समकालीन जनमत
कविताजनमत

ईमानदार जवाबों की तलाश में : ऐश्वर्या की कविता

अपराजिता शर्मा


‘जानने की क्रिया
प्रत्यक्ष और एकतरफ़ा नहीं हो सकती!’

पहचान और परिचय से आगे बढ़ने के लिए जानने की इस क्रिया से गुज़रना ही होगा।ऐश्वर्या, हिंदी कविता के लिए अब तक अपरिचित और नया नाम है।नए आस्वाद और तेवर वाली उनकी कविताओं की बुनवाट देखकर यह अनुमान लगाना कठिन है कि 18-19 बरस की यह युवा रचनाकार कविता की परम्परा को इस मज़बूती से थाम कर खड़ी हो सकी है।

ऐश्वर्या मूलतः भागलपुर की रहने वाली हैं।वहीं के माउंट असीसी स्कूल से विज्ञान विषय की पढ़ाई कर वे इन दिनों मिरांडा हाउस दिल्ली विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में स्नातक स्तर की पढ़ाई कर रही हैं।जानने की इस क्रिया में यह जानना इसलिए ज़रूरी था क्यूँकि छोटे क़स्बे से महानगर तक की यह यात्रा ऐश्वर्या के लिए केवल स्थानिक यात्रा भर नहीं रही है।उनकी कविताएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह यात्रा एक वैचारिक प्रस्थान भी है-

‘जब मैं अपने कस्बे में थी मुझे महानगर जाना था
क्योंकि मैं देखती थी महानगरों की लड़कियों के खुले, रंगीन बाल
उनकी आज़ाद हँसी, नारीवाद पर लिखे उनके लंबे-चौड़े लेख,
मैं मन ही मन उनके लिए तालियाँ बजाती..

मैं महानगर आयी,
मैंने किताबें पढ़ी खूब सारी और बाल कर लिए छोटे
मेरे आस-पास रहती मेरे कस्बे से आयी लड़कियों ने मेरे लिए तालियाँ बजायीं,
मैं असंतुष्ट थी…. ‘

यह असंतुष्टि और इससे जन्मे सवाल ही से जन्म होता है ऐश्वर्या के कवि का। उनके कविमन के भीतर जितनी नयी ऊर्जा है, शैक्षिक परिवेश और भौगोलिक संघात से उत्पन्न प्रश्नों की जो अकुलाहट है वही उनकी कविताओं का शिल्प और कथ्य गढ़ती है।

युवा मन की निरी भावुकता और कोरी फ़ैंटसी से कोसों दूर है ऐश्वर्या का यह कवि मन।हाँ, एक उधेड़बुन वहाँ ज़रूर है। लेकिन यह उधेड़बुन ना होती उनकी कविताओं की वास्तविकता और सत्यता दोनों संदिग्ध होते।अनुभव से जन्मी ‘कविता’ की पुष्टि करती है यह उधेड़बुन।इसी उधेड़बुन से उन्हें तलाशने हैं अपने सवालों के ईमानदार जवाब –

तुम कैसे हो ये जानने के लिए,
मैं पूछुंगी तुम्हारी तबियत
ठंड में आदतन फ़टी तुम्हारी एड़ियो से,
मार्च के महीने में हाँथ छोड़ती
तुम्हारी हथेलियों की पतली, झिंगुरी, मुरझाई,मरी चमड़े की परतों से,
तुम्हारे घर के गुसलखाने में एकांत फैलती
झाले की बुनाइयों से,
और रसोई में लगी चौकी के नीचे जमा कर रखे गए
बिन धुले, महीनों के जूठे बर्तनों से भी।

ये जवाब कहीं ज्यादा ईमानदार होंगे!’

ऐश्वर्या की कविताओं में जो बात एक पाठक को अचंभित कर आकर्षित करती है वह है, वैचारिक साहस और ईमानदार स्वीकारोक्ति।यही गुण उनकी कविता की बुनवाट को गति भी देता है और उसकी चमक भी बरक़रार रखता है।

यही कारण है कि आज के समय की पहचान बन रहे और युवाओं के बीच तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे ‘स्लैम पोयट्री’ ‘स्टैंडअप कॉमडी‘ के घालमेल वाली फ़ॉर्म्युला कविता के ख़ुद को अलग रख सकी हैं ऐश्वर्या की कविताएँ।ईमानदारी से स्वीकार किए गए सत्य कवि को चुनौती देते हैं, उसे बेचैन भी करते हैं लेकिन इसी बेचैनी और असंतुष्टि के भीतर टूटता है पुराना और जन्म लेता है नया।

‘मैं महानगर आयी,
मैंने किताबें पढ़ी खूब सारी और बाल कर लिए छोटे
मेरे आस-पास रहती मेरे कस्बे से आयी लड़कियों ने मेरे लिए तालियाँ बजायीं,
मैं असंतुष्ट थी
मैं चाहती थी कि महानगर की वे सारी मेरी हमउम्र लड़कियाँ भी
मुझे देखें, तालियाँ बजायें
आज, बड़े दिनों बाद
महानगर की कुछ लड़कियां,
मुझे घेर कर खड़ी हो गईं और कहा
“तुम कस्बे से शहर आयी कैसे?
क्या तुम्हें तकलीफ़ हुई सीखने में अंग्रेज़ी?
क्या अब भी तुम्हारे तरफ चमार सिलता है जूते?
वैसे तुमपर खूब फबते हैं छोटे बाल”
फिर
मेरा जवाब सुने बिना वे सब वहाँ से निकल गयी .. ‘

अपनी परिचित परिवेश से निकलकर नए स्थानिक अनुभवों और वैचारिक बहसों से टकराते, ऐश्वर्या की कविता आधुनिक लड़की के जन्म की कथा भी है।इस नयी लड़की का परिचय महज़ इतना नहीं है कि यह छोटे रंगीन बालों, अतरंगी (ज़माने को असहज करती) पोशाकों, सिगरेट को होंठों से लगाए लड़की के चित्र जैसी दिखती है, बल्कि यह दो परिवेशों के संघात से जन्मी वह वैचारिक भूमि है जिसकी मिट्टी में नए बीज पड़े हैं।इस बीज के अंकुर फूटेंगे तो ढहेंगी दीवारें।ऐश्वर्या की कविता ‘दीवार’ साक्षी होगी इस स्वप्न की-

‘औरत के शरीर और मन के लगभग बीच में
उसने डाली होती है एक दीवार
दीवार पर होते हैं
सूखे, ताज़ा खून, थूक, वीर्य के छींटे 

चरित्र नाम का एक कुत्ता सोता है उस दीवार से सटकर
उसकी हत्या की हुई है साज़िश हज़ारों बार
रोटी में चूहे मारने की दवाई लपेटकर डाला गया,
कुत्ता साला चिम्मड है!
नहीं ये तो कुत्ते की औरत है!
साली कुतिया!

इस दीवार के उस तरफ़
औरत ने बनाये हैं कई वाल-पेंटिंग्स
और लगाया है अपने कद जितना लंबा शीशा

जिस दिन यह दीवार ढह जाएगी,
हो जाएगी औरत और कुतिया की मौत!’

सामाजिक संरचनाओं और परम्पराओं से पोषित माइंडसेट पर सवाल उठाती ये आधुनिक लड़कियाँ अकादमिक भाषा और मर्यादा में बात नहीं करती। वे ना पितृसत्ता के भाषिक संस्कार को जस का तस स्वीकार करती हैं, ना ही उसको तोड़ने का भ्रम रचने वाले छद्म परिवेश को।

शरीर और मन के बीच लगे ‘ सूखे, ताज़ा ख़ून, थूक और वीर्य के छींटे’ इन्हें डराते नहीं, मज़बूत बनाते हैं। इसी से ये दीवार ढहाने का स्वप्न और प्रश्न करने का साहस बटोरती हैं।

सवालों और स्थितियों के संघात के बीच अक्सर उनकी कविताओं में प्रेम की अनुगूँजें भी सुनाई पड़ती हैं लेकिन यह प्रेम भी अतिरिक्त सावधानी और संशय के साथ आया है –

‘क्योंकि प्रेम है असफलताओं से भरी हुई
किसी को जानने की क्रिया,
प्रेम में परिवर्तन को स्वीकृति देना ही
है तुम्हारे हिस्से का इंकलाब!’

