समकालीन जनमत
कविता

दीपक जायसवाल की कविताएँ अतीत और वर्तमान की तुलनात्‍मक प्रतिरोधी विवेचना हैं

कुमार मुकुल


अतीत और वर्तमान के तुलनात्‍मक प्रतिरोधी विवेचन और वैचारिक जद्दोजहद दीपक जायसवाल की कविताओं में आकार पाते हैं।

समय के अभेद्य जिरहबख्‍तर को भेद सात तहों में छुपे सचों को सामने लाने का साहस दीपक के पास है। आज जब अपनी आलोचना सहना मानुष जाति के लिए कठिन होता जा रहा है विरल आत्‍मालोची स्‍वर को दीपक के यहां विकसित होते देखना पाठकों को ताकत प्रदान करता है –

और हम जो सभ्‍य थे तुम्‍हारे लिए बस इतना किया

कि तुम्‍हें धीरे-धीरे मरते देखते रहे

सुसंस्‍कृत-शालीन आंखों से।

‘फराओ और बुद्ध’  दीपक की एक साहसिक कविता है जिसमें वे पारंपरिक तौर पर समय के सिरमौर के रूप में देखे जाने वाले राजसी ऐश्‍वर्य को उसकी आत्‍महीनता के दर्शन कराते हैं –

… इतने जतन के बाद भी

कोई फराओ नहीं हुए दुबारा जिंदा

जिंदा रहे बुद्ध अमर रही

उनकी अर्धनिमीलित करूणामयी आर्द्र आंखें।

जैसे ब्राह्मणवादी ब्राह्मण व दलित दोनों हो सकते हैं उसी तरह पितृसत्‍ता का मतलब हमेशा पिता ही नहीं होता। पितृसत्‍ता के बरक्‍स कई बार कुछ पुरूष भी अपनी सल्‍ल्‍ज भूमिका में हमेशा मौजूद रहते हैं।

समकालीन कवियों में ऐसे पुरूष-पिता विनोद पदरज, संतोष अलेक्‍स की कविताओं में दिखते हैं। पिता का वह रूप दीपक के यहां भी है –

बाबूजी की भौंहें

दुर्वासा की माफिक नहीं थीं

वे बहुत विनम्र थे

इतने विनम्र कि धरती के गुरूत्‍व का

कभी उन्‍होंने प्रतिरोध नहीं किया

हालांकि वे करते तो उनकी जिंदगी

शायद थोड़ी बेहतर होती।

आइए उनकी कविताओं के ज़रिए उन्हें थोड़ा और समझते हैं।

 

दीपक जायसवाल की कविताएँ

1. फराओ और बुद्ध

मिस्र के फराओ
अपने ऐश्वर्य को बनाए रखने के लिए
मृत्यु के बाद की
दुनिया के लिए भी
सोने चाँदी अपने क़ब्रों में साथ ले गए
दफ़नाएँ गये हज़ारों-हजार ग़ुलाम
जीते-जी
कि राजा जब अपनी कब्र में हो
कि जब कभी इक रोज़
फिर जी उठे तो
उसके पैर धूल-धूसरित न हों।

ईसा पूर्व में ही
कपिलवस्तु में भी एक राजा का राजपाट था
इक रोज़ अकूत धन राजपाट बीच जवानी में छोड़
वह साधु हो गया
बरसों-बरस भूखा-प्यासा भटकता रहा
इस आस में कि
दुनिया के लिए वह इक रोज़
मुक्ति का रास्ता खोज निकालेगा
कन्दराओं,गुफा-गेहों,नदी-पहाड़ों
जंगल-आश्रम-मठों में धूल फाँकता रहा
हर एक ज्ञान के सोते में
उसने अपने ज्ञान चक्षु डुबोए
कि इक रोज़ दुनिया के अनंत हृदयों के
असीम दुःख-पीड़ाओं को
वह हर लेगा।

उसने वीणा के तारों को कसा
उसके मेरुदण्ड
वीणा के तार हो गए
पीपल के पेड़ के नीचे तप में बैठा सिद्धार्थ
उसकी शोरों के साथ पाताल गया
शाखाओं फुनगियों के साथ आसमान
वह महान देवताओं से पूछना चाहता था
दुनिया आपके रहते इतनी दुःखी
दुःखों से भरी क्यों है?
कि महान पिताओं के हृदय किस मिट्टी के बने हैं?
बरसों-बरस देवताओं ने उसे खाली हाथ लौटाया
अंत में थक-हार
अपनी शोरें-शाखाएँ आसमान-पाताल से समेट
अपने अवचेतन मन में उतरता गया गहरे और गहरे
उसे लगा पाताल की गहराइयों से भी
गहरी जगह उसका मन है
ज्यों-ज्यों गहरे उतरा सेमल का फूल होता गया
बादल होता गया
खुद को खाली करता गया
उसकी चेतना ब्रह्मांड के हर
तारे-ग्रह-उल्कापिंड का गुरुत्व
महसूस कर सकती थी
उसने अपना शरीर उन्हें सौंप दिया
सारा भार तज दिया
उसे लगा कि उसके भीतर
किसी दिये की रोशनी छन रही है
हल्की बारिश हो रही है
छींटे उसके भीतर तक पहुँच रहे हैं
पीपल के पत्तों की ही तरह थोड़ी सी भी
हवा से हिल जाने वाला उसका मन
धीर-गम्भीर-शांत पर्वत हो चला है
वह हाथी-बरगद-चींटी-तेंदुआ-मछली
सबकी चेतना के अविच्छिन्न प्रवाह में उतर सकता है
कि उसकी धमनी-शिराओं में
दुनिया का सारा दुःख-दर्द भरने-उतरने लगा
कराह उठे बुद्ध अनंत हृदयों की पीड़ा से।

मिस्र के फराओ खुफु ने जीते जी
बीस बरस तक
खुद की कब्र बनवाई
गिजा के पिरामिड
चाबुक से
हज़ारों-लाखों ग़ुलामों से
उनके खून से
बीसों लाख ढाई हाथी वज़नी पत्थरों से।
ये महान पिरामिड ऐसी जगह बनाई गयी
कि इन्हें इजराइल के पहाड़ों से
सुदूर चाँद की ज़मीन से भी देखा जा सकता था
पिरामिड के बाहर पाषाण खंडों को
इतनी कुशलता से तराशा और फिट किया गया
कि जोड़ों में एक ब्लेड भी नहीं घुसायी जा सकती।
सदियों तक बनी रही
दुनिया के इन सबसे ऊँची इमारतों से
फराहो खुद को देवता घोषित करते रहे
नील नदी में अपना वीर्य विसर्जित करते रहे
वे इतने शक्तिशाली थे कि
लाखों ग़ुलामों की गर्दन उनके पैरों तले रहती थी
लेकिन दयालु राजा इसे दबाते कम थे
फराओ जब राजपथ पर निकलते
हज़ारों सैनिक साथ चलते
ग़ुलाम घुटनों पर झुक जाते उनकी आँखे और भी
दुनिया के सबसे सुंदर क़ीमती वस्त्रों को
धारण करने वाले फराओ
निर्वस्त्र ग़ुलामों पर शहद का लेप लगवाते
मधुमक्खियाँ जब टूटती उनकी देह पर
मंत्रमुग्ध हो उठते महान फराओ।

जीने की भूख इतनी बढ़ती गयी
प्यास इतनी गहरी होती गयी
कि उनकी असीम तृष्णा ने
मासूम बच्चों तक का खून चखा
उनकी अतड़ियों में दाँत उग आए थे
यदि वे इतना असंयमित भोजन नहीं करते
तो सम्भव था कि वे खुद की बनवायी गयी
सुंदर-सुडौल मूर्तियों की तरह थोड़ा-बहुत दिखते
इसी देह को बचाए रखने के लिए
फराओ ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी
एक ऐसे लेप की खोज में
जो उनकी लाशों को हज़ारों सालों तक
सड़ने से बचा सके
अपने अंगों को उन्होंने
दुनिया के सबसे सुंदर मजबूत जारों में रखवाया
ताकि जब पुनर्जन्म हो वह अपनी देह पा लें
वह अपनी आत्मा की अमरता की कामना में
उसे सूरज की किरणों के साथ
रा और ओसिरिस देवताओं को
सौंप देना चाहते थे
देवता सिर्फ़ उनके थे मंदिर सिर्फ़ उनका था
चेहरे पर नकली दाढ़ी चिपका
वे देवत्व को धारण करते थे
हज़ारों-हज़ार पत्नियों के स्वामी
अपनी वासनाओं से कभी अघाते नहीं थे
तुच्छ मार्सुपियल चूहे महान फराओ से
कम से कम एक गुण में समानता ज़रूर रखते थे
प्रेम में डूबी स्त्रियों को ज़िंदा जलवा देते
व्यभिचार में आकंठ डूबे महान फराओ।

सिद्धार्थ की आँखें डबडबा आई थीं
कषाय धारण करते हुए सिद्धार्थ
कषाय को कस के बांधे जा रहे थे
मन था कि खुला जा रहा था
हृदय था कि भीगा जा रहा था
कषाय खोल दुबारा बांधते सिद्धार्थ
आँखों में बाँध बांधते सिद्धार्थ
आँसू बहा कि संकल्प टूटा
बूढ़े पिता-राजा थे जिनके कंधे थक रहे थे
डूबती हुई रोशनी में अपने पुत्र को देखे जा रहे थे
माँ थी जिनका कलेजा छिला जा रहा था
पत्नी थी जिसका हृदय फटा जा रहा था
जिस जतन से माने सिद्धार्थ
वह जतन करने को तैयार खड़ी थी यशोधरा
इच्छा थी पाँव पकड़ ले रोए-धोए जाने न दे
लेकिन निस्सहाय अपलक खड़ी थी यशोधरा
पुत्र था जो सिद्धार्थ की उँगलियाँ
अब भी थामे हुए था
कपिलवस्तु था जिसके लिए सिद्धार्थ का जाना
बीच समुंदर में नाव से पतवार का
पानी में अचानक गिर जाना था
तूफ़ान में किसी छाँव देने वाले
भारी दरख़्त का गिरना था
जो अब तक धरती को
अपनी शोरों से पकड़े हुए था
सिद्धार्थ थे कि जो उखड़ने के बावजूद भी
अपनी शोरों में मिट्टी थामे हुए जा रहे थे
सबकुछ छोड़े कहाँ जा रहे थे ?
क्यों जा रहे थे सिद्धार्थ?

सिद्धार्थ सन्यासी हो गए
केश काट डाले जो ज्ञान
इस संसार के दुखों को कम नहीं करता
दया और करुणा नहीं भरता
उसको ढोकर आख़िर क्या करते सिद्धार्थ?
धूप-बारीश-ठंड-भूख सहते हुए
दुनिया की सारी पीड़ाओं के उत्तर तलाशते
सिद्धार्थ ने खुद का होना छोड़ दिया
तृष्णाओं को विसर्जित किया
निरंजना नदी में
उस वक्त जलवाष्प संघनित हुए
बादल धरती छूने लगे
कमलदल सीताफल अरबी बालसम
के पत्तों पर ठहरी जल-बूँदे
सूरज की रोशनी में
चाँदी मोती होकर चमक रही थीं
आकाशगंगाओं के असंख्य तारों
का प्रकाश भरने लगा सिद्धार्थ में
सिद्धार्थ हुए तथागत हुए बुद्ध-बोधिसत्व
सबके निर्वाण-मंगल के निमित्त
भंते कहते ही फूट पड़े आँसू अंगुलिमाल के
घृणा-हिंसा को जयी किया बुद्ध ने
प्रेम-करुणा से
इस धरती की सारी हवा पानी आग
हिरण कछुए जंगल का पत्ता-पत्ता
उनके प्रेम में थे
तथागत की आँखें उनके गुरुत्व में
अर्धनिमीलित हो गयी
बुद्ध ताउम्र सोखते रहे इस दुनिया का
सारा दुःख-अंधेरा
फैलाते रहें प्रकाश
सिखाते रहे प्रेम करुणा दया
शांति संयम अहिंसा
दुनिया की सारी नदियाँ
बोधिसत्व को जानती थीं
वह उनके समीप इतनी सहज थीं
कि बता सकती थी उनके हृदय से
अपने हृदय का एक-एक दुःख।

पुरातत्ववेत्ता अचरज में है कि
फराओ ने कैसे बनवाया होगा
इतना बड़ा पिरामिड इतने बरस पहले?
हालाँकि इतने जतन के बाद भी
कोई फराओ नहीं हुए दुबारा ज़िंदा
ज़िंदा रहे बुद्ध अमर रही
उनकी अर्धनिमीलित करुणामयी आर्द्र आँखें।

2. गैस-चैम्बर

मृत्यु आँकड़ों की शक्ल में आए
कितना विभत्स है यह
नाज़ियों ने बनाए इसके लिए
गैस-चैम्बर
पूँजीवादियों ने बनाए
बाज़ार।

3. भूख

भूख के मरते ही मर जाता है आदमी
बहुत भूख से भी मर जाता है आदमी
मरता तो तब भी है
जब वह सिर्फ अपने लिए जीने लगता है
जब दुनिया में कही कोई आदमी भूख से मरता है
उस समय हर वह आदमी जिस की आँख में पानी मरा नहीं
थोड़ा सा मर जाता है।
मरने को तो मर गया सिकन्दर भी,हिटलर भी
गांधी भी,नार्मन बरलॉग भी,टॉलस्टाय भी,मर्लिन मुनरो
और आरकेस्ट्रा वाली मुनिया भी
पर इनके भूख में अंतर था
मरने में अंतर था ।
तय है कि हम सब मरेंगें
मर जायेगा जेम्स बॉण्ड भी
हम इस नियति को बदल नही सकते
पर हम तय जरूर कर सकते हैं
मरने के तरीके को
कि कौन सी भूख हमें ताउम्र घसीटे ले चलेगी।
बहुत खुशकिस्मत हैं जो आप पढ़ सकते हैं
सोच सकते हैं और तय कर सकते हैं
अपनी पसन्द के भूख को।
जानते हैं अंतड़ियों के सूखते हुए मरना कैसा होता है?
अपने बच्चे को अपनी गोद में भूख से मरते हुए देखना कैसा होता है?
कभी सोचते हैं इनकी जिम्मेदारी किन पर है?
यदि नहीं तो आप मर चुके हैं।

4. स्मृतियाँ

क्या होगा यदि हम भूल जाए
अपनी सारी स्मृतियाँ
शायद तब हम खण्डहर भी
नहीं रहेंगे
क्यूँकि वह भी जीते हैं
अपनी स्मृतियों में
हम जीवित हैं क्योंकि
हमारे पास यादे हैं
क्योंकि हम बना रहे हैं
स्मृतियाँ हर धड़कन के साथ
हर बार फेफड़े में आती जाती
हवा के साथ
मेरा घर मेरी मां मेरे पिता
मेरा गाँव यह बारिश बचपन दोस्त
यह आकाश और मेरा बगीचा
और मेरी बेवफा प्रेमिका
मेरे भीतर जीवित रहते हैं
जैसे जीवित रहती है मछली
पानी के भीतर
जैसे जीवित रहता केंचुआ
गीली मिट्टी में
स्मृतियों में जीवित रहता हूँ मैं
शाहजहाँ मरा थोड़ी न है ?
इतिहासकारों की आँखें नहीं होतीं
वे सुन नहीं सकते
वे हाथों पर बस गिनते हैं
कुछ गिनतियाँ
और कह देते हैं शाहजहाँ मर गया

 

5. तांगे के घोड़े

तांगे के घोड़े हँसते नहीं
सिर झुकाए
दर्द और ग़ुलामी में दौड़ते हैं।
घोड़े की नाल में
जब लोहा ठोका जाता है
और उनके नाक को छेदकर
गुलाम बनाया जाता है
वे जोर से हिनहिनाते हैं
उनकी चिंघाड़
बहुत भयानक होती है
अफ़्रीका में और मार-तमाम
जगहों पर बहुत से लोग हैं
जो लोहे का स्वाद याद कर
सिहर उठते हैं।
जब हम तांगे पर बैठे होते हैं
और तेज चलाने की शिकायत करते हैं
तो हर मिनट उसकी चमड़ी
चाबुक सहती है
बहुत से मज़दूरों की अनऊँघी आँखों में
डूबता सूरज उतर आता है
मशीन उन्हें निगल जाती हैं।
घोड़ों की आँखें बेहद उदास होती हैं
वे रोते नहीं
उनकी टाँगों से रिसता है खून
सड़क पर पड़े खून
बाद में आने वाले ताँगावान को
राह दिखाती हैं
कोई घोड़ा मर कर तारा नहीं बनता
ताँगेवाले बनते हैं मरने का बाद ध्रुवतारा

 

6. मेरी दुनिया के मज़दूरों

देवताओं ने अधूरी सृष्टि बनाई
वे पूजनीय कहलाए
और चले गए रहने के लिए स्वर्ग
तुमने गलती और सड़ती हुई दुनिया को
सींच खून-ओ-पसीने से बनाया स्वर्ग
कहलाए मज़दूर-जाहिल-असभ्य
तुम्हारे रहने के लिए नहीं रखी गयी कोई जगह
सिर्फ़ भूख से मर सकते थे तुम
और जो हम सभ्य थे तुम्हारे लिए बस इतना किया
कि तुम्हें धीरे-धीरे मरते हुए देखते रहे
सुसंस्कृत-शालीन आँखों से
और फिर इक रोज़ तुम्हारे मरते ही
तुम्हारे बच्चों को बना लाए मज़दूर

 

7. बाबूजी

बाबूजी की मूँछ बहुत बार
प्रेमचन्द की तरह लगती है
कई आलोचक बताते हैं
प्रेमचन्द ने अपनी मूँछ
लमही के रघु नाई से
हुबहू होरी की की तरह
कटवाई थी।
बाबूजी के सर पर बाल
मेरे खेतों में उगी फ़सल
की तरह थे जिसे उम्र ने
बहुत से बकरियों ने
साँझ के समय तमाम सतर्कताओं
के बावजूद
घर लौटते समय
उन्हें किनारे- किनारे चर लिया था।
बाबूजी के कण्ठ शिव जी
की तरह थे जिसमें उन्होंने
ढेर सारा दुःख और दर्द भर रखा था
भरसक कोशिश करते वह इसे छिपाए रखे
मगर धीरे धीरे वह नीला पड़ता जा रहा था
बाबूजी के कान ब्रह्माण्ड के किसी
जटिलतम गुत्थी की तरह थे जिसको लेकर
दुनिया के
सारे महान दार्शनिक
अपनी अपनी व्याख्याएं कर करके
एक दिन मर गए थे
लेकिन उनके कानों में पता नहीं
किसकी रोती हुई आवाज़ आती थी
जो सभ्यताओं के विकास से लेकर
अभी तक लगातार चलती आ रही थी
बढ़ती ही जा रही थी
हालाँकि इस दर्द को पकड़ने के लिए
उनके कान के ढेर सारी कक्षाओं मे
वैज्ञानिक लगातार सैटेलाइट
छोड़े जा रहे थे
बाबूजी की नाक चिमनियों
की तरह लगती
दिनभर उनके फेफड़े लोहार चाचा के
धौंकनी के तरह चलते रहते
डॉक्टर बताते हैं कि दिनभर में
जितना ख़ून बनता
सब उनकी धौंकनी जला देती
हालाँकि बाबूजी जो कुछ उगाते
उसका ज़्यादातर हिस्सा मुंबई में बैठे
किसी पूँजीपति के पास चला जाता था
बाबूजी को जीवन भर
यह बात किसी चमत्कार की तरह लगती रही
बाबूजी का चेहरा उनके भाग्य की तरह
खुरदरा और सख़्त था
जब कभी वह अपने ससुराल जाते
अपने चेहरे पर अपनी उगाई हुई
सरसों का तेल मलते
उन्हें कभी कभी सुबहा होता
कि वह अपने कंधे पर मिरजई
रख लें तो कहीं आमताबच्चन न लगने लगें
ख़ैर हमें पता होता कि
उनके ये सारे जतन
हमारी माँ को ख़ुश करने के लिए होते

बाबूजी की आँखे उनकी माँ
से मिली थीं
खेत में जब कोई अंकुर निकलता
उसे वह अपनी माँ की तरह
अपनी नज़रों से सहलाते
बाबूजी कभी रोते नहीं थे
लेकिन एक बार अम्मा ने शिउली के कुछ फूलों को देखकर
अनुमान लगाया था कि उस रोज़ बाबूजी रोए थे
बाबूजी की भौहें
दुर्वासा माफ़िक़ नहीं थी
वे बहुत विनम्र थे
इतने विनम्र की धरती के गुरुत्व का
कभी उन्होंने प्रतिरोध नहीं किया
हालाँकि वे करते तो उनकी ज़िंदगी
शायद थोड़ी बेहतर होती
बाबूजी के कंधे
मुझे एटलस साईकिल पर छपे
किसी ग्रीक देवता की याद दिलाते
जिन्होंने अपने कंधों पर
पूरी धरती को टिका रखा है
कभी कभी लगता मास्टर माइंड कुंजी पर छपी
दिमाग़ की तस्वीर हो न हो मेरे बाबूजी की ही होगी
हालाँकि उस कुंजी के पास नहीं मेरे बाबूजी के
पास जीवन के पहाड़ पर चढ़ने उतरने अंधेरे से लड़ते
रहने के एक सौ एक नियम थे जिन्हें उन्होंने दंतकथाओं
से सीख रखा था
महायान की बड़की नाव हमारे किसी पूर्वज ने बनाई थी
बुद्ध के साथ मेरे बाबूजी भी उस नाव में चप्पू चलाते थे
उनके हाथ दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत हाथों में से एक थे
जो सिर्फ़ और सिर्फ़ दुनिया की बेहतरी के लिए उठते थे
बाबूजी शहद खाते थे
और जब बोलते
उनके शब्दों पर कुछ मीठा मीठा सा चिपका होता
हालाँकि वह नीम का दतुअन
करते और दातों से ही अखरोट तोड़ते थे
बाबूजी के पैर बरगद की तरह मजबूत
और गहरे थे इतने गहरे कि
उनकी सोरे पाताल
तक जाती थी जहाँ वे देवताओं से
कभी कभी बात करते
और हमें बता देते थे कि कल बारिश होगी
हालाँकि बहुत बार उनके देवता
उनसे झूठ बोल जाते थे

 

8. अपूर्ण मृत्यु

मानुएल बांदेरा मैं जब भी मरूँगा
पूर्ण मृत्यु नहीं
मृत्यु में अधूरापन लिए मरूँगा
मैं जीवित रहूँगा कुछ हद तक
लोगों की स्मृतियों में
मस्तिष्क में
त्वचा में
हृदयों में
धरती में
आसमान के सूनेपन में
आग में
पानी में
किसी गिलहरी की धारियों में
तितली के पंख में
किसी विरही चिरई के रुदन में
मैं जानता हूं मृत्यु अपरिहार्य है
मैं जरूर मरूँगा
पर
पूरी तरह नहीं
एक दिन
मैं दूसरी दुनिया से ऊब जाऊँगा
और इन स्मृतियों ,छायाओं
स्पर्शों के धागों को जोड़ते हुए
फिर लौट आऊँगा
उस अँधेरी दुनिया के द्वारपाल से
यह कहते हुए कि
देखो
मेरा घर वहाँ नीचे है
मेरे
अपने
मेरे इन्तजार में हैं

9. बोगनवेलिया

लड़कियों को
एक दिन छोड़नी होती है अपनी ज़मीन
अपना मायका
और उन सारी चीजों को जिनके लिए
वह कभी जान देती थी
माँ का आँचल,पिता का दुलार
बचपन की सहेली
आँगन की चिड़ियाँ सब कुछ।
वह चाहे जितना रो लें
उनकी यही क़िस्मत है
यही रिवाज़ है
शायद किसी ब्रह्मा ने लिखी है।
सुनने में आता है
बोगनवेलिया किसी दूर देश से लायी गयी
जब उसे मालूम हुआ कि बग़ल के कमरे
से कोई हाथ उसके आँसू पोछने के लिए
अब नहीं आएँगे
उसने अपने आँसू अपने सीने
में ज़ब्त कर लिए
मेरे बूढ़ी दादी का
चेहरा बिलकुल बोगनवेलिया की तरह था
वो बताती थीं कि बोगेनविलिया के आँसू
अंदर अंदर रिसते रहते हैं
किसी भी पथरीले और सूखे वाले मौसम में भी
बोगनवेलिया सूखता नहीं है
वह खिला होता है दुनिया के सारे फूलों से ज़्यादा।

हम अपने घोंसलों में चाँद रखते हैं

चाँद हर बार सफ़ेद नहीं दिखता
उनींदी आँखों से बहुत बार वह लाल दिखता है
मेरे दादा जब बहुत देर रात धान काटकर आते
उनका हँसिया चाँद की तरह दिखता।
बहुत बार दादा का पेट इतना पिचका होता कि
उनकी दोनों तरफ़ की पसलियाँ
चाँद की तरह दिखतीं।
मेरी माँ की लोरियों में चाँद
अक्सर रोटी के पीछे-पीछे आता
और बहुत बार आधी पड़ी रोटी
चाँद की तरह दिखती।
ठीक-ठीक याद नहीं शायद
मेरे दादा जैसे-जैसे बूढ़े होते गए
उनकी कमर चाँद की तरफ़ नहीं
जमीन की तरफ़ झुक आई
लेकिन अर्थी पर सोए दादा
हुबहू चाँद की तरह दिखे
लोग कहते हैं उस रोज़
सारे खेतों में धान की बालियाँ
उनके दुःख और सम्मान में
थोड़ी-थोड़ी-सी आसमान की तरफ़ नहीं
ज़मीन की ओर झुक आयीं

कोख से निकलते ही मरने लगते हैं ईश्वर

दुनिया के शुरू होने से पहले बहुत पहले
अपनी सम्पूर्ण महानता के साथ मौजूद थे,
लेकिन यह अरबों अरब साल पहले की बात है।
हाँलाकि अब भी पैदा होते हैं ईश्वर
किसी बच्चे की तरह
किसी भी जन्मजात शिशु में
अपनी उसी महानता
और निश्छलता के साथ
न जाने कौन सी चीजें हैं जो
बच्चे के बड़े होने के साथ
देवत्व को धकेल देती हैं
अरबों-अरब साल पहले
धरती पर कोख से
निकलते ही
मरने लगते हैं ईश्वर

10. लिखिए केदार नूर मियां की गुमशुदगी की रिपोर्ट

मुझे अच्छे से याद है
जब मेरे पैरों में मोच आती
तो हमारी अम्मा हमें उम्मत चाची के पास ले जाती
चाची बेहद जिंदादिल थी
अपने छोटे छोटे पैरों से हर रोज़ कोसों चलती
उम्मत चाची के पास जादुई हाथ थे
मेडिकल साइंस का म भी नहीं जानने वाली
चाची के कानों में मांसपेशीयाँ
खुद-ब-खुद अपना दर्द बयाँ कर जाती थीं
लेकिन चाची के पास कोई भी ऐसा नहीं था
जिसे वह अपना दर्द कह पातीं।
चाची कभी कभी रोने लगती थी
नहीं जानता क्यों?
तब मैं बहुत छोटा था
उनके आदमी बेहद कमजोर और बीमार थे
उनके बसेरे पर रातों-रात क़ब्ज़ा कर लिया गया था
रात भर चाची के मरद अपनी आख़िरी साँस तक
अपनी मड़ई की लरही पकड़े रहे
और चाची पकड़ी रही अपने मरद का फटा हुआ सर
उनके मरद का खून बहते हुए
पुलिस थाने गया, कोर्ट कचहरी गया
फिर भी उसका बहना नहीं रुका
अंत में बहते हुए वह गांधी के खून में जाकर मिल गया।
जब गाँव मैंने छोड़ा चाची चल नहीं पाती थी
और उनके हाथ से जादू चला गया था।
एक थे नाजिमली चाचा
जो मेरा कपड़ा सिलते थे
उनकी सिलाई मशीन दिन-रात चलती रहती
उनके सिलाई-मशीन के धागे को यदि जोड़ा जाता तो मुमकिन
था कि वह चाँद तक पहुँच जाता
इतनी मेहनत के बाद भी उमरभर चाचा
ज़मीन से पेट दबाकर सोते रहे
उनके पैर सिलाई मशीन पर इतने सहज हो चुके थे
कि कभी-कभी लगता चाचा के पैर मशीन के ही पुरजें हैं
चाचा जब चलते तब भी लगता वह कपड़े सिल रहे हों
उनके पैर काँपते रहते
जवानी के दिनों में वह सुई के छेद से
हाथी निकाल सकते थे
जैसे-जैसे चाचा बूढ़े होते गए उनके चश्मे का नम्बर
मोटा होता गया था
उनकी आँखें अब अक्सर धोखा दे जाती थीं
उनका लड़का जो दूर परदेस में
चाचा की मड़ई के लिए रोशनी लाने गया था
कभी नहीं लौटा
उसके साथ कमाने गए लोग बताते हैं
कि अंतिम बार उसके खून को
जहाँ गांधी का खून गिरा था
उस तरफ जाते देखा था
लेकिन न जाने क्यूँ चाचा को लगता
कि उनके लड़के का खून गांधी की तरफ़ नहीं गया होगा
वह गाँव लौटेगा चाचा से मिलने,यार दोस्तों से मिलने
वह तो गांधी को जानता भी नहीं था।
जब मैं ठीक से बैठना भी नहीं जानता था
तब से हशमत चाचा मेरे बाल काटते थे
उनके बाल रुई की तरह सफेद थे
वे बच्चों से बहुत प्यार करते थे
और हुलिए से मुझे हमेशा चेग्वेरा होने से बचा लेते थे
मेरे मन में बड़ा कौतुहल रहता था कि
हसमत चाचा के बाल आख़िर कौन काटता होगा?
मेरे दादा से वे ऐसे मिलते जैसे
बरसों पुराना बिछड़ा कोई दोस्त मिला हो
जबकि वे लोग हर दूसरे दिन मिलते
वे अपने परिवार में अकेले थे
हमेशा हँसते रहते थे
लेकिन जब कोसों दूर कहीं कोई दंगा होता
तब उनकी आँखे बड़ी उदास हो जाती थीं
उनका चेहरा बहुत भारी हो जाता
वो लोगों से फिर कम बोलने लगते
बाबा से मिलकर किसी
अपने छोटे भाई नूर को याद कर बहुत रोते थे
बूढ़े हशमत मियाँ

11. रेहाना जब्बारी को याद करते हुए

रेहाना रोई धोई नहीं
उसने आँसू नहीं बहाए
उसने अपनी ज़िंदगी के लिए
किसी से भीख नहीं माँगी
ज़िंदगी भर अपनी माँ की तरह ही
भद्र महिला बने रहने की कोशिश की
उसने अंत तक इस धरती के लोगों
और यहाँ के कानून पर विश्वास किया
उसका फाँसी पर लटकाया जाना हम सबकी हार थी
उन सारी सभ्यताओं की हार थी जो दावा करते हैं कि
वे इंसानियत,समानता और न्याय के साथ खड़े हैं।
रेहाना इस घटना से पहले
एक इंटीरियर डेकोरेटर थी
उसकी आँखें इस दुनिया को
और बेहतर बनाने के सपने बुनती थी
वह अपने हाथों से दुनिया को
और खूबसूरत बना देना चाहती थी
लेकिन महज 19 साल की उम्र में उसे जेल
26 साल में फाँसी दे दी गयी।
उसका अपराध बस इतना था कि
बलात्कार के समय
जब उसकी देह नोची जा रही थी
उसकी आत्मा को ज़ख़्मी किया जा रहा था
वह रोने-गिड़गिड़ाने-निढाल पड़ जाने
खुद को हब्शी भेड़िए को सौंप देने के बजाय
उसने प्रतिरोध का रास्ता अख़्तियार किया
पूरी जान झोंख उस बलात्कारी भेड़िए से
पूरी हिम्मत से आत्म रक्षा के लिए लड़ती रही
फिर हुआ ये कि
वह नृशंस भेड़िया रेहना के प्रतिरोध में
जान गँवा बैठा
भेड़िए के चंगुल से बची रेहाना को
उसके देश के मर्दवादी काले क़ानून ने
फाँसी की सजा सुनाई।
फाँसी से पहले रेहाना ने
अपनी माँ को चिट्ठी लिखी-
‘मैंने जाना कई बार हमें लड़ना पड़ता है
आपने मुझसे कहा था
इंसान को अपने वसूलों को
अपनी जान देकर भी बचाना चाहिए
जब हम स्कूल जाते थे
आप हमें सिखाती थीं
झगड़े और शिकायत के समय भी
हमें भद्र महिला की तरह पेश आना चाहिए
आपके अनुभव गलत थे
जब यह हादसा हुआ
तो मेरी यह सीखी हुई बात
काम नहीं आयी।’
रेहाना जैसे खूबसूरत लोग
इस दुनिया में जीने के सच्चे हक़दार थे
लेकिन जिन क़ानूनों पर उसने
अंत तक विश्वास बनाए रखा
वह किसी अंधेरे गहरे कुएँ में लिखे गए थे।

 

12. कबिरा खड़ा बाज़ार में जागे अउर रोए

जब हम किले बना रहे होते हैं ख़ुद के लिए
उस वक़्त मृत्यु हमें देखकर क्या सोचती होगी
एक मात्र सत्य
व अपराजेय जो है
वह ईश्वर नहीं है
न ही जीवन
न माँ न पिता न बंधु
न अनन्त आकाश न सागर
न उजाला न अँधेरा न धरती
चाहे मैं जितनी ज़ोर से चिपका रहूँ इस जीवन से
एक दिन बिलकुल अनिश्चित समय बिन पूर्वसूचना के
मृत्यु मेरी गर्दन पकड़ेगी
मेरी सारी योजनाओं पर मिट्टी डालती हुई
घसीटती ले जाएगी निर्मम हत्यारे की तरह
अपने इर्द-गिर्द चाहे जितने जतन करें
दुःख से दूर होने के
चाहे जितने चद्दर ओढ़े
चाहे छिप जाएँ किसी दर्शन या ईश्वर के पीछे
त्रिगुनिया फाँस में मृत्यु इकदिन मेरा गला दबोचेगी
जैसे कसाई चढ़ता है बकरियों के गले पर।
जिन चीज़ों के लिए मैंने
कई-कई रातों तक आँसू बहाये हैं
उन्हें पाने के लिए सारे जतन किए हैं
उनके धुएँ और राख भी
नहीं बचेंगे मेरे लिए
अंत में बस बची रहेगी मृत्यु
हँसती हुई मेरे बनाए गए किलों को
कूड़े के ढेर की तरह लाँघती हुई।
बित्ते भर से भी कम की दूरी पर
पूरे जीवन खड़ी रही मृत्यु
आँखे मींचकर
भूकम्प की ज़मीन पर
क़िले की नीव पर नींव रखता रहा
महत्वाकांक्षाएँ खून पीती रहीं
अपनी आँतों में गहरा कुँआ खोदता रहा
जिसकी प्यास असीम थी
ओ कबीर, हो कबीर माया मरी न मन मरा
मर-मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।

 

दीपक जायसवाल अपने परिचय में कहते हैं:

(भारत और दुनिया के प्राचीनतम गणराज्यों में से एक मल्ल महाजनपद (कुशीनगर) जहाँ बुद्ध अपने आखिरी दिनों में पहुँचे और जहाँ उनका महापरिनिर्वाण भी हुआ; के एक छोटे से गाँव सोहरौना में जन्मस्थान, जहाँ की धरती से हिमालय की श्रृंखलाएं दिखती हैं जबकी एक ज़माने में महासागर की लहरें उठती थीं। शुरुआती पढ़ाई गाँव में हुई फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हिंदी साहित्य से (गोल्ड मेडलिस्ट) और परास्नातक(गोल्ड मेडलिस्ट),नेट-जेआरएफ और ‘भारत का समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संकट और उदय प्रकाश की कहानियाँ’ विषय पर पीएचडी।विद्यार्थी जीवन में राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में कहानी,कविता,निबंध व शोध प्रस्तुतिकरण में कई बार पुरस्कृत।’पल्लव’ पत्रिका का सम्पादन। ‘हिरामन’ के नाम से कहानी लेखन।

फ़िलहाल कानपुर में असिस्टेंट कमिश्नर SGST के पद पर सेवाएं दे रहे हैं।

सम्पर्क: deepakkumarj07@gmail.com

 

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने माने कवि और स्वतंत्र पत्रकार हैं सम्पर्क: kumarmukul07@gmail.com)

 

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