समकालीन जनमत
कविता

अनुराधा सिंह की कविताओं में ‘प्रेम एक विस्तृत संकल्पना’

अनुपम सिंह


अपने समकालीनों पर लिखते समय, उन पर कोई निर्णयात्मक वाक्य लिखना खतरा उठाने जैसा होता है. या कहें भविष्य में उसके ख़ारिज और खंडित होने की संभावना ही अधिक रहती है.

अभी हाल में अनुराधा सिंह का संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ दुबारा पढ़ा. पढ़कर लगा कि कविता के लिए यह सबसे जरुरी नहीं है की वह मध्यवर्गीय बोध की कविता है या ग्रामीण बोध की है.

किसानों की कविता है या मजदूरों की. स्त्री के लिए लिखा गया है या दलित स्त्री के लिए. आदिवासी के लिए लिखा गया है या किसी अन्य पहचान के लिए. चिड़ियों, नदियों,सड़कों किसके लिए लिखा गया है.

बल्कि जरुरी यह है कि जो लिख दिया गया है उसमे क्या है? जो अनुभव क्षेत्र है काम करने का, जो भी विषय वस्तु ली गयी है कविता में, वह कितने अनुभवसंपन्न, संवेदनक्षम, सच्चाई और सौन्दर्यपूर्ण ढंग से आती है. जो बात कही गयी है वह कितना प्रभाव छोड़ती है पाठक पर. उसमें कितनी कविता है, कितनी अखबारी कतरन. कई बार कहा गया है कि आज के कवि का अनुभव सूचना तंत्र के द्वारा निर्मित हो रहा है. परन्तु मुझे लगता है कि सूचना तंत्र द्वारा हासिल अनुभव कविता में ढल ही नहीं सकता है.

वे कवितायेँ अलग से पहचान ली जाती हैं, जो सूचनाओं ,बासी अख़बारों की ख़बरें पहनती हैं. इसलिए वही कवितायें आगे बढ़ेंगी जिसमें अनुभव, सच्चाई, संवेदना, सौन्दर्य अपने पूरे परिवेश और समय का तनाव निहित हो. चाहे वे मध्यवर्गीय शहरी बोध की हों ,चाहे ग्रामीण बोध की त्रासदियों को समेटे हुए. या फिर अखबारों की ख़बरों से बनी. जो अनुभव अपने अंतर्विरोधों के साथ मुकम्मल ढंग से आएगा, वही कविता में टिका रहेगा. अनुराधा सिंह के संग्रह की कवितायें जिस भी स्त्री के बारे में हैं, सटीक और सार्थक हैं.

उनके कविता का स्टैंड प्वाइंट वही है, जहाँ वे खुद हैं. इसलिए वह अधिक प्रमाणिक भी है .संग्रह की पहली कविता है ‘क्या सोचती होगी धरती’. इस कविता में स्त्री और धरती को अलगाया नहीं जा सकता है, लेकिन वह उस मुहावरे में भी नहीं कही गयी है जैसा अब तक हिंदी कविता कहती आयी है. बल्कि स्त्री और धरती दोनों मिलकर अपना सिर धुनती हैं, कि इस दुनिया को क्यों सौंप दिया उनके हाथों में जो सिर्फ अहम् और अहंकार को ओढ़ने ,बिछाने वाले हैं.

जो अपनी भाषा के घटाटोप और विनाशकारी विकास से नष्ट कर दें रहे हैं सब कुछ। जब मैं अपने बालकनी के कबूतरों को जहाँ-तहां ,चिकनी ,नंगी फर्श पर अंडे देते और उस पर मुश्किल से बैठ पाते देखती हूँ तब यह कविता और ठोस ,मूर्त रूप लेकर तेजी से घुलने लगती है भीतर में. मुश्किल इसलिए कि उनके घोंसले आकर उनके बैठने के लिए सुविधापूर्ण होता है .

वे कभी-कभी रेलिंग पर ही अंडे दे देते हैं जो तुरंत ही गिरकर टूट जाता है. तब कबूतरी की लाल आँखों में शोक और मेरे प्रति मुझे गहरी हिकारत दिखाई देती है. भाषा को बरतते-बरतते कैसे अमानुष हो गए हम .मानव केंद्री और अमीर केंद्री विकास ने प्रकृति के अन्य जीवों ,वनस्पतियों के प्रति हिंसक रुख ले लिया।

बचपन में पढ़ा वह निबंध ‘विज्ञान अभिशाप है या चमत्कार’ आज भी वैसे ही रटाया जा रहा है. कविता की स्त्री को पछतावा है कि उसने उस अहमक को क्यों दिया बाघों, कबूतरों, नदियों सबके हिस्से का प्रेम. अनुराधा की कविताओं में मुझे प्रेम की विस्तृत संकल्पना दिखाई देती है. इनके यहाँ प्रेम का सिर्फ कोई एक कोना नहीं बल्कि विस्तृत आकाश है.