ऐश्वर्या को ‘जानने की क्रिया से गुज़रते हुए’ उनकी ईमानदार स्वीकारोक्तियाँ जितना प्रभावित करती हैं एक कवि के रूप में उनका सामाजिक रचना धर्म ही उतना ही ध्यातव्य है। जब वे लिखती हैं कि-

क्योंकि तुम रचनाकार हो,
तुम्हारी रचनाएँ मांगती हैं
जिम्मेदारियों का बोध,
हालांकि,
तुम कुछ भी रच सकते हो,
*****
किसी भी रचना में,
शब्दों को जगह दे देनी चाहिए साँस लेने की,
आपस में मिलने-लड़ने की,
इसलिए,
सबसे बड़ा ढोंगी है वह रचनाकार,
जिसकी रचनाओं में दुःख का बोध नहीं होता ।

ऐश्वर्या की कविताएँ आस जगाती हैं कि अच्छी कविताओं का समय कभी नहीं बीतेगा और विचारधारा कविता के लिए बोझ नहीं मार्गदर्शन का काम भी करती हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता ही है कि उधेड़बुन भरी पगडंडी पर चलता कवि मन भविष्य के उज्जवल रास्ते बना पाता है।ऐश्वर्या की कविताएँ अपना रास्ता तय कर चुकी हैं अब बस उनको आगे बढ़ते देखना है।

 

ऐश्वर्या राज की कविताएँ
1. प्रेम में

बहुत मुश्किल है
उकेरना, प्रेयसी की चित्र कमरे की दीवार पर,
उगाना, स्मृति में बोये गए सरसों के दाने,
और लिख पाना, एक सफल प्रेम-पत्र,
क्योंकि प्रेम है असफलताओं से भरी हुई
किसी को जानने की क्रिया,
प्रेम में परिवर्तन को स्वीकृति देना ही
है तुम्हारे हिस्से का इंकलाब!

तुम भूलने लग सकते हो स्त्री-केन्द्रित गालियाँ,
तुम नकारने लगोगे मज़हबों और जातियों की तथाकथित परिभाषा,
तुम्हारा दिल करेगा सीता, मंदोदरी और कुंती के मन को पढ़ने का,
और शायद तुम्हें पागल न लगें प्रणय राग गुनगुनाती दो सखियां,
लेकिन
अगर ऐसा न हो
वही ठहर जाना..
तुम क्रांति के लिए तैयार नहीं हो,
प्रेम को तुमसे थोड़ा और समय चाहिए….

2. खुदगर्ज़

छोटे शहरों की माँ नहीं जान पाती है नारीवाद
और वो लड़ती है अपने बेटियों के महवाकांक्षाओं के लिए,
उसका सारा समय बित जाता है
जूठे बर्तनों को चमकाते, सब्जी लाने वाले झोले के छेदों को सिलते हुए
फुर्सत के क्षणों में वो गिनती है अपनी पुरानी साड़ियां, बचाये हुए सिक्के, मेरे बचपन की तश्वीरें..
उसे नहीं समझ आता ‘मेकअप’
उसे लगता है काजल और क्रीम न खरीद कर
वो बचा रही है पैसे दूर पढ़ने गए अपने बच्चे के लिए।

अलमारी साफ करते वक़्त
एक बार माँ को मिली थी मेरी एक अंग्रेज़ी किताब
उस दिन बड़ी हिम्मत की उसने
टो-टो कर, उल्टे-सीधे उच्चारण करते, हिज्जे लगाकर कुछ तो बुदबुदाने लगी थी
तभी कमरे में गूंज उठी पापा के ठहाके की आवाज़
और किचन में प्रेशर कुकर की सीटी…

माँ ने किताब रखते वक़्त जिल्द पर लिखे मेरे नाम को कई बार देखा
और अकेले में बहुत देर तक मुस्कुराई थी
उसे हर बात में संतोष करने की आदत है,
इस बार उसने यह सोचकर संतोष किया होगा कि मेरी जिंदगी इससे अलग होगी….

मैं अपने माँ जैसी नहीं हूँ
मैं अपना कमरा साफ़ नहीं रख पाती,
बालों में तेल लगाना भी मुझे नहीं पसंद,
मैं तरकारी ज्यादा तीखी बनाती हूँ,
मुझे नहीं आती आधे पेट खाकर संतोष की नींद,
और
मैं ज़्यादा सवाल करती हूँ, अपनेआप से, औरों से
क्योंकि मैंने पढ़े हैं माँ के मन के सारे अनकहे सवाल,
क्योंकि मैंने देखा है संतोष और समझौते को एक होते
माँ के ‘फर्स्ट डिवीज़न’ की मार्कशीटों में
आधी खाली पड़ी कविता वाली एक डायरी में..

मैं हमेशा से नाकामयाब हूँ उसे उसका स्नेह लौटा पाने में
माँ को किसी कविता में कैद कर पाना बेमानी है,
ऐसी कोशिश, मेरी खुदगर्ज़ी

काश! तुम भी अपने लिए थोड़ी खुदगर्ज़ हो पाती, माँ..

3. जानने की क्रिया

तुम कैसे हो ये जानने के लिए,
मैं पूछुंगी तुम्हारी तबियत
ठंड में आदतन फ़टी तुम्हारी एड़ियो से,
मार्च के महीने में हाँथ छोड़ती
तुम्हारी हथेलियों की पतली, झिंगुरी, मुरझाई,मरी चमड़े की परतों से,
तुम्हारे घर के गुसलखाने में एकांत फैलती
झाले की बुनाइयों से,
और रसोई में लगी चौकी के नीचे जमा कर रखे गए
बिन धुले, महीनों के जूठे बर्तनों से भी।
ये जवाब कहीं ज्यादा ईमानदार होंगे,
मैं तुम्हें ऐसे ही जानना चाहती हूँ..
ठीक उसी तरह जैसे
युद्ध को जाना जाना चाहिए युद्धोत्तर लिखी कविताओं से,
अग्नि व फेरों के बारे जाना जाना चाहिए विधवाओं से,
उकबुकाट और व्याकुलता को जाना जाना चाहिए एक पाठक से उस कवि के मरने के बाद
जिसमें देखता था वह अपने सूनेपन की झलक,
और प्रेम को जाना जाना चाहिए प्रियत्माओं तक प्रेम-पत्र पहुंचाने वाले डाकिये से।

जानने की क्रिया
प्रत्यक्ष और एकतरफ़ा नहीं हो सकती।

4. प्रेत

अब कमरे में हम तीन लोग रहते हैं,
मैं, तुम और हमारे रिश्ते का प्रेत..
बिस्तर पर हम तीन धारियों जैसे दिखते हैं
प्रेत भरता है हमारे बीच की रिक्ति

हर रात
मैं नींद के किसी छोर को पकड़
जाना चाहती हूं एक सफ़ेद वायुयान के भीतर
यह वायुयान मुझे कहीं दूर ले जा सकता था
किसी अनजान यूरोपियन देश या किसी सुदूर आदिवासी-गाँव,
प्रेत तभी एकदम से उछलकर,
दबोच लेता है मेरी छाती
बैठ जाता है मेरी गर्दन पर,
मैं वायुयान से बाहर लुढ़क चुकी होती हूँ..
सपने के साथ खत्म हो जाती है
आशा व खुशियों की सारी संभावनाएं

मैं सिरहाने से उठा लेती हूँ सिगरेट का डब्बा
“एक डब्बे में रात कट जाएगी”
प्रेत मुस्कुराता है
तुम्हारी ओर करवट फेर सो जाता है…

5. निराशा

निराशा भाव मात्र नहीं है,
निराशा एक पूरा ब्रह्मांड है
लेकिन
ब्रह्मांड के गुण के विपरीत जाकर
निराशा ने धरा हुया है गुरुत्वाकर्षण
जो तुम्हारे सूखे कंठ से बहेगा  सिगरेट के घुएं से भरे फेफड़ों तक,
एक सिरे से पत्थर होते तुम्हारे दिमाग़ तक,
ये नहीं छोड़ेगा तुम्हारे कमरे, बरामदे, बरतन और गमलों को,
ये लील जाएगा तुम्हारे किताबों की अलमारी,
चौंकना मत!
किताबें तुम्हें बचा सकती थी
अगर इतनी देर न हुई होती,
अगर तुम्हारे शरीर के हिस्से
जहां तहां से बर्फ़ के सिल्लों में नहीं हो रहे होते तब्दील,
तुम्हें तब ही समझ जाना चाहिये था
जब तुमने कमरा बन्द कर चिल्लाते हुए
पहली बार फाड़ी थी अपनी पसंदीदा किताब,
जब पहली बार तुमने तोड़ फेंका था अपना कमाया पहला मैडल,
जब तुमने आत्महत्या से बचने के लिए लिखी थी आत्महत्या पर कविताएं…
निराशा को तुम्हारी जरूरत है,
क्योंकि तुमने बिना झुठलाए
पूरी श्रद्धा से उसे निभाया है…

घरवालों को दी हुई चिंताएं,
प्रेमिका को दिया गया दुख,
दोस्तों को दिया गया धोखा,
अपने मन को पिलाया गया जहर,
सबकुछ लेकर आ जाओ
इस ब्रह्मांड में तुम्हारे भी नाम का एक सौरमण्ड होना चाहिए..

6. दीवार

औरत के शरीर और मन के लगभग बीच में
उसने डाली होती है एक दीवार
दीवार पर होते हैं
सूखे, ताज़ा खून, थूक, वीर्य के छींटे

चरित्र नाम का एक कुत्ता सोता है उस दीवार से सटकर
उसकी हत्या की हुई है साज़िश हज़ारों बार
रोटी में चूहे मारने की दवाई लपेटकर डाला गया,
कुत्ता साला चिम्मड है!
नहीं ये तो कुत्ते की औरत है!
साली कुतिया!

इस दीवार के उस तरफ़
औरत ने बनाये हैं कई वाल-पेंटिंग्स
और लगाया है अपने कद जितना लंबा शीशा

जिस दिन यह दीवार ढह जाएगी,
हो जाएगी औरत और कुतिया की मौत!

7. एटलस

प्रेम नहीं है दिनचर्या का हिस्सा,
जैसे बेमन उठना
बेमन काम पर जाना, बेमन मुस्कुराना,
प्रेम है ग्रीस की देव-गाथा से निकला हुआ
‘एटलस’!
‘एटलस’ के घुटनों पर उग आए हैं पसीने की बूंदें,
और तनी हुई हैं उसके बाजुओं की नसें,
आधी जनसंख्या को लगता है प्रेम पर टिकी है धरती,
बाकियों को लगता है प्रेम ने उठाया हुया है आसमान का भार,
बचेखुचे लोगों का मानना है
प्रेम है एटलस की तरह ही
किसी पौराणिक कथा का काल्पनिक पात्र!

8. जीवित

बहुत मुश्किल है
जीवित बचे रहना,

सोते, जागते, खाते, काम पर जाते लोग,
ढूंढ रहे हैं उपाय
जिंदा रहने के….
अड़हुल का फूल कई दिनों से देख रहा है
पड़ोस के गमले में लगे कैक्टस को,
उसकी पंखुड़ियों पर खींचने लगी है शिकन की रेखा
उसके पत्ते कुम्हलाने लगे हैं,
वह बदलना चाहता है अपना शरीर,
क्या ‘शरीर मिल जाना’ पर्याय है ‘अस्तित्व’ का?

जीवित बच जाने की इच्छा से
प्रेरित है अड़हुल की आत्महत्या!

9. लड़कियाँ

बाइस साल के होने तक
सरकारी नौकरी पकड़ लेने की बात
ऑटो पर बक्शे बांधते हुए पिताजी ने कई बार समझाई थी,
मिडिल क्लास पिता डरपोक, लालची और श्रद्धालु होता है
‘सरकारी नौकरी’ होती है उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य,
ईश्वर/तारणहार के क़रीब जैसा कुछ!

यह दूसरा शहर लिबरल कहता था ख़ुद को,
यहाँ रातभर में पूरा संविधान फूंक डालते हैं लोग
जॉइंट में रोल कर के,
कमरे में धुआँ भरा है लेकिन इनकीं नजरें धुंधलाती नहीं,
पूछ लो? खोल देंगें तुम्हारे हुक्मरानों के सारे कच्चे चिट्ठे!
व्हिस्की सी महकती पलथी लगाई लड़कियााँ,
हँसती हुई देश पर, बुदबुदाती हुई इतिहास की महत्ता,
मज़ाक बनाती हुई अपनी योनियों के अस्तित्व का,
इनका श्रृंगार अपने होने पर ताज़्जुब कर रहा है
खुरदुरे हरे बाल, फैले काजल, बिन इस्त्री-कुर्ती
ये बालियां खूबसूरत होकर भी इन लड़कियों के भाग्य में
सुंदर गृहणियों का सुख नहीं लिखवा पाएंगी!

तुम सारी गिरगिटें हों!
नारेबाज़ी छोड़ बैंक पीओ बन जातीं तो क्या चला जाता तुम्हारा!

वह शहर भोला है,
महंगाई और सरकारी नौकरी से हटता मेरा मन
पिताजी को असमय बुढ़ापे की तरफ़ धकेलने लगा है!!

10. रचनाकार

क्योंकि तुम रचनाकार हो,
तुम्हारी रचनाएँ मांगती हैं
जिम्मेदारियों का बोध,
हालांकि,
तुम कुछ भी रच सकते हो,
सावन के झूलों का विरह गीत,
भंडार घर की खिड़की पर चलतीं
कतारबद्ध चींटियों द्वारा गुनगुनाया जाने वाला आंनद संगीत,
गायों के दुहे जाने का समय,
या फिर रमज़ान के शामों की रौनक़,
फिर भी,
कितना सही है योनियों को फूल लिखकर,
गाड़ देना किसी बाग के गमले में,
युद्धओं को मर्दांगी
युद्ध-भूमियों को कर्तव्य भूमि लिखना
वीर रस की कविताएं लिखकर उन्हें ठूँस देना
विधवाओं और दूध मुंहे बच्चों के कंठों में ।

किसी भी रचना में,
शब्दों को जगह दे देनी चाहिए साँस लेने की,
आपस में मिलने-लड़ने की,
इसलिए,
सबसे बड़ा ढोंगी है वह रचनाकार,
जिसकी रचनाओं में दुःख का बोध नहीं होता ।

11. आत्महत्या

कमरे को उथल-पुथल कर दिया होगा उसने
एक ब्लेड ढूंढने के लिए
अंततः मिला होगा जो रसोईघर में
पड़ा हुआ किसी डिब्बे के पीछे,
जिसे भी दिखेगा उसका मृत शरीर सबसे पहले
उसे यह कमरा भी इतना ही बिखरा मिलेगा
अंदाज़ा लगना आसान हो जाए तब शायद
आत्महत्या का कारण!

ख़बर फैल जाएगी पूरे मोहल्ले में,
और उस के न चाहते हुए भी भर जाएगा उसका संकरा सा बरामदा,
आलोचकों से
और उत्सुक सिर उचकाते खोपड़ियों से;
ऐसी ख़बरें जल्दी फैलती हैं,
ऐसे वक़्त पर ज़्यादा भीड़ जमा होती है!
महीनों से सुस्त पड़ा घर
नल, कूड़ेदान, झाड़ू, मग्गा, सब
परेशान हो जाएंगे इस अनिमंत्रित कानाफूसी, शोर-शराबे से,
बिना हवा के हिलाए स्लैब पर से लुढ़क जाएगा मग्गा,
औंधकर रखी हुई कटोरियाँ ढनमनाने लगेंगी
बिना बिल्ली के पांव लगाए,
कम से कम मुट्ठी भर लोगों का ध्यान जरूर भटक जाएगा उनकी ओर,
जिनमें से अंधविश्वासी/पापी जनें घर को भूतिया मान
तुरंत
सरक लेंगे वहां से किसी जरूरी काम याद आने के बहाने!

उस घर/भीड़ से दो कदम दूर,
किराने के दुकान के बाहर काफ़ी देर से टहलता एक अकेला लड़का
फूंकता जा रहा होगा सिगरेट पे सिगरेट,
नहीं नहीं, उसे नहीं जाना था दुकानदार के पीछे
भीड़ से मरने वाले का हालचाल लेने,
मरने वाला दोस्त/रिश्तेदार नहीं था उसका,
वो तो बस एक बार पूछना चाहता था
मौका मिलते ही उस लाश से अकेले में,
कि आख़िरकार मरने के लिए
आत्महत्या की कितनी बार रिहर्सल करनी पड़ती है,
मसलन उसकी दो कोशिशें बेकार जा चुकी थी!

12. भगवान, ज़रूरतानुसार

निम्नवर्गीय परिवारों में,
भगवान का अस्तित्व ‘नीड’ है,
कमरे के एक छोर से दूरसे छोर तक बंधी टंगनी की तरह,
जिनपर हर रात सूखाये जाते हैं कपड़े,
महीने के पहली तारीख़ को,
घर का मुखिया ‘पूजा-स्थल’ पर लटका देता है
‘छोटा मुँह बड़ी बात’ जैसा दिखता महीने का बजट,
एक रैक पर रखी दो तश्वीर
एक मूर्ति और शिवलिंग भर के ‘पूजा-स्थल’ से,
आकार में कहीं ज़्यादा बड़ी होती है
बच्चों के ‘फ़ीस’ भरने की चिंता ।
बीवी का पावर कम होता चश्मा,
बाइक का टूटा हिस्सा,
पिछले सारे कर्ज़ों का बोझ,
भगवान को अस्तित्व में लाता है
संतोष का आधार बनाकर ।

मेरे गाँव में कई मंदिर हैं,
ज्यादातर विशाल पेड़ की छांव में
या फिर मेन सड़क के किनारे,
एक चबूतरा, दो तरफ़ दीवार,
राम-लक्ष्मण को कंधे पर उठाये बिठा दिए जाते हैं दो फिट से जरा छोटे हनुमान ।
बूढ़े मर्द और बेरोजगार मर्द
बदल बदल कर बनते हैं कौरव-पांडव-शकुनि,
हनुमान मंदिर होता है ‘महाभारत’ के जुआरियों का अड्डा!
एक मंदिर और है,
गांव के इकलौते दो पक्के मकानों के बीच
उकबुकाया, फंसा हुआ,
लोग कहते हैं गिट्टी-छररी गिर चुकी थी,
नहीं बन सक रहे थे मकान
आठ बित्ते ज़मीन को लेकर मतभेद था पड़ोसियों में,
फिर आपसी सहमति से बनाया गया एक हनुमान मंदिर,
और तब कहीं जाकर बने मकान
“अच्छा, है दोनों ही ‘पार्टियां’ हिन्दू थीं!”

महानगरों के भरे-पूरे परिवारों में,
भगवान का अस्तित्व ‘लग्ज़री’ है,
ड्राइंग रूम में टंगी न समझ आने वाली
किसी महंगी पेंटिंग की तरह,
साल में एक बार होता है वैष्णव देवी का फैमिली टूर,
महीने में एक बार आता है जगराते वाला डीजे,
तैंतीस कोटि देवी देवताओं में,
किसी का अस्तित्व हो न हो,
इनके लिए यथार्थ हैं ‘लछमी’ ‘कुबेर’!

..और नास्तिकों का?
नास्तिकों का भगवान
नास्तिक और बहरूपिया है!

13. कविता

जीवन और कविता, दोनों सहोदर होंगे किसी जन्म,
एक सी दोनों की प्रविर्ती, एक से चालचलन,
इनका धर्म निर्भर करता है पानी के उस एक बवंडर पर
अट्टहास करते हुए फूट रहा है उंगली भर के छिद्र से,
वह शायद प्रकाशकण रहा होगा इस दीवार के उस पार, अपने पिछले जन्म में,
और उसके पिछले जन्म इसी दीवार के नीचे दबा हुआ बीज..
कविता स्थिर नहीं हो सकती, जीवन स्थिर नहीं हो सकता,
कविता, रेगिस्तान में सरकता साँप है
कविता, पत्थरों के नाक पर सिंदूर रगड़ती सास है
और कविता जंगलों में गश्त लगता हुआ चौकीदार भी है..
कविता हर रूप में गति को पाती है,
और ठीक ऐसा ही करता है जीवन भी!

पानी को तालाब में जमा किया जाए या पत्तों पर या मुट्ठीयों में,
इस पानी से कविता नहीं फूट सकती,
पर हो सकता है
जब हवा चले,
और इस सीमित दायरे में एक दूसरे से टकराएं,
पानी के अणु
कतारबद्ध हो आपस में खेलने लगें पकड़म पकड़ाई,
तब जीवन दम लेगा, तब कविता जन्म लेगी!
हालांकि
कुछ पल ऐसे भी आते होंगे
जब जम जाते होंगे शब्द,
जीवन थरथराने लगता होगा,
कविताएं रुककर चीखने लगती होंगी,
उसे पढ़ने वाला  छटपटाने लगता होगा,
ये कुछ वैसे पल होते होंगे जब इन्हें लिखने वाला खुद को मुक्त कर देता होगा
अपनी ‘इंसानी पकड़’ से…

टिप्पणीकार डॉ० अपराजिता शर्मा, सहायक प्रवक्ता, हिंदी विभाग मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय। क्रीएटर- हिमोजी (देवनागरी हिंदी चैट स्टिकर एप) – ‘अलबेली की दुनिया’

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