बीते शनिवार को प्रभाकर प्रकाशन में अरुणाभ सौरभ के काव्य-संग्रह ‘मेरी दुनिया के ईश्वर’ के तीसरे संस्करण का लोकार्पण हुआ। इस अवसर पर एक परिचर्चा का भी आयोजन किया गया, जिसमें वरिष्ठ कवि मदन कश्यप, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं प्रसिद्ध आलोचक देवशंकर नवीन, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं आलोचना पत्रिका के संपादक आशुतोष कुमार शामिल हुए।
कार्यक्रम की शुरुआत पुस्तक के लोकार्पण से हुई। इसके बाद अरुणाभ सौरभ ने अपने संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया, जिनमें ‘उत्प्लावन’, ‘उच्चाटन’, ‘नानी की कहानी में देवराज इन्द्र’ आदि शामिल थीं।
आशुतोष कुमार ने अपने वक्तव्य में कहा कि अरुणाभ सौरभ की कविता लगातार दुनिया में ताकत के खेल को समझने का प्रयास कर रही है। उन्होंने कविता और विज्ञान के महत्त्व पर प्रकाश डाला, यह कहते हुए कि जैसे विज्ञान प्रकृति की गति को समझता है, वैसे ही कविता समाज की गति को समझने का काम करती है। उन्होंने कहा कि कविता का अपना तर्क होता है, जो गणित और विज्ञान के तर्क से भिन्न होता है, परन्तु इसके लिए कवि को बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है। कविता समाज और समय की गति को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और इसी समझ में मानव के प्रश्नों के उत्तर छिपे होते हैं। उन्होंने ‘दृश्य अदृश्य’ को अरुणाभ की एक मार्मिक और महत्त्वपूर्ण कविता बताया।
देवशंकर नवीन ने कवि और वैज्ञानिकता के बीच के मूलभूत अंतर को रेखांकित करते हुए, संग्रह की कविताओं के शिल्प, भाषा और हिंदी साहित्य में लंबी कविताओं की परंपरा पर अपने विचार रखे। उन्होंने भाषा की समझ से कविता को प्रभावशाली बनाने में योगदान और संग्रह में प्रयुक्त उपमाओं पर विस्तृत चर्चा की।
अध्यक्षीय भाषण में मदन कश्यप ने इस पुस्तक के लिए प्रभाकर प्रकाशन को शुभकामनाएं दीं और धर्म, राजनीति और प्रौद्योगिकी के समाज पर प्रभाव तथा इस कविता-संग्रह की कविताओं पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने आज की कविता और आलोचना पर भी चर्चा की और इतिहास-बोध को विशेष महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि कवि को अपनी परंपरा पर सवाल उठाने और उसे तोड़ने-फोड़ने का काम करना चाहिए, और इस संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं जो यही करती हैं।
कार्यक्रम का संचालन प्रभाकर प्रकाशन के संपादक अंशु चौधरी ने किया।
अंशु दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक, और वर्तमान में इसी विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं। प्रभाकर प्रकाशन, दिल्ली के संपादक-निदेशक हैं तथा “विष्णु खरे: विलाप का आलाप” नामक पुस्तक के संपादक।