समकालीन जनमत
कविता

दीपेश कुमार की कविताएँ सामाजिक विषमताओं की थाह लेती हैं

विपिन चौधरी


युवा कवि दिपेश कुमार की कलम अभी नई है इन्होंने अपनी इन चारों कविताओं में भारतीय समाज के उस हिस्से को केंद्र बनाया है जिसे सरकारें अपने तमाम सामाजिक सुधार के प्रबंधनों के बावजूद आज भी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक तौर पर सबल नहीं बना सकी हैं और समाज का तथाकथित प्रगतिशील सामाजिक तबका भी जिनके साथ समाजिक एकरसता स्थापित करने में असफल रहा है.

प्रतिरोध के स्वर में लिखी इन कविताओं में कवि अपनी सामाजिक चेतना का परिचय देने में सफल हुआ है.
इस जटिल समय में विश्लेषणात्मक, आलोचनात्मक दृष्टि के साथ-साथ बेहतर संचारक क्षमता की मांग रखती कविता-विधा आधुनिकता की जद में होने वाले अनगिनत बदलावों, आभासी दुनिया के तमाम संकटों, वर्तमान में जगह बना चुके अकेलेपन, हताशा, बेरोज़गारी के अलावा समाज, संस्कृति, परंपरा, इतिहास, भविष्य, वर्तमान जैसे विषयों को टटोलती नज़र आती हैं.

इस कवि का ध्यान सामाजिक असमानता पर अधिक है. आज के समय में जब ग्लोबल वार्मिंग, वन्यजीवों के गायब होने, कंक्रीट के बढ़ते जंगलों जैसे वैश्विक चेतावनी के समाचारों के बीच से मौत का कुआं बनते सीवरों में उतरने वाले सफ़ाई कर्मचारियों, सिर पर मैला ढोने वाले लोगों की खबरें लोप हो रही हैं. तब कवि उनकी आवाज़ बनता है,

मैं यहाँ गंदगी साफ़ करने नहीं आता
कुछ ढूंढने आता हूँ
अपने हिस्से की धूप- जो सदियों से नहीं मिली

कवि की संवेदना ग्लोबल मार्केट में तब्दील हो चुकी दुनिया के एक कोने में अपनी गरीबी को ढकती बासी मांस बेचती लड़की से जुड़ती है जो अपनी भूख अपनी गरीबी को मिटाने का कोई उपाय नहीं जानती,

दुर्भाग्य है
एक भी स्कूल नहीं
एक भी कॉलेज नहीं
कोई व्यवस्था नहीं
जहाँ इनको सिखाया जा सके
बुलाना
रिझाना
लुभाना
पेट पालने की तमाम कलाएँ
माँस बेचने की तमाम तकनीक

होश आने पर हर नई पीढ़ी अपनी परंपराओं की ओर नज़र डालती है. सामाजिक असमानता और इंसान का दोगलापन किसी भी संवेदनशील युवा कवि को सबसे पहले आक्रांत करता है. तब वह अपनी युवावस्था के मिज़ाज के अनुरूप प्रतिरोधी तेवरों में सामने आता है.
बदबू कविता बड़े संसाधनों पर अपना कब्ज़ा जमाने वाले लोगों पर धिक्कार भेजती है. दुनिया के अंतिम गाड़ीवान की मृत्यु कविता इस सच के रूबरू है कि सुविधाओं के लिए नित नए आविष्कार किस तरह गरीब गुरबों पर प्रहार करते हैं. इस आधुनिक समय की दौड़ में गरीब पिछड़ता ही जा रहा है. मगर उनकी चिंता किसी को नहीं है. बस एक कवि नाम का यह प्राणी ही है जो जीवन के हर सौंधेपन को बचाए रखना चाहता है. जिसके भीतर एक चिंगारी है जो समाज की हर असमानता को भस्म कर देना चाहती है. उसे ही भविष्य के खतरों की आहट ठीक से सुनाई देती है,

चाबुक
जिससे बैलों को केवल डराया जाता था
उधेड़ लेगा खाल
जो बैल होना नहीं स्वीकारेंगे

आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में दिपेश कुमार के करीब जनपक्ष सरोकारों का दायरा अधिक व्यापक होगा और उसके भीतर की चिंगारी हमेशा इसी तरह जलती रहेगी.

