3. बिना कोई गाँठ के
ऐसा तुम समझते हो
कोई गाँठ है मन में
वह खुलवाने आती है
किन्तु बहुत विपुल हो गयी है वय
जिसकी काया में बिरखा सेंध नहीं लगाती
जिसका दर्पण स्वयं कुम्हला गया शिशिर की बेला
वह किसी बलवे की जड़ नहीं जानती
कोई फासिस्ट लेखक को नहीं जानती
पद्य की सज्जा में सिर्फ हरड़ की गाँठ जानती है
निश्चिन्त रहो
संसार में वह मन जोड़कर रहती है तुम्हारी भाषा के गिर्द
जैसे मोगरे की माला जो किसी भी तरह नहीं खुलती
केश में रह जाती है पंखुड़ियां
मानों छायावाद के कवियों का अलंकरण हो जिन्हें छंदों में और कहीं स्थान नहीं
वह भूल जायेगी कहाँ पीड़ा है
जो ठीक कर दो टुटा द्वार
तुम्हें ही इच्छा हो तो कोई उपन्यास लिखना
बताना उसमें
नायक की निपुण उँगलियों में कितनी माया है
जो कथा में कथा रच सकता है
बिना कोई गाँठ के
अपनी सांत्वना अपने पास रखो
वह आएगी भी तो दिन दोपहर की बेला
तुम्हें हर्गिज पता नहीं चल पायेगा
क्या छलछलाता है उसकी पसलियों में सूर्य जैसी कनक गाँठ की जगह पे।
4. अधिकतर कविता मीठी गंध जैसी फड़फड़ाती है
अधिकतर कविता मीठी गंध जैसी फड़फड़ाती है
एक पीले फूल की पंखुड़ी में
कोई कंकड़ भी बता देता है दोपहर की बेला
वह जानता है एक काँच के टुकड़े को
दोनों की शिराओं में इंद्रधनुष है
तुम्हारी बातों में अचानक पुराना घर आ जाता है
मेरी चुप होंठ लांघ जाती है
हमारे सुख अब बेहद मुलायम हैं
निष्कवच भटकते हैं धुँधलायी तराइयों में
प्रेम के बाद दुःख आये
यह हमेशा नहीं होता
अधिकतर मैंने देखा एक अनमनापन आ जाता है
जो मछुआरा मंडी से खाली लेकर आता है टोकरी
और भरी जेब
वह उतना भी खुश नहीं दिखता है मुझे।
5. जलावन
सैकड़ों वर्णमालाएँ हैं रास्ते किनारे
छोटी छोटी टीन की टपरियों में
कोई सिंदूर बन कर कोई सीपी की माला जैसी
कई मछलियों जैसी है
नरम धूप जैसे पानी में चिलकती हुई
जब कोई नहीं देखता होगा
और मुख काली की प्रतिमा की तरफ किये होंगे पुजारी
मेघ बहते होंगे निर्जल नभ में
किसी भी वर्ण का एक हिस्सा उठा कर दे दूँगी तुम्हें
तुम्हारी काया पर उभर आएगी कविता
तुम कहोगे
जलावन बचा लेती हो उँगलियों की फाँक में
यही सुख है समुद्र किनारे रहने का तुम्हें।
6. तुम्हारी नींद है नरगिस के फूलों पर
मीलों चलते हो
तब मिलता है तुम्हें अपना प्रतिबिम्ब
इतनी कोमल
जैसे पानी में छाया तैरती है पाइन वृक्षों की
अभी अभी किसी को बताया था तुमने
बरसों हुए तुम्हें सोये
देखो तुम्हारी नींद है नरगिस के फूलों पर
तुम्हारी करवट
भूरे जानवरों के बालों में उलझी
तुम्हारी पुकार जैसे असंख्य कीड़े और उनका घर
मछलियों की देह से टकराते उन्नत शैवाल
तुम्हारे देखते देखते
थोड़े ही शेष बच पाते हैं
इससे आगे कोई पहचानी देह है
वहीँ घुल जाता है तुम्हारा मन
महीन होते होते।
7. जब तक प्रतीक्षा कर रहे हो
जब तक प्रतीक्षा कर रहे हो अपना स्टेशन आने की
तब तक एक नया झोला खरीद लो कवि
एक नयी कलम खरीद लो
जो अज्ञात रसोई में रखी है आंच के निकट
जो सराबोर है
प्राचीन स्वेद की गंध से
वही जानती है नए धान का मूल्य
जबकि सरकार नहीं जानती
निष्प्राण सीताफल की छाया पर छाया नहीं डालते कवि
उसका जल उड़ चूका है
पकड़ सकते हो तो मिठास पकड़ लो
किसी सद्य स्नात कुलदेवी की जिह्वा पर बाकी है अब भी
आखिर विराट सिंधु है यह देश
तुम जलचर की भंगिमा हो जाओ कवि
जो अनगिन तैरते शवों के बीच
ठिठुरती ठण्ड में गर्म रहे
पटरियाँ नहीं हैं अब
सिर्फ भूमि है जैसे अनंत समय पहले थी
जिन पर दो पैरों वाले ढोर चराते हैं अभी
चने चबेने खाओ कवि
अपनी प्रेमिका को याद करो
निलंबित इतिहास से बेखबर
कहीं दूर सुंदरवन में मसूर की खिचड़ी बनाती होगी
जब तक पुनः नहीं बुलाता तुम्हें फहराता झंडा
आराम करो कवि
बहुत पटरे हैं हर पड़ाव पर
बहुत सुंदर कविताएँ हैं लिखी हुई उन पर
पकड़े जाओ तो गुनगुना देना कुछ पंक्तियाँ
हर फसाद नारों के कारण हो जरुरी तो नहीं।
8. सांकेतिक हो गया है संसार
दुर्बल चीज़ों में हमेशा ही आत्मा पहले आती होगी
देह बाद में
मुझे विश्वास नहीं होता
इतने धीमे से छू कर गिराये जा सकते हैं बाँध
जैसे लौ की राख झूलती हो
कलझायी ढिबरी में
तुम नहीं आये होगे
मानती हूँ
हो सकता है वह कपोत पँखों की छाया थी
जो द्वार को ढकती थी
वह मालगाड़ी होगी
जो पाखियों को चौंकाने मकई के खेतों में रूकती थी
भाव के कारन नहीं
भंगिमा के कारन प्रताड़ित किये जाते हैं कवि
मुझे सच नहीं लगती यह दुर्बलता
मैं प्रण भी नहीं करती
कि कभी कविता में कोई कथा नहीं लिखूँगी
किन्तु सांकेतिक हो गया है संसार
पकी बेरियों जैसा
अतिशय दुर्बल
जल जैसा हिल जाता है पुतलियों की छाया से
संवाद होते ही उजागर हो जाता है
कितना तुमूल वन है हृदय की जगह में।
9. तुम किस तरफ हो
तुम किस तरफ हो
क्या लेनिन की तरफ
जो एक बुत की तरह सुन्दर प्रेम की प्रतीक्षा में है
या रबिन्द्र ठाकुर की तरफ
जो शांतिनिकेतन की हरीतिमा में भी ढूंढें से नहीं मिलते
मुझे कुछ नहीं दीखता
मैं जो जीवित हूँ
क्या तुमसे परास्त होने की वजह से !
10. पूस में कलकत्ते का कवि
तारापद दे की होमियोपैथी दुकान के सामने
कच्ची दीवार से लगा लगा कदम्ब भीगता था दिवस भर
पूस की बिरखा इतनी ही सघन होती कि
केश न बाँधे जाते
अम्लान हो जाते करतल
साखा के स्वर मंद पड़ जाते जब
कविता के संसार से अनभिज्ञ स्त्री
हज़ारप्रसाद के गद्य की पोथी पलटती
कोई साहित्यकार होता तो बताता दूर से देखे में गद्य पोखर समान लगता है
किन्तु भरता जाता है ऐसी वृष्टि में
जैसे तीसरे पहर के बाद तारे भरते हैं स्वच्छ आकाश में
” जो औषध दुःख दूर करती है वह पीड़ा नहीं हरती ”
यह दूकान की दीवार से मिट गयी पंक्ति होगी
वरना क्यों तो जीव आते इतनी बिरखा में
अकड़े जोड़ों की दवा लेने
क्यों ही भीगा हुआ तिरपाल फड़फड़ाता शीतल हवा में
जिस पर मुक्तिबोध के छंद नहीं
हिंदी विभाग का नया कार्यक्रम लिखा था
अपनी प्रेमिका के पीछे तुम जो नदिया के खेतों तक चले गए
भूल गए
एक आध तो असाध्य रोग भी होंगे
होमियोपैथ जिनका कुछ नहीं करता
जो दीखते नहीं गंध भरी देह में
बस पूस ही उजागर करता है उन्हें
जैसे प्रेम में उजागर हो जाता है कितना अंधकार है तुम्हारे हृदय में।
11. रहने देते हैं इस बार मृत्यु
निरा कोई अबोध क्षण
एक काँच जैसा आसूँ
चला आता है वाक्य के बीच
श्वास वहीँ आवाजाही करती रहती है
उसी पंक्ति के आस पास
जिसे हम रख लेते हैं अपने अपने तालु में
फिर छूने से , हटाने से भी नहीं जाती है उसकी अग्नि
स्वाद पूछते हो तुम
मैं कहती हूँ –
अब उतना निर्दोष नहीं रहा स्वर
होंठ शातिर हो गए हैं
कोई पशु कराहता है हमारी मज्जा में शायद
धन्यवाद कहना था एक काँपते कंठ को
किन्तु रहने देते हैं इस बार मृत्यु
