समकालीन जनमत
कविताजनमत

अपूर्णता से उपजे तनाव की कवयित्री हैं ज्योति शोभा

आशीष मिश्र


छुपने के लिए साँस भर जगह..

ज्योति शोभा की कविताओं में उतरने के लिए धैर्य अपेक्षित है। थोड़ी सी भी हड़बड़ी इसके सौंदर्य को नष्ट कर देगी। यहाँ अपने में डूबती-तिरती हुई साँसें हैं। अपने को गाता हुआ विलम्बित आलाप है। भावों की दीप्ति इतनी मद्धम है कि दंद भी रहे और ओढ़नी भी न सूखे। कामना में वज़न इतना है कि हर काम्य अपूर्ण लगे और आवेग इतना कम कि गुंबद में आवाज़ की मानिंद घुटती-सी जान पड़ती है। इसलिए यहाँ धीरे से आइए, यह एक स्त्री की साँसों से रचा अकेला कोना है। मरदाने आलोचक के पैरों की धमक से साँसों का जादू टूट जाएगा। इसमें किसी गोसाईं की तरह उतरिए जैसे वह गंगा को माथे लगाकर नीरव उतरता है।

इस नदी का पाट बहुत चौंड़ा नहीं है। इसमें विविधवर्णी दुनिया का समाया नहीं है। इसमें जन-समाज के घात-प्रतिघात और उसकी अजस्र हरहराहट नहीं है। इसमें मनुष्यता का स्वयं को बदल डालने वाला आवेग और प्रवाह नहीं है। रूमानी कविता के किनारे पर आ- आकर टूटता हुआ झाग और लहरियाँ भी नहीं हैं। लेकिन, इस नदी में गहराई बहुत है। विस्तार और हाहाकारी प्रवाह भले न हो लेकिन गहराई है। और उसी गहराई से रचनात्मकता के आवर्त-प्रतिआवर्त पैदा होते हैं। हम इस छोटी-सी टिप्पणी में इन रचनात्मक आवर्तों से उसके केंद्र और उसकी गतिकी को समझने की कोशिश कर करेंगे।

ज्योति शोभा की कविताओं में मौजूद दुनिया उनकी साँसों से ही सींची गई दुनिया है। यह ममेतर नहीं है, मम का ही विस्तार है। इस कविता की दुनिया आत्म और अन्य में टूटी हुई नहीं है। जहाँ यह विषय और विषयी में विभक्त होने का आभास देती है, वहाँ भी वह एक रस्सी के दो शिरों की तरह ही है। इन कविताओं में कवि व्यक्तित्व सही-गलत, अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य, नई-पुरानी, आत्म-अन्य, विषय-विषयी के द्विचरविरुद्धों(बाइनरी) को पार करने की कोशिश करती है। यहाँ सबकुछ एक दूसरे में घुला-मिला है: एक-दूसरे से जन्मता और डूबता हुआ। यहाँ चीजें चटक रंगों के बजाय हल्के रंगों की छायाओं में आती हैं। तपते हुए दिन के बजाय रात और अँधेरे के अलग-अलग शेड्स हैं। कंकड़ और काँच के भीतर उसके सारभूत एकता की पहचान है।

“अधिकतर कविता मीठी गंध जैसी फड़फड़ाती है

एक पीले फूल की पंखुड़ी में

कोई कंकड़ भी बता देता है दोपहर की बेला

वह जानता है एक काँच के टुकड़े को

दोनों की शिराओं में इंद्रधनुष है”

ये काँच और कंकड़ की शिराओं में मौजूद इंद्रधनुष की पहचान करने वाली कविताएँ हैं। अधिकतर आत्मसजग स्त्री-कविताओं में द्विचर-विरूद्धों को पार करने की यह कोशिश देखी जा सकती है। द्विचर विरूद्धों का उत्पादन पुरुष की ज्ञान मीमांसा का सबसे मज़बूत और प्रभावी तत्त्व है। यह चीज़ों को विरुद्धों में देखता है और उसकी पूरी ज्ञान-प्रक्रिया इसी बाइनरी को मज़बूत करती है। स्त्री की कामना इन द्विचर विरूद्धों के भीतर पूरी ही नहीं हो सकती। द्विचर विरूद्धों का यह पूरा संसार पुरुष द्वारा मर्द और स्त्री के काल्पनिक विभाजन के अनुकरण में ही किया गया है।