“धरती से सब कुछ छीनकर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुई नदी बांध रखी अपनी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पायी कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गये अपराधों के बारे में” .

स्त्री कविता न होती तो कौन पूछता यह सवाल इतनी साफगोई और मुखरता से. मैं बतौर पाठक कैसे समझ पाती, कैसे जोड़ पाती अपने सवालों को, कि यही तो मेरे भी प्रश्न हैं.

तो क्या सभी स्त्रियों के सवाल एक जैसे हैं? स्त्री के दुःख एक जैसे हैं? सभी को एक जैसे छला गया है इस भाषा में और जीवन में भी. कितना जीवित रहती है एक स्त्री अपनी देह में ,कितनी अवधि होती है उसके मन की. यह सवाल मन में घुमड़ते समय धूमिल की वह कविता याद आती है जिसके लिए उनकी हर कोई आलोचना करता नजर आता है. धूमिल की यह कविता पुरुष के भीतर तक गहरे पैठे मर्दवादी बोध का ही तो उजागर है .यह कविता स्त्री के प्रति पुरुष रवैये को ही तो दर्ज करती है –
“एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही /गर्भाधान से गुजरते हुए उसने जाना/कि प्यार घनी आबादी वाली बस्ती में/ मकान की तलाश है

लगातार बारिश में भीगते हुए
की हर लड़की
तीसरे गर्भापात के बाद
धर्मशाला हो जाती है” .

आप लाख आलोचना करें ,धूमिल ने एक स्त्री को आइना ही तो दिखाया है .
अनुराधा सिंह ‘क्या चाहते हो स्त्री से’ शीर्षक कविता में कहती हैं –
“घोर दुर्भिक्ष में
तुम्हारी किस्म किस्म की भूख का अन्न बनी
दुर्दिन में भूख की स्मृति
वीतराग में विनोद
ऐसे बसने लगी जीवन के एक कोने में तुम्हारी स्त्री

तुम्हारे घाव पर छाला थी
अपने द्रव से बचाए हुए तुम्हारा प्रदाह
तुम पीड़ा का हेतु समझते रहे उसे
छाला फोड़ने से घाव खुलता है ,बात इतनी सी थी
………………………………………….
वह हर भूमिका में तुम्हारे भीतर छिपा
प्रेम ढूँढती है
तुम जाने क्या चाहते हो स्त्री से”
क्या स्त्री को भी पुरुष की ही तरह हो जाना चाहिए या बचानी चाहिए इस धरा को, इसके नमक को, लेना चाहिए अपनी बेटियों से वादा मनुष्य होने का-
“उठ गयी गिरे निरभ्र से
तिरस्कार से
दुःख से
ग्लानी से ऊपर इतना उठकर भी
मैंने अपना कद तुम्हारी ऊंचाई से कमतर रखा
क्योंकि तर्क थे मेरे पास
अपनी बढ़त तुमसे दोयम रखने की”

आज नहीं, तो कभी तो होगा प्रश्नों पर खुलकर विचार .क्योंकि स्त्री कविता सिर्फ उदासी और उत्साह में पढ़े जाने के लिए नहीं लिखी जा रही है .आप उसे जब तक प्रश्न की तरह नहीं लेंगे इन कविताओं से कुछ भी हासिल नहीं होगा .

अनुराधा सिंह प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए किसी मुद्रा में नहीं पड़ती ,उनका प्रेम विस्तर पर कराहता नहीं .इनके प्रेम के मूल्य को इस दुनिया से,इस धरती से अलग करके नहीं समझ सकते हैं आप.

वे ‘सृष्टि जो हमने रची’ शीर्षक कविता में पूछती हैं कि जब हमने मिलकर इस धरती को रचा है तो, तुम अपने पुरुषपन से उसे कैसे नष्ट कर सकते हो .यह दुनिया साझे की है, न किसी को अकेले इस पर बसने का अधिकार है ,न नष्ट करने को . यह धरती सहकारिता से बनी है इसे कोई कैसे नष्ट कर सकता है ,कैसे अपमानित कर सकता है .
“एक रात काले जादू से स्याह की तुमने
मैंने टाईटेनियम टू से रंगा चाँद
एक निरभ्र था
जिसे आर्कटिक रंग से ढँक दिया था
कि मुझे नीला पसंद है

अक्सर सोचती हूँ
एक प्रेम का निर्माण किया था हमने
वह कहाँ गया भला
क्या तुम्हें भी बुरा लगता है
हमारी साथ साथ बनायीं सृष्टि में
यूँ अकेले अकेले रहना” .
‘विलोम’ शीर्षक कविता में वे पुरुष के मजबूत अहम् और विखंडित आत्म को समझ लेती हैं ,कैसे विखंडित आत्म अहम् में बदल जाता है. स्त्री अपने अहम् को गलाती है प्रेम में. पुरुष अपने अहम् पर कोडिंग करता है. अंततः एक का अहम् गल जाता है ,एक का बन जाता है पहाड़. अंततः एक स्त्री बनती है प्रेम में, एक पुरुष बन जाता है. वैसे तो यह एक असुविधाजनक बात है, परन्तु इस दुनिया के भविष्य के लिए जब तक दोनों का आत्म पिघल कर एक नहीं हो जाता तब तक इसका भविष्य अंधकारमय ही रहेगा, जिसे भुगतती रहेंगी पीढ़ियाँ. आप कविता पढ़ें –
“इसी मुश्किल की आसानी से हम जुड़े रहे इतने साल
कि वह पूरा पाकर भी ऊँगली छूने से डरता रहा
ऊँगली छूते ही पूरा पा लेने का अभ्यास दोहरा बैठता
न होना स्वीकार्य नहीं था उसे
होने से डरता था
बहुत स्त्री पर मर मिटा एक दिन
इतनी अधिक स्त्री होने से आक्रांत था
ऐसे पैर लटकाए बैठे रहे हम काल पहाड़ी पर
ऐसे साथ सूर्योदय और सूर्यास्त बिताये
उसने नहीं कहा कि सुन्दर हूँ मैं
उसके साथ लगा कि बहुत सुन्दर हूँ मैं” .

स्त्री प्रेम को इसलिए बचाना चाहती है कि निश्छल और निर्भय हो कर जी सकें उसके बच्चे .वह अपने लिए नहीं पूरी दुनिया के लिए बचाना चाहती है प्रेम.

सच मानों ,यह दुनिया अभी जिस रूप में है जितना भी बची है, उसे प्रेम और उसमें निहित न्याय की भावना ही बचाए हुई है .स्त्री बिना प्रेम एक देह हो जाती है, जिसे सब देखते हैं मन में कोई न कोई हिंसक भाव भरकर .वह उस हिंसक भाव से डरती है. इसलिए भी वह प्रेम की पैरोकार है, क्योंकि उसी के देह पर ज्यादा गहरे पड़ते हैं हिंसा के चिन्ह. एक छोटी कविता है ‘बचा लो’शीर्षक से –

“मैं कहती हूँ
बचा लो यह प्रेम
जो दुर्लभ है
इस्पात और कंक्रीट की बनी इस दुनिया में
तुम बचा लेते हो अहम् का फौलाद
दो कांच आखों में
एक पत्थर सीने में
……………………..
दुनिया में जब बहुत लोग बहुत कुछ
बचाने की कोशिश में हैं
मुझे लग रहा है तुम्हारी नीयत ही नहीं
इस लुप्तप्राय प्रेम को बचाने की
जिसे कर पर रही है
पृथ्वी की एक दुर्लभ प्रजाति
बस यदा कदा”.

अनुराधा सिंह की प्रेम कविता में न रोना है,न गिड़गिड़ाना है ,बस! प्रेम करने ,उसे बचाने और सतत बचाए रखने का ‘आर्गुमेंट’ है. ‘स्वागत है नए साल’ शीर्षक कविता में लिखती हैं –
“तुम्हें वह औरत बनकर तो कभी नहीं मिलूंगी
जो चोट खाने पर रोती
मारने पर मर जाती
छले जाते ही व्यर्थ हो जाती है”

इस संग्रह में ‘प्रेम का समाजवाद’ शीर्षक से एक कविता है, जो बताती है कि प्रेम करने और फिर ब्रेकअप करने के बीच एक बड़ी दुनिया काम करती है. एक खास तरह का गणित काम करता है. बहुत ही कम लोग हैं जो खुद को बचा पाए हैं इस गणित से .