शवों के दाह की जगह में कोई अंतर नहीं है।
12. तुम पहले नहीं
पहले नहीं हो तुम मेरी अनुराग की भाषा के रास्ते में
अपनी कातरता की तरह
अपनी हिचकी की तरह
तुम्हें भी कुचल कर निकल जायेगी यह
किसी भी विश्वास से परे जैसे कौवे बैठे रहते हैं
छतों पर , खिड़की पर
और नहीं बताते किस पूर्वज की कहानी कहने आये हैं
वैसे ही रह जायेगी यह
और हर रोयें पर संदिग्ध अर्थ का अर्थ ढूँढेगी
रगड़ खा जाएंगे तुम्हारे दुःख
ठीक उनकी तरह रंग जाएंगे
जब प्यास पोंछते होंगे सूखते मुख से
अनचीन्हे रहेंगे पुल और उस पर जाते हुए हमारे निस्पंद वाक्य विन्यास
तुम पहले नहीं होगे
जो यंत्रणा से देखोगे उसे
फिर अपनी पूरी ऊष्मा उड़ेल दोगे।
13. लाल गुलाबों की उम्र
तुम्हारी उम्र इस देश से अधिक हो
खूब सुख से रहो
इतना कह कर शब्द खत्म हो गए हैं।
अब अगर मुझे ज्वर आता है तो
मैं कहूँगी
मुझे खुली चांदनी में ले चलो
जहाँ अज्ञात गूंजते है पहाड़ों से गिरते सफ़ेद झरने
तुम क्या सोचोगे
मुझे बिलकुल फ़िक्र नहीं
लाल गुलाबों की उम्र
इस ब्रह्माण्ड में बहुत कम है।
14. चलो , अब भाग चलते हैं
कुहासी सुबह है
अशोक की पत्तियाँ काँप रही हैं अपनी ही देह में
चलो , अब भाग चलते हैं
इतना बोझ है हाथों में
तराजू, फावड़ा , दरांती सब उठा कर
बहुत दूर तक पीछे नहीं आएगा समाज
यों भी हमने अपने छुपने की जगह बचा रखी थी कविता में
भीड़ कैसे छुपेगी साँस भर अँधेरे में
मुझे तो भय भी नहीं हुआ
जब समय से पहले पिघल गए पहाड़
सीढ़ियाँ जम गयी, कुँए जैसे गहरे हृदय में जो उतरती थी
उम्मीद थी कि नारों में फ़र्क़ पड़ेगा
बारिश बनेगी उनकी आवाज़
गिरेगी धूल भरे चौराहों पर ठंडी रात के स्वप्न साफ़ करने
किन्तु प्रेमी और कलाकार अख़बार कहाँ पढ़ते हैं
कुहासी सुबह है
हुगली जागी नहीं है
हमारे पूर्वज सोये हैं
हम फूल बहा आएँगे उनके लिए
किन्तु जब पुकारने की विवशता हो तो
मैं तुम्हें शरण दूँगी
तुम मुझे शरण देना
रेतीले मैदान में भँवर जैसे
सम्मोहन ने दृश्य बदल दिया है
कोई न कोई दोष तो है देखने वाले की दृष्टि में
वह देखता है अधिक खपत हुई है बंदूकों की
लम्बी रात के कारण
हर सड़क पर मोमबत्तियां खूब जली
एक खुरदरा विचार दूसरे विचार को रास्ता दिखाता है
जबकि दोनों गिरते हैं चलते हुए
खूब इस्तेमाल हो रहा है रंग बिरंगी झालर का
जबकि बंद हैं द्वार घरों के
हमें कोई न देखेगा अपनी नागरिकता ले कर भागते
चलो अब भाग चलते हैं।
15. लील जाने को ही बना है यह संसार
लील जाने को ही बना है यह संसार
इसलिए कहती हूँ
जीवित नहीं बचेंगे तीताश के तट पर तुम्हारे प्रिय घोंघे
तुम श्रीहरि की चाकरी में बीता रहे हो जीवन
इधर कम हो रही है जलकुम्भियाँ पोखर में
नाटक के पात्र बन गए हैं तुम्हारे छायावाद के कवि
अभ्यास लगभग बिसरता जाता है बोलने का
ऐसे आलोक में पढ़ती हूँ बिमल मित्र को
कि हल्दी से धूसरित हो जाते हैं शब्द
केवल एक कंबल का साझा था हमारा
बीच में अब कई सचित्र किताबें आ गयी हैं
छापेखाने , बेरोजगार पत्रकार , अफीम में डोलते संपादक आ गए हैं
पुलिस आ गयी
नयी धाराएं आ गयी हैं
कल मौन का अधिकार भी छीन जाएगा
लुप्त हो जाएंगी बाड़ी के पीछे नूतन गुड़ जैसी लगी इमली की पतली फली
इसलिए कहती हूँ
नहीं बचेगी तुम्हारी प्रिय की रसोई
भूखी मर जाऊँगी किन्तु मूंग की दाल में आम की फांक बिल्कुल नहीं डालूँगी।