फलतः उसके द्वारा ज्ञान का पूरा उत्पादन इसी खाँचे में होता है, जहाँ वह सकारात्मक, पूर्ण, आदर्श बन जाता है। स्त्री का चेतन-अवचेतन भी इसी संरचना का उत्पाद है, लेकिन उसका अनुभव इससे टकराता रहता है। उसके अनुभवों के समक्ष इसका जाली होना उद्घाटित होता रहता है। स्त्री की कामनाएँ लगातार इस संरचना से टकराती रहती हैं।

इस संरचना में मौजूद प्रेमास्पद उसकी कामना को संतुष्ट नहीं कर सकता इसलिए वह रहस्य, भक्ति और फंतासी में पूरा करना चाहती है। इसलिए दुनिया भर की बहुसंख्य आत्मसजग स्त्रियों की कविताएँ रहस्याभास पैदा करती हैं। लेकिन एक सजग पाठक को स्त्री की कामना और संरचना के इस द्वंद्व को समझना होगा। यह रहस्याभास थेरियों से लेकर, मीरां बाई, महादेवी वर्मा, गगन गिल और ज्योति शोभा तक में दिखाई पड़ेगा।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि यही स्त्री कविता की मूल भाषा है। स्त्री कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान, मोना गुलाटी और कात्यायिनी भी हैं, जो द्विचर विरूद्धों की इस संरचना के भीतर से बोलती हैं। जिनकी ज़बान एक दम साफ, स्पष्ट लक्ष्योन्मुख है। लेकिन ये कविताएँ मौजूद संरचना को पार करने में सक्षम नहीं लगतीं। ये जिसके खिलाफ लड़ने का आभास देती हैं उसी में उलझती हुई लगती हैं।

मैं जिस रहस्याभास की बात कर रहा हूँ वह ज्योति शोभा में भी पर्याप्त है, लेकिन उसके तल में उतरने पर कामना और संरचना का यह द्वंद्व मिलेगा। अगर आप ज्योति शोभा की कविताओं को बारीकी से पढ़ें तो पता चलेगा कि कविता में काव्य नायिका अपने प्रेयस या काम्य के प्रति आकर्षित है, लेकिन लगातार उसके प्रति अनिश्चय, अपूर्णता और आलोचना का भाव बना हुआ है। यह अधिसंख्य कविताओं में है। उनके संग्रह में संकलित फ़कीर शीर्षक कविताओं को इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इन कविताओं में जितनी तीव्र कामना है उतना ही अपूर्णता का एहसास और वैसा ही आत्मसजग आलोचनात्मक भाव।

“फ़क़ीर,
देखते हो तुम घृत नैवेद्य से सुगंधित
बस एक स्त्री मुझ में
तुम सोचते हो चरित्रहीन मुझे”।

मीरा बाई और महादेवी वर्मा में समर्पण है। लेकिन ज्योति शोभा एक आत्मसजग आधुनिक स्त्री हैं। वे अपनी अस्मिता के प्रति सजग दिखाई पड़ती हैं। वे समर्पित भी होना चाहती हैं, लेकिन समर्पण के लिए कोई भक्ति या भगवान में नहीं जातीं। इसलिए लगातार एक आलोचनात्मक भाव मौजूद रहता है। यह कवयित्री किसी भगवत्ता के बजाय नितांत मानवीय प्रेम को स्थापित करती है।

“क्या इतना कर सकते हो!
येसु को बाहर रख मुझे अंदर लो
पत्थर लौट जाएँ अपने घर
रात पूरी तरह गिर ले ओस
एक घोंसला सा तैयार हो जाए सुबह तक!”

कामना में अगर काम्य के प्रति अनिश्चय या आलोचनात्मक भाव न हो तो उस कामना में तीव्र आवेग होगा। जैसा कि रूमानी कविताओं में सामान्यतः होता है। लेकिन अगर काम्य के प्रति अनिश्चय या आलोचनात्मक भाव हो तो उसमें वह तीव्र आवेग नहीं होगा। फिर वह प्रत्यावर्तित होकर आध्यात्मिक पूर्णता में जाएगा। इसे मीरा और महादेवी में देख सकते हैं। लेकिन गगन गिल और ज्योति शोभा में यह नहीं है। गगन गिल प्रत्यावर्तित होकर दुख और निर्वेद में जाती हैं।

ज्योति शोभा में बांग्ला की आध्यात्मिक शब्दावली चाहे जितनी आए, जिससे रहस्याभास पैदा होता है, लेकिन वे इस अपूर्णता के तनाव को बनाए रखती हैं। स्त्री कामना और काम्य की अपूर्णता की यह गतिकी उनकी कविताओं के तल में मौजूद है। इन कविताओं के रचनात्मक आवर्त-प्रति-आवर्त स्त्री कामना और संरचना के द्वंद्व से ही बनते हैं। इसलिए कविताओं में न वह आत्मसम्मोहित आवेग है, न मुहावरेबाजी है, न हमारी आत्मानुकूलित स्पष्टता, न गठी हुई शैली। ये कविताएँ जगह-जगह से टूटी हुई और जगह-जगह से अपूर्ण लगती हैं—अधिकांश कविताएँ सुगढ़ता और पूर्णता के बजाय एक मीठी गंध में तड़फड़ाती हुई लगती हैं। कारण कि यह किसी ठस्स धारणा और मज़बूत आख्यान के बजाय स्त्री अनुभव और गहन भावों पर खड़ी हुई संरचना है। इससे होता यह है, कि इनमें काव्य दीप्ति बहुत देर तक बना नहीं रह पाता। फलतः कविताएँ दूसरे पृष्ठ से पहले ही सम्पूर्ण हो जाती हैं। फिर भी प्रत्येक कविता में कोई न कोई बिम्ब या काव्यांश आपको प्रभावित जरूर करता है।

“कामना गिर रही है जर्जर होती देह से

बीच शहर में एक पीली बत्ती के आलोक जैसी

यों धूसर पड़ती है क्षण भर में ज्यों अचानक ही रस सूख गया है बत्ती से

कथा मान जाती है किन्तु खुली रह जाती है पोथी”

कामना अमूर्त है। कवि इसे मूर्त करने के लिए बीच शहर में गिरती हुई स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी से रूपायित करता है। काम्य बचा हुआ है, लेकिन कामना सूखकर गिर रही है। दुनिया है, लेकिन उसके प्रति ललक पैदा करने वाली, गति और दिशा देने वाली, कामना सूख रही है। तेल और बाती का रूपक कामना और देह को ही बिंबित करता है। लेकिन, सबसे मौलिक और व्यंजक रूपक कथा और पोथी का है—कथा मान जाती है, किन्तु खुली रह जाती है पोथी।

ज्योति शोभा की कविताओं में सिर्फ ज्योतिशोभा हैं। उनका प्रेम, कामना, अपूर्णता और उनकी उदासी है। इसमें किसी और का सहकार नहीं है। यह बात मुझे शैलजा पाठक की कविताओं में भी दिखाई पड़ती है। उनके यहाँ भी प्रेम, उदासी, अकेलापन और दुख ही है, लेकिन वह वृहत्तर स्त्री संदर्भ लेकर आता है। ज्योति शोभा अपने से बाहर के सामाजिक संदर्भ को पीठ दे लेना चाहती हैं। यह उनकी कविता को ऐसे निर्जन में ले जाएगा जहाँ बहुत दिनों तक वह आत्मा का रक्त पीकर जिंदा नहीं रह पाएगी। इस सबके बावजूद जब इसी बात को वे कहती हैं तो उसमें एक काव्यात्मक गहराई होती है।

“कुहासी सुबह है

अशोक की पत्तियाँ काँप रही हैं अपनी देह में

चलो, अब भाग चलते हैं

इतना बोझ है हाथों में

तराजू, फावड़ा, दराँती सब उठा कर

बहुत दूर तक पीछे नहीं आएगा समाज

यों भी हमने अपने छुपने की जगह बचा रखी थी कविता में

भीड़ कैसे छुपेगी साँस भर अँधेरे में”

ज्योति शोभा के लिए समाज से भागना एक सकारात्मक क्रिया है। भागने की कामना है, एक अस्पष्ट सा आवेग है जिसे कुहासी सुबह से रूपायित किया जा रहा है। अशोक की पत्तियों का अपनी देह में काँपना मन के उद्वेलन को मूर्त कर देता है। आगे की पंक्तियों में भीड़, उसकी अंगढ़ता और उसकी हिंसा को रचने में सक्षम है। अपनी हिंसा और आक्रामकता के साथ मनुष्यता कोमलता और सौंदर्य में नहीं उतर सकती। समाज को वहाँ तक उतरने के लिए निर्भार होना होगा। इसी कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं

—”एक खुरदुरा विचार दूसरे विचार को रास्ता दिखाता है”।

ज्योति शोभा बांग्ला जातीय बोध को हिन्दी में रचने की कोशिश करती हैं। हर भाषा का अपना जातीय सार होता है, अतः यह दुस्साध्य-सा कार्य है। फिर भी ज्योति शोभा यह करती हैं और किन्हीं स्तरों पर सफल भी होती हैं। इन कविताओं की भावप्रवणता, बंगाली प्रकृति और परंपरा व संस्कृति के भीतर से पैदा नवोन्मेषशलिनी सूक्ष्म कल्पनशीलता इस बात का प्रमाण है। भाषा में सामान्यतः छूट चुके तात्समिक शब्दों का आग्रह भी यही प्रमाणित करता है।

ज्योति शोभा की कविताएँ

 

1. जलसाघर

अदृश्य वाद्य हैं
उपजे हुए धवल खेतों में
तट दूर हैं इस रात में
खिड़की से सिर्फ हवा आ रही है
अनंत कामनाओं को ढोती और निर्रथक गिरती हुई
वट वृक्ष पर
कोई जलसाघर है बाहर
झरता अपने संगीत में
सोचती हूँ कहूँ कोई पुरानी बात – भाषा तिक्त लगती है
खाड़ी का हृदय आलोकित इतना कि
काँप रहे हैं पाल नौका के
ऋतुमती के रोम जैसे उठते हैं गिरते हैं
ठीक कनपटियों के बीच निर्वाक है लौ
ठिठुरी
सम्मोहित सी- हिलती भी नहीं
एक हल्की आँच ध्वस्त कर देती है अंधकार में सुपारी के पेड़ों की तन्द्रा
हमें नहीं दिखती
कुछ नहीं है दृष्टि में
ना नग्न उँगलियाँ ना आकाश मापती लकीर की सिरहन
कितनी श्वेत हो सकती है ऐसे में मृत्यु –
हठात कह बैठती है मेरी काया
तुम कहते हो
शिशिर की चाँदनी जितनी।

2. जिसे बचाती हूँ मैं

मेरे सबसे निकट
एक वही लावण्य है
आता है निरापद पाले की तरह
हरी किनोर पर टँकी मालती की लत पर
फूस के द्वार पर
देह की मुद्रा पर
स्टोव की मंथर लपट पर
मैं कब कहती थी
इतना सुख दो कि नींद में उठ बैठूँ
वह नहीं मानता
इतनी निकट रखता है सुगंध जैसे सज्जा में प्रस्तुत करने को है यह संसार
हिंसा, रक्तपात , मिथ्या कुछ भी नहीं
एक वही है
जिसे बचाती हूँ मैं
उसकी बात किसी से नहीं कहती।

 

3. बिना कोई गाँठ के

ऐसा तुम समझते हो
कोई गाँठ है मन में
वह खुलवाने आती है
किन्तु बहुत विपुल हो गयी है वय
जिसकी काया में बिरखा सेंध नहीं लगाती
जिसका दर्पण स्वयं कुम्हला गया शिशिर की बेला
वह किसी बलवे की जड़ नहीं जानती
कोई फासिस्ट लेखक को नहीं जानती
पद्य की सज्जा में सिर्फ हरड़ की गाँठ जानती है
निश्चिन्त रहो
संसार में वह मन जोड़कर रहती है तुम्हारी भाषा के गिर्द
जैसे मोगरे की माला जो किसी भी तरह नहीं खुलती
केश में रह जाती है पंखुड़ियां
मानों छायावाद के कवियों का अलंकरण हो जिन्हें छंदों में और कहीं स्थान नहीं
वह भूल जायेगी कहाँ पीड़ा है
जो ठीक कर दो टुटा द्वार
तुम्हें ही इच्छा हो तो कोई उपन्यास लिखना
बताना उसमें
नायक की निपुण उँगलियों में कितनी माया है
जो कथा में कथा रच सकता है
बिना कोई गाँठ के
अपनी सांत्वना अपने पास रखो
वह आएगी भी तो दिन दोपहर की बेला
तुम्हें हर्गिज पता नहीं चल पायेगा
क्या छलछलाता है उसकी पसलियों में सूर्य जैसी कनक गाँठ की जगह पे।

 

4. अधिकतर कविता मीठी गंध जैसी फड़फड़ाती है

अधिकतर कविता मीठी गंध जैसी फड़फड़ाती है
एक पीले फूल की पंखुड़ी में
कोई कंकड़ भी बता देता है दोपहर की बेला
वह जानता है एक काँच के टुकड़े को
दोनों की शिराओं में इंद्रधनुष है
तुम्हारी बातों में अचानक पुराना घर आ जाता है
मेरी चुप होंठ लांघ जाती है
हमारे सुख अब बेहद मुलायम हैं
निष्कवच भटकते हैं धुँधलायी तराइयों में
प्रेम के बाद दुःख आये
यह हमेशा नहीं होता
अधिकतर मैंने देखा एक अनमनापन आ जाता है
जो मछुआरा मंडी से खाली लेकर आता है टोकरी
और भरी जेब
वह उतना भी खुश नहीं दिखता है मुझे।

5. जलावन

सैकड़ों वर्णमालाएँ हैं रास्ते किनारे
छोटी छोटी टीन की टपरियों में
कोई सिंदूर बन कर कोई सीपी की माला जैसी
कई मछलियों जैसी है
नरम धूप जैसे पानी में चिलकती हुई
जब कोई नहीं देखता होगा
और मुख काली की प्रतिमा की तरफ किये होंगे पुजारी
मेघ बहते होंगे निर्जल नभ में
किसी भी वर्ण का एक हिस्सा उठा कर दे दूँगी तुम्हें
तुम्हारी काया पर उभर आएगी कविता
तुम कहोगे
जलावन बचा लेती हो उँगलियों की फाँक में
यही सुख है समुद्र किनारे रहने का तुम्हें।

 

6. तुम्हारी नींद है नरगिस के फूलों पर

मीलों चलते हो
तब मिलता है तुम्हें अपना प्रतिबिम्ब
इतनी कोमल
जैसे पानी में छाया तैरती है पाइन वृक्षों की
अभी अभी किसी को बताया था तुमने
बरसों हुए तुम्हें सोये
देखो तुम्हारी नींद है नरगिस के फूलों पर
तुम्हारी करवट
भूरे जानवरों के बालों में उलझी
तुम्हारी पुकार जैसे असंख्य कीड़े और उनका घर
मछलियों की देह से टकराते उन्नत शैवाल
तुम्हारे देखते देखते
थोड़े ही शेष बच पाते हैं
इससे आगे कोई पहचानी देह है
वहीँ घुल जाता है तुम्हारा मन
महीन होते होते।

 

7. जब तक प्रतीक्षा कर रहे हो

जब तक प्रतीक्षा कर रहे हो अपना स्टेशन आने की
तब तक एक नया झोला खरीद लो कवि
एक नयी कलम खरीद लो
जो अज्ञात रसोई में रखी है आंच के निकट
जो सराबोर है
प्राचीन स्वेद की गंध से
वही जानती है नए धान का मूल्य
जबकि सरकार नहीं जानती
निष्प्राण सीताफल की छाया पर छाया नहीं डालते कवि
उसका जल उड़ चूका है
पकड़ सकते हो तो मिठास पकड़ लो
किसी सद्य स्नात कुलदेवी की जिह्वा पर बाकी है अब भी
आखिर विराट सिंधु है यह देश
तुम जलचर की भंगिमा हो जाओ कवि
जो अनगिन तैरते शवों के बीच
ठिठुरती ठण्ड में गर्म रहे
पटरियाँ नहीं हैं अब
सिर्फ भूमि है जैसे अनंत समय पहले थी
जिन पर दो पैरों वाले ढोर चराते हैं अभी
चने चबेने खाओ कवि
अपनी प्रेमिका को याद करो
निलंबित इतिहास से बेखबर
कहीं दूर सुंदरवन में मसूर की खिचड़ी बनाती होगी
जब तक पुनः नहीं बुलाता तुम्हें फहराता झंडा
आराम करो कवि
बहुत पटरे हैं हर पड़ाव पर
बहुत सुंदर कविताएँ हैं लिखी हुई उन पर
पकड़े जाओ तो गुनगुना देना कुछ पंक्तियाँ
हर फसाद नारों के कारण हो जरुरी तो नहीं।

 

8. सांकेतिक हो गया है संसार

दुर्बल चीज़ों में हमेशा ही आत्मा पहले आती होगी
देह बाद में
मुझे विश्वास नहीं होता
इतने धीमे से छू कर गिराये जा सकते हैं बाँध
जैसे लौ की राख झूलती हो
कलझायी ढिबरी में
तुम नहीं आये होगे
मानती हूँ
हो सकता है वह कपोत पँखों की छाया थी
जो द्वार को ढकती थी
वह मालगाड़ी होगी
जो पाखियों को चौंकाने मकई के खेतों में रूकती थी
भाव के कारन नहीं
भंगिमा के कारन प्रताड़ित किये जाते हैं कवि
मुझे सच नहीं लगती यह दुर्बलता
मैं प्रण भी नहीं करती
कि कभी कविता में कोई कथा नहीं लिखूँगी
किन्तु सांकेतिक हो गया है संसार
पकी बेरियों जैसा
अतिशय दुर्बल
जल जैसा हिल जाता है पुतलियों की छाया से
संवाद होते ही उजागर हो जाता है
कितना तुमूल वन है हृदय की जगह में।

 

9. तुम किस तरफ हो

तुम किस तरफ हो
क्या लेनिन की तरफ
जो एक बुत की तरह सुन्दर प्रेम की प्रतीक्षा में है
या रबिन्द्र ठाकुर की तरफ
जो शांतिनिकेतन की हरीतिमा में भी ढूंढें से नहीं मिलते
मुझे कुछ नहीं दीखता
मैं जो जीवित हूँ
क्या तुमसे परास्त होने की वजह से !

 

10. पूस में कलकत्ते का कवि

तारापद दे की होमियोपैथी दुकान के सामने
कच्ची दीवार से लगा लगा कदम्ब भीगता था दिवस भर
पूस की बिरखा इतनी ही सघन होती कि
केश न बाँधे जाते
अम्लान हो जाते करतल
साखा के स्वर मंद पड़ जाते जब
कविता के संसार से अनभिज्ञ स्त्री
हज़ारप्रसाद के गद्य की पोथी पलटती
कोई साहित्यकार होता तो बताता दूर से देखे में गद्य पोखर समान लगता है
किन्तु भरता जाता है ऐसी वृष्टि में
जैसे तीसरे पहर के बाद तारे भरते हैं स्वच्छ आकाश में
” जो औषध दुःख दूर करती है वह पीड़ा नहीं हरती ”
यह दूकान की दीवार से मिट गयी पंक्ति होगी
वरना क्यों तो जीव आते इतनी बिरखा में
अकड़े जोड़ों की दवा लेने
क्यों ही भीगा हुआ तिरपाल फड़फड़ाता शीतल हवा में
जिस पर मुक्तिबोध के छंद नहीं
हिंदी विभाग का नया कार्यक्रम लिखा था
अपनी प्रेमिका के पीछे तुम जो नदिया के खेतों तक चले गए
भूल गए
एक आध तो असाध्य रोग भी होंगे
होमियोपैथ जिनका कुछ नहीं करता
जो दीखते नहीं गंध भरी देह में
बस पूस ही उजागर करता है उन्हें
जैसे प्रेम में उजागर हो जाता है कितना अंधकार है तुम्हारे हृदय में।

11. रहने देते हैं इस बार मृत्यु

निरा कोई अबोध क्षण
एक काँच जैसा आसूँ
चला आता है वाक्य के बीच
श्वास वहीँ आवाजाही करती रहती है
उसी पंक्ति के आस पास
जिसे हम रख लेते हैं अपने अपने तालु में
फिर छूने से , हटाने से भी नहीं जाती है उसकी अग्नि
स्वाद पूछते हो तुम
मैं कहती हूँ –
अब उतना निर्दोष नहीं रहा स्वर
होंठ शातिर हो गए हैं
कोई पशु कराहता है हमारी मज्जा में शायद
धन्यवाद कहना था एक काँपते कंठ को
किन्तु रहने देते हैं इस बार मृत्यु
शवों के दाह की जगह में कोई अंतर नहीं है।

12. तुम पहले नहीं

पहले नहीं हो तुम मेरी अनुराग की भाषा के रास्ते में
अपनी कातरता की तरह
अपनी हिचकी की तरह
तुम्हें भी कुचल कर निकल जायेगी यह
किसी भी विश्वास से परे जैसे कौवे बैठे रहते हैं
छतों पर , खिड़की पर
और नहीं बताते किस पूर्वज की कहानी कहने आये हैं
वैसे ही रह जायेगी यह
और हर रोयें पर संदिग्ध अर्थ का अर्थ ढूँढेगी
रगड़ खा जाएंगे तुम्हारे दुःख
ठीक उनकी तरह रंग जाएंगे
जब प्यास पोंछते होंगे सूखते मुख से
अनचीन्हे रहेंगे पुल और उस पर जाते हुए हमारे निस्पंद वाक्य विन्यास
तुम पहले नहीं होगे
जो यंत्रणा से देखोगे उसे
फिर अपनी पूरी ऊष्मा उड़ेल दोगे।

13. लाल गुलाबों की उम्र

तुम्हारी उम्र इस देश से अधिक हो
खूब सुख से रहो
इतना कह कर शब्द खत्म हो गए हैं।
अब अगर मुझे ज्वर आता है तो
मैं कहूँगी
मुझे खुली चांदनी में ले चलो
जहाँ अज्ञात गूंजते है पहाड़ों से गिरते सफ़ेद झरने
तुम क्या सोचोगे
मुझे बिलकुल फ़िक्र नहीं
लाल गुलाबों की उम्र
इस ब्रह्माण्ड में बहुत कम है।

 

14. चलो , अब भाग चलते हैं

कुहासी सुबह है
अशोक की पत्तियाँ काँप रही हैं अपनी ही देह में
चलो , अब भाग चलते हैं
इतना बोझ है हाथों में
तराजू, फावड़ा , दरांती सब उठा कर
बहुत दूर तक पीछे नहीं आएगा समाज
यों भी हमने अपने छुपने की जगह बचा रखी थी कविता में
भीड़ कैसे छुपेगी साँस भर अँधेरे में
मुझे तो भय भी नहीं हुआ
जब समय से पहले पिघल गए पहाड़
सीढ़ियाँ जम गयी, कुँए जैसे गहरे हृदय में जो उतरती थी
उम्मीद थी कि नारों में फ़र्क़ पड़ेगा
बारिश बनेगी उनकी आवाज़
गिरेगी धूल भरे चौराहों पर ठंडी रात के स्वप्न साफ़ करने
किन्तु प्रेमी और कलाकार अख़बार कहाँ पढ़ते हैं
कुहासी सुबह है
हुगली जागी नहीं है
हमारे पूर्वज सोये हैं
हम फूल बहा आएँगे उनके लिए
किन्तु जब पुकारने की विवशता हो तो
मैं तुम्हें शरण दूँगी
तुम मुझे शरण देना
रेतीले मैदान में भँवर जैसे
सम्मोहन ने दृश्य बदल दिया है
कोई न कोई दोष तो है देखने वाले की दृष्टि में
वह देखता है अधिक खपत हुई है बंदूकों की
लम्बी रात के कारण
हर सड़क पर मोमबत्तियां खूब जली
एक खुरदरा विचार दूसरे विचार को रास्ता दिखाता है
जबकि दोनों गिरते हैं चलते हुए
खूब इस्तेमाल हो रहा है रंग बिरंगी झालर का
जबकि बंद हैं द्वार घरों के
हमें कोई न देखेगा अपनी नागरिकता ले कर भागते
चलो अब भाग चलते हैं।

15. लील जाने को ही बना है यह संसार

लील जाने को ही बना है यह संसार
इसलिए कहती हूँ
जीवित नहीं बचेंगे तीताश के तट पर तुम्हारे प्रिय घोंघे
तुम श्रीहरि की चाकरी में बीता रहे हो जीवन
इधर कम हो रही है जलकुम्भियाँ पोखर में
नाटक के पात्र बन गए हैं तुम्हारे छायावाद के कवि
अभ्यास लगभग बिसरता जाता है बोलने का
ऐसे आलोक में पढ़ती हूँ बिमल मित्र को
कि हल्दी से धूसरित हो जाते हैं शब्द
केवल एक कंबल का साझा था हमारा
बीच में अब कई सचित्र किताबें आ गयी हैं
छापेखाने , बेरोजगार पत्रकार , अफीम में डोलते संपादक आ गए हैं
पुलिस आ गयी
नयी धाराएं आ गयी हैं
कल मौन का अधिकार भी छीन जाएगा
लुप्त हो जाएंगी बाड़ी के पीछे नूतन गुड़ जैसी लगी इमली की पतली फली
इसलिए कहती हूँ
नहीं बचेगी तुम्हारी प्रिय की रसोई
भूखी मर जाऊँगी किन्तु मूंग की दाल में आम की फांक बिल्कुल नहीं डालूँगी।

  (कोलकाता निवासी कवयित्री ज्योति शोभा, झारखण्ड दुमका से अंग्रजी साहित्य में स्नातक हैं। सजग पाठिका एवम सदैव साहित्य सृजन में उन्मुख ज्योति , अंग्रेजी , हिंदी और उर्दू भाषाओँ की जानकर हैं। इनकी रचनाओं में परम्परागत लेखन से इतर लोकाचार के नवीन रंग और विन्यास की अलग कल्पना है।  ” बिखरे किस्से ” और “चाँदनी के श्वेत पुष्प”  संग्रह के अतिरिक्त इनकी कई कविताएं राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं।  प्रेम, प्रकृति , विरह के भाव की परिचायक हैं इनकी लेखनी।

टिप्पणीकार आशीष मिश्र युवा आलोचक हैं। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रिसर्च फेलो हैं।)

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