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चित्रकार- कथाकार हरिपाल त्यागी की याद में स्मृति सभा

गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली  में आयोजित स्मृति सभा (फ़ोटो : राजीव त्यागी )

प्रख्यात चित्रकार और साहित्यकार हरिपाल त्यागी का 1 मई 2019 को दिल्ली में निधन हो गया था | उनकी स्मृति में जसम, जलेस, दलेस, प्रलेस और दिल्ली के बौद्धिक समाज द्वारा 19 मई को सायं 5.30 बजे गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक सभा का आयोजन किया गया | जिसमें बड़ी संख्या में कला, साहित्य , रंगमंच, मीडिया एवं  बौद्धिक समाज से जुड़े लोग शामिल हुए | कार्यक्रम की शुरुआत में कथाकार एवं आलोचक महेश दर्पण ने हरिपाल त्यागी जी के उनके पैतृक गाँव महुआ से शुरू हुई उनकी यात्रा के साथ साहित्य एवं कला के क्षेत्र में किए गए उनके कार्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला | उनका कहना था कि कार्टून से कला की दुनिया में प्रवेश करने वाले त्यागी जी ने लगभग दस हजार पुस्तकों के कवर बनाये | उस दौर में उनके बनाये हुए कवर चित्र पेंटिंग की तरह पसंद किए जाते थे | लेकिन कला के सीमित दायरे में खुद को न बांधकर त्यागी जी ने कार्टून बनाना जल्दी छोड़ दिया और पेंटिंग की शुरुआत की | गहरी समझ और मेहनत के बल पर हरिपाल त्यागी जल्दी ही पेंटिंग की दुनिया के चर्चित नाम बन गए | बढ़ती ख्याति के बाद भी वे बाजार के माध्यम कभी नहीं बने |

सादतपुर में त्यागी जी के करीबी और वरिष्ठ कवि सुरेश सलिल ने हरिपाल त्यागी को एक बड़ा कलाकार और रचनाकार बताते हुए उनके जाने को बड़ी क्षति कहा | उनके साथ अपनी मित्रता को याद करते हुए सुरेश सलिल ने कहा सप्ताह में लगभग बारह घंटे उनके साथ साहित्य ,समाज, कला और राजनीति पर  बातें होती थी | त्यागी जी के साथ 1970 में हुई अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए सुरेश सलिल ने बताया , उनके नाम से कानपुर में रहते हुए ही मैं परिचित हो चुका था | उन दिनों साहित्य के सभी बड़े लेखकों की किताबों के आवरण त्यागी जी के बनाये होते थे | हालाँकि तब मैं जानता था कि कला की दुनिया में किताबों पर कवर बनाना प्रतिष्ठा का काम नहीं हैं | त्यागी जी से मुलाकात के बाद मेरा नजरिया बदला | 1980 तक उनके साथ मेरी मुलाकाते कैजुअल ही रहीं , 80 में ही एक दिन वे नई सड़क के फुटपाथ पर अचानक मिले और सादतपुर में बसने का इरादा जताया , मैं उन्हें सादतपुर ले आया और प्लाट दिखाया | उनका पेंटिंग का काम गंभीरता पूर्वक सादतपुर आने के बाद ही शुरू हुआ | बीमारी में भी वे पेंटिंग में लगे रहते थे |

त्यागी जी के पुराने मित्र जगदीश सविता ने उन्हें याद करते हुए कहा हरिपाल त्यागी कलाकार के रूप में क्या था, कितना बड़ा लेखक था यह तो कला के मर्मग्य और उसके पारखी ही बताएंगे, मैं तो इतना जानता हूँ कि वह मेरा दोस्त था , कैसा दोस्त – जैसे कहा जाता है – यारों का यार | मेरी उसकी दोस्ती साठ साल से थी | वह हर रचना मुझे सुनाना चाहता था | वह असली कलाकार था अपने जीवन में | ‘आदमी से आदमी’ तक मेरे सामने रचा गया, जब भीमसेन और हरिपाल त्यागी टीम बनाकर सुबह-सुबह निकल जाते | एक चित्र बनाता , एक कथ्य लिखता | वह जब भी कोई संस्मरण सुनाता आदमी गुदगुदा उठता | उसका व्यंग्य गुदगुदाने वाला होता था , न की चाकू घोंपने वाला | हमारे दोनों के बीच हंस-हंस कर नोंक-झोंक होती थी |

