अपराजिता शर्मा
‘जानने की क्रिया
प्रत्यक्ष और एकतरफ़ा नहीं हो सकती!’
पहचान और परिचय से आगे बढ़ने के लिए जानने की इस क्रिया से गुज़रना ही होगा।ऐश्वर्या, हिंदी कविता के लिए अब तक अपरिचित और नया नाम है।नए आस्वाद और तेवर वाली उनकी कविताओं की बुनवाट देखकर यह अनुमान लगाना कठिन है कि 18-19 बरस की यह युवा रचनाकार कविता की परम्परा को इस मज़बूती से थाम कर खड़ी हो सकी है।
ऐश्वर्या मूलतः भागलपुर की रहने वाली हैं।वहीं के माउंट असीसी स्कूल से विज्ञान विषय की पढ़ाई कर वे इन दिनों मिरांडा हाउस दिल्ली विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में स्नातक स्तर की पढ़ाई कर रही हैं।जानने की इस क्रिया में यह जानना इसलिए ज़रूरी था क्यूँकि छोटे क़स्बे से महानगर तक की यह यात्रा ऐश्वर्या के लिए केवल स्थानिक यात्रा भर नहीं रही है।उनकी कविताएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह यात्रा एक वैचारिक प्रस्थान भी है-
‘जब मैं अपने कस्बे में थी मुझे महानगर जाना था
क्योंकि मैं देखती थी महानगरों की लड़कियों के खुले, रंगीन बाल
उनकी आज़ाद हँसी, नारीवाद पर लिखे उनके लंबे-चौड़े लेख,
मैं मन ही मन उनके लिए तालियाँ बजाती..
मैं महानगर आयी,
मैंने किताबें पढ़ी खूब सारी और बाल कर लिए छोटे
मेरे आस-पास रहती मेरे कस्बे से आयी लड़कियों ने मेरे लिए तालियाँ बजायीं,
मैं असंतुष्ट थी…. ‘
यह असंतुष्टि और इससे जन्मे सवाल ही से जन्म होता है ऐश्वर्या के कवि का। उनके कविमन के भीतर जितनी नयी ऊर्जा है, शैक्षिक परिवेश और भौगोलिक संघात से उत्पन्न प्रश्नों की जो अकुलाहट है वही उनकी कविताओं का शिल्प और कथ्य गढ़ती है।
युवा मन की निरी भावुकता और कोरी फ़ैंटसी से कोसों दूर है ऐश्वर्या का यह कवि मन।हाँ, एक उधेड़बुन वहाँ ज़रूर है। लेकिन यह उधेड़बुन ना होती उनकी कविताओं की वास्तविकता और सत्यता दोनों संदिग्ध होते।अनुभव से जन्मी ‘कविता’ की पुष्टि करती है यह उधेड़बुन।इसी उधेड़बुन से उन्हें तलाशने हैं अपने सवालों के ईमानदार जवाब –
तुम कैसे हो ये जानने के लिए,
मैं पूछुंगी तुम्हारी तबियत
ठंड में आदतन फ़टी तुम्हारी एड़ियो से,
मार्च के महीने में हाँथ छोड़ती
तुम्हारी हथेलियों की पतली, झिंगुरी, मुरझाई,मरी चमड़े की परतों से,
तुम्हारे घर के गुसलखाने में एकांत फैलती
झाले की बुनाइयों से,
और रसोई में लगी चौकी के नीचे जमा कर रखे गए
बिन धुले, महीनों के जूठे बर्तनों से भी।
ये जवाब कहीं ज्यादा ईमानदार होंगे!’
ऐश्वर्या की कविताओं में जो बात एक पाठक को अचंभित कर आकर्षित करती है वह है, वैचारिक साहस और ईमानदार स्वीकारोक्ति।यही गुण उनकी कविता की बुनवाट को गति भी देता है और उसकी चमक भी बरक़रार रखता है।
यही कारण है कि आज के समय की पहचान बन रहे और युवाओं के बीच तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे ‘स्लैम पोयट्री’ ‘स्टैंडअप कॉमडी‘ के घालमेल वाली फ़ॉर्म्युला कविता के ख़ुद को अलग रख सकी हैं ऐश्वर्या की कविताएँ।ईमानदारी से स्वीकार किए गए सत्य कवि को चुनौती देते हैं, उसे बेचैन भी करते हैं लेकिन इसी बेचैनी और असंतुष्टि के भीतर टूटता है पुराना और जन्म लेता है नया।
‘मैं महानगर आयी,
मैंने किताबें पढ़ी खूब सारी और बाल कर लिए छोटे
मेरे आस-पास रहती मेरे कस्बे से आयी लड़कियों ने मेरे लिए तालियाँ बजायीं,
मैं असंतुष्ट थी
मैं चाहती थी कि महानगर की वे सारी मेरी हमउम्र लड़कियाँ भी
मुझे देखें, तालियाँ बजायें
आज, बड़े दिनों बाद
महानगर की कुछ लड़कियां,
मुझे घेर कर खड़ी हो गईं और कहा
“तुम कस्बे से शहर आयी कैसे?
क्या तुम्हें तकलीफ़ हुई सीखने में अंग्रेज़ी?
क्या अब भी तुम्हारे तरफ चमार सिलता है जूते?
वैसे तुमपर खूब फबते हैं छोटे बाल”
फिर
मेरा जवाब सुने बिना वे सब वहाँ से निकल गयी .. ‘
अपनी परिचित परिवेश से निकलकर नए स्थानिक अनुभवों और वैचारिक बहसों से टकराते, ऐश्वर्या की कविता आधुनिक लड़की के जन्म की कथा भी है।इस नयी लड़की का परिचय महज़ इतना नहीं है कि यह छोटे रंगीन बालों, अतरंगी (ज़माने को असहज करती) पोशाकों, सिगरेट को होंठों से लगाए लड़की के चित्र जैसी दिखती है, बल्कि यह दो परिवेशों के संघात से जन्मी वह वैचारिक भूमि है जिसकी मिट्टी में नए बीज पड़े हैं।इस बीज के अंकुर फूटेंगे तो ढहेंगी दीवारें।ऐश्वर्या की कविता ‘दीवार’ साक्षी होगी इस स्वप्न की-
‘औरत के शरीर और मन के लगभग बीच में
उसने डाली होती है एक दीवार
दीवार पर होते हैं
सूखे, ताज़ा खून, थूक, वीर्य के छींटे
चरित्र नाम का एक कुत्ता सोता है उस दीवार से सटकर
उसकी हत्या की हुई है साज़िश हज़ारों बार
रोटी में चूहे मारने की दवाई लपेटकर डाला गया,
कुत्ता साला चिम्मड है!
नहीं ये तो कुत्ते की औरत है!
साली कुतिया!
इस दीवार के उस तरफ़
औरत ने बनाये हैं कई वाल-पेंटिंग्स
और लगाया है अपने कद जितना लंबा शीशा
जिस दिन यह दीवार ढह जाएगी,
हो जाएगी औरत और कुतिया की मौत!’
सामाजिक संरचनाओं और परम्पराओं से पोषित माइंडसेट पर सवाल उठाती ये आधुनिक लड़कियाँ अकादमिक भाषा और मर्यादा में बात नहीं करती। वे ना पितृसत्ता के भाषिक संस्कार को जस का तस स्वीकार करती हैं, ना ही उसको तोड़ने का भ्रम रचने वाले छद्म परिवेश को।
शरीर और मन के बीच लगे ‘ सूखे, ताज़ा ख़ून, थूक और वीर्य के छींटे’ इन्हें डराते नहीं, मज़बूत बनाते हैं। इसी से ये दीवार ढहाने का स्वप्न और प्रश्न करने का साहस बटोरती हैं।
सवालों और स्थितियों के संघात के बीच अक्सर उनकी कविताओं में प्रेम की अनुगूँजें भी सुनाई पड़ती हैं लेकिन यह प्रेम भी अतिरिक्त सावधानी और संशय के साथ आया है –
‘क्योंकि प्रेम है असफलताओं से भरी हुई
किसी को जानने की क्रिया,
प्रेम में परिवर्तन को स्वीकृति देना ही
है तुम्हारे हिस्से का इंकलाब!’
ऐश्वर्या को ‘जानने की क्रिया से गुज़रते हुए’ उनकी ईमानदार स्वीकारोक्तियाँ जितना प्रभावित करती हैं एक कवि के रूप में उनका सामाजिक रचना धर्म ही उतना ही ध्यातव्य है। जब वे लिखती हैं कि-
क्योंकि तुम रचनाकार हो,
तुम्हारी रचनाएँ मांगती हैं
जिम्मेदारियों का बोध,
हालांकि,
तुम कुछ भी रच सकते हो,
*****
किसी भी रचना में,
शब्दों को जगह दे देनी चाहिए साँस लेने की,
आपस में मिलने-लड़ने की,
इसलिए,
सबसे बड़ा ढोंगी है वह रचनाकार,
जिसकी रचनाओं में दुःख का बोध नहीं होता ।
ऐश्वर्या की कविताएँ आस जगाती हैं कि अच्छी कविताओं का समय कभी नहीं बीतेगा और विचारधारा कविता के लिए बोझ नहीं मार्गदर्शन का काम भी करती हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता ही है कि उधेड़बुन भरी पगडंडी पर चलता कवि मन भविष्य के उज्जवल रास्ते बना पाता है।ऐश्वर्या की कविताएँ अपना रास्ता तय कर चुकी हैं अब बस उनको आगे बढ़ते देखना है।
टिप्पणीकार डॉ० अपराजिता शर्मा, सहायक प्रवक्ता, हिंदी विभाग मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय। क्रीएटर- हिमोजी (देवनागरी हिंदी चैट स्टिकर एप) – ‘अलबेली की दुनिया’
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