 

दीपेश कुमार की कविताएँ

1. बदबू

हम बेनाम लोग
फुटपाथ पर
बिना मान, मर्यादा और अस्तित्व के जीते हैं
जूठन, ठोकर, कीचड़, गाली, अपमान
यही मिला हमें
अपनी परम्परा से

आप तो सड़क पर चलते हैं
जब जिधर चाहें, मुड़ जाते हैं
दाएँ, बाएँ, आगे, पीछे
बिलकुल अपनी मर्जी से
लेकिन हमें?
हमें तो रेल की पटरियाँ मिली हैं
ज़िन्दगी भर इसी पर दौड़ना है
कहने को तो हम भी मुड़ सकते हैं
दाएँ, बाएँ
लेकिन, अपनी मर्जी से नहीं
पटरियों की मर्जी से

ये बदबूदार गंदगी आपकी
और साफ़ करने का ज़िम्मा?
हमारा खानदानी
इस खानदानी ज़िम्मा का
ना कहीं शुरुआत
ना कहीं अंत
किन्तु घबराइये नहीं
इस गन्दगी के बदबू का एक भी टुकड़ा
आपकी नाकों तक नहीं पहुँचने देंगे
आखिर सदियों का तजुर्बा जो है!

हमने कमीज उतार ली है
और लूँगी भी
लोहे के नुकीले औजार से
नाली का ढक्कन भी हटा दिया
अब मैं कूद चुका हूँ
आपकी गंदगी साफ़ करने
जिसे आप एक नज़र देख तक नहीं पाते

लेकिन साहब!
क्या आप जानते हैं?

मैं यहाँ गंदगी साफ़ करने नहीं आता
कुछ ढूंढने आता हूँ
अपने हिस्से की धूप- जो सदियों से नहीं मिली
सूखी रोटी के साथ – खीर की एक कटोरी
लोकतंत्र की टाँग – जो इसी कीचड़ में कहीं धँसी हैं
न्यायालय में खाली झूल रहे तराजू के लिए बटखरा
और ढूंढ रहा हूँ
संविधान के किसी पन्ने के किसी कोने के किसी अनुसूची के
किसी अनुच्छेद में लिखे हमारे अधिकारों के रास्ते में
रुकावट बनी वो पत्थर
अफ़सोस…
अफ़सोस कि हर बार कीचड़ ही हाथ आया

हमारी तलाश यही ख़त्म नहीं होती
आपके शौचालय के हौज में
गंदगी के बहाने
बहुत कुछ ढूंढता हूँ
पत्नी के होठों पर उगे घिसे-पिटे सवालों के जवाब
बेटी के ब्याह के जोड़े का सुर्ख लाल रंग
बेटे के उघरे हुए देह के लिए बित्ता भर कपड़ा
और ढूंढता हूँ
पिता के पेट से झाँकती हड्डियों को छुपाने के लिए चमड़े की एक और परत
अफ़सोस…
अफ़सोस कि हर बार मैला ही हाथ आया

हमने सदियों से आपका कीचड़ साफ़ किया
क्या आप एक बार आएँगे?
इस कीचड़ में
गंदगी साफ़ करने नहीं!
कुछ ढूंढने के लिए
हमारे हिस्से की धूप
खीर की कटोरी
लोकतंत्र की टाँग
न्यायालय के लिए बटखरा
हमारे अधिकारों के रास्ते का पत्थर
जिससे हमारी जिन्दगी के
कीचड़ और बदबू दूर हो सके

 

2. बासी मांस

उसे नहीं आता
बुलाना
नहीं सीख पाई
रिझाना
जानती नहीं राहगीरों को लुभाना
व्यापार करना नहीं आता
उसे माँस बेचना नहीं आता

बड़ी दुकानों के अलावे भी
जगह-जगह
बेचे जाते हैं माँस
खुले आसमान के नीचे
जहाँ मँडराते हैं
चील-कौए
कभी-कभी इक्का दुक्का ही
आ पाता है
चीथड़े में लिपटा खरीददार
बाकी का माँस तो
बासी ही रह जाता है

मुझे देखकर
उसने आग जलाई
अपनी आबरू
मर्यादा
इंसानियत
अस्तित्व
सबकुछ जलाकर
इशारा किया
शायद
उसे मुझमें एक खरीददार दिखा हो

एक पल ठिठककर
मैंने गौर से देखा
उस साँस लेती हुई लाश को
जो कबसे
अपने ही कन्धों पर
अपनी ही माँस की बोटियाँ लिए
भटक रही हैं.