आज पूंजी और तकनीकि ने प्रेम को चलता-फिरता मुहावरा बना दिया है, इस समय का सबसे प्रचलित मुहावरा. लेकिन छीन लिया है उसका सारभाग. आज एक प्रेमिका और एक पत्नी का नया डिस्कोर्स शुरू हुआ है ,ऊपर से देखने में बड़ा ही लोकतान्त्रिक और क्रन्तिकारी लगता है लेकिन गहरे टटोलने पर कुछ कंकड़ पत्थर ही नजर आते हैं.

रक्त की शुद्धता में मिलावट न हो जाये इसलिए पत्नियाँ वंश बृद्धि के लिए और प्रेमिकाएं अहम् भाव को तुष्ट करने के लिए. हमारी पीढ़ी के पुरुषों का नया मुहावरा प्रेमिकाओं से विवाह नहीं और पत्नियों से प्रेम नहीं. प्रेम और विवाह में घालमेल नहीं, यह बात आज की लड़कियां भी समझ गयीं हैं. इसलिए वो मालदार लड़को से विवाह करती हैं.

शायद मैं जो लिख रही हूँ, वह भारत का मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय चरित्र है. दुनिया तो इससे बहुत आगे निकल गयी है. वह तो मेरी कल्पना में ही नहीं अटती. इस कविता का शीर्षक अपने आप में कविता है. समाजवाद का हश्र और प्रेम का हश्र यहाँ एक में घुलमिल जाता है. यह कविता बताती है की हर तरह का तर्क वही रचते हैं . आप पूरी कविता पढ़ें .

दलित लड़कियां उदारीकरण के तहत छोड़ दी गयीं
उनसे व्याह सिर्फ किताबों में हो सकता था
या भविष्य में
सवर्ण लड़कियां प्रेम करके छोड़ दी गयीं
भीतर से इस तरह दलित थीं
प्रेम भी कर रहीं थीं
गृहस्थी बसाने के लिए
वे सब लड़कियां थीं
छोड़ दी गयीं

दलित लड़के छूट गए कहीं प्रेम होते समय
थे भोथरे हथियार मनुष्यता के हाथों में
किताबों में बचा सूखे फूल का धब्बा
करवट बदलते ज़माने के चादर पर शिकन
गृहस्थी चलने के गुर में पारंगत
बस प्रेम के लिए माकूल नहीं थे ,सो छुट गए
निबाहना चाहते थे प्रेम,लड़कियां उनसे पूछना ही भूल गयीं
लड़कियां उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे .
यह सब जो मैंने लिखा वह खुद को समझने के क्रम में लिखा .बहुत संभव है कि इन कविताओं पर सोचते समय मैंने अपने व्यक्तिनिष्ठ भाव का आरोपण किया हो,लेकिन जो आपके सवाल हैं वह इसी क्रम में बहार आयेंगे और इन प्रश्नों की उलझन को हम सुलझा पाएंगे . संग्रह में कवितायें और भी शेड्स की हैं लेकिन मैंने जो पाया ,वह अभी के लिए यही है .

अनुराधा सिंह की कविताएँ

1-क्या सोचती होगी धरती
मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया
उनका जंगल
उनके पेड़
उनके घोंसले
उनके वंशज

यह आसमान जहाँ खड़ी होकर
आँजती हूँ आँख
टांकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
तोलती हूँ अपने पंख
यह पन्द्रहंवा माला मेरा नहीं उनका था
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे

मैंने बाघों से शौर्य छीना
छीना पुरुषार्थ
लूट ली वह नदी
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर
तब पीते थे कलेजे तक पानी
उन्हें नरभक्षी कहा
और भूसा भर दिया उनकी खाल में
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में

धरती से सब छीन कर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्त्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुयी नदी बांध रखी अपनी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में .

2- क्या चाहते हो स्त्री से
घोर दुर्भिक्ष में
तुम्हारी क़िस्म क़िस्म की भूख का अन्न बनी
दुर्दिन में सुख की स्मृति
वीतराग में विनोद
ऐसे बसने लगी जीवन के एक कोने में तुम्हारी स्त्री

तुम्हारे घाव पर छाला थी
अपने द्रव से बचाए हुए तुम्हारा प्रदाह
तुम पीड़ा का हेतु समझते रहे उसे
छाला फोड़ने से घाव खुलता है ,बात इतनी सी थी

तुम लिखना चाहते थे कविता
बन स्याही फ़ैल गयी शिराओं में
सबने कहा ,वाह !खून से लिखते हो
तुमने प्रेम कविता सुनाई
वह बन गयी कान
और फिर आँख बनकर रो दी
कि उसमे कहीं नहीं था उसका नाम

दुनिया हिली तो नींव थामे रही तुम्हारी
बादल फटे मजबूत छाता बन गयी
भीगती रही अपनी ही देह के नीचे
नहीं छोड़ी खुद के लिए एक आश्वस्ति
तुमने भी कट्टा और बीघा में नापी उसकी कोख

वह हर भूमिका में तुम्हारे भीतर छिपा
प्रेम ढूँढती है
तुम जाने क्या चाहते हो स्त्री से

3-तर्क
जिन्दा बने रहने के
अपने तर्क होते हैं
यह तुमसे अलग होकर जाना
धरती आकाश तुम और तुम्हारे नाम की वर्तनी पर
कोई अधिकार नहीं था मेरा
बे-दावा था वह उचार जो होता रहा साँस के साथ
साँस लेने के भी कितने ही अभिप्राय थे
विरह के निर्वात में जाना यह मैंने
गिरना सरल
उठना ही कठिन था
धरती पर गिरते ही
आसमान टूट पड़े तो
जीवन में उठ पाने की सम्भावन नष्ट हो जाएगी
तुम्हें न दिखा हो मेरा गिरना
यह संभव नहीं
पर तुमने नहीं देखा सो मैं उठ गयी
उठ गयी गिरे निरभ्र से
तिरस्कार से
दुःख से
ग्लानि से ऊपर इतना उठकर भी
मैंने अपना कद तुम्हारी ऊंचाई से कमतर रखा
क्योंकि तर्क थे मेरे पास
अपनी बढ़त तुमसे दोयम रखने की

 

4 – सृष्टि जो हमने रची
धरती जो मिलकर गोल की हमने
उत्तरी दक्षिणी ध्रुव के बीच
उस पर अकेली कैसे बसूं अब
कहाँ से ढूँढ़ लाये थे चकमक
जब सुलगाया था हमने सूरज
एक कमरे में दिन जलाया एक कमरे में बुझाई रात
आजकल वही धूप मेरी चादर परदे आँखें
सुखाने के काम आ रही है
हवा से कहो अपने बाल
बांध कर रखती हूँ इन दिनों
बस उतनी ही बहा करे
जितनी मेरे फेफड़ों में जगह है
जितनी निःश्वास लौटा पाती हूँ जंगल को

एक रात काले जादू से स्याह की तुमने
मैंने टाईटेनियम टू से रंगा चाँद
एक निरभ्र था
जिसे आर्कटिक रंग से ढँक दिया था
कि मुझे नीला पसंद है

अक्सर सोचती हूँ
एक प्रेम का निर्माण किया था हमने
वह कहाँ गया भला
क्या तुम्हें भी बुरा लगता है
हमारी साथ साथ बनायीं सृष्टि में
यूँ अकेले अकेले रहना

5 – विलोम
प्रेम जंगली कबूतर के फंखों-सा निस्सीम
छोड़ जाता है हमारे हाथ में अपने रोंयेदार स्पर्श
मैंने जब उससे दूर जाना चाहा चीजें उसके साथ ही छूटने लगीं
एक अतीत था जो बंधा था इस छोड़े जाते पल से
और अपने तमाम अतीतों से जब हम साथ भी नहीं थे
उसे छोड़ देना अपने जीवन को दोफाड़ कर देना था

इसी मुश्किल की आसानी से हम जुड़े रहे इतने साल
कि वह पूरा पाकर भी ऊँगली छूने से डरता रहा
ऊँगली छूते ही पूरा पा लेने का अभ्यास दोहरा बैठता
न होना स्वीकार्य नहीं था उसे
होने से डरता था
बहुत स्त्री पर मर मिटा एक दिन
इतनी अधिक स्त्री होने से आक्रांत था
ऐसे पैर लटकाए बैठे रहे हम काल पहाड़ी पर
ऐसे साथ सूर्योदय और सूर्यास्त बिताये
उसने नहीं कहा कि सुन्दर हूँ मैं
उसके साथ लगा कि बहुत सुन्दर हूँ मैं .

6 – बचा लो
मैं कहती हूँ
बचा लो यह प्रेम
जो दुर्लभ है
इस्पात और कंक्रीट की बनी इस दुनिया में
तुम बचा लेते हो अहम् का फौलाद
दो कांच आखों में
एक पत्थर सीने में

मैं कहती हूँ बचा लो
हमारे साथ का अर्धउन्मीलित बिम्ब
कांपता मेरी आँखों की बेसुध झील में
तुम बचा लेते हो दर्द की हद पर सर धुनता मेरा पोट्रेट

चाहती हूँ कि अपने मौन के नीचे पिसता
वह नाजुक सोनजुही शब्द बचा लो
जो महमहाता हो प्रेम
तुम सिर्फ बचा पाते हो अनंत प्रतीक्षा मेरे लिए

दुनिया में जब बहुत लोग बहुत कुछ
बचाने की कोशिश में हैं
मुझे लग रहा है तुम्हारी नीयत ही नहीं
इस लुप्तप्राय प्रेम को बचाने की
जिसे कर पर रही है
पृथ्वी की एक दुर्लभ प्रजाति
बस यदा कदा

7 -स्वागत है नए साल
खेद कि इस बार भी नहीं मिलूंगी
पीठ पर वार खाए योद्धा की तरह
जिसकी वर्दी हो चटख निकोर
और हों तरकश में सारे तीर सलामत
नहीं मिलूंगी भग्न स्वप्न-सी विफल
जो डरता हो नींद से
रात नयी वांछा न लाती हो जिसके लिए
कहो मुझे दुराग्रही
पर क्यों मिलूं उस अस्त्र-सी
जो साधता हो लक्ष्य कहीं /खेलता हो किन्हीं और हाथों
जिसकी धार में जंग लग जाती हो बिना पिए प्रतिरोध रक्त
तुम्हें वह औरत बनकर तो कभी नहीं मिलूंगी
जो चोट खाने पर रोती
मारने पर मर जाती
छले जाते ही व्यर्थ हो जाती है

शायद मिलूं उस शाख-सी
जिसके घाव की जगह ही
नयी कोंपलें उग आती हैं
भूगर्भीय जल की तरह
नष्ट होते-होते
बढ़ आऊँगी हर बारिश में
और दाने की तरह
जो पेट की आग न बुझा पाए
तो उग आता है अगली पीढ़ी का अन्न अन्न बनकर

अब तय करना
किस भाषा में मिलोगे मुझसे
क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट
परिभाषाएं तोड़ कर मिलूंगी

8 -प्रेम का समाजवाद
दलित लड़कियां उदारीकरण के तहत छोड़ दी गयीं
उनसे ब्याह सिर्फ किताबों में हो सकता था
या भविष्य में
सवर्ण लड़कियां प्रेम करके छोड़ दी गयीं
भीतर से इस तरह दलित थीं
प्रेम भी कर रहीं थीं
गृहस्थी बसाने के लिए
वे सब लड़कियां थीं
छोड़ दी गयीं

दलित लड़के छूट गए कहीं प्रेम होते समय
थे भोथरे हथियार मनुष्यता के हाथों में
किताबों में बचा सूखे फूल का धब्बा
करवट बदलते ज़माने के चादर पर शिकन
गृहस्थी चलने के गुर में पारंगत
बस प्रेम के लिए माकूल नहीं थे ,सो छुट गए
निबाहना चाहते थे प्रेम,लड़कियां उनसे पूछना ही भूल गयीं
लड़कियां उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे .

 

(अनुराधा सिंह का जन्म 16अगस्त को, ओबरा जलविद्युत पावर प्लांट, उत्तरप्रदेश में हुआ.इनकी शिक्षा दयालबाग शिक्षण संस्थान आगरा से हुईं. इन्होंने मनोविज्ञान और अंग्रेजी साहित्य में स्नात्तकोत्तर किया है.कुछ समय तक केंद्रीय विद्यालय भोपाल और गुना में अध्यापन कार्य किया.’क्वांटम कांसेप्ट्स एंड सोल्यूशन’ नामक संस्था का संचालन. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविता और अनुवाद कार्य प्रकाशित.इस समय मुंबई में प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन का अध्यापन कर रहीं हैं. इनका एक कविता संग्रह -‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है. टिप्पणीकार अनुपम सिंह समकालीन हिंदी कविता का उभरता हुआ चर्चित नाम हैं)

Related posts

5 comments

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion