समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-18

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

बचपन


जब से मैंने होश संभाला, मेरे घर में चाय बनती थी। घर की भैंस का दूध और घर के गुड़ की चाय की बात ही कुछ और थी। जाड़े में कई तरह का ढूंढ़ा और ढूंढ़ी बनती थी। जनेरा के लावे का, बाजरे के परमल का, भुने चूड़े का ढूंढ़ा और ढूंढ़ी बाजरे की, मूंग की, तीसी की और गेहूं के आटे की (ये तो हर मौसम में) बनती थी। पिताजी जाड़े में चूड़ा दूध या दो ढूंढ़े गरम दूध में डालकर खाते और गरमी में पराठा सब्जी या आटे का हलवा नाश्ता करके खेत पर जाते थे। आटे की ढूंढ़ी तो हमेशा बनाकर रखी रहती थी। शाम में खेत पर जाने से पहले आटे की ढूंढ़ी खाते थे। चूंकि और कोई भाई बहन इनके पास फटकता नहीं था, तो इनके पास जाने का फायदा मुझे ही मिलता था। पिताजी जब भी ढूंढ़ी खाते मुझे भी दे देते थे।
जाड़े के दिनों में मां चूल्हे पर तसले में पानी गरम करके रखे रहती थी। पिताजी अंधेरा होने पर खेत से लौटते तो माँ गरम  पानी से उनका पैर धोकर तेल लगाती थी। उसके बाद कभी – कभी मेरा पैर भी गरम पानी से धोकर तेल लगा देती थी। बड़ा अच्छा लगता था। रात में माँ की चारपाई के नीचे बोरसी रखी रहती थी। बोरसी ( मिट्टी से बना गहरा तसला) में नीचे कंडी का चूरा या धान की भूसी भरकर ऊपर से चूल्हे की आग डाल दी जाती जो रात भर धीमी आंच देती रहती। आज का रूम हीटर बोरसी के आगे फेल है। रूम हीटर का काम तो पुआल करता था। नीचे पुआल उसके ऊपर बोरे का चट बिछाते थे कि पुआल बाहर न फैले। फिर कथरी या लेवा बिछाते थे और रजाई ओढ़ते थे। इसपर सोने से कहीं से हवा आने की गुंजाइश ही नहीं होती थी। इसलिए ठंड लगने का सवाल ही नहीं उठता।
उस समय दूधगाड़ा हुआ करता था । ( दूध गर्म करने के लिए एक गड्ढा बनाया जाता है जिसमें कंडी तोड़ कर उसमें आग पकड़ा दी जाती, उसपर मिट्टी के बरतन में दूध रख दिया जाता और धीरे धीरे दूध पकता रहता, उसी की राखी से ही मंजन हुआ करता था। कभी कभी लकड़ी के कोयले से और नमक तेल से भी दांत साफ कर लेते थे। नाश्ते में बासी भात में प्याज, नमक, तेल और अचार का खाद मिलाकर खाना मुझे सबसे प्रिय था। हम लोग छोटे छोटे थे। उस समय ऊनी कपड़े के नाम पर मात्र फलालेन के कपड़े का पूरी बांह का फ्रॉक सिला जाता था, जिसमें दोनों तरफ पाकेट रहता था। घर के बाहर चौपाल में बड़की माई के दीवाल पर सबसे पहले धूप आती थी। जनेरा के लावे में गुड़ डालकर ओखली में थोड़ा कूटकर भुक्का बना कर धूप में खड़े होकर हम लोग खाते थे। जो कोई सामने खड़ा होता धूप छेकता, तुरत गाना शुरु- “घाम (धूप) छेके घमउरी, ओकर बाप बीने दउरी, दउरिया में बच्चा, सियार तोर चच्चा, गड़हिया में मूई, त केहू नाहीं छूई।” दउरी बिनने वाले नीची जाति के लोग होते थे। कमजोर जानवर सियार, गंदे पानी वाली गड़ही। कुल मिलाकर ऐसा कहो कि धूप रोकने वाला सामने से हट जाय। जाड़े में सुबह शाम गादे (मटर) की घुघरी। मटर तो इतनी रहती थी कि जब तक रहे, गादे की ही दाल बनती थी, साथ ही आए दिन गादे का पराठा बनता था। हर शनिवार को चाचा भी मुहम्मदाबाद छिली मटर ले जाते थे। मटर एक बोझा शाम को आता था। जिसमें से सुबह तक अगर मटर नहीं निकाल लिए तो बैल, भैंस के लिए मटर के दाने सहित उसकी काटी कट जाती थी। जो सुबह आठ बजे बोझा आता उसमें की मटर कभी पूरा निकाल पाते थे कभी नहीं। उस समय दुकान पर दो किलो मटर का दाना देकर एक सन लाइट साबुन (85 पैसे की) मिलता था। इन दिनों में चना, मटर, सरसों का साग भी खूब मिलता था।
खिचड़ी यानी मकर संक्रांति को बहुत औरतें गंगा स्नान करने गाजीपुर जाती थीं। साल में यही एक मौका था जो कई लोगों के साथ गाजीपुर जाने का परमीशन मिल जाता था। बगल वाली मौसी को पटाते रहते थे कि वो चलें नहीं तो बाबू न जाने देंगे। रात को ही मुहल्ले की औरतें इकट्ठा होकर चल देतीं। रास्ते भर भजन और गीत गाती हुई लगभग 10 किलोमीटर चलकर सुबह होने से पहले गाजीपुर चित्तनाथ घाट पहुंच जातीं। लौटते समय थोड़ा गाजीपुर घूमकर लौटते।

एक बार गाजीपुर सर्कस लगा था। हम लोग मौसी को खिचड़ी नहाने चलने के लिए मना तो लिए लेकिन उनकी एक शर्त थी कि अगर लौटते समय भी तुम लोग बस से न आकर पैदल ही आओगी तो हम चलेंगे वरना नहीं। हम लोग उनकी शर्त मान लिए और खिचड़ी नहाने पैदल चल दिए। चित्तनाथ घाट नहाने के बाद बाजार गए। सभी लोग कुछ न कुछ सामान खरीदे उसके बाद मौसी से कहे कि सर्कस देखने चलो न। फिर हम लोगों को गाजीपुर इसके लिए कोई नहीं आने देगा। मौसी पहले तो कहीं कि पैसा नहीं है। जब सुनी कि सर्कस के उनके भी टिकट का पैसा हमीं लोग देंगे तो एक बार तो सर्कस देखने के लिए तैयार हो गईं। फिर पता नहीं क्यों कहने लगीं कि हमें अभी और भी बाजार करना है। तुम लोग सर्कस देखकर यहीं आ जाना मैं यहीं बैठी रहूंगी। हम लोग बहुत कोशिश किए लेकिन मौसी सर्कस देखने नहीं गईं और तीन घंटे दुकान पर बैठी रहीं। हम लोग सर्कस देखकर आए और मौसी के साथ बस स्टैंड गए। इतनी देर हो चुकी थी कि मौसी बस से लौटने के लिए तैयार हो गयी थीं। हां, उनका बस का भाड़ा हम लोगों को देना पड़ा था।

खिचड़ी यानी मकर संक्रांति के दिन दोपहर चूड़ा, दही, गुड़ और चोखा खाते थे। शाम में एक तरफ लड़के और दूसरी तरफ लड़कियां कुटा हुआ नमक, मिर्चा लेकर खेत में साग खाने जाते थे। आज ही के दिन से हरी मटर खाने की शुरुआत होती थी। चने के साग की जूरी तो कमाल की बनती थी। “जनेरा क भात आ साग, बजरा क भात आ मट्ठा, चाहे बजरा क भात अवटाइल दूध आ गुड़ ” सब याद आ रहा है। जाड़े में गन्ने का रस जिसे कचरस कहा जाता है, पीने का अलग ही मजा है। गुड़ बनाते समय पहले तो महिया खाइए, उसके बाद गरम गुड़ और अंत में खुरचनी खाइए। ये शहर में कहां नसीब होगा।
एक यादव परिवार की दो बहनें फुलकेशरा और बचानी का परिवार मायके में ही बस गया था। बाद के दिनों में फुलकेशरा का परिवार धीरे धीरे अपना सबकुछ बेचकर बनारस चला गया और बचानी ज़िन्दगी भर भैंस रखकर लोगों को दूध देकर परिवार चलाती रहीं। जाड़े में वैसे भी ऐसे लोगों को थोड़ी सहूलियत रहती थी। खेतों से साग खोंटकर लातीं तो अगर बाबू साहब लोगों के घर देतीं तो उसके बदले दाल या कुछ और मिल जाता। नहीं तो साग ज्यादा चावल कम मिलाकर एक साथ बना लेतीं। बाबू साहब लोग भी अपने खेतों से साग खोंटने के लिए मना नहीं करते थे क्योंकि साग खोंटने से चने मटर में और टहनी निकल आती थीं। जिससे फसल अच्छी होती थी। एक बार बचानी दूध देने आईं और कहने लगीं-जल्दी लो बिटिया तवे पर रोटी डालकर आई हूं। कैसी रोटी है जिसे तवे पर डाल आप दूध बांटने निकली हैं। कहने लगीं- तुम न समझोगी कैसी रोटी है। एक दिन किसी काम से बचानी के घर गई थी तो थीं नहीं दरवाजा भी खुला था। चूल्हे पर एक तरफ एक कंहतरी (दूध पकाने वाला मिट्टी का बरतन) चढ़ी थी। और दूसरी तरफ तवे पर मोटी रोटी। आग नहीं जल रही थी। घर लौट ही रही थी कि बचानी आ गयीं। कहीं कि- रोटी तवे पर है लेकिन अभी पकी नहीं है। अभी उसे राख में ढक दूंगी। साग बनाई हूं खा लो या लेते जाओ घर खा लेना। साग उसी कहतरी से निकालकर दीं। उसमें तीन हिस्सा साग और एक हिस्सा चावल था। बचानी उसे सुबह अहरे पर चढ़ा कर चली गईं थीं, धीरे धीरे वो पक चुका था। क्या स्वाद था। जब तक जिन्दा रहीं घर जाने पर कहतरी की लाल सजाव दही जरुर खिलाती थीं। (यह कलेजा गरीबों के पास ही होता है  बड़े लोग तो अपना फायदा नुकसान देखने लगते हैं।) अब उनकी बहू भी ऐसा ही करती हैं।
बरसात में सावां के चावल को भिगोकर पलका बनता था। जिसे दूध में या ऐसे ही गुड़ के साथ खाते थे। ऐसे ही मकई का दर्रा भी चीनी घी मिलाकर ही बनता था। रबी की फसल में गेहूं की बाल भुनकर ऊमी का स्वाद गजब मीठा लगता था। चना, मटर का होरहा नमक मिर्चाई से खाते थे और अंत में गुड़ खाते थे कि सब पच जाय।

गरमी के दिन में जैसे ही स्कूल बंद होता था, चाचा सपरिवार गांव आ जाते थे। फिर नीरजा सुषमा और मैं बगीचे में सुबह चाय पीकर चले जाते थे। पूरे पचबखरी का बगीचा एक ही जगह था। हर घर से कोई न कोई रहता ही था। हम सभी ओल्हा पताई भी खूब खेलते थे। सबसे पहले सुरेश चाचा का बगीचा, फिर छांगुर काका का, उसके बाद बबुआ भइया का, फिर हम लोगों का, अंत में विजय भइया का। ऐसे ही टेका वाली बारी में भी क्रमश: सुरेश चाचा, छांगुर काका, विजय भइया, हमारा और अंत में बबुआ भइया का। बबुआ भइया का रोहनियवा आम सबसे पहले पकता था। सुरेश चाचा का लोढ़ियवा, छांगुर काका का बिछियवा, हमलोगों का सोनरियवा और विजय भइया का सुगउवा फेमस था। इसके अलावा करियई, करियवा, घीवहिया, सढ़ियवा, पिटहवा, मलदहिया, बइरियवा, झोपियवा आम भी था। दिन भर बगीचे में ही बीतता था। नीरजा पेड़ पर नहीं चढ़ पाती थी। सुषमा सीधे तने वाले (तरकुल जैसे) पेड़ पर बड़ी तेजी से चढ़ जाती, मैं नहीं चढ़ पाती। मैं टहनियां पकड़कर ऊंचाई तक चढ़ लेती थी। मुन्ना भइया खाना लेकर आते थे। मुन्ना भइया कभी कभी हम लोगों को दोपहर में नंगे पैर कसरत कराते थे।  छांगुर काका के बिछियवा आम के पास की घास बहुत कड़ी थी। उसी पर या सामने खेत में लेफ्ट, राइट कराते। फिर जबतक पीछे मुड़ न बोलें हमलोग आगे बढ़ते रहते। फिर लौट कर खाना खाते थे। खाने में घर से रोटी सब्जी और मिर्चें का अचार आता था। उस समय छांगुर काका के यहां से राधिका दीदी की लड़की बृन्दा (गर्मी की छुट्टी में आ ही जाती थी) भी हमलोगों के खाना खाते समय रोज आ जाया करती थी। फिर सब्जी का आलू मसलकर मिर्चें का अचार भी उसी में मिला देते थे। तीखा होने से सब्जी कम नहीं पड़ती थी, लेकिन रोटी रोज कम पड़ जाय। जिसकी पूर्ति आम खाकर हो जाता कश्ती थी। मुन्ना भइया जब तक बगीचे में रहते हमलोग टेका वाली बारी में रहते। शाम को सबलोग साथ ही घर जाते। अगर अंधेरा हो जाय तो मुन्ना भइया नेटुअवा बाबा की बात कर हमलोगों को डराते भी थे। फिर उनकी शिकायत अशोक भइया से करके उनको मार भी खिलवाते थे हमलोग। फिर उनसे हमलोग मार खाएं। ये खेल की तरह चलता रहता था।

आम पकने की शुरुवात करियवा आम से होती थी। जितना आम चूए उसे इकट्ठा किए रहते थे। बाबू या काका आते थे तो खाते थे। सब आम धीरे धीरे चूने लगा था। सोनरियवा पर सबकी नजर रहती थी। बाबू को कम पड़े तो झारकर खा लेते थे। एक दिन हम लोग कुछ आम नीचे तो कुछ खोढ़रा में रखते जा रहे थे। काका आए तो नीचे देखे तो कहे कि इतना ही आम गिरा है अभी तक? हमलोगों ने कहा कि हां। बोले- हो नहीं सकता, 10 मिनट हमको आए हुआ इतने में 10 आम गिर चुका। जरुर तुमलोग कहीं और छिपाई हो। काका शायद पेड़ पर चढ़ नहीं पाते थे और खोढ़रा भी नहीं देख पा रहे थे। जितनी बार खोढ़रे की तरफ जाते, हमलोगों की जान सूख जाती। मैंने कहा कि अभी हवा चली है, इसलिए अब ज्यादा आम गिर रहा है। जब वो चले गए तो हमलोग रखा हुआ सारा आम निकाले और खा गए और कोइली दूसरे के बगीचे की तरफ दूर फेंक दिए। नहीं तो कोइली से भी हमलोग पकड़ा जाते। आम तोड़ते समय मांटे से बचना पड़ता था। मांटा कई पत्तों को ही मिलाकर अपना घर बना लेते और उनका घर छू जाने पर हमला कर देते थे। जो स्वाभाविक था। घर जाते समय मिट्टी का घड़ा पेड़ पर किसी सूखी टहनी (जो खूंटी की तरह होती) में पलटकर रख देते थे। अगले दिन आकर उतार लेते।
बगीचे में मचान भी बनता था। जिसे ऊपर से छाने की भी व्यवस्था रहती थी। पानी पड़ने पर उस पर तिरपाल पड़ जाता था। हमलोग उसी में छिप जाते थे। आम के दिन में बाबू का गुस्सा नाक पर ही रहता था। छोटी छोटी बात पर गुस्सा जाते थे और खाना नहीं खाते थे। घर में खाना न खाएं और बगीचे में आकर आम झोरकर पेट भर खा लेते थे। रात में आम के गाद (रस) में थोड़ा राब ( गुड़ बनने से पहले ही गीला ही रखा जाता था जिससे सर्बत भी बनता था) मिलाकर रोटी से बाबू, काका और भइया लोग भी मन से खाते थे। मुझे कभी नहीं अच्छा लगा। इतना आम था कि जब न खा पाएं तो उस समय लकड़ी के पटरे पर कपड़ा बिछाकर खूब अमावट पड़ता था। जो बरसात में हमलोग खाते थे।

मेरा परिवार मध्यम किसान परिवार था। किसान को आर्थिक दिक्कत तो रहती ही है। लेकिन मां हमको कपड़े वगैरह ठीक ही दिलवाती थी। भरसक कोई कमी नहीं होने देती थी। जैसे जैसे मैं बड़ी होती गई बंदिशें बढ़ने लगीं। आठवीं की परीक्षा देते ही पीरियड भी शुरु हो गया। अब तो स्कूल और स्कूल के बाद घर। पीरियड के लिए कपड़ा भी मुश्किल से मिलता था। भाभी लोगों को भी जरुरत होती ही थी। मां कुछ पुरानी साड़ी और बाबू की फटी धोती, लुंगी आदि रखी थी उससे काम चल जा रहा था। स्कूल टाइम मतलब हाई स्कूल तक किसी तरह बीता। पुराना कपड़ा भी अब नहीं मिल पा रहा था। समाज में इसको इतना छिपा कर रखने की मान्यता थी जैसे कोई अपराध कर दिया हो। तीन दिन तक अछूत बना दिया जाता। किसी को छूते नहीं थे। मायके में तो फिर भी रसोई में चले जाते थे लेकिन भाभी लोग तीन दिन खाना नहीं बनाती थीं। किसी किसी के यहां तो बिस्तर पर सोने नहीं देते थे। जमीन में सोना पड़ता था। जाड़े के दिन में ऐसे लोगों के लिए एक कंबल अलग रहता था। जो अछूत की तरह घर के किसी कोने में रखा रहता था। खैर ये मेरे यहां नहीं था, हां चद्दर और रजाई/कंबल का कवर तीन दिन के बाद धोना पड़ता था। गांव में पीरियड में कपड़े की जगह राखी का उपयोग भी करने की बात सुनी थी। लेकिन पूछ नहीं सकते थे कि बेइज्जती होगी। उस समय जब छोटे बच्चे कहीं बाहर लैट्रिन करते थे तो उस पर राख डाल दिया जाता था। राख डालने से सफाई आसानी से हो जाती थी। फिर मैं लुंगी के मुलायम कपड़े के छोटे छोटे पैड के आकार के पैकेट बना लेते और दूधगाड़ा की राखी को गेहूं झारने वाले झरने से चालकर,उस पैकेट में भर कर, पैकेट का मुंह सूई धागे से सिलकर बंद कर देते और यही पैकेट पीरियड होने पर हम कपड़े की जगह लेते थे। शुरू में तो दिक्कत नहीं होती थी। चूंकि राख ब्लड सोख लेता था उसके बाद पूरा पैकेट कड़ा हो जाता था जिससे उसके अगल बगल का चमड़ा छिल जाता था। चलने में बहुत दिक्कत होती थी। लेकिन मजबूरी थी। धीरे धीरे आदत बन गई थी। बाद में कभी कभी पुराना कपड़ा मिल जाता था। तो उस बार पीरियड का समय आराम से कट जाता था। बाद में मां ने पुराने कपड़े और पुरानी रुई की व्यवस्था कर लिया था।

लड़कियों के बड़े होते ही उनको कुर्ते के अंदर कपड़े की कसी बनियान पहनना होता था जिससे उसका बड़ा होना लोगों की नजर से बचा रहे और उसे धोने के बाद दूसरे कपड़े के अंदर छिपाकर सुखाना होता था। सूखने के बाद भी छिपाकर रखना पड़ता था। यहां मां का एक किस्सा याद आ गया। नाना की जहां- जहां पोस्टिंग होती मां उनके साथ हमेशा शहर में रही। उसका पहनावा भी शहर का था। शादी गांव में हो गई। उस समय कपड़ा घर में नहीं धुलता था। धोबी के यहां धुलने को जाता था। एक बार मां नहाकर खाना बना रही थी। धोबी कपड़ा लेने आया। आजी मां से पूछीं कि तुम्हारी साड़ी धुलने को दे दें। मां ने कहा दे दीजिए। आजी साड़ी डारे से लपेटीं और धोबी को दे दीं। मां साड़ी के नीचे ब्रा फैलाईं थी। साड़ी के साथ वो भी धोबी के यहां चला गया। उस समय ब्रा केवल नाचने वालियां पहनतीं थीं। धोबी एक डंडे में ब्रा टांगकर गांव में घुमाया कि यह किसका है। मेरे यहां भी लाया तो आजी मां को दिखाई कि तुम्हारा तो नहीं है? मां डर के मारे कह दी कि मेरा नहीं है। जबकि ब्रा उसी की थी। अगर वह हां कह देती तो आजी मां का बुरा हाल करतीं। उसके बाद मां डरकर जो एक और ब्रा उसके पास थी भी, उसे भी नहीं पहनती थी। ) आज भी अधिकतर महिलाएं इसे कपड़ों के नीचे ही फैलाती हैं जबकि अंडरगार्मेंटस सीधे धूप में सुखाना मेडिकली जरूरी होता है।

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