वीरेन डंगवाल 70 के दशक की चेतना के कवि हैं। कविता के क्षेत्र मे उनका प्रवेश 70 के दशक में हुआ । यह वह समय है जब नक्सल बाड़ी आंदोलन की आग से उभरी हिन्दी कविता का आवेग कुछ मंद पड़ रहा था। राज्य दमन और वैचारिक विभ्रम से क्रांतिकारी शक्तियों मे आत्म मंथन के दौर शुरू हो गए थे। प्रतिबद्धताएं अपना रूप बदल कर सामने आ रही थी। सत्ताधारी वर्ग भी खुद को पुन:संगठित कर रहा था।
युवाओं व समाज के बड़े तबके के मोहभंग के परिणाम स्वरूप 70 के दशक में पहले नक्सलबाड़ी का किसान विक्षोभ और फिर सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन ने यह बता दिया था कि पुराने तौर तरीकों से शासन चलाना अब संभव नही। तात्कालिक तौर पर भले ही ये दोनों आंदोलन असफल मान लिए गए हों लेकिन इन आंदोलनों का ताप लंबे समय तक इतिहास में महसूस किया जाने वाला था। यही कारण है कि शासक वर्ग ने खुद को ज्यादा मोहक रूप में बाज़ार के जरिये पेश किया। मोहभंग और आक्रोश को उन्होंने अपनी भाषा में कला रूपों में बदल दिया।
आज हम यह कर आकलन कर सकते हैं कि 70 के दशक के आखिरी वर्षों यानि आपात्काल के बाद शासक वर्ग के पैंतरे बदलते ही बहुत सारे विप्लवी चेतना के कवियों ने या तो खामोशी अख्तियार कर ली या खेमे बदल लिए। ऐसी स्थिति मेंं क्रांतिकारी कविता के लिए पुराने मुहावरों और रूप से प्रस्थान जरूरी था।
वीरेन डंगवाल ने 70 के दशक की परिवर्तनकामी चेतना को आत्मसात कर आने वालों दशकों की चुनौतियों के लिए खुद को तैयार किया, क्योंकि आने वाले दशकों में हमले और तेज़ और चौतरफा होने वाले थे। उन्होंने एकदम नए शिल्प,अनूठी लोकप्रिय भाषा और गैरपरंपरागत विषयों के जरिये मनुष्यविरोधी विचारों का प्रतिपक्ष रचा। लेकिन खालिस अपने अंदाज़ मे-
” गरज रहे हैं घन-घमण्ड के नभ की फटती हैछाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक है चमकाती
संस्कृति के दर्पण मे जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी”
इस तरह वीरेन डंगवाल ने अपने समकालीन कवियों से अलग एक रास्ता चुना। उन्होंने जिंदगी के बेहद मामूली वाकयों मेंं मानवीय महत्ता के तत्वों की शिनाख्त की। 70 के दशक की संवेदना को लेकर 90 के दशक की बाजारू चकाचौंध और अमानवीय घटाटोप का मुकाबला किया। कविता की रचनाशिल्प और बुनावट में एक फक्कड़पन और लापरवाही का शिल्प चुनते हुए भी उन्होंने मानवीय मूल्यों के सर्वाधिक बहुमूल्य सार तत्व पर अपनी पैनी निगाह बनाये रखी। वे बाज़ार की संस्कृति के लोकप्रियतावाद को एक प्रतिबद्ध लोक चेतना से जवाब देते हैं। उनके यहां ‘पापड़ चटनी-आंचा पांचा’ भी है और एक गरीब आदमी के दिल मे ‘दाल भात के अलावा भी दूसरी इच्छाएं’ भी कौंधती हैं।
‘कटरी की रुकुमिनि’ वीरेन डंगवाल की एक ऐसी ही कविता है जो उनके द्वारा चुने गए अलग रास्ते का सूचक है। यह कविता 2010 मे प्रकाशित उनके तीसरे कविता संग्रह ‘स्याही ताल’ मे संकलित है। समय और कविता की अंतर्वस्तु, दोनों के लिहाज़ से यह कविता हमारे समय के विद्रूप को सामने लाती है। भूमंडलीकरण की अर्थव्यवस्था और पूंजी के सर्वग्रासी ‘उत्तरआधुनिक’ समय में तमाम हमलों और वंचनाओं के बावजूद हाशिये पर रहने वाला समाज अपने जीने की तरकीब निकाल ही लेता है। जाहिर है इस व्यवस्था से लड़ते हुए और कई बार उसमे इस्तेमाल होते हुए। यह समय का अविरल प्रवाह है जिसमें जब तक कोई बड़ा झटका न लगे, चीजें एकबारगी नहीं बदलतीं।
पूंजी के चमकदार संसार से बाहर करोड़ो लोग जाति-धर्म-थाना पुलिस-गुंडा-बलात्कारी तत्वों से रोज रोज संघर्ष करते हुए जीते हैं। लेकिन कविता का रास्ता उससे कहीं दूर सुरक्षित रास्ते से गुज़र जाता है। वीरेन डंगवाल उस रास्ते से अलग एक रास्ता चुनते हैं-एक अलग रास्ता चुना मैंने!
गंगा के कछार मे ‘कटरी’ के इलाके की रुक्मिनी और उसकी माँ उसी तरह जिंदा हैं और इससे कुछ बेहतर जी पाने की इच्छा के साथ लड़ रही हैं। डंगवाल जी ने इस कविता को ‘रुक्मिणी और उसकी माँ की खंडित गद्य कथा’ कहा है। कविता के शिल्प मे गद्य कथा! यह संभवतः इसलिए भी है कि रुक्मिणी और उसकी माँ के जीवन मे कोई ऐसी बात नहीं है जिसमे कोई काव्यात्मकता हो। इसलिए कवि ने बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्या को उद्धृत किया है–क्षुधार राज्ये पृथ्वी गद्य मय अर्थात भूख के राज्य में पृथ्वी गद्य मय है। अपने काव्यात्मक गद्य कथा में वीरेन डंगवाल भले ही रुक्मिणी और उसकी माँ की कथा कह रहे हों, लेकिन यह कथा हमारे देश के किसी भी गांव के गरीब दलित स्त्री की कथा हो सकती है। यह कविता हमारे समय के ग्रामीण जिंदगी का एक कोलाज रचती है। जिसमें गंगा के पालेज अर्थात बढ़ी हुई नदी के अपनी धार में लौट जाने के बाद खाली रह गए बलुअर मैदान की नम जमीन पर ‘तरबूज और खरबूजे, खीरे ककड़ी-लौकी तुरई और टिण्डे’ उगाते हुए ‘कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह’ हैं। इसमे ‘प्रधानपति’ राम खिलौना है जिसने–
“बंदूक और बिरादरी के बूते पर बभिया में पता नहीं कबसे दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को जो लाभ पहुंचाए हैं उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है”
इसी गांव मे 14 बरस की रुक्मिनी अपनी विधवा माँ के साथ रहती है जिसका बड़ा भाई ‘कच्ची खेंचने’ के जुर्म में जेल में है। दूसरे भाई की लाश कछार में पायी गई थी जिसका गंगापार के कलुआ गिरोह ने अपहरण कर लिया था। रुक्मिनी की मां, जिसके बारे में कवि ने दर्ज़ किया है-
“अब माँ भी बालू में लाहन दाब करकच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैया वासियों की तरह”
उसके द्वार पर अधेड़ थानाध्यक्ष को कवि ने उस ‘स्वनामधन्य युवा स्मैक-तस्कर वकील’ के साथ देखा है जिसकी जीप पर इच्छानुसार ‘विधायक प्रतिनिधि’ अथवा ‘प्रेस’ की तख्ती लगी होती है। यही कारण है कि रुक्मिनी और उसकी माँ की मढ़ैया कटरी के लफंगा समुदाय के लिए भय का कारण बनी रहती है-
” यही रसूख होगा या बूढ़ी माँ की गालियों और कोसनो का धारा प्रवाह
जिसकी वजह से कटरी का लफंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है भय और हसरत से”
वीरेन डंगवाल ने अपनी विशिष्ट शैली और गहन सामाजिक अंतर्दृष्टि से इस इलाके के जीवन के ब्यौरे प्रस्तुत किये हैं, लेकिन ये महज़ सीधे सपाट निर्जीव ब्यौरे नहीं हैं। इन ब्यौरों के जरिये हमारे आधुनिक ‘भूमंडलीकृत’ गांव की जिंदगी की तस्वीर उभरती है।
पंचायती राज व्यवस्था में भारतीय ग्रामीण समाज में विकास के नाम पर पूंजी की बंदरबांट का भयानक दौर भी शुरू किया है. और इसके परिणाम स्वरुप जो ‘सशक्तिकरण’ हुआ है उसने गांव की सामाजिक संरचना में क्या बदलाव पैदा किए हैं, ये इस कविता में यथार्थ रूप में सामने आता है। भारतीय ग्रामों को लेकर साहित्य जगत में बनी आदर्शवादी छवि को बहुत पहले प्रगतिशील कविता ने तोड़ दिया था। लेकिन प्रगतिवादी कविता ने किसानों के श्रम की प्रतिष्ठा करने के मूल उद्देशय के कारण किसान जीवन के भीतरी तहों की चीर फाड़ नहीं की थी। किसान जीवन के भी अनेक पहलू हैं।
किसानों और खेत मजदूरों के अलग-अलग सवाल हैं, उनके जीवन के बिल्कुल भिन्न यथार्थ हैं। जातियों के आधार पर उनमेंं ढेर सारे पूर्वाग्रह हैं जिनको लेकर आपस में लड़ाइयाँ हैं। अलग अलग गोलबंदियां हैं। इस लंबे अंतराल में इस विषय पर कविता में कभी बात नहीं हुई है। मोटे तौर पर गांव और किसान को प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में समझ लेने की प्रवृत्ति रही है। ‘कटरी की रुक्मिनी’ इस मिथक को भी तोड़ती है और वह ग्रामीण संरचना के भीतरी तहों तक जाती है। गंगा के पुल से गुजरते हुए ट्रेन की खिड़की से दिखता यह ‘नरम-हरा-कच्चा संसार’ भीतर से कितना कुरूप और जटिल है, यह बताने के लिए कविता को उस बीहड़ मे उतारना होगा। चूंकि वहां क्षुधा का राज्य व्याप्त है इसलिए यह कठोर यथार्थवादी गद्य मयता स्वाभाविक है।
लेकिन ऐसा भी नहींं है कि वीरेन जी गांव के प्रति कोई रोमांटिक नजरिया नहीं अपनाते। गांव के बुनियादी सौंदर्य के चित्र उकेरने की कोशिश वे भी करते हैं लेकिन उन पंक्तियों को पढ़ते हुए एक पीली उदासी सी छा जाती है मानो गंगा की खुश्क रेत ढलते सुरज की रौशनी के साथ मिल कर दिलो दिमाग पर गुबार बन कर छा रही हो। ये पंक्तियां देखें-
” जेठ विलाप के रतजगों का महीना है
घण्टियों के लिए गांव के लोगों का प्रेम बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुंघरुओं के लिए भी रंगी डोर से बंधी घंटियाँ
बैलों-गायों-बकरियों के गले में और कोई कोई बच्चा तो कई बार बत्तख की लंबी गर्दन को भी इकलौते निर्भार घुंघरू से सजा देता है
यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत जो इन घण्टियों मे बजता है
यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए है
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं”
इस क्रूर संसार और निर्मम बीहड़ ‘कटरी’ में जवान हो रही रुक्मिनी अनायास ही समाज की क्रूर सच्चाइयों से रु ब रु हो रही है। यहां रुक्मिनी के अबोधपने और बचपन की स्वाभाविकताओं के लिए कोई स्थान नहीं है। वह तो राम खिलौना को भाई कहकर उससे लिपट भी नहीं सकती। उसका जीवन और भविष्य चिथड़ा होने के लिए समाज के मँझदार मे निष्कवच छोड़ दिया गया है। समाज की इस नंगी सच्चाई को वीरेन डंगवाल ने कुछ इस प्रकार सामने रखा है-
“सोचो तो सड़ते हुए जल ई-सा उतराने को उद्यत काइ की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी क्या तमाशा है
और स्त्री का शरीर! तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश”
रुक्मिनी के इन तकलीफों -अप्रिय वर्तमान और अनिश्चित भविष्य के बावजूद उसकी माँ अभी भी एक बेहतर जीवन की कल्पना मे संलग्न रहती है। वीरेन जी ने अपनी इस कविता में रुक्मिनी की माँ को मुक्तिबोध से रूपक उधार लेकर ‘काष्ठ के अधिष्ठान खोजती माँ’ कहा है। सचमुच यह एक विलक्षण और मार्मिक रूपक है। कविता मे वर्णित माँ को समझने की प्रक्रिया में वो हज़ारों औरतें याद आती हैं जिन्हें हम बाजारों-हाटों सड़कों चौराहों पर फल-सब्ज़ी और टाफी बिस्कुट बेचते हुए देखते हैं। ध्यान से देखिए तो गरीबी के थपेड़ों से टकरा कर बिखर गए जर्जर स्वास्थ्य और देह के बावजूद उनकी आँखें किसी सपने की दीप्ति से चमकती रहती हैं। काष्ठ के अधिष्ठान खोजती ऐसी तमाम माएं न सिर्फ अपना पेट पाल रही होती हैं बल्कि वे अपनी-अपनी रुकमिनियों का जीवन संवारने की लालसा में धारा के विरुद्ध पूरी ताकत से लड़ रही होती हैं।
ये औरतें मुख्यधारा से बाहर फेंक दिए गए समाजों की जिजीविषा का जीवंत प्रतीक हैं जिनके भरोसे मनुष्यता जीवित है। कविता में रुक्मिनी की माँ के स्वप्न में उसका पति गनेसा और मृत बेटा आते हैं। उसे सपने में रुक्मिनी की आलता लगी एड़ियां दिखती हैं और दरवाजे पर बारात खड़ी नज़र आती है। गाय पाल कर उसकी सेवा करने और दूध पीने की मामूली सी इच्छा वह पूरी नहीं कर पाती है। ये सपने जैसे उसके अपूर्ण और विक्षत जीवन के प्रतिकार के रूप में आते हैं। जिसे एक सामान्य जीवन का सच होना चाहिए था वह उसके लिए कभी न पूरा हो सकने वाला सपना बन गया है।
वीरेन डंगवाल का यह अलग रास्ता वस्तुतः हमारे अकादमिक-साहित्यिक विमर्शों की कई अपूर्णताओं की ओर भी इशारा करता है। यहां प्रश्न यह है कि अकादमिक स्त्री विमर्श में रुक्मिनी और उसकी माँ जैसी औरतों के संघर्ष का कोई प्रतिनिधित्व है? ‘हमारे परिपक्व हो चुके लोकतंत्र’ में क्या इस बात की चिंता किसी को है कि अनगिनत लोगों को अपना जीवन निर्वाह के लिए न चाहते हुए भी अपराध और अवैध व्यवसाय की ओर रुख करना पड़ता है।
हमारे अस्मितावादी ठेकेदार जातीय गोलबंदी और संख्याबल के अधार पर संगठित इस ‘सशक्तिकरण’ का फायदा तो उठाते हैं लेकिन रुक्मिनी, उसकी माँ और गनेसा जैसे लोगों को इस दलदल से बाहर कभी नहीं निकालते। यहां पर वीरेन डंगवाल ने उम्मीद की एक क्षीण रौशनी की ओर हल्का सा इशारा भर कर दिया है,जहां से रुकमिनी की कथा को ‘नया मोड़’ लेना है–
“काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माताहर समय कटरी के धारदार घास भरे खुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे भले लोग जिन्हें वह जानती नहीं मगर जिनकी आँखों में अब भी उड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है
मुंह अंधेरे जांता पीसते हुए।”
ये ‘अदेखे-सूदूर भले लोग’ ही हैं जो रुक्मिनी की कथा में नया मोड़ ला सकते हैं।
यहां से कविता एक अनागत भविष्य में प्रवेश करती है। यह कहना उचित होगा कि भविष्य का यह स्वप्न दरअसल 70 के दशक के उस विप्लवी चेतना से कवि की आंखो में आता है जहां से उन्होंने कविता का विचार और संस्कार ग्रहण किया था। इस तरह वीरेन डंगवाल की काव्य संवेदना भविष्य की लड़ाइयों और मनुष्यता की जीत के प्रति आश्वस्त करती है। उन्हीं की एक अन्य कविता ये पंक्तियाँ इसकी तस्दीक करती हैं-
“होगा वह समर ,अभी कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएंगे
आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे!!
(डॉ. रामायन राम, शामली जिले के कांधला में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी अध्यापन, जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के सचिव,समकालीन जनमत,हंस,कथा इत्यादि पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। ‘डॉ .अम्बेडकर: चिंतन के बुनियादी सरोकार’ पुस्तक प्रकाशित!
यह लेख पूर्व में डॉ. प्रेमशंकर सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘रहूंगा भीतर नमी की तरह’ में प्रकाशित हो चुका है।)