारक के पास जाएगा, उन्हें अपनायेगा।

निराला के चिंतन में, वैचारिक लेखन में आधुनिक राष्ट्र निर्माण का प्रश्न  है और इसके लिए वे जरूरी हर एक तत्व पर विचार करते हैं।

सांप्रदायिकता और हिंदू-मुस्लिम एकता पर निराला  तत्कालीन  राजनीतिक नेताओं से ज्यादा आगे बढ़े हुए दिखते हैं। राजनीतिक नेताओं के लिए उनका तकिया कलाम है ‘बापू   मुर्गी खाते यदि तुम’।

उनकी एक टिप्पणी का  शीर्षक है, ‘मांसाहार’। यह टिप्पणी हिंदूवादियों की ‘गोमांस’ की राजनीति के सापेक्ष है। 1930 ई. के दशक में हिंदू सभा और आरएसएस इसे लेकर सक्रिय थे और औपनिवेशिक शासन के ‘तोड़ो और राज करो’ नीति के नतमस्तक सहयोगी थे। बहरहाल
इसमें निराला ने बड़े दिलचस्प ढंग से हिंदुओं में और ब्राह्मण समेत विभिन्न हिंदू जातियों में  मांसाहार के प्रचलन का उल्लेख किया है। शाकाहार को श्रेष्ठ मानते हुए भी निराला मांसाहार को व्यवहारिक आहार मानते हैं।

हिंदूवादी राजनीतिक संगठन अपनी क्षुद्र राजनीति को, मनुष्य विरोधी विचार को प्राचीन भारतीय संस्कृति को स्वयं के गढ़े रूप में पेश करते हैं। गोमांस के आहार को लेकर भी वे ऐसा ही एक मनोकल्पित और मनुष्य विरोधी घृणित राजनीति को जायज ठहराने के लिए भारतीय संस्कृति की आड़ लेते हैं, और उसे पवित्र, उच्च भाव के साथ गर्व से जोड़ते हैं। यह काल्पनिक और झूठा गर्व होता है, जिसका वास्तविक भारतीय संस्कृति और धर्म से कोई लेना-देना नहीं। ‘मांसाहार’ शीर्षक टिप्पणी  में निराला लिखते हैं,

“क्षत्रियों की मृगया और ब्राह्मणों का ‘विविध मृगन कर आमिष  राँधा’ आदि प्रकरण देखकर यह विश्वास दृढ़ हो जाता है, कि मांस-भक्षण के लिए इस देश में कोई बड़ी रोक न थी।”

फिर इसी में वे एक जगह लिखते हैं, “इससे साबित है कि प्रथम वैदिक काल में यज्ञ करके मांस-भक्षण जब प्रचलित था, तब यह निस्शंसय यहां की सनातन प्रथा थी। और, यज्ञ के पश्चात मांस खाने के अर्थ, हम जहां तक समझते हैं, पकाया हुआ मांस ही है; इस समय भी अनेक देशों के लोग कच्चा मांस खाते हैं, और अग्नि संस्कार से अनभिज्ञ होने कारण वे असभ्य कहलाते हैं; इस पकाये हुए मांस से यज्ञकारी  अग्नि का प्रथम आविष्कार करने वाले आर्य अपनी सभ्यता का ही प्रमाण पेश करते हैं, और फिर उसे पके मांस को देवता को अर्पित कर खायँ या ऐसे ही, विशेष अर्थ नहीं रखता। अगर रखता है तो मांस खाने वालों की ही पुष्टि करता है, क्योंकि जो वस्तु देवता तक को समर्पित की जाती है, उसे मनुष्य अनायास ही भक्षण  कर सकता है, उसे धर्मविरुद्ध कहने का किसी को अधिकार नहीं रह जाता।”

यह निराला लिखते हैं। इसकी भाषा जाहिरन तत्कालीन  हिन्दूवादियों से मुखातिब है।
निराला को मांसाहार  पर टिप्पणी करनी पड़ी क्योंकि मांसाहार को लेकर वैष्णव संप्रदाय का शुचिता का छद्म  विचार हिंदू धर्म के विचार के रूप में स्थापित किया जाने लगा था।

1930 के दशक में हिंदू सभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी सांप्रदायिक सोच वाली संस्थाएं और संगठन ऐसी तमाम संकीर्णताओं को प्राचीन भारतीय संस्कृति के रूप में पेश करने लगे थे। यह एक तरफ जहां उदार, आधुनिक विचार के युवकों को लक्षित था, वहीं दूसरी तरफ सुनियोजित रूप से मुसलमान विरोधी भाव लिये था।

अर्थात, एक तरफ मांसाहार को, आधुनिकता विरोधी अपने अभियान व दूसरी तरफ सांप्रदायिक एजेंडा  के रूप में हिंदूवादी संगठन, एक माध्यम बना रहे थे। निराला, मांसाहार पर टिप्पणी इन्हीं संदर्भों के सापेक्ष करते हैं। स्वयं उनको भी मांसाहार के लिए लक्षित किया जाता था। ‘चतुरी चमार’ कहानी में इसका प्रसंग है।

निराला इसी टिप्पणी में लिखते हैं, कि

“बौद्धों  और जैनियों के प्रवर्तन से तैयार की हुई देश की धार्मिक रुचि के अनुकूल वैष्णव-धर्माचार्यों ने भी मांस निषेध उचित समझा होगा।”

लेकिन फिर वे बौद्ध  धर्म का दूसरा पक्ष भी रखते हैं,  कि बुद्ध के स्वयं मांस भक्षण की कथा ‘तेलोवादजातक’ में है। दूसरे, वे  एक तर्क पेश करते हैं कि समुद्र के किनारे और नदी बहुल देशों में बौद्ध  धर्म पहुंचा तो वहां उसमें मांस-मछली का आहार शामिल हो गया।

इस टिप्पणी में महत्वपूर्ण है कि निराला वैष्णव धर्म को बौद्ध धर्म के अनुकूल विकसित हुआ होता हुआ बताते हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा ने इसे प्रमाण सहित, तथ्यों और संदर्भों के साथ लिखा है, कि बौद्ध धर्म के प्रभाव के सापेक्ष ही वैष्णव संप्रदाय को विकसित किया गया। उसमें गृहस्थ धर्म के ढेर सारे सांस्कृतिक तत्वों के साथ  पुरोहित या ब्राह्मण धर्म के सैद्धांतिक तत्वों को स्थापित कर दिया गया।

अर्थात, अवतारवाद, वर्णधर्म, भेदभाव, विभाजन आदि। इस वैष्णव धर्म के प्रचारक शंकर को तो प्रच्छन्न  बौद्ध कहा गया है।

कहने का आशय यह कि भेदभाव मूलक वैष्णव मत ने सांप्रदायिक संगठनों को इन्हीं वजहों से लुभाया। जिसे, वे बहुविध, बहुरंगी, बहुलतावादी विचार को खत्म करने के लिए पूरे भारतीय संस्कृति के एकमात्र प्रतिनिधि धर्म के रूप में पेश करने लगे और एकांगी हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना पेश की।

खान-पान, वेशभूषा, भाषा सभी में विभाजनकारी, छुआछूत, देशी-विदेशी आदि की अवधारणाएं स्थापित की जाने लगी। इकबाल का 1930 के ही दशक का लोकप्रिय गीत ‘सारे जहाँ से अच्छा…’ इन्हीं तत्वों के सापेक्ष है। खुद निराला इस दशक में क्रमशः बहुलतावादी और समानता के विचार तक पहुंचते हैं।

निराला वर्णवाद, जाति भेद  को आधुनिक राष्ट्र निर्माण और नागरिक चेतना के विकास   में बाधक पाते हैं।  इसीलिए वे इन सभी को अपने चिंतन के दायरे में रखते हैं। यह दायरा पूरे हिंदी नवजागरण में, प्रेमचंद के अलावा और किसी के पास नहीं।

खान-पान और मांसाहार पर इसी टिप्पणी में वे चुटकी लेते हैं,

“आजकल के विज्ञान-युग में जबकि अल्पवयस्क विद्यार्थी भी जानता है, कि करोड़ों जीवाणु प्रति श्वास-संचार से पेट के अंदर जाते हैं, अहिंसा, मांस-भक्षण निषेध आदि की चर्चा खिलवाड़ जान पड़ती है।”

फिर वे ‘मूंग’, ‘दलिया’, ‘चने’ आदि के शाकाहारी भोजन पर जोर देने पर लिखते हैं, कि

“उनकी तजवीज़  से हँसी को मुश्किल से रोकना पड़ता है, जैसे ‘दलिया’, ‘मूंग’, चने आदि  निष्प्राण हों।… एक अज्ञान को पालते हुए उन्हें इतना बड़ा  ज्ञानाडम्बर  भी नहीं दिखलाना चाहिए।”

फिर गो-भक्तों पर लिखते हैं, “बीस सेर दूध देने वाली गउएँ ऑस्ट्रेलिया में भले ही हों, गो-भक्त भारत में तो बहुत ही कम हैं, कि बछड़े के पीकर छोड़ देने के बाद दुही जायँ, और जबकि सदी-फ़ीसदी भारतवासी ऐसा नहीं करते, तब उन्हें समझना चाहिए कि प्रतिदिन वे अंशतः गो-वध करते रहते हैं। मतलब यह कि जीव का आहरण किये बिना जीव का आहार सिद्ध नहीं होता। फिर कम हत्या करेंगे और बचकर करेंगे, धर्म की दोहाई देकर करेंगे, बछड़े को पालकर करेंगे, यह सब ढोंग है। आप बछड़े के बाप तो हैं नहीं जो उसके लिए आपको इतना दर्द हो, आप अपना मतलब गाँठ रहे हैं…।”

पिछले दस साल से हिंदूवादी संगठन और सरकारें ऐसा ढोंग कर रही हैं और अपना राजनीतिक-आर्थिक मतलब गाँठ रही हैं। पिछले दस साल में गोमांस के नाम पर सैकड़ों बेगुनाह मुसलमानों  की सुनियोजित, उकसायी गयी भीड़  द्वारा हत्याएं की गयी। वहीं दूसरी तरफ, जहां मुस्लिम विरोधी धार्मिक उन्माद और नफरत के बल पर राजनीतिक ध्रुवीकरण कर हिंदूवादी सत्ता में हैं। साथ ही गोगांस के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर भी काबिज हैं। यह कितना बड़ा ढोंग और पाखंड है, अपना मतलब गाँठना है। इसे समझना चाहिए, कि निराला अपने समय में इन विनाशक शक्तियों से कैसे मुखातिब  थे।

निराला ऐसा कर रहे थे, तो उनके चिंतन में राष्ट्र निर्माण की चिंता थी। वह राष्ट्र जो आधुनिक मूल्य, मसलन न्याय, समानता, बंधुत्व से युक्त हो, सेकुलर हो, भारतीय भूगोल के भीतर की छोटी-बड़ी राष्ट्रीयताओं या जातीयताओं  की एकता हो।

हिंदी प्रदेश में इसी के अंतर्गत वे एक तो हिंदी की जातीयता के निर्माण पर चिंतन करते हैं, दूसरे, इस निर्माण में वर्णवादी विभाजन या जाति-व्यवस्था और हिंदू-मुस्लिम एकता पर भी लगातार विचार करते हैं। इसके लिए वे आधुनिक, प्रगतिशील बिंदु पर खड़े होकर समाधान भी देते हैं।

‘प्रांतीय साहित्य सम्मेलन, फैजाबाद’ को लेकर श्री नरोत्तम प्रसाद नागर ने निराला का एक इंटरव्यू लिया है। यह इंटरव्यू ‘चकल्लस’, साप्ताहिक, लखनऊ के वर्ष 1 के अंक 15, 16, 17, 18, 19 (मई और जून 1938) में पांच किस्तों में छपा है। यह निराला के निबंध संग्रह ‘प्रबंध प्रतिमा’ में भी संकलित  है। यह पूरा इंटरव्यू हिंदी जाति या हिंदी क्षेत्र के सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति और उसकी राजनीति को लेकर एक दस्तावेज की तरह है। इस इंटरव्यू का समापन अंश और उसमें वार्तालाप महत्वपूर्ण है,

“मैंने मित्रवर भार्गव जी से कहा, ‘बात मैंने बराबर पते की कही है, लेकिन अफसोस यह कि हिंदी वालों के एक अदृश्य दुम लगी हुई है। ‘अदृश्य दुम’ पर कुछ देर तक वाद-विवाद होता रहा। टंडन जी निर्विकार  चित्त से सुन रहे थे। इसके बाद किसी प्रश्न पर मैंने कहा, ‘अगर सम्मेलन ने (या राजनीतिकों ने, मैंने कहा था, याद नहीं) हिंदुओं में मुर्गी खाने का प्रचार किया होता, तो हिंदू-मुस्लिम यूनिटी अब तक बहुत मजबूत हो चुकी होती।’ लोगों ने सुन लिया। लेकिन, मतलब वैसा ही समझे, जैसा टंडन जी के विरोध में समझे थे। हालाँकि वर्धा स्कीम आव एजुकेशन में हिंदू-मुसलमान शिक्षकों का कहते हैं, सहभोज प्रस्ताव है। जब बात मेरी होगी, तब तीन कौड़ी की होगी, भले उसमें तीन हीरे से ज्यादा कीमती शब्द हों और जब किसी दूसरे की होगी, तब वह अनमोल होगी, चाहे कौड़ी कीमत की न हो।”

खान-पान और वैवाहिक संबंध दो ऐसे सांस्कृतिक प्रश्न थे, जिसे हल किये बिना आधुनिक राष्ट्र निर्माण में एकता के तत्व विकसित नहीं हो सकते थे। निराला इसे समझते हैं। निराला 1938 के आसपास ही ‘कुल्ली भाट’ और ‘सुकुल की बीवी’ की रचना करते हैं। दोनों में हिंदू-मुस्लिम विवाह की वैचारिक  अंतर्धारा  विषय वस्तु में मौजूद है।  दूसरी महत्वपूर्ण बात, कि उसे समय कांग्रेस हो या हिन्दी साहित्य  सम्मेलन जैसा मंच दोनों जगह दक्षिणपंथी नेतृत्व प्रभावी था। यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा कि आजादी के बाद भी एकता के कारक मजबूत और स्थायी नहीं हो पाये। निराला लगातार मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व से संघर्ष करते हैं।

एक और, जो महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात है, कि निराला ने एक साहित्यकार के ओहदे को राजनीतिकों  से ऊंचे स्थापित किया। आज की सांप्रदायिक फ़ासिस्ट हिंदूवादी सरकारें जब ‘लव जेहाद’, ‘घर वापसी’, गोमांस के मनगढंत संकल्पनाओं के नाम पर हत्याएं आयोजित कर रहे हैं और तमाम साहित्यकार ऐसे राजनीतिकों  के आगे आपादमस्तक रेंग रहे हैं, निराला की वैचारिकी और उनके व्यक्तित्व के इन पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए।

निराला एकता के तत्वों में बाधक कारणों पर विचार करते हैं, और ऐसे तत्वों पर जोर देते हैं, जो सबके लिए मान्य हो। ‘हमारे हिंदू और मुसलमान’ शीर्षक टिप्पणी में वे  लिखते हैं, “यदि मुख्य आंदोलन इस समय हमारे देश में कोई है, तो वह अछूत-समस्या और मेल-मिलाप की कोशिश है।” फिर स्वयं इस मेल-मिलाप की बाधा पर विचार करते हैं। वे लिखते हैं,

“देखना यह है कि मुख्य कौन सा कारण है, जो हिंदू और मुसलमान नाम की देश की दो बड़ी जातियों में मैत्री का बाधक सिद्ध हो रहा है। दूसरे भीतरी कारण हम यहां छोड़ देते हैं। हम देखते हैं, प्राचीनकाल की तरह हिंदुओं में मुसलमान के प्रति वैमनस्य, विजातीय घृणा वाले भाव कम नहीं।… यदि प्राचीनकाल की तरह इन्हीं आचरणों  की बुनियाद पर हमारे हिंदू स्थित रहे, तो हम दावे के साथ कहेंगे, दोनों जातियों में प्राणों की मैत्री कभी नहीं हो सकती।… दोनों के मन और कर्मों के संयोग के बगैर संयुक्त भावना केवल एक भावना है।”

निराला दोनों में मन और कर्म के संयोग की बात करते हैं, लेकिन मुख्य जोर हिंदुओं के प्राचीन वर्णवादी विभाजन, विजातीय घृणा के व्यवहार पर देते हैं। अर्थात हिंदुओं में मानवतावादी सुधार और आधुनिक  मूल्य का प्रवेश जब तक नहीं होगा,  अछूत समस्या या हिंदू-मुस्लिम मेल-मिलाप या एकता बस एक भावना है। निराला इसीलिए बराबर कांग्रेस के उस समय के बड़े-बड़े राजनीतिकों के वर्णवादी, पिछड़े  मूल्य वाले व्यवहार को,  आचरण को निशाने पर लेते हैं। कांग्रेस के भीतर के दक्षिणपंथी विचार समाज में पिछड़ेपन के लिए अधिक जिम्मेदार थे, बजाय हिंदूवादी संगठनों के प्रयास। इसलिए वे नेताओं को कहते हैं, कि यदि वे मुर्गी खाने का प्रचार करते तो यह मेल-मिलाप अधिक आसान और मजबूत होता।

यह मुर्गी खाना एक मुहावरे की तरह है। मूल बात है, कि निराला इन नेताओं के भेदभाव मूलक संस्कार और व्यवहार पर खड़े होने को लक्षित करते हैं। यही सबसे बड़ी बाधा है। वेदांतिक साम्य के विचार पर जोर दरअसल नेताओं के सापेक्ष अधिक था। वह भी 1938 तक पीछे छूट गया और बिलकुल आधुनिक मानवीय मूल्यों से संयुक्त हो गया।

हिंदुओं में आधुनिक विचारों के प्रचार-प्रसार से यह एकता अधिक मजबूत हो सकती है। इसीलिए निराला हिंदुओं में व्याप्त वर्णवादी विभाजन, जाति भेद, ऊंच-नीच  की भावना को अपनी रचनाओं में सर्वाधिक आलोच्य विषय बनाते हैं।

यह भावना सिर्फ हिंदू-मुसलमान एकता ही नहीं, बल्कि आधुनिक राष्ट्र निर्माण में भी सबसे बड़ी बाधा थी, जिसे निराला पहचानते हैं। वर्णवाद, जाति भेद पर पूरे नवजागरण में निराला जैसा कोई रचनाकार, चिंतक, विचारक नहीं मिलेगा, जिसने उसकी खुलकर व आक्रामक  आलोचना की हो एवं साथ ही, उसे राष्ट्र निर्माण और एकता में बाधक बताया हो!

इन संदर्भों से निराला को पढ़ना चाहिए और आज के दौर में तो और भी अधिक कार्यभार और जिम्मेदारी के साथ। निराला इस कठिन दौर के संघर्ष में हमख़याल, हमसफर, हमराह रचनाकार और विचारक हैं!

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