दुर्भाग्य है
एक भी स्कूल नहीं
एक भी कॉलेज नहीं
कोई व्यवस्था नहीं
जहाँ इनको सिखाया जा सके
बुलाना
रिझाना
लुभाना
पेट पालने की तमाम कलाएँ
माँस बेचने की तमाम तकनीक

 

3. उच्चारण

वे एक ही अक्षर का उच्चारण
अलग-अलग तरीके से करते हैं
उसके ‘चम्मच’ का ‘च’
‘चमार’ के ‘च’ से बहुत अलग है
‘चम्मच’ का ‘च’ बोलने के लिये
उसकी जीभ तालू से स्पर्श करती है
और जब बोलना हो ‘चमार’ का ‘च’
तो जीभ टकराती है
उसके पुरखों के मल-मूत्र से
गंध से फटने लगता है उसका नाक
उसकी धमनियों का खून पीला पड़ जाता है
पूरी ताक़त से वह चिल्लाता है-
‘अबे चमरा, साफ कर इसे’।
उसके ‘बरतन’ का ‘ब’
‘बाभन’ के ‘ब’ से बिलकुल ही अलग है
‘बरतन’ का ‘ब’ बोलने के लिये
उसके दोनों ओष्ठ आपस में टकराते हैं
और जब बोलना हो ‘बाभन’ का ‘ब’
तो उसके फटे ओष्ठ थरथराने लगते हैं
बहने लगता है लाल खून
पुरखों द्वारा सिर पर ढोए मल-मूत्रों के गंध से
उसका नाक भी फटने लगता है
उसकी धमनियों का खून ठंडा हो जाता है
गिड़गिड़ाते हुए वह बोलता है
‘बाभन देवता! अभी साफ़ करते हैं’।

 

4. दुनिया के अंतिम गाड़ीवान की मृत्यु पर

बैलों की भाषा
अब नहीं समझ पाएगा कोई
भैया और बेटा
अब नहीं बुलाया जाएगा उसे
उसकी पहचान
केवल जानवर के रूप में होगी
गाड़ी खींचने वाला जानवर

कच्ची सड़कों का इतिहास जलाते समय
जला दिए जाएँगे
दुल्हन की पायल और बैलों के घुँघरू का मधुर संबंध
धूँ-धूँ कर जलेगा
पीछे दौड़ते नंग-धड़ंग बच्चों का झुंड

धरती पर उभरे
बैलगाड़ी के पहियों के तमाम निशान
बड़ी गाड़ियों से रौंद दिए जाएँगे

खुर के निशान को
घोषित कर दिया जाएगा
किसी खूँखार जानवर की उपस्थिति

चाबूक
जिससे बैलों को केवल डराया जाता था
उधेड़ लेगा खाल
जो बैल होना नहीं स्वीकारेंगे

बैलगाड़ी के पेट में
ठूँस दिए जाएँगे पसीने से तर-बतर लोग
अपने पसीने से वातावरण को
बीभत्स बनाने के अपराध में

पहियों में आग लगाकर
अनन्त तक जाने की शक्ति के साथ
छोड़ दिया जाएगा
अश्वमेघ के अश्व की तरह

वह गाड़ीवान
अपने कमज़ोर कंधों पर
कितना कुछ टिकाकर रखा था!
एक बैलगाड़ी
एक गाँव
एक समाज
एक दुनिया
एक पूरी की पूरी सभ्यता।


 

कवि दीपेश कुमार, जन्मतिथि : 02 सितंबर, 1995
जन्मस्थान: बैरबोना गाँव, मधुबनी ज़िला

हिंदी साहित्य और मैथिली साहित्य में परास्नातक
फ्रीलांस तकनीकी अनुवादक (अंग्रेज़ी से हिंदी और अंग्रेज़ी से मैथिली)
ईमेल पता: dipeshlsc@gmail.com
मो: +91 7532970980

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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