शशिकान्त त्रिपाठी
रबी की फसल का अंतिम महीना और ऊपर से लॉकडाउन ज़रा सोचिए कि किसानों की क्या स्थिति होगी, सबसे पहले हम सम्पूर्णता में खेती किसानी के राजनीतिक अर्थशास्त्र की बात करेंगे फिर उसके बाद कृषि पर लॉकडाउन के कृषि प्रभावों की चर्चा करेंगे.
यह बात सर्वविदित है की भारत में लगभग 50 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि संबंधित कार्यों से जुड़ा हुई है. कृषि क्षेत्र जो अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र का हिस्सा है जिसका जीडीपी में लगभग 15 फीसदी योगदान है लेकिन उदारीकरण के बाद कृषि क्षेत्र को लगातार उपेक्षित ही किया जाता रहा है, क्योंकि डब्ल्यूटीओ के कृषि पर समझौते (Agreement on Agriculture) के चलते नीतिगत स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन आया.
इस नीति के अंतर्गत राज्य को कृषि को दी जाने वाली सहायता को धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया है जिसमें कृषि को बाज़ार के नियमो के अनुसार नियमित होने का प्रावधान था. भारत इन सभी नियमों को एक के बाद एक लागू करता गया और कृषि संकट और गहरा होता चला गया. भारत में कृषि संबंधित सब्सिडी को लगभग ख़त्म कर दिया गया है. यूरिया को छोड़कर अब किसी भी खाद पर सरकार सब्सिडी नहीं दे रही है. उसको भी आने वाले दिनों में डीबीटी से जोड़कर सब्सिडी को ख़त्म करने की योजना है. बीज भी किसानों को बाज़ार से ही ख़रीदना पड़ रहा है जिसकी क़ीमत बहुत ज़्यादा है. डीज़ल के मूल्य में लगातार वृद्धि हो रही है, इसलिए कृषि लागत आज के समय बहुत ज़्यादा हो गयी है. किसानों के फसल की क़ीमत लागत के मुक़ाबले ज़्यादा नहीं निकल पा रही है.
सामीनाथन कमेटी (2004) के अनुसार, भारत में भूमि सुधार नहीं होने के चलते पचास प्रतिशत परिवारों के पास कुल ज़मीन का सिर्फ़ तीन प्रतिशत हिस्सा ही है तो वहीं दूसरी तरफ़ सिर्फ़ दस फीसदी परिवारों के पास कुल ज़मीन का 54 फीसदी हिस्सा है जो भारत ने ज़मीन विषमता को दिखाती है। देश में 11 फीसदी परिवार भूमिहीन हैं और लगभग 40 फीसदी परिवार उप सीमांत जोत (0.01-0.99 एकड़) और 20 फीसदी परिवार सीमांत (1.00-2.49 एकड़) जोत के हैं.
जोत के हिसाब से किसानो की स्थिति बहुत ही दयनीय है और इसका सीधा असर किसानों के आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है। 1990 के बाद किसानों के आत्महत्या की दर तेज़ी से बढ़ने लगी क्योंकि उनके ऊपर ऋण का बोझ लगातार बढ़ता गया। कभी-कभी फसल का उत्पादन ठीक-ठाक होने के बाद भी किसान आत्महत्या क्यूँ कर रहे हैं ? कारण ये कि बढ़ती हुई लागत और उसका उचित लाभ ना मिलना जिसके चलते किसानों का ऋण संकट में फंसना तो एक कारण है ही और साथ ही साथ कृषि की आय किसानों के अन्य ख़र्चों जैसे बेटे-बेटियों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं, शादी विवाह इत्यादि की भरपाई नहीं कर पाने में भी असमर्थ है क्योंकि किसान इन सब खर्चो में कटौती नहीं कर सकता और फसल की क़ीमत की तुलना में इन सब खर्चो में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई है जिसका कारण स्वास्थ्य और शिक्षा और अन्य सुविधाओं का निजीकरण होना है।
किसानो की आत्महत्या की दर रुकने का नाम नहीं ले रही है, 1997 से 2012 के बीच में लगभग दो लाख पचहत्तर हज़ार किसानों ने आत्महत्या की. गृह मंत्रालय की रिपोर्ट (2016 के आँकड़े 2019 में जारी) के अनुसार, वर्ष 2016 में कुल 11,379 किसानों ने आत्महत्या की किसका मतलब प्रति माह 148 और रोज़ाना 31 किसान आत्महत्या किए।
कोरोना संकट के चलते गाँवो की तरफ़ हो रहे पलायन ने एक बार फिर से कृषि क्षेत्र को प्रमुखता से सामने लाया है. पहले से ही चरमराई हुई अर्थव्यवस्था पर लॉकडाउन का प्रभाव सीधे तौर पर देखने को मिल रहा है. रबी की फ़सल को समर्थन मूल्य से कम पर बिचौलियों के द्वारा ख़रीदा जा रहा है.
कैश क्रॉप्स की खेती करने वाले वाले किसानों की स्थिति तो और भी ख़राब हो रही है क्योंकि लॉकडाउन होने के चलते पूरी सप्लाई श्रृंखला ही टूट गयी है. जहाँ पर सप्लाई है भी वहां पर लोगों की आय ना होने के चलते खपत नहीं हो पा रही जिससे किसानों की हालत दिन प्रति दिन और भी ख़राब होती जा रही है. परिवहन सुविधा के बंद होने से छोटे किसान तो अपने फ़सल को लोकल मंडी तक भी नहीं ला पा रहे है जिसके चलते फसल बर्बाद हो रही है. लीची, आम, तरबूज़ इत्यादि पैदा करने वाले किसानों की स्थिति और भी ख़राब है. इस लॉकडाउन का सीधा असर किसानों की आय पर पड़ रहा है, जिसका असर आने वाले ख़रीफ़ की फ़सलों के उत्पादन पर होगा जो खाद्यान संकट को भी जन्म दे सकता है.
किसानों की हालत को लेकर सरकार की तरफ़ से अभी तक कोई उपाय नहीं किया है ना उनके ऊपर पहले से विद्यमान ऋण संकट को लेकर ही कोई फ़रमान जारी किया गया है. यह सरकार के कृषि क्षेत्र के प्रति उपेक्षा को दिखाता है. किसी भी संकट की सबसे ज़्यादा मार मज़दूर किसानों के ही ऊपर पड़ता है जो कोरोना संकट के समय भी सीधे तौर पर दिखाई दे रहा है.
यह सही समय है बहुराष्ट्रीय कंपनियो को समर्थन करने वाली डब्ल्यूटीओ जैसी संस्थाओ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का जिसकी नीतियों के चलते कृषि पर गहरा संकट पहले से ही बना हुआ है और कृषि पर समझौते (AoA) के ‘नीले पीले बॉक्स’ को चुनौती देने का जो राज्य के हस्तक्षेप को रोकते है।
अगर समय रहते किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं किया गया तो और भी बुरे हालत सामने आने के आसार दिखाई दे रहे हैं. अगर ज़िंदा रहने मात्र का सवाल हो तब औद्योगिक उत्पादन में इंतज़ार किया जा सकता है लेकिन कृषि उत्पादन में नहीं क्योंकि अंततः लोग खाना ही खाएँगे, स्टील, लोहा और कार तो नहीं ही खाएँगे और ये बिना कृषि उत्पादन के संभव नहीं है.
आज कृषि क्षेत्र को अलग से तरजीह देने की ज़रूरत है क्योंकि जिस तरह से शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ़ पलायन होने ही रफ़्तार चल रही है वो कृषि पर और भी विकट संकट की तरफ़ इशारा करती है जिसमें संस्थागत हस्तक्षेप करने की ज़रूरत है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार का सृजन हो जो सरकार के ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश के बिना संभव नहीं है. और साथ ही साथ किसानों के ऊपर जितने भी क़र्ज़ हैं उसको तत्काल प्रभाव से माफ़ किया जाए। शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी अन्य सुविधाओं को मुफ़्त किया जाए जिससे क़र्ज़ में पहले से ही फँसे किसानों को मदद मिल सके और आत्महत्या को रोका जा सके और भविष्य में आने वाले मानवीय संकट को टाला जा सके.
( शशिकान्त त्रिपाठी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं )