(माँ केवल ममता का ही खज़ाना नहीं है बल्कि समझदारी का भी स्रोत होती है. समाज के बारे में, नैतिकता, यौनिकता, सही और गलत के विवेक के बारे में हमें एक नयी दृष्टि देने का भी निमित्त हो सकती है. आइये ‘मदर्स डे’ के उपलक्ष्य में माँ की रूढ़ हो चुकी छवि से इतर कविता कृष्णन के इस लेख के माध्यम से माँ की एक नयी छवि से परिचित होते हैं, उस पर बात और बहस करते हैं)
‘टू किल अ मॉकिंगबर्ड’ उपन्यास 1950 के दशक के अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में नस्लवाद की कहानी है. उसमें एक वकील जिनका नाम एटिकस है, एक काले नस्ल के आदमी की पैरवी करते हैं जिस पर बलात्कार का गलत आरोप लगाया गया है. एटिकस की 8 साल की बेटी स्काऊट कहती है की गाँव के लोग कह रहे हैं कि मेरे पिताजी ‘हब्शी-प्रेमी’ है. वह पूछती है कि इसका क्या अर्थ है, सुनकर लगता है कोई गाली है, जैसे किसी ने मुझे ‘बन्दर’ कहा हो, पर इसका क्या मतलब है?
‘टू किल अ मॉकिंगबर्ड’ में जब एटिकस को ‘nigger-lover’ (‘हब्शी-प्रेमी’) कहा जाता है
एटिकस कहता है, ‘स्काऊट, ‘हब्शी-प्रेमी’ ऐसा एक लफ्ज़ है जो अर्थहीन है, जैसे ‘बन्दर’ – जाहिल, बेकार लोग ऐसा कहते हैं जब उन्हें लगता है की कोई काले लोगों को सर पर चढ़ा रहा है. लोग उसका इस्तेमाल करने लगे हैं, जब वे किसी को गाली देकर तुच्छ दिखाना चाहते हैं.’
स्काऊट पूछती है, ‘तो तुम सचमुच हब्शी-प्रेमी तो नहीं हो न?’
एटिकस जवाब देते हैं, ‘क्यूँ नहीं? मैं तो कोशिश करता हूँ सबसे प्यार करूँ. … कैसे समझाऊँ? बच्ची, जब हमें कोई गाली देता हो तो इसमें हमें कभी अपमानित नहीं महसूस होना चाहिए. ये तो हमें दिखता है की गाली देने वाला कितना कमज़ोर है, इससे हमें कोई चोट नहीं पहुँचती.’
2014 में बनी फिल्म ‘प्राइड’ में लन्दन में समलैंगिक लोगों का संगठन 1984 के ब्रिटेन के गांवों के हड़ताली कोयला मजदूरों का साथ देते हैं. अखबार में उन्हें विकृत (pervert) कहते हुए लेख छपता है. तब समलैंगिक कार्यकर्ता मार्क ने कहा, ‘अच्छा, समलैंगिक समुदाय में एक लम्बी और सम्मानजनक परंपरा है जिसने हमारा खूब साथ दिया है – जब कोई तुम्हें गाली देता हो, तुम पर ठप्पा लगता हो – तो उस गाली को गर्व से अपना लो, अपनी ताकत बना लो!’ मार्क कहता है की अखबार में ऐसा लेख तो हमारे लिए विज्ञापन का काम करेगा. इससे पहले समलैंगिक लोग हड़ताली खदान मजदूरों के समर्थन में ‘Perverts Support The Pits’ नाम से बेहद सफल संगीत का कार्यक्रम करके खूब चंदा जुटा चुके हैं.
भारत में दलित आन्दोलन में भी कुछ ऐसी ही परंपरा रही है – जहाँ दलितों ने कहा, ‘तुम हमें पद-दलित करके नीचा बताते हो, हम गर्व से खुद को दलित कहेंगे.’
महिला मुक्ति के आन्दोलन में भी ऐसा हुआ है. कनाडा के एक पुलिस अफसर ने जब एक बलात्कार पीडि़ता को ‘रंडी’ (slut) कहा तो उस पुलिस वाले की कोशिश थी हमें बताने की, कि ‘बलात्कार का आरोपी निर्दोष है, एक बेशर्म, बेहया रंडी का आखिर बलात्कार कैसे संभव है’. पर इसके जवाब में पहले कनाडा और फिर पूरी दुनिया में महिलाएं सड़क पर ‘slut-walk’ (‘रंडी-रैली’ या ‘बेशर्मी मोर्चा’) में उतर गयीं.
मोर्चे पर महिलाओं ने कहा कि हम सब इस ‘गाली’ को गर्व से अपनाती हैं, ताकि पितृसत्ता के रखवाले हम महिलाओं को ‘रंडी’ और ‘सती-सावित्री’ में बाँट न पाए, बलात्कार पीड़ितों को इस तरह शर्मिंदा कर ही न पाए. अगर एक महिला को बेहया कहते हो, तो हर महिला उस का साथ देते हुए कहेगी की ‘हम सब बेहया हैं’.
हाल में हमारे देश में जो कुछ हो रहा है, वहां इन उदाहरणों को याद रखना ज़रूरी हो गया है.
JNU और जादवपुर यूनिवर्सिटी की लड़कियों पर ‘फ्री सेक्स’ का ‘आरोप’ लगाया जा रहा है. भाजपा नेता दिलीप घोष कहते हैं कि जादवपुर की छात्राएं ABVP के लोगों पर यौन उत्पीड़न का आरोप कैसे लगा सकती हैं – ‘ऐसी बेहया लड़कियों का भला यौन उत्पीड़न कैसे संभव है? अगर वे उत्पीडि़त नहीं होना चाहती, तो यूनिवर्सिटी में पढ़ने क्यूँ गयीं, आन्दोलन करने क्यूँ गयीं? चुप चाप घर क्यूँ नहीं बैठीं?’
बलात्कार कानून या जुवेनाइल जस्टिस कानून पर TV चैनल पर बहस में, जब भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी के पास मेरे तर्कों का जवाब नहीं बचता है, तो वे गाली पर उतर आते हैं और मुझे अकसर ‘नक्सल जो फ्री सेक्स करती है’ कह चुके हैं.
अब सवाल यह है कि इस गाली का क्या जवाब हो? मुझसे किसी ने पूछा, ‘आप कह क्यूँ नहीं देती, की मैं नक्सली नहीं हूँ?’ कई लोग मुझसे कहते हैं, ‘JNU की महिलाएं, नारीवादी या वामपंथी महिलाएं, फ्री सेक्स नहीं करती हैं, ये बताना ज़रूरी है.’ ऐसे सलाह सुनकर मुझे कुछ ऐसा लगता है, जैसे एटिकस को लगा जब बेटी स्कौट ने पुछा, ‘पापा पर तुम सचमुच ‘हब्शी-प्रेमी’ तो नहीं हो न?’ ऐसी गलियों में जो विष है, उसे सहर्ष, गर्व से स्वीकार लेने और पी लेने से ही इन्हें पराजित किया जा सकता है.
‘नक्सली’ शब्द का आखिर अर्थ क्या है? जब सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोग उसे गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं तो वह ‘बन्दर’ की तरह ही बचकाना और अर्थहीन गाली है. वे कहना चाहते हैं कि मेरे जैसे लोगों के तर्क को मत सुनो क्यूँ कि ये ‘नक्सली’ हैं, आतंकवादी हैं. पर ‘नक्सली’ शब्द ‘नक्सलबाड़ी आन्दोलन’ से उपजा है, जो स्वतंत्रता संग्राम के समय के पुन्नाप्रा वायलार, हूल, और तेलंगाना के महान किसान-आदिवासी विद्रोहों की परंपरा में ही एक क्रांतिकारी विद्रोह था. नक्सलबाड़ी गाँव के गरीब आदिवासी; कोलकाता शहर के युवक-युवतियां जिन्होंने शहादत दी, पुलिस की गोलियों से या जेलों में प्रताड़ना से मारे गए, ‘आतंकवादी’ नहीं थे.
उनके होंठों पर मुक्ति गीत था – ‘मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि, वो दिन दूर नहीं आज … महान भारत की जनता महान, भारत होगा जनता का’. कम्युनिस्ट विचारधारा से, भाकपा माले की विचारधारा से इत्तेफाक रखें चाहे न रखें, क्रान्ति और मुक्ति के इस सपने का सम्मान करने वाले इस देश में हमेशा पाए जायेंगे. और इसलिए ‘नक्सली’ कहलाने में मुझे कोई शर्म नहीं; मेरा सवाल सिर्फ यह है कि मौजूदा बहस से भागने के लिए अगर आप ‘नक्सली’ या ‘फ्री सेक्स’ को गाली की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, तो इसमें आपकी पराजय, आपकी हताशा ही झलकती है.
याज्ञवल्क्य जब गार्गी से बहस में पराजित हो गये तो उन्हों ने कहा ‘गार्गी चुप हो जाओ वर्ना तुम्हारा सर गर्दन से अलग होकर गिर पड़ेगा. ज्यादा सवाल मत करो, गार्गी!’ आजकल की राजनैतिक बहसों में महिलाओं के तर्कों और सवालों को चुप कराने के लिए ‘फ्री सेक्स’, ‘रंडी’ आदि गालियों का कुछ ऐसा ही इस्तेमाल होता है. किसी महिला के तर्कों का अगर कोई तर्कपूर्ण जवाब न हो, तो विषय बदलकर उसके चाल-चलन-चरित्र, उसके रंग-ढंग, उसके निजी जीवन/सेक्स-लाइफ, उसके चेहरे या शरीर आदि पर टिप्पचणी और गाली-गलौज शुरू हो जाती है. लेकिन गार्गी की बेटियों ने – आज की भारतीय महिलाओं ने – सर के गिर जाने का, शर्म-हया पर धब्बा लगने का, ‘फ्री-सेक्स-करने-वाली’ कहलाने का डर छोड़ दिया है. मेरे निजी जीवन में तुम्हारा क्या काम है? मेरे राजनीतिक विचारों से बहस करना हो तो करो – पर मेरे चरित्र, मेरे शरीर, मैं बदसूरत हूँ या नहीं, इन सब पर चर्चा को मोड़ोगे, तो मैं तो चुप नहीं हो जाऊंगी, पर सब समझ जायेंगे की तुम बहस में हार गए हो.
‘फ्री सेक्स’ लफ्ज़ भी एक बिलकुल अर्थहीन गाली है, जो पुरुषों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होती, महिलाओं को शर्मिंदा करने के लिए ही इस्तेमाल होती है. हर किस्म का सेक्स, ‘फ्री सेक्स’ ही होता है. अगर सेक्स करने वाले लोग ‘फ्री’ होकर, अपनी सहमति से सेक्स नहीं कर रहे हैं, अगर उनपर किसी भी किस्म का दबाव हो, उन पर किसी किस्म का बंधन हो, तो वह सेक्स ‘सेक्स’ नहीं, ‘रेप’ – बलात्कार – कहलाता है. शादी के भीतर पति पत्नी के बीच हो, चाहे किन्ही भी दो लोगों के बीच हो, सेक्स के लिए ‘फ्री’ होना, मुक्त और सहमत होना एक अनिवार्य शर्त है. इसलिए ‘फ्री सेक्स’ जैसी गाली से हम भला क्यूँ घबराएँ?
‘फ्री सेक्स’ का आरोप राजनीतिक बहस में किसी मर्द के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल क्यूँ नहीं होता है? क्यूंकि यह माना जाता है कि मर्द को फ्री होने का अधिकार हैं. महिलाओं को बंधन में रखने वाले लोग ही तो ‘फ्री’ महिलाओं से घबराते हैं.
दरअसल संघी विचारधारा के लोग – और हर विचारधारा के पितृसत्तात्मक लोग – मुक्त यानि ‘फ्री’ महिलाओं से, लोगों से डरते हैं. वे डरते हैं कि जाति-धर्म के, लिंगभेद के, नस्लवाद के, नफरत के बंधनों को तोड़, लोग प्यार करने लगेंगे तो हमारी सत्ता का क्या होगा? गोरख की कविता से उधर लें तो ‘वे डरते हैं/ कि एक दिन/’ महिलाएं उनसे, उनकी गालियों से ‘डरना बंद कर’ देंगी … रंडी, बेशर्म, बेहया, फ्री सेक्स करने वाली कहलाने से डरना बंद कर देंगी…
मैं अपनी माँ और अपने पिता को तहे दिल से शुक्रिया करना चाहती हूँ कि उन्होंने बचपन से ही मेरे भीतर इस डर को पैदा होने ही नहीं दिया, ‘नारी-सुलभ-शर्म’ या ‘शुचिता’ के कांसेप्ट का मज़ाक उड़ाकर अपनी बेटियों से मुक्त गगन में उड़ान भरने को कहा, सर उठाकर जीने को कहा.
और इसलिए, जब सोशल मीडिया पर लोग मेरी माँ या मेरे पिता के ज़रिये मुझे शर्मिंदा करना चाहते हैं, जब वे पूछते हैं की ‘तेरी माँ जानती भी है की तेरे पिता कौन हैं’; ‘तेरी माँ फ्री सेक्स करती होगी’, आदि तो मेरी माँ, मेरी बहन और मैं सब खूब हँसते हैं. क्यूंकि ऐसे सवाल करने वाले जानते ही नहीं कि मेरी माँ से पंगा लेकर वे किस मुसीबत को मोल रहे हैं!
हाल में ज्ञानदेव आहूजा और JNU के कुछ अध्यापकों द्वारा तैयार किये गये ‘दस्तावेज़’ में JNU में ‘सेक्स रैकेट’, ‘फ्री सेक्स’ आदि की बेहूदा टिप्पणियों के बारे में मैंने लिखा कि इन्हें सुनकर हमें सोचना चाहिए कि आखिर छात्र-छात्रों के सेक्स-लाइफ के बारे में ये लोग इतनी कल्पना क्यूँ करते हैं? किसी और के सेक्स-लाइफ के बारे में जो इतना सोचते हों, अपने दिमाग में रंगीन और बेहूदा चित्र बनाते हों, उनकी मनस्थिति के बारे में चिंता करना ज़रुरी है. जब दिलीप घोष कहते हैं कि बेहया लड़कियों का यौन उत्पीड़न होना जायज़ है, तो वे बलात्कारी मानसिकता का परिचय दे रहे हैं.
मैंने कहा कि जो ‘फ्री सेक्स’ से डरते हैं उनपर हमें तरस खाना चाहिए, क्यूंकि आखिर जो सेक्स ‘फ्री’ नहीं, वह बलात्कार ही है, और कुछ नहीं है. मेरे इस बात पर मुझसे फेसबुक पर जब किसी ने पूछा कि ‘तेरी माँ या बेटी ने फ्री सेक्स किया?, तो मैंने जवाब दिया कि ‘हाँ मेरी माँ ने किया, और उम्मीद है कि आपकी माँ ने भी किया होगा, क्यूंकि जो सेक्स फ्री नहीं, वह सेक्स नहीं बलात्कार है.’
और मेरी माँ ने उनसे कहा ‘मैं कविता की माँ हूँ, मैंने फ्री सेक्स किया, मेरे पसंद के इन्सान के साथ, जब मेरी मर्ज़ी थी – और क्यूँ नहीं?! मैंने हमेशा हर पुरुष और महिला के पूरी स्वायत्तता से सेक्स करने के अधिकार के लिए संघर्ष किया – कभी ‘अन-फ्री’ नहीं, कभी जोर-ज़बरदस्ती में नहीं. हमेशा मुक्त, हमेशा सहमति से.’
ऐसा कहकर मेरी माँ ने मेरा साथ दिया – और हर ऐसी महिला का, लड़की का साथ दिया जिसे कभी ‘सेक्स’ के नाम पर शर्मिंदा करने की कोशिश हुई हो. ऐसा कहकर मेरी माँ ने हर लड़की, हर महिला से कहा कि ‘बिंदास’, ‘फ्री’, ‘बेहया’ कहलाने में शमिन्दा होने की कोई ज़रूरत नहीं है. उल्टा उस ‘गाली’ को सहर्ष स्वीकार कर, गाली देने वाले को शर्मिंदा करना चाहिए. शर्म तो वैसे लोग करें जिन्हें लगता है कि आज़ादी मांग रही महिलाओं के साथ बलात्कार जायज़ है; कि महिलाओं को किसी बहस में चुप करने के लिए उनके सेक्स-लाइफ और निजी जीवन के बारे में कल्पनाएँ गढ़ना जायज़ है.
(यह तस्वीर कविता कृष्णन की माँ लक्ष्मी कृष्णन जी की है )
माँ की टिप्पणी का हज़ारों लोगों ने स्वागत किया. पर अब भी कुछ ऐसे लोग हैं जो मेरे फेसबुक वाल पर लिख रहे हैं की ‘ऐसी माँ-बेटी से फ्री सेक्स कौन करेगा, ये तो बलात्कार करने लायक भी नहीं हैं, इतने बदसूरत हैं’! जो लोग ऐसी टिप्पणियां लिख रहे हैं, उनसे मैं कहना चाहती हूँ: “भारत माता की जय की बात करते हो, कुछ मेरी माता से सीख लेते तो आपका ही भला होता. आप तो अपने ही बलात्कारी और बेहूदा मानसिकता का परिचय दे रहे हैं.“ इन टिप्पणियों की चर्चा करते हुए मेरी माँ ने जो sms मुझे भेजा, उसे उनकी इजाज़त के साथ यहाँ लिख रही हूँ: “इस पूरे प्रकरण में मुझे तुम्हारे पिताजी की खूब याद आ रही है (मेरे पिताजी 2010 में गुज़र गए). वे होते तो इन Lotus Louts (कमल धारी लम्पटों) को प्यार और सम्मान के बारे में कुछ सिखा देते – सिखाते कि ‘फ्री सेक्स’ गन्दा लफ्ज़ नहीं हैं अगर आपकी कल्पना गन्दी न हो.” (I really miss your father in this whole episode – he would have shown these Lotus Louts a thing or two about love and respect, and taught them that ‘free sex’ is not a dirty word unless your imagination makes it so.)
ऐसी बलात्कारी मानसिकता के लोगों से हम ‘भारत माता की जय’ कहना तो नहीं सीख सकते. पर अपनी बेबाक माँ को, जिसने हजारों बच्चों को और युवक-युवतियों को जीवन भर पढ़ाया; दो बेटियों को बेबाक, बेखौफ जीना सिखाया; जातिवाद, साम्प्रदायिकता और नस्लवाद से संघर्ष करना सिखाया; उम्र के बंधनों को तोड़ कर अपने से आधी उम्र के लोगों से दोस्ती निभायी, सलाम करती हूँ.
माँ, तुझे सलाम! लक्ष्मी कृष्णन तुझे सलाम!
(कविता कृष्णन भाकपा (माले) लिबरेशन की पोलितब्यूरो की सदस्य और अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (AIPWA) की सचिव है. यह लेख 18/5/16 को काफ़िला में प्रकाशित हो चुका है.)