वरिष्ठ कवि – आलोचक विष्णुचन्द्र शर्मा अस्वस्थता के चलते खुद तो न आ सके लेकिन अपनी कविता भेज कर हरिपाल त्यागी को शिद्दत से याद किया , जिसे महेश दर्पण ने पढ़कर सुनाया | त्यागी जी की नातिन आकृति त्यागी ने बाबा जी को याद करते हुए कहा कि मैं उन्हें हमेशा बाबू जी कहती थी | मेरा बचपन बाबूजी के किस्से और कहानियों में गुजरा , चाहे कहानियां उनकी खुद की रची हों या औरों की | रात में जब कभी हम खुले आसमान के नीचे होते ,आसमान में चाँद , तारे और बादल होते तो बाबू जी ऊपर देखते हुए हम लोगों के लिए उसमें हाथी, घोड़े और तरह-तरह की आकृतियाँ तलाशते | उनके काम की तल्लीनता देखते ही बनती थी , घंटों पेंटिंग करते रहते , टाइम की, खाने की परवाह नहीं करते | बस अपने काम में मगन रहते , घर के लोगों के टोकने पर मुस्करा कर कहते मैं आर्टिस्ट हूँ | वे कविता-कहानी जो भी लिखते , उसे कई-कई बार लिखते और एक भी गलती होने पर फिर पूरा लिखते | कई बार तो सालों पुरानी पेंटिंग उठा लेते और उस पर फिर काम शुरू कर देते | मैं और मेरा छोटा भाई अभय यदि कभी उनकी पेंटिंग पर ब्रश चला देते और उन्हें पता चल जाता, तब भी वे गुस्सा नहीं करते | टीवी वे नहीं देखते थे लेकिन क्रिकेट मैच जरूर देखते थे | उन्होंने लगभग सौ लघु कथाएं लिखीं, हास्पिटल में भर्ती थे, उस दौरान भी लिखीं | 20 अप्रैल को अपने जन्मदिन पर बीमारी में भी उन्होंने बाबा नागार्जुन की कविता पढ़ी थी | आवाज नहीं निकल पा रही थी तो पूरी ताकत लगाकर कविता पढ़ रहे थे | श्वेता त्यागी ने पिता को याद करते हुए कहा कि बचपन में हमारी शरारतों पर मम्मी पापा के नाम से डराती थीं लेकिन जहाँ तक मुझे याद है जीवन में दो ही बार हम पर पापा की डांट पड़ी थी | पापा ने कला के क्षेत्र में कोई अकादमिक प्रशिक्षण नहीं लिया था लेकिन हम भाई-बहन के कला से संबंधित कामों को देख कर पापा की जिज्ञासा बढ़ गई थी | पापा मजदूरों के बीच मजदूरों की तरह रहते थे | मुंबई आने पर पापा ने वहाँ की झुग्गी-झोपड़ियों के चित्र बनाये | मैनें पापा से ही सीखा कैसे अपनी जरूरतों को सीमित किया जा सकता है | पापा की एक इच्छा अधूरी रह गयी, वे महेश अंकल पर केन्द्रित ‘पुनश्च’ पत्रिका के एक अंक का संपादन कर रहे थे , जिसका संपादकीय अभी नहीं लिख सके थे , बीमारी में हम लोगों से लिखवाने की कोशिश की लेकिन कमजोरी के कारण उनकी आवाज साफ नहीं थी | तन्मय त्यागी ने कहा कि हरिपाल त्यागी जी की याद में रोया नहीं जाना चाहिए , उन्होंने तो शानदार जिंदगी जी | अब त्यागी परिवार का सही मूल्यांकन होना चाहिए , अगर कोई  करे तो यह

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के परिवार के समान होगा | उनका संकेत साहित्य और कला से जुड़े परिवार के अन्य सदस्यों की तरफ था |

वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना था कि हमारे समय के लगभग सभी बड़े लेखकों की किताबों के कवर हरिपाल त्यागी ने बनाये थे – उसी के माध्यम से मेरा उनसे परिचय हुआ था | त्यागी जी के संघर्ष और स्वभिमान की चर्चा करते हुए त्रिपाठी ने कहा कि जब मैं शुरू में दिल्ली आया था तो यहाँ कई बड़े लेखक थे , जिनके यहाँ बैठकी करते हुए लोग बड़े बन जाते थे , उनकी आर्थिक स्थिति सुधर जाती थी | लेकिन ऐसे भी लोग थे जो इस बैठकी का हिस्सा नहीं बने | अगर कभी बैठे भी तो कला और साहित्य पर ही चर्चा की लेकिन झुके नहीं | हरिपाल त्यागी उन्हीं में से एक थे , उनकी वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं थी लेकिन उन्होंने कभी अपने को झुकाया नहीं | त्यागी जी की ही तरह एक और कलाकार थे , भाऊ समर्थ ,जिनपर त्यागी जी का संस्मरण अविस्मरणीय है | त्रिपाठी का कहना था कि यह हरिपाल त्यागी की ही कला प्रतिभा थी जो लुप्त किताब को भी चर्चा में ला देती है , इस सन्दर्भ में उन्होंने ‘मीरा’ और रूद्र जी की किताब ‘बहती गंगा’ का जिक्र किया जो अपने दूसरे संस्करण से त्यागी जी के बनाये गए चित्र के बाद चर्चित हुई थीं | रूद्र जी की किताब ‘बहती गंगा’ के स्केच उन्होंने बनारस के घाटों की सीढ़ियों पर बैठ कर बनाये थे , जबकि ‘मीरा’ के चित्र उन्होंने फ्री में बनाये थे | हरिपाल त्यागी के व्यक्तित्व में ताप था , जो उनकी रचनाओं में भी दिखायी देता है | हालांकि उनकी कला को मैं नहीं समझ पाता था |

बरेली से आये सुधीर विद्यार्थी ने कहा मेरे जैसे कस्बाई लेखक पर सादतपुर रूपी जो छत है वह मेरे लिए महत्वपूर्ण है , उसमें से त्यागी जी का चले जाना एक बड़ा दुख है | सादतपुर में जिस लहक के साथ वे पहली बार मिले थे , वह दिन मुझे आज भी याद है ,लगा ही नहीं था कि यह हमारी पहली मुलाकात है | मेरे संकट और दुखों के बीच वे सादतपुर से चलकर शाहजहांपुर आते रहे | मेरे बेटे पर लिखी गई मेरे दुखों की किताब ‘मेरा राजहंस’ में त्यागी जी ने जो रेखांकन बनाया है, वह अद्भुत है | उन चित्रों में मेरा दुख व्यक्त होता है | वे एक बड़े चित्रकार, रचनाकार और व्यंग्यकार थे | वे अपने ऊपर भी व्यंग्य किया करते थे , तब उनके कहने का अंदाज गजब का होता था | कवि लीलाधर मंडलोई का कहना था कि त्रिपाठी जी ने अभी भाऊ समर्थ का नाम लिया , मुझे लगता है कि ये दोनों ही कलाकार कला की अपनी परम्परा को आगे बढ़ाते हैं | मंडलोई ने त्यागी जी के बनाये हुए कविता पोस्टर की भी तारीफ की |

वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने त्यागी जी को याद करते हुए कहा, इसी हाल में चार-पांच साल पहले उनका जन्म दिन मनाया गया था , उनके बारे में तब मैंने भी बहुत कुछ बोला था और बाहर आने पर जब उनसे पूछा कि मैंने ठीक कहा , उनका जवाब था मैंने कुछ सुना ही नहीं | दरअसल खुशमिजाजी त्यागी जी के व्यक्तित्व में थी  | हालांकि उनकी हंसी और चुटकुलों के पीछे गहरी मानवीय संवेदना छुपी होती थी | लाख दुख हो, वे अपनी बातों से , संवादों से उसे दूर कर देते थे | उनसे दोस्ती करना भी मजेदार था | मैंने उनसे अच्छाइयां भी सीखीं और बुराइयां भी – मतलब सिगरेट  और शराब पीना मैंने उनसे ही सीखा |  त्यागी जी का दौर जनता से जुड़ने का दौर था , उस समय में उनके जैसे सारे बड़े लेखक ऐसी सामान्य जगहों में रहते थे, जहाँ आम जनता हो, उसके दुख-दर्द हों | त्यागी जी के शुरुआती दिनों के बनाए गए कवर में एक नयापन था | क्योंकि इनके पहले जो कवर बनते थे, उनपर बंगाल का प्रभाव होता था लेकिन त्यागी जी ने इस दृश्य को बदल दिया, उन्होंने abstract art पर ध्यान दिया | मुझे याद है , अमृत लाल नागर की किताबों पर कवर बनवाने प्रकाशक उनके घर आता था | त्यागी जी की बातों में एक चुंबकीय आकर्षण था, अगर आप उनसे बातें करते तो वह आप पर अपना प्रभाव छोड़ देते , मैं तो सचमुच उनसे गहरे प्रभावित होता था | चित्रकला के लोगों ने उस कलाकार को नहीं पहचाना | मैंने उनके समकालीन चित्रकारों को उनके साथ बैठते नहीं देखा |  दरअसल उनके कुछ सिद्धांत थे , इस वजह से बहुत लोग उनसे दूर रहते थे | इस बारे में उनके समकालीन अशोक भौमिक ही बता सकते हैं | पहली पत्नी की मृत्यु के बाद जिस तरह उन्होंने बच्चों को पाला-पोषा, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है | मेरा एक सवाल है , ‘महापुरुष’ की पड़ताल हिंदी के लोगों ने क्यों नहीं की , इस पर सोचा जाना चाहिए | ऐसे लेख इन लेखकों पर किसी और ने नहीं लिखा है | बिना नाम लिए सिर्फ संकेतों और उनकी प्रवृत्तियों से उनका वर्णन किया है  , जो देखने में लगेगा कि अच्छा है लेकिन इसका अर्थ यहाँ उल्टा है – यहाँ आलोचना है | वे अद्भुत व्यंग्यकार थे | इस किताब का सही मुल्यांकन होना चाहिए |

चित्रकार अशोक भौमिक ने कहा उनके साथ मेरी मुलाकातें बार-बार होती रहीं | उनसे मेरा परिचय कराने वाले श्री राम वर्मा थे | उन दिनों जितने चित्रकार काम कर रहे थे, यह उन सबसे भिन्न थे | आजादी के बाद जो कला आगे बढ़ी , उसने चित्रकारों को दो खेमों में बाँट दिया | एक की सोच थी कि चित्रकार वह बड़ा होता है जिसके चित्र के मूल्य ज्यादा हों , जिसमें ललित कला अकादमी के लोग हैं और एक दूसरे लोग हैं | इसमें त्यागी जी को उपेक्षा मिली , हमें उस पर सोचना चाहिए | हमें उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगानी चाहिए | मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने बताया कि उनसे मेरी पहली मुलाकात दिल्ली टी हाउस में अनेक साहित्यकारों के साथ हुई थी | वे लोकप्रिय चित्रकारों में से एक थे | अशोक भौमिक ने ठीक कहा कि उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगाई जानी चाहिए | हरिपाल त्यागी साहित्य और कला दोनों में इतने घुले-मिले थे – दोनों के बीच ऐसा रिश्ता रखते थे कि दोनों के बीच रागात्मक संबंध बन गया था | कवि-गजलकार रामकुमार कृषक की राय में अपनी कला के मूल्य के प्रति त्यागी जी में सजगता थी | यहाँ उनकी ‘खुशी’ कहानी का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, कलाकार का जीवन के साथ जो रिश्ता है और कलाकार का जो कला के साथ रिश्ता है, खुशी कहानी में वह बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त हुई है | त्यागी जी का जीवन खतरों से भरा रहा | अपनी जमीन के साथ जुड़ाव उनकी रचनात्मकता में भी खूब दिखाई देता है | प्रकाश मनु ने सुजन सखा हरपाल पर लिखी गई अपनी एक कविता का पाठ किया  | कथाकार अरविंद कुमार सिंह ने कहा त्यागी जी की रचनाएं , उनकी कलात्मक उपलब्धियां और स्मृति सभा में बड़ी संख्या में आए उनके मित्र और प्रशंसक उनकी बड़ी पूंजी है , जिसे उन्होंने कठिन मेहनत और संघर्षों से हासिल किया है | ‘महापुरुष’ उनकी बड़ी कृति है , जैसा कि अभी रब्बी जी ने कहा इस किताब का सही मूल्यांकन होना चाहिए | मुझे लगता है कि जैसे उन्होंने रेखांकन और रंगों के संयोजन में महारथ हासिल कर ली थी , उसी तरह भाषा और शिल्प के प्रयोग के  स्तर पर भी वे सिद्धहस्त थे | त्यागी जी सच्चे अर्थों में कम्युनिस्ट थे , वे अपने सिद्धांतों से कभी विचलित नहीं हुए | बच्चों के शादी-ब्याह के रिश्ते भी उन्होंने जातिगत बंधनों से मुक्त होकर बनाए | वे कुछ समय तक नक्सलवादी आन्दोलन से भी जुड़े रहे | त्यागी जी अगर चाहते तो कला की कमर्शियल दुनिया में बहुत कुछ हासिल कर सकते थे किन्तु वहां बाजार के साथ उन्हें जो समझौते करने पड़ते वह त्यागी जी के जमीर में नहीं था | वे आमजन से जुड़े रहना ही पसंद करते थे , संघर्षों में जीने की उन्होंने आदत बना ली थी | चित्रकार रामबली प्रजापति ने एक घटना बयाँ की , गर्मी की एक तेज दोपहरी में मैं त्यागी जी के घर पहुंचा था , उस वक्त मुझे तेज प्यास लगी थी |  त्यागी जी मुझे देखकर खुश हुए फिर पानी ले आने की आवाज देते हुए वे अपनी नई पेंटिंग दिखाने मुझे भीतर ले गए और वहाँ पेंटिंग पर चर्चा करते हुए  इस कदर डूब गए कि उन्हें मेरी प्यास का ख्याल ही नहीं रहा और तब तक मेरी प्यास भी बुझ चुकी थी , जब उन्हें याद आया तो कहा चलो खाना खाते हैं | खाने की थाली में पीली दाल, चावल ,रोटी, सब्जी और प्याज देखकर कहा यह कलर का कितना अच्छा कंबीनेशन है | मेरा कहने का मतलब है कि वे अपने काम के प्रति, कला के प्रति किस हद तक जुनूनी थे, यह इस घटना से पता चलता है |

कार्यक्रम के आखिर में हरिपाल त्यागी जी के दामाद अनिल अत्री ने स्मृति सभा में आये सभी लोगों का आभार व्यक्त किया |

प्रस्तुति : अरविन्द कुमार सिंह

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