निशांत
कोई कवि या कविता तब हमारा ध्यान खींचती है, जब वो हमारे भीतर के तारों को धीरे से छू दे । हमारे भावलोक में एक तरंग उठा दे । हम अपनी बातों को वहाँ साकार देख लें । ऐसा कई बार मेरे साथ हुआ है । मैं पढ़ता हूँ, गौरव भारती की कविताएँ; लगता है इस कवि ने मेरी ही बात लिख दी है । ऐसा जब-जब होता है, मैं उनकी बाकी कविताओं को ढूंढ कर पढ़ने लगता हूँ । पढ़ना भी इसके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है, मैं उन कविताओं से प्यार करने लगता हूँ । कवियों और कविताओं से प्यार करना चाहिए । प्यार आपको साहसी और उदार बनाता है ।
गौरव भारती के यहाँ प्यार अपनी तयशुदा व्यैक्तिक परिभाषा से इतर व्यापक अर्थ में अभिव्यक्त हुआ है. प्यार में यह संसार और उसकी उपस्थिति इतनी मुलामियत के साथ है कि उसे छूते हुए डर लगता है कि कहीं यह छूने से टूट न जाए । प्यार इतना कोमल है जैसे सुबह-सुबह फूलों पर ओस की बूंदें जिन्हें थोड़ा ध्यान से देखने पर डर कर उड़ गयीं हो ।
“एक दिन/ आत्मीयता के साथ/ उसने कहा-/ मैं तुम से प्रेम करती हूँ/ और कहकर चली गई/ एक दिन/ मैंने भी किसी से कहा था-/ मैं तुमसे प्रेम करता हूँ/ और कई दिनों तक ठहरा रहा/ उत्तर की प्रतीक्षा में …
” प्रेम करने से ज्यादा प्रेम की प्रतीक्षा जरूरी है । इतना ही नहीं प्रेम में कहना महत्वपूर्ण है, सुनना नहीं । सुनने की प्रतीक्षा, प्रेम में धीरज की उपस्थिति है ।
मैं यह मानता हूँ, धीरज काफी जरूरी घटक है जीवन में । धीरज की उपस्थिति जीवन को जटिल नहीं बनने देती है । उसे सहज-सरल बनाती है । सयानेपन और बांकपन को परे हटाती है । गौरव भारती की कविताओं में धीरज है । सयानापन नहीं है । धीरज का ही कमाल है कि छोटी कविताओं में वे बड़ी बातें सामान्य ढंग से कह देते हैं। ‘वह बीड़ी पीता है’, ‘मुक्तावस्था’, ‘देखना’, ‘दिल्ली’, ‘शिकायतें’, ‘बीच सफ़र में कहीं’, ‘कैद रूहें’, ‘वे चाहते हैं’, ‘टूटना’, ‘ये वो शहर तो नहीं’, ‘अख़बार’, ‘इंतजार’ आदि तमाम कविताएँ गौरव भारती के कवि को प्रस्तुत करती है । समय को प्रस्तुत करती है ।
एक कवि अपने समय के सच को उसके सारे शेड्स के साथ उपस्थित करके ही अपने समय को कोरा इतिहास बनने से बचाता है । उसे एक तारीख या सिर्फ एक दिन बनने से भी बचा लेता है । गौरव भारती अपनी कविता में यह काम बखूबी करते हैं । उनकी एक छोटी सी कविता है – ‘दिल्ली’। देखें, कैसे यह सामान्य सी बातचीत कविता बनती है –
“मेरे गाँव के लोग/ जब कभी भी करते हैं फोन/ बात–बात में पूछ ही बैठते हैं/ मौसम का हाल/ शायद!/ उन्हें भी मालूम है/ दिल्ली से ही तय होती है/ देश की आबो हवा…’
कविता का शीर्षक है ‘दिल्ली’ और बात हो रही है मौसम की । मैं, आप और सामान्य पाठक इसे पढ़कर दिल्ली के चरित्र और जीवन उसकी उपस्थिति को समझ जा रहा है ।
सिर्फ कहानी ही छोटे मुँह बड़ी बात नहीं करती, गौरव भारती की कविताओं में भी यह हुनर बख़ूबी मौजूद है सरलता जिसकी ख़ासियत है.
गौरव भारती की कविताएँ :
1 .थपकियाँ
बे-नींद भरी रातों में
मुझे अक्सर याद आती हैं
नानी की थपकियाँ
उन हथेलियों को याद करते हुए
मेरी दाईं हथेली
अनायास ही बिस्तर पर
थपकियों की मानिंद उठती और गिरती हैं
थपकियाँ
स्त्रियों द्वारा बुना गया
आदिम संगीत है
जिसकी धुन पर नींद खींची चली आती है…
2.इंतजार
मुझे पसंद है
ढलती हुई शाम
क्योंकि पंछी जब लौटते हैं घर
मुझे लगता है
एक दिन तुम भी लौट आओगे…
3. वह बीड़ी पीता है
मैनपुरी के किसी गाँव के किसी गली का
वह रिक्शा चालक
बीड़ी पीता है
नब्बे पैसे की एक बीड़ी
मेरे सिगरेट से लगभग सोलह गुनी सस्ती है
पैडल पर पैर जमाते हुए
वह बीड़ी के फायदे बताता है और
बड़े शहर में छोटी-छोटी बातें करता है
जिसे मैं उसके वक्तव्य की तरह नोट करता हूँ
बड़े-बड़े पीलरों के ऊपर
जहाँ मेट्रो हवा को धकियाते हुए सांय से गुज़र जाती है
उन्हीं पीलरों के नीचे से
रिक्शा का हैंडल मोड़ते हुए
वह मुझे वहाँ तक पहुँचाता है
जहाँ वक़्त लेकर ही पहुँचा जा सकता है
सिगरेट की कशें लेते हुए
मुझे उसका ख्याल आता है
और मैं सोचता हूँ-
इंसानों को बीड़ी की तरह सस्ता, सहज और उपलब्ध होना चाहिए …
4. वे चाहते हैं
वे चाहते हैं
हम भेड़ हो जाएं
जिसे वे जब चाहें हांक दें
वे चाहते हैं
हम कुत्ते हो जाएं
जीभ निकाले हुए
पूँछ हिलाते रहें बस
वे चाहते हैं
हम दुधारू गाय हो जाएं
बिना लताड़ खाए
जिसे दूहा जा सके
साल-दर-साल
वे चाहते हैं
हम बंदर हो जाएं
जिसे वह मदारी खूब नचाए
वह आया
हर बार आया
बार-बार आया
कुछ लुभावने सपने लेकर
दूर खड़े होकर उसने कहा
जो मन को भाए
बगैर हिचकिचाए
बिना शरमाये
इस बार उसने कहा-
‘आपका जीभ आपके विकास में बाधक है
थोड़ी देर सोचते हुए
फिर बोला
यह देश के विकास में भी बाधक है’
अगली सुबह
मैंने देखा
किस्म-किस्म के जानवर कतारबद्ध
अपने विकास को लेकर चिंतित थे
देश के विकास को लेकर व्याकुल थे…
5. गुमशुदगी से ठीक पहले
शहर मुझे दीमक सा खाए जा रहा है
मैं लगातार खुद को बचाने की नाकाम कोशिश में जुटा हूँ
गणित ने जिंदगी के तमाम समीकरण बिगाड़ दिए हैं
आईना मुझे पहचानने से इंकार करने लगा है
बगल वाले कमरे में बच्चा रोज रात भर रोता रहता है
मुझे थोड़ा सा अँधेरा चाहिए
यहाँ फिजूल की रौशनी बहुत है
मैं लुका-छिपी का खेल खेलना चाहता हूँ
लेकिन यहाँ छुपने की जगह नहीं है
बहत्तर सीढियाँ चढ़कर
मैं पांच मंजिले मकान की छत पर जाता हूँ
मगर चाँद धुंधला नजर आता है
मुझे अपनी आँखों पर शुबहा होने लगा है
मैं लौटता हूँ
अपनी स्मृतियों में
और इस तरह खुद में लौटता हूँ
मैं याद करता हूँ तुम्हें
और इस तरह खुद को याद रखता हूँ…
6. जैसे लौटता हो कोई अपनी याद में
शहर से लौटना
अपने गाँव
लौटना नहीं होता
हमेशा के लिए
वह होता है
कुछ-कुछ वैसा ही
जैसे लौटता हो कोई अपनी याद में
संचारी भाव लिए
शहर से लौटने वाला हर इंसान
साथ लाता है अपने थोड़ा सा शहर
जो फैलता है गाँव में
संक्रमण की तरह
और फिर लौटते हुए
वह छोड़ जाता है
पगडंडियों पर अपनी बूट में फंसी सड़क
वह छोड़ जाता है
दूसरी पतंगों को काटने का स्थायी भाव
वह छोड़ जाता है
अपने पीछे एक चमकदार बल्ब
जिसकी मरम्मत नहीं हो पाती
फ़्यूज हो जाने पर…
7. अख़बार
वेंडर
सुबह-सुबह
हर रोज़
किवाड़ के नीचे से
सरका जाता है अख़बार
हाथ से छूटते हुए
जमीं को चूमते हुए
फिसलते हुए
अख़बार
एक जगह आकर ठहर जाता है
इंतजार में
अख़बार
इश्तहार के साथ-साथ
अपने साथ ढ़ोती है
एक विचारधारा
जिसे वह बड़ी चालाकी से
लफ्फबाजी से
पाठकों तक छोड़ जाती है
पढ़ने से पहले
राय बनाने से पहले
ज़रा ठहरिए
हो सकता है
आप दुबारा छले जाएं
पिछली बार की माफ़िक
जब आपने बाजार से
वह सामान उठा लाया था
महज इश्तहार देखकर ।
8. लौटना
खंडित आस्थाएं लिए
महामारी के इस दुर्दिन में
हज़ारों बेबस, लाचार मजदूर
सभी दिशाओं से
लौट रहे हैं
अपने-अपने घर
उसने नहीं सोचा था
लौटना होगा कुछ यूँ
कि वह लौटने जैसा नहीं होगा
उसने जब भी सोचा लौटने के बारे में
लौटना चाहा
मनीऑर्डर की तरह
वह लौटना चाहता था
लहलहाते सरसों के खेत में ठुमकते हुए पीले फूल की तरह
वह लौटना चाहता था
सूखते कुँए में पानी की तरह
वह लौटना चाहता था
अपने कच्चे घर में पक्के ईंट की तरह
वह लौटना चाहता था
लगन के महीने में
मधुर ब्याह गीत की तरह
वह लौटना चाहता था
चूल्हे की आँच पर पक रहे पकवान की तरह
वह लौटना चाहता था
कर्ज के भुगतान की तरह
वह लौटना चाहता था
पत्नी के खुरदुरे पैरों में बिछुए की तरह
वह लौटना चाहता था
उसी तरह, जैसे
छप्पर से लटकते हुए बल्ब में लौटती है रौशनी अचानक
उसने नहीं सोचा था
कभी नहीं सोचा था
लौटना होगा कुछ यूँ
कि वह लौटने जैसा नहीं होगा…
9. अल्पविराम
लंबे वाक्य में
पूर्णविराम से पहले का
अल्पविराम हो तुम
जहाँ आकर मैं
ठहरता हूँ
सुलझता हूँ
और अंततः संप्रेषित होता हूँ …
10. मानकीकरण
मेरे शब्द
कई संस्थानों से होकर गुजरेंगे
उसके हर्फ़-हर्फ़ को कई बार पढ़ा जाएगा
और हर पाठ के साथ अर्थ की सघनता ख़त्म होती चली जाएगी
शब्द छाँट दिए जाएँगे
वाक्य-विन्यास तोड़े जाएँगे
शब्दों के क्रम बदल दिए जाएँगे
नुक़्तें हटा दिए जाएँगे
मानकीकरण के इस युग में
बहुत मुश्किल है
आश्वस्त होकर बैठ जाना
और यह मान लेना कि
मेरे शब्द तुम तक वही अर्थ संप्रेषित करेंगे
जिसे मैंने तुम्हारे लिए गढ़ा है …
11. जिजीविषा
होते हैं कुछ लोग
जो बार- बार उग आते हैं
ईंट और सीमेंट की दीवार पर पीपल की तरह
इस उम्मीद में कि-
‘एक दिन दीवार ढह जाएगी’
12. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
तस्वीरें डराती हैं
असहाय रूदन किसी दुःखस्वप्न से मालूम होते हैं
मगर ये हक़ीक़त है मेरी जां
कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
सत्ताधारियों के लिए
ठंडे होते मासूम जिस्म महज आंकड़े हैं
देश के भविष्य नहीं
उनके अपने आंकड़े हैं
उनका अपना विकास है
सबसे अलहदा भविष्य देखा है उन्होंने
लेकिन मैं उस भविष्य का क्या करूँ
उस विकास का क्या करूँ
जो उन बस्तियों से होकर नहीं गुजरती
जहाँ रोज भविष्य
वर्तमान का शिकार हो रहा है
इस अर्थतंत्र में
इस बाजार में
जहाँ सबकुछ दांव पर लगा है
मेरी एक छोटी सी ख़्वाहिश है कि
उनका देश रहे न रहे
हमारा मुल्क रहना रहना चाहिए
बस्तियां रहनी चाहिए
किलकारियां रहनी चाहिए
तितलियां रहनी चाहिए
और रहनी चाहिए खिलौनों की गुंजाइश…
13. यात्रा
जब कभी भी
तुम्हारी उँगलियों के बीच के फ़ासले को
मैंने अपनी उँगलियों से भरा है
मुझे हर बार लगा
हमनें एक लंबी यात्रा पूरी की है …
14. मुक्तावस्था
मंडी हाउस के एक सभागार में
बुद्धिजीवियों के बीच बैठी एक लड़की
नाटक के किसी दृश्य पर
ठहाके मार के हँस पड़ती है
सामने बैठे सभी लोग
मुड़कर देखते हैं पीछे और कुछ बुदबुदाते हैं
मैं देखता हूँ उसे
मुस्कुराते हुए बहुत प्यार से
मुझे यक़ीन है
वह हँसती होगी जहाँ हँसना चाहिए
जहाँ रोना चाहिए वहाँ रोती होगी
जहाँ लड़ना चाहिए वहाँ लड़ती होगी खूब
तमाम भाव लिए
घूमती होगी वह
दिल्ली की सड़कों पर …
15. टूटना
1.
आवाजें
आती रहती है अक्सर
सामने वाले मकां से
टूटने की
फूटने की
चीखने की
रोने की
फिर सन्नाटा पसर जाता है
बत्तियां बुझ जाती है
और वह मकां
चाँद की दूधिया रौशनी में
किसी खंडहर सा मालूम होता है
जिसकी बालकनी में थोड़ी देर बाद
एक पुरुष
सिगरेट की कश लेता हुआ
हवा में छल्ले बनाता है
जो अभी-अभी
अंदर के कमरे से
एक युद्ध जीत कर आया है मगर
हारा हुआ नज़र आता है
2.
आज भी टूटा है कुछ
लेकिन हमेशा की तरह बत्तियां बुझी नहीं है
कुछ और बत्तियां भक से जल उठी है
शोर बढ़ गया है उस तरफ
एम्बुलेंस आकर रुकी है
वही पुरुष
जो अक्सर इस वक़्त बालकनी में दिखता था
दो जनों के सहारे
एम्बुलेंस में किसी तरह चढ़ता है
कहते हैं
टूटना अच्छी बात नहीं
लेकिन यकीं मानिए
आज जो टूटा है
वह सुकून भरा है
उसे बहुत पहले टूटना चाहिए था
ऐसी चीजें टूटनी ही चाहिए
कम से कम
मैं तो ऐसा ही मानता हूँ
आपको क्या लगता है?
(कवि गौरव भारती, जन्म- बेगूसराय, बिहार | शोधार्थी, भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली | कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित |
ईमेल- sam.gaurav013@gmail.com, संपर्क- 9015326408
टिप्पणीकार निशांत, चर्चित कवि, भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, नागार्जुन शिखर सम्मान, शब्द साधना युवा सम्मान, नागार्जुन परम कृति सम्मान, मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित | वर्तमान में काज़ी नजरुल विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक |)