साक्षी सिंह
अर्पिता की कलम एकदम नई है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने की बेचैनी से ज़्यादा जो अभिव्यक्त है उसके हर सम्भव आयाम को महसूस करने और शब्दों में उजागर कर देने की बेचैनी और कोशिश ज़्यादा है। इस कोशिश में अर्पिता अधिकांशतः सफल हैं। उनकी कलम के कच्चेपन में भी एक आकर्षण है जो उनकी सम्भावनाशीलता की गवाही है।
ज़्यादातर कविताएँ अपने आकार में ‘लघु’ हैं। इनकी भाषा मे सादगी है और शिल्प अत्यंत सहज। आँखों को चौंधिया देने वाली सज-धज, बुद्धि को मथ देने वाले बिम्ब और अगम्य उदात्त के स्थान पर अर्पिता लघुता, सादगी और सहजता को महत्व देती हैं और यही इनकी कविताओं का प्राण है। वे लिखती भी हैं कि-
“सुनो मधुमालती !
मैं चाहती हूँ कि
सहजता बनी रहे..”
अपनी कविताओं में ये जितनी सुंदरता से छोटी-छोटी बातों, बिंबों और दृश्यों को समाहित कर लेती हैं वो क़ाबिले ग़ौर है कि इनकी कविताएँ महज़ अपने आकार में ही ‘लघु’ नहीं हैं बल्कि इनकी क़लम यथार्थ और संवेदना के मध्य लगभग खो चुकी, डूब चुकी लघुता को बड़ी ही सावधानी से खोजती है और उन्हें सँजो लेती है अपनी लेखनी में।
उनकी कविता बताती है कि ‘महानताओं’ का अस्तित्व लघुतम के बिना असंभव है किंतु प्रत्येक ‘लघुता’ अपने आप में एक पूर्णता की परिचायक है, आदि हो या अंत, पूर्ण लघुताओं पर ही होता है। इस बाबत इनकी कुछ पंक्तियाँ देखिये-
“गहरे सागर को छोड़,
भाग आयी हैं कुछ बूँदें यहाँ…
जो सरोकार रखतीं है
अपने एक-एक क्षण से
क्षणभंगुरता से नहीं…”
इन पंक्तियों में विषय और भाव दोनो ही स्तरों पर नवीनता है ताज़गी है। जहाँ ज़्यादातर लोग सागर की महानता और विशालता के सामने नन्ही बूँद को नज़रंदाज़ कर जाते हैं वहीं अर्पिता उस बूँद के अस्तित्व और सरोकार तक जाती हैं।
अर्पिता की कविताओं में सहजता के लिए जो आग्रह है उससे यह क़तई नहीं समझ लेना चाहिये कि वे जटिलताओं और यथार्थ से नावाक़िफ़ हैं, बल्कि वे कठोर और कड़वे यथार्थ से भी भलीभाँति परिचित हैं। वे जानती हैं कि फूलों की हिफ़ाज़त के लिए ख़ारों का होना कितना ज़रूरी है-
“मैं होना चाहती हूँ गुलाब
सब तरफ़ से गुलाब
और सँजोकर रखना चाहती हूँ
अपने किसी एक छोर में कुछ काँटों को भी …”
वे अपनी सहजता के साथ ही यथार्थ के धरातल पर पैर रखती हैं और चर्चित महावरों को तोड़ती हैं। महावरों और उक्तियों के पीछे के समाजशास्त्र और मानवद्रोही, स्त्री विरोधी स्वर को समझती हैं और अपनी कविताओं में उनकी सत्ता को नकारती हैं-
“तात्कालिकता मुझे जीना सिखाती है
साथ ही सिखाती है मुझे
कि
कालजयी होना कितना खतरनाक है”
पारम्परिक सौन्दर्यशास्त्र, वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में एक बहस का विषय है। दलित, स्त्री, प्रगतिशील हर तबके के रचनाकार व बुद्धिजीवी इसके गुण-दोष, उपयोगिता-अनुपयोगिता का लगातार विश्लेषण कर रहे हैं। अर्पिता भी सौंदर्य को नवीन दृष्टि से देखने की पक्षधर हैं। वे लिखती हैं कि-
मुझे तो वो चाँद देखना है
जो निकलता है
अमावस के ठीक अगले दिन
जो समग्र भले ही न हो
लेकिन दिखाता है
अपने नुकिलेपन को
अपने ही सौंदर्य बोध में”
श्रम और सौंदर्य के नए बिंब तलाशती उनकी कवि दृष्टि की तलाश धूप से साँवली हुई स्त्री की कलाई पर पूरी होती है, जहाँ घड़ी बाँधने का निशान पड़ा है। वे कहती हैं कि-
“मुझे तलाश थी
श्रम के बिम्बों के
तभी तुम आ गईं,
धूप से हल्की सांवली पड़ी
अपनी कलाई से
तुमने उतारी घड़ी।”
अर्पिता की कविताओं की लघुता, नए बिंबों की परिकल्पना और यथार्थ की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति उन्हें एक सुंदर कवि बनाती है।
अर्पिता की कविताएँ
(1)
“गहरे सागर को छोड़,
भाग आयी हैं कुछ बूँदें यहाँ…
जो सरोकार रखतीं है
अपने एक-एक क्षण से
क्षणभंगुरता से नहीं…”
(2)
“सुनो मधुमालती !
मैं चाहती हूँ कि
सहजता बनी रहे,
जो दे पाए सिर्फ मुझे साहस
बदलने का
बिल्कुल वैसे
जैसे तुम
रात में महकी हुई गुलाबी,
सुबह हो जाती हो फिर सफेद…”
(3)
“मैंने पारिजात को खिलते देखा है
इतना सुंदर इतना सुंदर
इतना सुंदर खिलते देखा है
कि
अब
ओझल हो चुका है स्मृतियों से ही…”
(4)
“रेत ने सोचा,
कि समय उससे पहले फिसल जायेगा
और समय था
कि रेत के फिसलने का इन्तज़ार कर रहा था
और
इसी उहापोह में ये शाम भी बीत गयी”
(5)
“तात्कालिकता मुझे जीना सिखाती है
साथ ही सिखाती है मुझे
कि
कालजयी होना कितना खतरनाक है…”
(6)
“तुम्हारे और मेरे साथ का संबल
कुछ भरे हुए को रीता करना
और,
हम-तुम जो अबके भर लाए हैं
उसे
अगली बार के लिए थोड़ा-थोड़ा कर खाली करते चलना
तुम्हारे और मेरे साथ का संबल
सिर्फ एक अतृप्ति…”
(7)
“मुझे सीधा चलने से परहेज़ नहीं है
मगर ऐसे टेढ़े मेढ़े चलने से
टेढ़ा मेढ़ा चलने लगता है चाँद भी।
युगों युगों से सीधी चली आ रही
सड़क में भी
आ जाता है हल्का-सा टेढ़ापन
और इसी टेढ़ेपन में
ज़िंदा रह जाते हैं
कुछ मुहावरे
बिखराव के”
(8)
“मैं पूरा चाँद नही देखना चाहती कभी,
उसमें विद्यमान समग्रता के बिम्ब
नहीं देखना चाहती कभी
मुझे तो वो चाँद देखना है
जो निकलता है
अमावस के ठीक अगले दिन
जो समग्र भले ही न हो
लेकिन दिखाता है
अपने नुकिलेपन को
अपने ही सौंदर्य बोध में”
(9)
मुझे तलाश थी
श्रम के बिम्बों के
तभी तुम आ गईं,
धूप से हल्की सांवली पड़ी
अपनी कलाई से
तुमने उतारी घड़ी।
बिम्बों की तलाश न जाने कहाँ विस्मृत हो गयी!
नज़र अटकी रह गयी
उस गोरेपन पर
जो जमा हुआ था
तुम्हारी कलाई के उस भाग पर
जिस पर से
रोज़
तुम
यूँ ही
उतारा करती हो घड़ी,
और आगे भी उतारा करोगी यूँ ही।
सुनो!
उतारा करोगी न!
रोज़?
(कवयित्री अर्पिता राठौर , जन्म 13/10/98, पैतृक जिला अलीगढ़, उत्तरप्रदेश फ़िलवक्त दिल्ली के नांगलोई में निवास। दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष की पढ़ाई जारी। इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका आरोह’ 18 का सम्पादन कार्य सम्भाला। रीतिकाल को नई निगाह से देखने की कोशिश में, ‘रीतिकाल में दरबारी परंपरा से इतर मूल्यों की तलाश’ नाम से प्रपत्र प्रस्तुति, जिसको सर्वोत्कृष्ट प्रपत्र का पुरास्कार मिला। सिनेमा में भी विशेष रुचि, ‘गीतों की संरचना और बदलते मन की आहट’ विषय पर प्रपत्र प्रस्तुतिकरण।
टिप्पणीकार साक्षी सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधछात्रा हैं साथ ही एक कोचिंग संस्थान में हिंदी पढ़ाती हैं। कुछ कविताएँ, लेख एवं शोधपत्र आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्यिक-ऐतिहासिक अध्ययन एवं लेखन के प्रति विशेष रूचि है।)
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