(10 दिसंबर 1957 को कोलकाता में जन्मे लाल्टू विज्ञान, कविता, कहानी, पत्रकारिता, अनुवाद, नाटक, बाल साहित्य, नवसाक्षर साहित्य आदि विधाओं में समान गति से सक्रिय हैं।
उनके हिंदी, पंजाबी और अंग्रेजी में कई अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों और विज्ञान पर सौ से अधिक आलेख और पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित हुए हैं और शिक्षा आदि विषयों पर कई शोध-आलेख पुस्तकों में शामिल किए गए हैं।
किसी भी गतिशील, आधुनिक और चेतनसम्पन्न समाज के निर्माण में वैज्ञानिक चेतना का विकास आवश्यक है। हमारे समाज में वैज्ञानिक चेतना का अभाव एक कटु यथार्थ है। समकालीन जनमत ने अपने पाठकों के लिए ‘समाज , विज्ञान और टेक्नोलोजी ‘ विषय पर लाल्टू के लेखों की शृंखला शुरू की है, जो प्रत्येक शुक्रवार को प्रकाशित हो रही है । चार लेखों की इस शृंखला में ज्ञान, विज्ञान, टेक्नोलोजी और दर्शन के बारे में विस्तृत विमर्श होगा। प्रस्तुत है इस शृंखला की दूसरी कड़ी जिसका शीर्षक है “विज्ञान : कुदरत के रंग–ढंग पर इंसान की पकड़” . सं.)
पिछले लेख में हमने ज्ञान और ज्ञान पाने पर बात की थी। हमने देखा कि सच क्या है यह जानना आसान नहीं है। जो सच दिखता है वह अक्सर इस पर निर्भर करता है कि देखने वाला कौन है, वह किस समाज, वर्ग, जाति, धर्म, जेंडर का है। हालाँकि भाषा, एहसास, तर्कशीलता और भावनात्मकता से हमें सच की तलाश में मदद मिलती है, फिर भी हर वह बात जो हम सच मानते हैं, सचमुच सत्य हो, कोई ज़रूरी नहीं। ज्ञान पाने के दीगर और तरीकों के बनिस्बत विज्ञान के जरिए हम सत्य के और ज्यादा करीब जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं। ज्ञान की निश्चितता पर सवाल उठते हैं तो जाहिर है कि विज्ञान पर भी सवाल उठेंगे।
इस लेख में हम विज्ञान क्या है, इसे समझने की कोशिश करेंगे। ‘विज्ञान’ लफ्ज़ का इस्तेमाल महज अध्ययन और जानकारी इकट्ठा करने के लिए भी होता है, इसलिए ‘राजनीति-विज्ञान’ या ‘समाज-विज्ञान’ आदि में भी यह जुड़ा है। हम इस सामान्य अर्थ में विज्ञान की बात नहीं करेंगे। विज्ञान से हमारा मतलब ऐसे बौद्धिक औजार, तरीके और जानकारियों से है, जिनका इस्तेमाल वैज्ञानिक करते हैं। आम तौर पर इसे प्रकृति विज्ञान (natural sciences) कहते हैं। वैज्ञानिक सोच और विज्ञान में फ़र्क है। एक अनपढ़ आदमी में वैज्ञानिक सोच हो सकती है, पर वह वैज्ञानिक नहीं होता। इस पर आगे और चर्चा करेंगे।
विज्ञान में अध्ययन के विषय और व्यापकता – देश-काल के पैमानों में विज्ञान के विषयों की व्यापकता हमें अचंभित और अभिभूत करती है। फिलिप और फिलिस मॉरिसन नामक वैज्ञानिक दंपति ने सत्तर के दशक में तस्वीरों के जरिए इन पैमानों को समझाने की कोशिश की और इन तस्वीरों पर फिल्म बनाई गई। इस फिल्म के कई अलग रूप ‘पावर्स ऑफ टेन (Powers of Ten – दस के घात)’ नाम से यू-ट्यूब पर मिल जाएँगे (जैसे – https://www.youtube.com/watch?v=0fKBhvDjuy0)। इन फिल्मों में रोजाना ज़िंदगी के आम पैमाने (1 मी. की लंबाई) से शुरू कर हर दस सेकंड में दस गुना बड़े बढ़ते हुए पैमाने से (यानी 10 मी., फिर सौ मी., इस तरह लगातार) दुनिया कैसी दिखती है, और फिर इसी तरह दस गुना छोटे पैमाने से (यानी 10 सें. मी., फिर 1 सें. मी., इस तरह लगातार) चीज़ें कैसी दिखती हैं, दिखलाया गया है। इनको देखकर कोई भी विज्ञान के विषयों की व्यापकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। कायनात की विशालता को देखकर हम यह मान लेना चाहते हैं कि कोई ईश्वर ज़रूर होगा, जिसने यह दुनिया बनाई है। फ़र्क यह है कि हम ईश्वर की कल्पना करते हैं, पर विज्ञान की जानकारी तर्क और प्रयोंगों के आधार पर मिली है। जाहिर है कि हममें से ज्यादातर लोग कभी नहीं जान पाएँगे कि यह सही बात है या नहीं, पर हम यह मान लेते हैं। सूक्ष्म से विशाल तक, परमाणु की नाभि में मौजूद कणों के 10-18 मीटर के सूक्ष्मतम आकार से लेकर 1028 मीटर तक कायनात के दोनों छोरों तक की जानकारी इकट्ठी करना प्रकृति-विज्ञान है।
इसी तरह अगर कायनात की शुरुआत के बड़े धमाके से लेकर अब तक के समय को साल भर के कैलेंडर में समेटा जाए तो इंसानी सभ्यता के लिए आखिरी पंद्रह मिनट ही बनते हैं। यानी अगर पहली जनवरी की शुरूआत (आधी रात) में कायनात बनती है तो मानव सभ्यता 31 दिसंबर को रात 11 बज कर पैंतालीस मिनट पर सामने आती है। विज्ञान में सबसे कम समय 10-44 सेकंड है, जिसे प्लांक टाइम कहा जाता है, यानी इतने कम समय में हो रही घटनाओं पर भी अध्ययन किया जाता है और जानकारी इकट्ठी की जाती है। इंसानी तज़ुर्बें में बहुत तेज हो रही घटनाएँ 1 सेकंड में हजार बार से ज्यादा नहीं होती होंगी। विज्ञान में एक सेकंड में अरबों-खरबों-नील-पद्म-शंख बार हो रही घटनाओं पर भी प्रयोग होते हैं। इसी तरह सबसे बड़ी अवधि योटा-सेकंड (1024 से.) और इससे भी ज्यादा की है। इसी तरह ऊर्जा के पैमानों में भी कम से कम ऊर्जा (10-34 जूल) से लेकर सारी कायनात की ऊर्जा (1069 जूल) से जुड़ी घटनाओं को विज्ञान में जाना-परखा जाता है। इस व्यापकता की वजह से विज्ञान के बारे में सही-ग़लत धारणा पनपी है कि यही इल्म का सबसे ऊँचा दर्जा है। जाहिर है कि इतने बड़े कैनवस के हर पहलू पर कोई एक आदमी सारी जानकारी नहीं पा सकता। इसलिए वैज्ञानिक अध्ययन को अलग-अलग विषयों में बाँटा गया है, जैसा कि तस्वीर में देख सकते हैं।
चित्र स्रोत : https://en.wikipedia.org/wiki/Branches_of_science
समाज-विज्ञान में देशकाल के पैमाने इतने फैले हुए नहीं हैं; इंसानी फितरत को समझने के लिए, 1 मिली मीटर से लेकर धरती से चाँद या सूरज की दूरी तक काफी हैं, और वक्त का पैमाना भी एक पल से लेकर कुछ करोड़ सालों से ज्यादा नहीं चाहिए। पर इंसानी फितरत की जटिलताएँ इतनी हैं कि ज्ञान की विधाओं में समाज विज्ञान या मानविकी किसी मायने में प्राकृतिक विज्ञान से कम नहीं आँके जा सकते हैं। फिर भी सूक्ष्मतम से विशालतम तक विज्ञान की पहुँच किसी पर भी गहरा असर डालती है और कहे बिना रहा नहीं जाता कि यह विज्ञान का युग है।
प्रकृति के रूप :
कुदरत के रंग अनोखे हैं। इसलिए इसे जानने की चाह हर इंसान में है। हर पैमाने पर, हर खित्ते में, हमें ये अनोखे रूप दिखते हैं। कुछ तस्वीरों में रूपों की विविधता देखिए।
कायनात और खगोली रूप : गुरुत्वाकर्षण और कभी-कभी विद्युत-चुंबकीय आकर्षण से बने पिंड, जैसे धूमकेतु उपग्रह, ग्रह, तारे, तारामंडल, नीहारिका आदि। जैसा नीचे की तस्वीर में देख सकते हैं, इन सभी को अलग वर्गों में रखा जा सकता है।
दिखती कायनात में धरती (चित्र : https://www.youtube.com/watch?v=H9s8q-sG5BM)
धरती पर रूप-विविधता : खगोली विशालता की तुलना में बहुत छोटे पैमाने पर हम धरती की सतह पर कई किस्म की रचनाएँ देख सकते हैं। भू-वैज्ञानिक इनको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर इनका अध्ययन करते हैं।
चित्र विकीपीडिया से
जीव–जगत :
चित्र विकीपीडिया से
जीव जगत में वर्गीकरण से हर कोई परिचित होगा। विज्ञान की हर शाखा में वर्गीकरण एक ज़रूरी पद्धति है। जीव-जगत से आगे और सूक्ष्म-स्तर पर हम किसी एक पौधे या प्राणी की कोशिकाओं में जाकर विविधताएँ देख सकते हैं। उससेे भी आगे अणुओं-परमाणुओं-नाभि में विविध प्रकार की रचनाएँ देख सकते हैं। वर्गीकरण सिर्फ देश या स्थान के विस्तार में मौजूदा जानकारियों का ही नहीं, समय के साथ हो रही अलग-अलग घटनाओं का भी किया जाता है। जैसे धरती पर प्राणियों के विकास और सतह की रचनाओं में समय के साथ बदलाव को अलग-अलग युगों में बाँटकर देखा जाता है (जैसे – पैलीओसीन, जुरासिक, आदि)। पिछले तक़रीबन दस हजार सालों से हम होलोसीन युग में हैं। इंसानी प्रभावों से आ रहे बड़े बदलावों की वजह से अब कहा जा रहा है कि पिछले सत्तर सालों से हम ऐंथ्रोपोसीन युग में आ गए हैं (ऐंथ्रोपोस यानी इंसान)। इसी तरह कायनात की शुरूआत से आज तक, जिस तरह अलग-अलग क्रियाओं से कणों से लेकर ग्रह-तारे तक का सफर हमने किया है, इसे भी समय के अलग युगों में बाँटकर अध्ययन किया जाता है।
हर स्तर पर वर्गों में बाँटकर अध्ययन किया जाता है और साथ ही एक शाखा से मिली जानकारी का इस्तेमाल दूसरी शाखाओं में भी होता है। लंबे अरसे से कोशिश है कि छोटे-बड़े किसी भी पैमाने पर हो रही घटनाओं को एक ही थीओरी या सिद्धांतों से समझा जा सके, पर अभी तक यह मुमकिन नहीं हो पाया है।
वैज्ञानिक पद्धति : आम तौर पर प्रायोगिक विज्ञान में इंडक्शन या अनुगमन की युक्ति का इस्तेमाल होता है। अलग-अलग अवलोकनों के आधार पर अनुमान लगाए जाते हैं। इन अनुमानों को सोचे-समझे प्रयोगों के जरिए परखा जाता है। फिर हम कुदरत के नियमों को जान पाते हैं और सही अनुमान को समझते हुए वैज्ञानिक सिद्धांत तक का सफर तय करते हैं। पिछले लेख में हमने डीडक्शन या निगमन और इंडक्शन के बारे में समझाया था। यहाँ एक तालिका के जरिए इसे और स्पष्ट करते हैं –
डीडक्शन (निगमन ) | इंडक्शन (अनुगमन ) |
परिभाषा | |
आम मान्य जानकारी से खास तथ्य तक जाने की युक्ति | एक के बाद एक खास जानकारियों से आम तथ्य तक जाने की युक्ति |
उदाहरण | |
गर्म करने पर धातु का आयतन बढ़ता है
A एक धातु है इसलिए गर्म करने पर A का आयतन बढ़ेगा |
गर्म करने पर धातु A का आयतन बढ़ता है
गर्म करने पर धातु B का आयतन बढ़ता है गर्म करने पर धातु C का आयतन बढ़ता है इसलिए गर्म करने पर किसी धातु का आयतन बढ़ता है |
अधिक निश्चित ज्ञान | अधिक जानकारी |
इंडक्शन की तुलना में कम जानकारी | डीडक्शन की तुलना में कम निश्चित ज्ञान |
डीडक्शन और इंडक्शन दोनों में समस्याएँ हैं। डीडक्शन में पहले से एक सच मान लिया गया है। वह सच क्यों है, इस पर सवाल खड़ा करने पर हमें और गहरा अध्ययन करना पड़ेगा। इंडक्शन में A, B, C … आदि की जानकारी हमें है, पर ऐसा हो सकता है कि कल कोई नई धातु का पता चले जिसे गर्म करने पर आयतन न बढ़े।
अनुमान से सिद्धांत तक : विज्ञान-कर्म सामुदायिक गतिविधि है। अक्सर हम किसी खोज को एक या दो-एक शख्स के नाम जोड़ देते हैं, पर दरअसल हर खोज लंबे समय तक कई सारे वैज्ञानिकों की अथक मेहनत का नतीजा होती है। शुरुआत कुदरत की किसी विचित्र खासियत पर दर्ज़ किए गए अवलोकनों से होती है। मसलन सूरज का उगना और अस्त होना हर कोई देखता है। इसे देखकर यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि सूरज धरती के चारों ओर घूमता है। अतीत में चिंतकों ने आकाश में ग्रहों, तारों को भी देखा और एक अनुमान यह हुआ कि धरती कायनात के केंद्र में है और बाकी सभी ग्रह और तारे इसके चारों ओर घूमते हैं। टोलेमी नामक ग्रीक ज्योतिर्विज्ञानी के नाम पर यह मॉडल जाना जाता है। धर्म के आधार पर सत्ता पर धाक जमाने वालों के लिए यह अच्छा औजार था क्योंकि इससे यह धारणा बनी कि इंसान खुदा का सबसे प्रिय प्राणी है और इसलिए धरती एक खास जगह है, जिसके चारों ओर बाक़ी कायनात घूमती है। पर आकाश को देखने वालों में धीरे-धीरे यह समझ बनी कि अगर बाक़ी ग्रह धरती के चारों ओर घूमें तो हिसाब सही बैठता नहीं है। जैसे शुक्र ग्रह, जिसे हम साल भर देख सकते हैं, वह आकार में घटता-बढ़ता दिखता है। यानी धरती को केंद्र में रखकर घूमने का मॉडल काम नहीं कर सकता। ऐसी कई बातों को दर्ज़ किया गया और एक नया अनुमान सामने आया कि धरती और शुक्र जैसे ग्रह सूरज के चारों ओर घूमते हैं। दक्षिण एशिया, चीन, ईराक वगैरह मुल्कों में से होते हुए ये बातें यूरोप पहुँचीं और अंतत: पंद्रहवीं सदी में कोपरनिकस ने नया मॉडल पेश किया। गैलीलियो ने अपनी दूरबीन से और कई अवलोकन दर्ज़ किए, केप्लर ने ग्रहों के घूमने के नियम लिखे और सतरहवीं सदी में न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का इस्तेमाल कर इसे वैज्ञानिक सिद्धांत का जामा पहनाया। अनुमान से सिद्धांत तक के इस सफर में एक हजार साल से ज्यादा वक्त लगा; कमज़ोर सही, पर दूरबीन की टेक्नोलोजी की मदद काम आई; टाइको ब्राहे जैसे कुछ ज्योतिर्विज्ञानियों की जानें गईं (गैलीलियो खुद बमुश्किल बचे)।
विज्ञान का हर इंकलाब कमोबेश ऐसा ही होता है, बस यही कि पहले सैंकड़ों साल लगते थे तो अब कुछ दशकों में ही बड़ा बदलाव हो जाता है।
वैज्ञानिक पद्धति की खासियत: वैज्ञानिक पद्धति की कुछ व्यावहारिक और कुछ दार्शनिक खासियतें हैं, जो पद्धति के रूप में ज्ञान पाने के दूसरे तरीकों से इसे अलग करती हैं।
- व्यावहारिक स्तर पर विज्ञान में उन्हीं सवालों पर खोजबीन होती है, जो कुदरत में हैं। इंसान ने अपनी हरकतों से जो सवाल पैदा किए हैं, जैसे माली हालात के सवाल आदि, के लिए विज्ञान की भाषा और वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, पर वे विज्ञान के सवाल नहीं हैं।
- किसी भी घटना पर अवलोकनों को दर्ज़ कर उस पर अनुमान लगाए जाते हैं।
- ये अनुमान ऐसे होने चाहिए जिन्हें परीक्षण द्वारा जाँचा जा सके। जैसे एक पंछी की तान उसे अपने माँ-बाप से मिलती है या वह अपने आप सीखता है, इन दो अनुमानों को जाँच कर सही या ग़लत साबित किया जा सकता है। पंछी के अंडे को किसी और प्रजाति के पंछी के घोसले में रखा जा सकता है, और जन्म लेने के बाद बच्चे की धुन से पता चल सकता है कि धुन परिवेश से अपने माँ-बाप से मिली है। जिन अनुमानों का परीक्षण नहीं हो सकता, वे विज्ञान के दायरे के बाहर हैं।
- जाँच के द्वारा जो आँकड़े मिलते हैं उनके मुताबिक किसी अनुमान को स्वीकार और दूसरे को अस्वीकार किया जाता है।
- लगातार प्रयोगों के द्वारा हम उन कुदरती नियमों को जान सकते हैं, जिनके मुताबिक वे घटनाएँ होती हैं, जिनका अध्ययन किया जा रहा है।
- कुदरत में हो रही एक ही घटना को कई तरह के सिद्धांतों से समझाया जा सकता है, पर इनमें से कौन सा सिद्धांत सही है, इसे कैसे तय करें? पारंपरिक तरीका यह है कि किसी एक घटना से जुड़ी और दूसरी घटनाओं को हम किस हद तक समझ पाते हैं, आगे हो सकने वाली और घटनाओं के बारे में क्या कुछ पहले से कह पाते हैं, प्रयोगों द्वारा वह सही दिखता है या नहीं – ऐसे पता चलता है कि सही वैज्ञानिक सिद्धांत कौन सा है।
- इंसान से जुड़ी जिस्मानी बातों पर भी उसी तरह जानकारी इकट्ठी की जाती है जैसी बेजान चीज़ों पर होती है।
- हर वैज्ञानिक खोज आगे नई दिशाएं बनाता है, नए प्रयोग सोचे जाते हैं और नई खोजों की राहें बनती हैं।
यानी कि विज्ञान में बार-बार किए अवलोकन (प्रत्यक्ष), इनके आधार पर किए अनुमान, भिन्न अनुमानों पर आधारित प्रयोग, प्रयोगों में पाई जानकारी के आधार पर बनाए गए नियमों और आखिर में सिद्धांत तक पहुँचने की एक शृंखला है। मसलन कोई भी चीज़ अणुओं-परमाणुओं की बनी है, और ये कण एक दूसरे से अलग विचरते हैं, इस धारणा को वैज्ञानिक सिद्धांत बनने में तक़रीबन दो हजार साल लगे। अणुओं की कल्पना कणाद और दीमोक्रितुस जैसे मनीषियों ने की थी, पर जो रोज़ाना की चीज़ें हम इस्तेमाल करते हैं, उनमें अणुओं की भूमिका क्या है, इसे समझने में अरस्तू से डाल्टन तक की लंबी यात्रा है। अरस्तू का अनुमान था कि चीज़ों में कण एक दूसरे में समाए हुए हैं और दीमोक्रितुस आदि का अनुमान था कि अणु एक दूसरे से अलग हैं। सैंकड़ों सालों तक प्रयोगों के आधार पर रासायनिक क्रियाओं के नियम बने। इनके बनने में बहुत छोटी मात्राों के मापन की, काँच के बर्तनों की और कम दबाव की टेक्नोलोजी की (वैक्यूम या शून्य, जो दरअसल वायुमंडल के दाब से एक लाख गुना कम होता है; आज कल इससे भी हजार गुना कम दाब, अल्ट्रा-वैक्यूम, तक आसानी से जा सकते हैं) महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके बाद आए डाल्टन के सिद्धांत को हम वैज्ञानिक सिद्धांत कहते हैं। इसके सौ साल बाद ही पदार्थ की संरचना के नए सिद्धांत सामने आ गए (क्वांटम गतिकी)। पुराने सिद्धांतों की सीमाओं को समझ कर निरंतर नए सिद्धांतों का आते रहना विज्ञान में लाजिम है।
इसी तरह परमाणु में नाभि और नाभि के बाहर क्या कुछ है, इसकी साफ समझ सौ साल पहले ही बनी। जो कुछ देखा गया था, उससे अनुमान निकले कि कैसे कण परमाणु के अंदर हो सकते हैं। अलग अनुमानों में से एक सही सिद्धांत का चयन रदरफोर्ड के प्रयोग के बाद ही संभव हुआ, जिसमें सोने की पतली परत पर रेडियोसक्रिय आल्फा कणों को टकराया गया और यह देखा गया कि अधिकतर आल्फा कण या तो सीधे परत में से निकल जाते हैं या उनके गति-पथ में थोड़ा बदलाव आता है, पर कुछेक बिल्कुल सीधे वापस मुड़ आ जाते हैं। यानी परमाणु में बहुत ही छोटे से केंद्र में एक तरह के और उसके बाहर दूसरी तरह के कण हैं।
वैज्ञानिक पद्धति की यह विशेषता है कि एक जैसी परिस्थितियों में अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग जगह पर अलग-अलग समय पर एक ही परीक्षण के निष्कर्ष एक-समान होना लाजिम है।
परिमाणात्मक मापन : अध्ययन के लिए उपयुक्त परिमाणात्मक मापन होना लाजिम है। यानी सिर्फ गुणात्मक नहीं, परिमाणात्मक आँकड़े होने चाहिए। मानविकी में हम हमेशा परिमाण या मात्रा की बात नहीं करते। किसी कविता या कला की खूबसूरती का कोई पैमाना नहीं हो सकता। अगर समाज-विज्ञान या अर्थशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल हो, तो परिमाणात्मक मापन लाजिम होता है।
नियंत्रित मापन : जिन राशियों को मापा जाता है, उन पर नियंत्रण होना भी लाजिम है। मसलन अगर तापमान में बदलाव किया जाए तो इसका प्रभाव देखने के लिए साथ में किसी और राशि में बदलाव नहीं हो सकता। इसी तरह कोई दवा कारगर है या नहीं, इसके लिए एक ही मर्ज़ के अलग-अलग रोगियों को असली दवा और वैसा ही दिखता कुछ और जाली देकर, देखा जाता है कि दवा के असर में फ़र्क है या नहीं। अगर फ़र्क नहीं है, तो दवा कारगर नहीं है।
दार्शनिक पहलू :
लॉजिकल इम्पीरीसिज़्म या पॉज़िटिविज़म (Logical Empiricism/ Positivism) : हालाँकि बाद के लेखों में हम देखेंगे कि विज्ञान और टेक्नोलोजी के बीच सीधा रिश्ता नहीं है, उन्नीसवीं सदी के आखिर तक यूरोप में तेजी से हुई औद्योगिक तरक्की का सेहरा विज्ञान के माथे पर था। हर तरह के चिंतन को श्रेष्ठ ठहराने के लिए उसमें विज्ञान तलाशा जाने लगा था। बीसवीं सदी की शुरूआत में दार्शनिकों में पुरजोर बहस जारी थी कि विज्ञान क्या है। लॉजिकल पॉज़िटिविज़म या तर्क आधारित प्रत्यक्ष ज्ञान ही श्रेष्ठ या सच है, यह धारणा बढ़ रही थी। पॉज़िटिविज़म और इम्पीरीसिज़्म लफ्ज़ों में फ़र्क है। सरल शब्दों में पॉज़िटिविज़म वैज्ञानिक पद्धति को श्रेष्ठ मानता है, इम्पीरीसिज़्म प्रत्यक्ष तज़ुर्बे के अलावा किसी भी ज्ञान को खारिज करता है। पर सूक्ष्म और स्थूल, हर स्तर पर हमेशा प्रत्यक्ष तज़ुर्बा होना नामुमकिन है, इसलिए सीमित तज़ुर्बों को गणित और तर्क में बाँध कर सैद्धांतिक समझ बनाना ज़रूरी है। गहराई से समझने के लिए पाठक यहाँ पढ़ सकते हैं – https://plato.stanford.edu/entries/logical-empiricism
फॉल्सिफाएबिलिटी (falsifiability) : नात्सी जर्मनी से भाग कर इंगलैंड आकर बसे कार्ल पॉपर ने कहा कि विज्ञान के दर्शन में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो कुछ वैज्ञानिक है और जो नहीं है, इनको हम अलग कैसे करें। वैज्ञानिक सिद्धांत की बड़ी खासियत यह है कि हम ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं, जब वह सिद्धांत ग़लत साबित हो सके। इस बात को उसने फॉल्सिफाएबिलिटी (falsifiability) कहा। फॉल्स यानी ग़लत और फॉल्सिफिकेशन यानी किसी बात को ग़लत दिखाना। यानी लॉजिकल पॉज़िटिविज़म तो है, पर जब तक कोई सिद्धांत फॉल्सिफाएबल न हो, उसे वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। मसलन ईश्वर का होना दुनिया को समझने का एक तरीका है, कोई कह सकता है कि जो कुछ हम देखते-जीते हैं, वह प्रमाणित करता है कि ईश्वर है। पर यह वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है, क्योंकि हम ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते, जहाँ यह ग़लत साबित हो सके। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत वैज्ञानिक सिद्धांत है, क्योंकि इसे ग़लत साबित करने के लिए खिड़की से छलाँग लगाते हुए नीचे न गिरकर ऊपर की ओर जाना सोचा जा सकता है। अगर कोई छलाँग लगाते हुए ऊपर की ओर जा पाता तो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत ग़लत साबित हो जाता। पर किसी का भला हो या बुरा हो, किसी भी हाल में हम ईश्वर के होने को नकार नहीं सकते। भले हालात में ईश्वर हम पर दया कर रहै है और बुरे हालात में वह हमारी परीक्षा ले रहा है।
अक्सर तरक्कीपसंद लोगों को पॉपर के नाम से समस्या आती है, क्योंकि उसने इस तर्क पर मार्क्सवाद को गैरवैज्ञानिक ठहराया था कि मार्क्स के अनुयायी उनके निष्कर्षों को सही न देखने पर कोई नई व्याख्या करते हुए सही ठहराने की कोशिश करते हैं। इस पर काफी बहस हुई है और बाद में पॉपर ने भी अपने कट्टर मार्क्स-विरोध में थोड़ी नरमी दिखलाई है।
कुन (Kuhn) और पैराडाइम शिफ्ट (Paradigm Shift) : पॉपर और दूसरे वैज्ञानिक इस आधार पर अपनी बातें रख रहे थे कि विज्ञान ज्ञान पाने का एक अनोखा तरीका है, जो देश-काल या सामाजिक-ऐतिहासिक हालात पर निर्भर नहीं करता है। हार्वार्ड यूनिवर्सिटी से फिज़िक्स में पी एच डी कर दार्शनिक सवालों की ओर मुड़े थॉमस कुन ने 1962 में ‘स्ट्रक्चर ऑफ साइंटिफिक रीवोल्यूशन्स (विज्ञान के इन्कलाबों की संरचना)’ नामक एक किताब लिखी, जिससे विज्ञान के सामाजिक पहलुओं और दर्शन का अध्ययन करने वालो में तहलका मच गया। कुन ने वैज्ञानिक खोजों के इतिहास को गहराई से देखा। उसका निष्कर्ष था कि ज्यादातर वैज्ञानिक अपने वक्त के मान्य सिद्धांतों के दायरे में ही काम करते हैं। ऐसे विज्ञान-कर्म को कुन ने नॉर्मल साइंस यानी आम विज्ञान और मान्य सिद्धांतों को पैराडाइम कहा। कभी-कभार कोई वैज्ञानिक खोज ऐसी हो जाती है जो मान्य सिद्धांतों के मुताबिक समझी नहीं जा सकती। यह ऐनोमली या गड़बड़ (विसंगति) है। जब ऐसी कई सारी विसंगतियाँ इकट्ठी हो जाती हैं तो कुछ वैज्ञानिक मान्य सिद्धांतों पर सवाल उठाते हैं और नए सिद्धांतों की तलाश शुरू होती है। जब नए सिद्धांत को वैज्ञानिक समुदाय मान लेता है, तो यह पैराडाइम शिफ्ट कहलाता है। इसे सरल ढंग से समझाने के लिए कई वीडियो यू-ट्यूब पर हैं, जैसे https://www.youtube.com/watch?v=3cp6pEzx3uw । पैराडाइम शिफ्ट के साथ विज्ञान में संरचनात्मक इंकलाब आते हैं। सूर्य-केंद्रिक ग्रह-मंडल, परमाणुओं से पदार्थ की संरचना, जैविक विकास का सिद्धांत, क्वांटम गतिकी आदि ऐसे इंकलाब की मिसाल हैं।
पैराडाइम के सिद्धांत ने विज्ञान के आलोचकों को मानो खुली छूट दे दी। चौतरफा हमला शुरू हुआ कि विज्ञान सामाजिक-राजनैतिक प्रभावों से मुक्त नहीं है। दूसरे विश्व-युद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी और बाद में अमेरिका और रूस के बीच शीतयुद्ध से यूरोप में फैले ख़ौफ़ के माहौल, और पर्यावरणके विनाश जैसी आधुनिक जीवन की तमाम दीगर मुश्किलों की वजह से इस आलोचना को और ताकत मिली। कुन ने इसका जवाब देने की भरसक कोशिश की, पर वैज्ञानिकों का अपने वक्त के पैराडाइम से बँधे रहने का सिद्धांत बना रहा। इसमें कई तरह की और बातें जोड़ी गईं, जैसे इमरे लाकातोस ने कहा कि विज्ञान-कर्म कुछ विशेष रीसर्च प्रोग्राम होते हैं, नई खोजों के साथ इन प्रोग्रामों के तहत ऊपरी स्तर पर मान्य सिद्धांतों में ऊपरी स्तर पर बदलाव किए जाते हैं, पर किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की बुनियाद (कोर) नहीं बदलती।
अक्सर खोज के पूर्वाभास में वैज्ञानिक जाने-अंजाने ऐसी कल्पनाएँ करते हैं, जिनका वैज्ञानिक पद्धति से कोई लेना-देना नहीं होता। इसे ‘context of discovery (खोज का प्रसंग)’ मान कर, ‘context of justification (औचित्य का प्रसंग)’ की तार्किकता से अलग किया जा सकता है।
विज्ञान पर कोई आखिरी राय आ गई हो, ऐसा नहीं है, पर पिछली सदी में काफी हद तक विज्ञान पर अच्छी समझ बनी है, जिसका जिक्र हमने किया है। लाकातोस के बाद कई और दार्शनिकों ने समझ आगे बढ़ाई है। बहस जारी है। जिन्हें इस विषय में रुचि है, वे सामीर ओकाशा की ‘फिलोसोफी ऑफ साइंस’ और सुंदर सारुक्काई की ‘ह्वाट इज़ साइंस’ पढ़ सकते हैं।
दृश्य में द्रष्टा: ज्ञान-विज्ञान की सभी बातों की मुख्य समस्या यह है कि हम मान रहे हैं कि जो कुछ देखा-जाना जाता है उसे हम अपने से अलग कर सकते हैं। यह विवादास्पद है। दृश्य में द्रष्टा के शामिल होने की समस्या ज्ञान पाने में सबसे बड़ी बाधा है। प्रकृति विज्ञान में काफी हद तक इससे बचा जा सकता है, क्योंकि हम खुद प्रयोगों के आँकड़े दर्ज़ न कर मशीनों का इस्तेमाल कर सकते हैं। पर मानव-विज्ञानों में इससे निजात असंभव है। इसलिए हर निष्कर्ष को समझते हुए पहले जिज्ञासु की पहचान करनी ज़रूरी है। इस शृंखला के आखिरी लेखों में हम इस पर और विस्तार से बात करेंगे। गहराई तक जाने पर हम जानते हैं कि विज्ञान में भी सूक्ष्म स्तर पर यानी अणु-परमाणुओं के गुणधर्मों पर द्रष्टा का प्रभाव पड़ता है। पर आम वैज्ञानिक खोजों में यह प्रभाव नहीं दिखता है, जबकि समाज विज्ञान में आम तौर पर खोज करने वाले की पहचान शोध के निष्कर्ष में दिखती है। विज्ञान में प्रयोगों के चयन और आंकड़ों के विश्लेषण में पूर्वाग्रह हो सकते हैं, इसलिए अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग जगह पर अलग-अलग समय पर परीक्षण ज़रूर हो जाता है। इसके बावजूद यह कहना सही नहीं है कि वैज्ञानिक निष्कर्ष हमेशा पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हैं।
विज्ञान की भाषा : सिद्धांत तक पहुँचने के लिए गणित के जरिए अमूर्त विवरण ज़रूरी है। अमूर्तन तब तक जटिल लगता है, जब तक हमें भाषा नहीं आती, जैसे आधुनिक कला या साहित्य उनकी समझ से परे होता है, जो इसकी भाषा नहीं समझते। भाषा के नियमों की समझ होने पर पता चलता है कि जटिलता को सहज बनाने के लिए अमूर्तन ज़रूरी होता है। ऐसा हमेशा मुमकिन नहीं होता है। मनोविज्ञान, मानव-विज्ञान जैसे विषयों में हमेशा गणितीय विवरण मुमकिन नहीं है, पर आदर्श भाषा गणित की ही है। पिछली सदी से बहुत सारा काम सैद्धांतिक या गणना का हो रहा है और इनसे मिले निष्कर्षों का प्रयोगों में या प्रयोग तय करने के लिए इस्तेमाल हो रहा है। गणित विज्ञान की भाषा है। गणितज्ञों के लिए यह बात रुचिकर नहीं भी हो सकती है, पर ऐसा है। जो लोग जीव-विज्ञान के लिए गणित को गैर-ज़रूरी समझते हैं, वे न केवल ग़लत हैं, बल्कि ऐसी भ्रामक बात फैलाने के लिए अपराधी हैं। मानविकी में, खास तौर पर साहित्य और कला में, अमूर्तन अनेकार्थी होता है, पर विज्ञान में गणित का इस्तेमाल स्पष्ट मायनों के लिए किया जाता है। गणित की अलग-अलग पद्धतियों का इस्तेमाल होता है और अक्सर बड़े सवालों को सहज और सुंदर ढंग से कहा जाता है। इसके लिए गणित में महारत ज़रूरी हो जाती है, इस वजह से विज्ञान का एक एलीट स्वरूप दिखता है। जाहिर है कि गैरबराबरी वाले समाज में यह बड़ी समस्या हो जाती है।
विज्ञान के मॉडल और उनकी आलोचना :
कुदरत के जटिल खेल को सीमित दायरों में घेरकर टुकड़ों में मॉडल बनाना आधुनिक विज्ञान की नींव है। यह सरलीकरण की पद्धति (Reductionism) विज्ञान की ताकत भी है और सीमा भी है। दरअसल विज्ञान को संपूर्ण मीमांसा की तरह न जानकर उसे महज न्यूनीकरण के यांत्रिक औजारों तक सीमित करना (Reduction) कई समाज-विज्ञानियों की अधकचरी समझ रही है। जटिल को समझने के लिए टुकड़ों में देखना एक औजार ज़रूर है, पर यह मीमांसा का एक पक्ष मात्र है, कहानी यहाँ खत्म नहीं होती है। मसलन हम पारिस्थिक संतुलन को समझने के लिए पूरे जीव-जगत का मॉडल बनाने की कोशिश करें तो कभी सफल नहीं हो पाएँगे। इसके लिए एक छोटा मॉडल दो जानवरों का हो सकता है, जैसे लोमड़ी और खरगोश। लोटका ने 1921 में इस तरह का मॉडल बनाया। इसे प्रे-प्रीडेटर (शिकार-शिकारी) मॉडल कहा जाता है। अगर बहुत सारी लोमड़ियाँ हों या बहुत कम खरगोश हों तो दोनों जानवर जल्दी ही खत्म हो जाएँगे। पर अगर दोनों अच्छी तादाद में हों तो एक संतुलित स्थिति बनती है, जिसे हम इस चित्र से समझ सकते हैं।
बायीं ओर के चित्र में x-अक्ष पर समय और y-अक्ष पर प्राणियों की संख्या दिखलाई गई है। दायीं ओर के चित्र में x-अक्ष पर लोमड़ियों (x) और y-अक्ष पर खरगोशों की तादाद (y) दिखलाई गई है। संतुलन होने पर वक्त के साथ प्राणियों की संख्या कम अधिक होती है, पर दोनों प्राणी ज़िंदा रहते हैं। यह एक गणितीय मॉडल का हल है। यहाँ x और y दो राशियाँ हैं, जिनमें अरैखिक समीकरणों के अनुसार बदलाव होते हैं। एक वैज्ञानिक इन चित्रों में आकार (ज्यामिति) देखता है, उन्हें अलजेबरा से समझता है। फिर वह राशियों में बदलाव को समझता है, जिसके लिए कैलकुलस का गणित है। अगर मॉडल में राशियों में संयोग का पुट भी होता तो चित्र में रेखाएँ इतनी सहज न दिखतीं और उनमें थोड़ा बहुत खुरदरापन दिखताऔर समझने के लिए हमें स्टैटिस्टिक्स यानी सांख्यिकी का इस्तेमाल करना पड़ता। संयोग से बचें तो आज कंप्यूटर पर यह गणना तक़रीबन एक सेकंड में की जा सकती है। इस एक सेकंड में मिले आँकड़ों से हम कुदरत में जीव-जगत में संतुलन को समझने की शुरूआत करते हैं। जाहिर है कि यह बचकानी सी कोशिश लगती है, पर जटिल को समझने की शुरूआत सहज मॉडल के जरिए करना इंसान की फितरत में है। विज्ञान में भी यही बात है। जैसे-जैसे हम सरल से जटिल की ओर बढ़ते हैं, मॉडल और जटिल होता जाता है और गणना मुश्किल होती जाती है। एक अच्छा वैज्ञानिक इस बात को जानता है और इसलिए अपने काम पर बात करते हुए वह पहले अपनी पूर्व-धारणाओं (assumptions) को बतलाता है। जब हम सूक्ष्मतर द्वंद्वों की ओर बढ़ते हैं तो मॉडल में और बातें जोड़नी पड़ती हैं – यह वैज्ञानिक पद्धति का हिस्सा है। इंसान की सामान्य सोच भी कुदरती तौर पर ऐसी ही होती है। इसलिए जिन्हें लगता है कि जटिल को सहज संरचना में देखना मात्र ही विज्ञान है, वे वैज्ञानिक पद्धति को बिना जाने ही अनुमान लगा रहे होते हैं।
मॉडल बनाना विज्ञान का महत्वपूर्ण अंग है। भारत में कोरोना की बीमारी के आँकड़ों को देख सकते हैं। तरह-तरह के मॉडल सामने आए और इनके जरिए यह देखा गया कि लॉक-डाउन होने या न होने से क्या कुछ हो सकता है।
प्रकृति–विज्ञान और छद्म–विज्ञान (सूडोसाइंस):
विज्ञान के दर्शन में एक बड़ा सवाल डीमार्केशन यानी यह फ़र्क करने का है कि क्या विज्ञान है और क्या नहीं है। जब कोई बात विज्ञान के दायरे की न हो, पर उसे जबरन वैज्ञानिक कहा जाए तो इसे सूडो-साइंस या छद्म-विज्ञान कहते हैं। छद्म-विज्ञान को विज्ञान ठहराने के लिए जान-बूझ कर अस्पष्टता लाई जाती है। मन-मर्जी के अपवाद माने जाते हैं। किसी दावे को बार-बार प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की गुंजाइश नहीं होती है।
ज्योतिष-शास्त्र और होम्योपैथी छद्म-विज्ञान हैं। ‘छद्म’ या ‘सूडो’ के इस्तेमाल से कई लोगों को आपत्ति हो सकती है, पर इसे सिर्फ इस अर्थ में लेना चाहिए कि यह विज्ञान से इतर उन बातों को, जो विज्ञान नहीं हैं, उन्हें विज्ञान कहे जाने पर रोक लगाने के लिए है। आयुर्वेदिक या और पारंपरिक दवाओं पर वैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं और कइयों को विज्ञान-सम्मत पाया गया है, पर आयुर्वेद के दार्शनिक आधार (कफ, वात और पित्त के अनुसार जिस्म की पहचान और इनमें असंतुलन होने से बीमारी होना आदि) को छद्म-विज्ञान कहा जाएगा। अक्सर इस बात को समझे बिना कि सभी दवाओं को वैज्ञानिक रूप से ग़लत नहीं कहा जा रहा है, लोग आयुर्वेद के बचाव में बहस करने लगते हैं। इसी तरह ज्योतिर्विज्ञान और ज्योतिष-शास्त्र (नक्षत्रों के प्रभाव से भविष्य निर्णय आदि) में फर्क है।
आयुर्वेद या योग के दार्शनिक आधार का विज्ञान की विशेषताओं से कोई लेना-देना नहीं। शरीर में कफ-वात-पित्त का संतुलन बिगड़ जाए तो रोग होते हैं। यह एक सिद्धांत है, पर यह वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है। इससे इस सिद्धांत का महत्व कम नहीं हो जाता, पर अगर कोई ज़बरन इसे वैज्ञानिक कहे तो वह धोखेबाजी है। आयुर्वेद में काम ली जाने वाली कई दवाओं और योग अभ्यासों को वैज्ञानिक तरीकों से परखा गया है और उन्हें उपयोगी पाया गया है। ऐसा होम्योपैथी के लिए नहीं कहा जा सकता। होम्योपैथी का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और होम्योपैथी की दवाओं को वैज्ञानिक तरीकों से परखने पर उनका कोई ऐसा गुण नहीं मिला है जिससे कि रोग का निदान होता हो।
सिर्फ इस वजह से कि अनगिनत लोगों को होम्योपैथी से फायदा पहुँचता है, यह मान्यता वैज्ञानिक पद्धति नहीं कहला सकती। कुछ ही लोगों के तज़ुर्बे में बार-बार किसी बात का होना मात्र, जैसे कई लोगों की नज़र में होम्योपैथी दवाओं का कारगर होना, वैज्ञानिक होने की कसौटी नहीं है।
इस विषय पर गंभीर चर्चा के लिए स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की वेबसाइट https://plato.stanford.edu/entries/pseudo-science/ पर दी गई सामग्री पढ़ें।
विज्ञान में अनिश्चितता : एक आम ग़लत धारणा है कि वैज्ञानिक प्रयोगों में एक ही और सठीक जवाब मिलते हैं। दरअसल मापन में
अनिश्चितता को समझना वैज्ञानिक प्रशिक्षण में पहला पाठ है। विज्ञान में तीन तरह की अनिश्चितताएं (uncertainty) हैं।
- संयोग : कुदरत में कुछ भी निश्चित नहीं है। कुछ सामान्य नियम हैं, पर कम या ज्यादा संयोग साथ रहता है। कुछ बातें पूरी तरह से संयोग से तय होती हैं। जैसे सिक्के को उछाल गिराने पर चित हो या पट, यह संयोग की बात है। इसकी वजह यह है कि सिक्के में जो खरबों खरब (1024) अणु हैं, उन पर उछालती उँगलियों केअणुओं का और उनमें आपस में क्या प्रभाव काम कर रहे हैं, इसकी गणना असंभव है। पर सैंकड़ों बार एक सिक्के को उछाल कर या एक ही जैसे सैंकड़ों सिक्कों को उछालकर हम यह जान सकते हैं कि चित या पट आने की संभाविता कितनी है। यानी अनिश्चितता को निश्चित पैमाने में जाना जा सकता है।
- अरैखिक गणनाओं में विशृंखला (Deterministic chaos) : कई बार राशियों के बीच अरैखिक संबंध होने की वजह से यह कहना मुश्किल हो जाता है कि उनमें कैसे बदलाव आएँगे। मिसाल के लिए मौसम को लें। पचास के दशक में लोरेन्त्स ने मौसम को समझने के लिए तीन अलग-अलग राशियों में समय के साथ और स्थान के बदलने पर क्या बदलाव आता है – यह देखना शुरू किया। उन दिनों के कम्प्यूटरों में यह सवाल करने में बड़ी देर लगती थी। राशियों (जैसे तापमान) के नियत मान ले कर शुरू करें और देखें कि वह कैसे बदलती हैं। जैसे आप कंप्यूटर पर कियी यात्रा का मॉडल बनाकर तापमान माप रहे हैं, 20.45 डिग्री। दो मिनटों के बाद हुआ 20.46 डिग्री। फिर दो मिनट के बाद 20.47 डिग्री। आखिरी पड़ाव पर पहुंचे तो तापमान 21.9 डिग्री। पर माडल में ज़रा भी बदलाव किए बिना अगर शुरू का तापमान लिया 20.44 डिग्री, तो आखिर में मिला 19.38 डिग्री। यह बड़ी अजीब बात लगती है। शुरूआत में ज़रा सा बदलाव (0.01 डिग्री) और परिणाम बिल्कुल अलग।
इस को कई बार यूँ कहा जाता है कि जैसे चेन्नई में एक तितली ने पंख फड़फड़ाए – हवा का दबाव ज़रा सा बदला, ज़रा सा, बहुत ही कम। इस से हैदराबाद तक दबाव क़ाफी बदल गया और दिल्ली तक आते – आते एक दिन बाद त़ूफान ही आ गया। ऐसा हमेशा हो, ज़रूरी नही, पर कभी-कभार ऐसा होता है। इसलिए मौसम के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। इस तरह की अनिश्चिता के लिए मॉडल में समीकरणों में अरैखिकता (Non-Linearity) का होना एक बुनियादी ज़रूरत है। रैखिकता यानी जो एक सरल रेखा में नहीं चलता। हाल में गुजरे रॉबर्ट मे ने 1966 में यह दिखलाया था कि महामारी के फैलने में इस तरह की अनिश्चितता की भूमिका होती है।
- क्वांटम अनिश्चितता (हाइज़ेनबर्ग का सिद्धांत) : क्वांटम गतिकी में हम जानते हैं कि कुदरत में अंतर्निहित अनिश्चितता एक बुनियादी बात है। अणु, परमाणु, इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन की दुनिया में यह अनिश्चितता उजागर होती है। बड़े आकार की चीज़ों में यह नहीं दिखती, क्योंकि तब इसका मान बहुत कम होता है।
विज्ञान के इंकलाब : जब पुरानी प्रतिष्ठित मान्याओं को तोड़कर नए सिद्धांत गढ़े जाते हैं (पैराडाइम शिफ्ट), तो कुन की भाषा में इसे संरचनात्मक इंकलाब कहते हैं। डाल्टन की परमाणु थीओरी, डार्विन का जैविक विकास का सिद्धांत, क्वांटम थीओरी आदि संरचनात्मक इंकलाब की मिसाल हैं। हर ऐसे इंकलाब के साथ ज्ञान के हर पहलू में मूलभूत बदलाव आते हैं। डार्विन ने गालापागोस द्वीप में देखे जंतुओं के आकार और स्वभाव के अभूतपूर्व विश्लेषण के साथ विकास के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करते हुए कायनात में इंसान के अस्तित्व पर पहले से मौजूद समझ को झकझोर डाला। यह एक वैज्ञानिक क्रांति थी और इसका जो असर हमारी जीवन-दृष्टि पर पड़ा है, उस झटके को शांत होने में कई सदियाँ लगेंगी।
बीसवीं सदी की शुरूआत में जब सापेक्षता और क्वांटम गतिकी के सिद्धांत सामने आए तो साहित्य और कला में बड़े बदलाव हुए। उन दशकों में हो रही वैज्ञानिक खोजों का समाज सुधारकों और इंकलाबियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। कई बार नई खोजों की ग़लत इस्तेमाल भी होता है, जैसे जब क्वांटम गतिकी में हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता सामने आई तो कई लोगों ने इसे यूँ समझा कि विज्ञान की सीमा जाहिर हो गई। जबकि विज्ञान की ताकत इसमें हैं कि किसी भी तरह की अनिश्चितता किस हद तक हो सकती है, इसका एक निश्चित हिसाब हमें मिलता है। क्वांटम जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल धोखाधड़ी के लिए खूब इस्तेमाल होता है, जैसे एक दीपक चोपड़ा है, जो क्वांटम हीलिंग के नाम पर दकियानूसी चिकित्सा बेच कर अरबपति बन चुका है।
विज्ञान और समाज : यह ज़रूरी है कि समाज में विज्ञान पर जागरुकता और वैज्ञानिक चेतना फैलाई जाए, पर इसके लिए विज्ञान को श्रेष्ठ साबित करना ज़रूरी नहीं है। ज़रूरत इस बात की है जिन गैरवैज्ञानिक बातों से हमें नुकसान पहुँचता है, उनके बारे में लोगों को समझाया जाए। मसलन सुबह या देर रात को धर्मस्थानों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल से शोर का प्रदूषण बढ़ने से हमें जो नुकसान होता है, उस बारे में समझाएँ। पर ऐसे समाज में जहाँ धर्म की बड़ी भूमिका है, यह ज़रूरी नहीं कि हम लोगों से यह कहें कि ईश्वर में उनकी आस्था छोड़ दें। भिन्न धर्मों में आस्था रखते हुए या नास्तिक होते हुए भी शांति के साथ रहा जा सकता है, इस बात को बढ़ावा दें।
वैज्ञानिक तर्कशीलता की सीमाएँ
अक्सर लोग कहते हैं कि विज्ञान हर सवाल का जवाब नहीं देता है। सही है, वैज्ञानिक पद्धति हर किसी सवाल के जवाब ढूँढने के लिए इस्तेमाल में नहीं लाई जा सकती। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि विज्ञान की कई सीमाएँ हैं।
नैतिक निर्णय : विज्ञान यह तय नहीं करता कि शोध का विषय क्या होगा। नाभिकीय शस्त्रों पर काम करना है या नहीं, हिरोशिमा पर बम गिराना है या नहीं, ये वैज्ञानिक सवाल नहीं हैं। पर पेशेवर वैज्ञानिक इतना कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। जो मानव-विरोधी है, कुदरत विरोधी है, उसके खिलाफ खड़ा होना हर इंसान की जिम्मेदारी है। वैज्ञानिक भी इंसान होता है।
सौंदर्यपरक निर्णय : कौन सी कलाकृति या साहित्यिक कृति ज्यादा खूबसूरत है, यह वैज्ञानिक सवाल नहीं है। किस कृति में तकनीकी बेहतरी है, यह वैज्ञानिक सवाल हो सकता है। तकनीकी बेहतरी सौंदर्य के पैमाने की माप नहीं हो सकती है।
अलौकिक घटनाओं पर निर्णय : विज्ञान भौतिक जगत में होनेवाली घटनाओं के साथ जुड़े सवालों का विषय है। जो लोग अलौकिक घटनाओं में रुचि रखते हैं, उन्हें अपनी शंकाओं के निदान विज्ञान में नहीं ढूँढने चाहिए।
स्वच्छंद सोच: प्रकृति विज्ञान में स्वच्छंद सोच रासायनिक-भौतिक प्रक्रियाओं का समूह है। इस समझ से कई दार्शनिक समस्याएँ पैदा होती हैं। अगर सब कुछ कुदरती नियमों से ही हो रहा हो तो सही ग़लत का हिसाब कैसे रखें। मानविकी में यह मान कर चलते हैं कि नैतिकता और मूल्य-बोध के मुताबिक हम अपनी सोच बदलते हैं।
सृजनात्मकता: विज्ञान में सृजन के कई पक्ष हैं। किसी नई खोज के स्रोत अराजक हो सकते हैं। पॉल फेयराबेंड ने इस बात पर जोर दिया है। खोज होने पर उसे प्रमाणित करना लंबी प्रक्रिया है। इसमें भी प्रयोगों के चयन और डिज़ाइन में सृजन के कई पहलू हैं। पर मानविकी में सृजन का स्वरूप इससे बहुत अलग है। चूँकि विज्ञान में निष्कर्षों को दुहरा पाना एक अहम खासियत है, इसलिए पुरानी वैज्ञानिक खोजों को बचाए रखना एक ऐतिहासिक मुद्दा है, पर कला और साहित्य आदि में पुनरावृत्ति हमेशा संभव नहीं है, खास तौर पर अगर काम बेहतरीन और उम्दा हो। इसलिए पुरानी कृतियों को बचाए रखना बहुत ज़रूरी है।
बड़ी संख्या के नियम : विज्ञान में संख्याएँ तक़रीबन अनंत तक चली जाती हैं, इसलिए गुणधर्मों पर औसत निष्कर्ष पाए जाते हैं, जैसे किसी बर्तन में किसी भी कोने में पानी का तापमान एक ही नियत मान का होता है, क्योंकि वह आवोगाद्रो संख्या (1024) के बराबार अणुओं की संख्या का औसत गुण है। पर मानविकी में गिनती लाख-करोड़ से ज्यादा नहीं होती। इसलिए निष्कर्ष नियत नहीं होते हैं। जब कुछ ही अणुओं-परमाणुओं पर अध्ययन होते हैं (जैसे नैनो-साइंस में), तो गुणधर्मों में अक्सर बड़े बदलाव पाए जाते हैं। इसी तरह मानव विज्ञान में कुछेक लोगों पर अध्ययन कर पूरे समाज के लिए लागू हो सकने वाले नियम बनाना ग़लत है।
विज्ञान और धर्म :
विज्ञान और धर्म का कोई रिश्ता नहीं है और विज्ञान में ईश्वर के अस्तित्व पर बात करनी बेमानी है। स्टीफेन हॉकिंग ने मौत के कुछ साल पहले वक्तव्य दिया था कि कोई ईश्वर नहीं है। यानी कि अभी तक यह सवाल बना हुआ था कि ईश्वर है भी या नहीं! तरक्कीपसंद तबकों में यह माँग दिखती है कि विज्ञान और वैज्ञानिक के निजी जीवन में संगति होनी चाहिए। जो वैज्ञानिक है, वह निजी जीवन में भी धार्मिक और कर्मकांडी नहीं हो सकता। जाहिर है कि ऐसी दुनिया में जहाँ धर्मों का बोलबाला हो, यह संभव नहीं है। हर तरह के मानव समाज में ईश्वर में आस्था का प्रचलन रहा है। जैविक विकास के सिद्धांत का शुरूआत में भारी विरोध हुआ क्योंकि एक झटके में वे सारी धारणाएँ खारिज हो रही थीं जिनमें कहा गया है कि ईश्वर ने इंसान को बनाया है। आज भी यह विवाद जारी है। धार्मिक लोगों द्वारा विज्ञान की आलोचना में दो तरह की प्रवृत्तियाँ दिखती हैं – एक यह कि विज्ञान के पास हर सवाल का जवाब नहीं है। इसलिए विज्ञान को ज्ञान पाने का श्रेष्ठतम साधन न माना जाए और दूसरा यह कि आम तौर पर गैरवैज्ञानिक माने जाने वाली चिंतन-पद्धतियों के भी वैज्ञानिक आधार हैं। जाहिर है कि यह विरोधाभास इसलिए है कि कहीं खतरा नज़र आता है कि विज्ञान की वजह से धर्म की संस्थाएँ खत्म न हो जाएँ। पर ऐसा हुआ नहीं है। बीसवीं सदी के बीचोबीच से यह धारणा बढ़ती गई कि विज्ञान और धर्म के बीच कोई रिश्ता नहीं है। यह बात सही भी है। पर आम वैज्ञानिकों की बात छोड़ भी दें और नामी-गरामी वैज्ञानिकों को ले, तो हम पाएँगे कि न्यूटन, सी वी रमण, अब्दुस सलाम आदि धार्मिक शख्स थे।
यह एक तरह की विड़ंबना ही है कि विज्ञान के विकास के साथ ही धार्मिक संस्थाओं की भी अभूतपूर्व बढ़त दिखती है। जब तक भौतिक स्तर पर गैरबराबरी और निरक्षरता बनी रहेगी, धर्म का अस्तित्व रहेगा। आस्था आधारित आध्यात्मिक खोज पर विज्ञान लागू नहीं हो सकता। जैसा हमने ऊपर लिखा है, विज्ञान के व्यावहारिक और दार्शनिक पहलुओं में धर्म के साथ टक्कर की कोई गुंजाइश नहीं है। अक्सर धार्मिक लोग यह कहते हैं कि आखिर विज्ञान में भी आस्था के आधार पर ही बुनियादी सिद्धांतों को मान लिया जाता है, मसलन परमाणु को कोई देख नहीं सकता, पर हर कोई मानता है कि पदार्थ परमाणुओं से बना है। ऐसी बहस बेमानी है। यह सही है कि विज्ञान की व्यापकता एक मायने में इसकी सीमा भी है क्योंकि बहुत सारी बुनियादी बातें माने बिना हम नया कुछ भी नहीं कर सकते। पर इस आस्था और धार्मिक आस्था में बड़े फ़र्क हैं। विज्ञान में कोई भी खोज निजी नहीं होती। किसी का दावा हो कि उसने खोज की है तो इसे शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित करना पड़ता है। यह मुश्किल काम है। ज्यादातर शोध परचे पहली कोशिश में छपते नहीं हैं। वैज्ञानिक समुदाय किसी भी नए दावे की चीरफाड़ करता है और छप जाने के बाद भी कोई खोज तब तक मान्य नहीं होतीृ, जब तक कि उसे दूसरे लोगों ने अपने तईं कर के न देखा हो। जबकि धार्मिक तज़ुर्बा नितांत निजी होता है, हालाँकि सामाजिक तौर पर धर्म की अपनी राजनीति है और वैश्विक पैमाने पर इसका व्यापार चलता है।
अगर धार्मिक आस्था से सुकून मिलता है, विज्ञान में ऐसा कुछ नहीं है जो इसे खारिज करे, पर यह ज़रूरी है कि ज़बरन विज्ञान और धार्मिक आस्था को आपस में गड्डमड्ड नहीं करना चाहिए।
विज्ञान और मार्क्सवाद :
मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी कार्ल पॉपर को मार्क्स की भविष्य-दृष्टि में वैज्ञानिक विशेषताएँ दिखीं, पर जब घटनाएँ मार्क्स के कहे मुताबिक नहीं हुईं और मार्क्सवादियों ने नई प्रस्तावनों को साथ उन्हें उचित ठहराया, तो पॉपर को लगा कि मार्क्सवाद वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है। पॉपर आइंस्टाइन के प्रशंसक थे, इसलिए उन्हें हर विवेचन में गणित-भौतिकी (मैथेमेटिकल फिज़िक्स) जैसा खाका चाहिए था। हालाँकि मार्क्सवादियों से करारे जवाब पाकर उसने अपने विचारों में कुछ हद तक बदलाव किए।
पॉपर की आलोचना से मार्क्सवादियों को परेशान नहीं होना चाहिए। परेशानी की जड़ यह हसरत है कि हमें भी वैज्ञानिक मान लिया जाए। जब यह हसरत तीखे तेवर के साथ पेश आती है तो मार्क्सवाद और धार्मिक कट्टरता में फ़र्क नहीं रह जाता है। महज तर्कशील होना ही वैज्ञानिक होने की कसौटी नहीं होती है। वैज्ञानिक तर्कशीलता या साइंटिफिक रेशनालिटी खास तरह की तर्कशीलता है, जिसकी अपनी सीमाएँ और ताकतें हैं। मार्क्स ने आधुनिकता के ढाँचे में रहते हुए तर्क और युक्ति के आधार पर मानव के विकास में आर्थिक संबंधों और वर्ग-संघर्ष की मुख्य भूमिका कोे समझते हुए प्रखर आलोचना तैयार की थी। अंतिम निष्कर्ष वह सपना था जिसमें उन्होंने दुनिया भर के मजदूरों से एक होकर सरमाएदारों की शोषण पर आधारित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। अगर विज्ञान की हर विशेषता को मार्क्स के निष्कर्षों में ढूँढ पाना आसान नहीं है, तो नहीं है, यह परेशानी का सबब नहीं होना चाहिए। ऐतिहासिक संदर्भ यह है कि अपने समकालीन दूसरे चिंतकों की तरह (जैसे आउगस्ते कोम्ते) मार्क्स ने भी समाजवादी समाज के निर्माण पर सोचते हुए विज्ञान पर काफी गहराई से सोचा था और उनके लेखन में विज्ञान का उल्लेख गाहे-बगाहे आता है। सिर्फ इतना ही नहीं, विज्ञान के समाजशास्त्र और जिसे आज एस-टी-एस (विज्ञान और तक्नोलोजी अध्ययन) कहा जाता है, उसके विकास में मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव रहा है।
अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग वक्तों पर बार-बार दुहराए गए प्रयोगों के द्वारा समझे गए नियमों के बाद सामूहिक सहमति से वैज्ञानिक सिद्धांत तक हम पहुँचते हैं। यह संभव नहीं है कि मानव समाज की एक जैसी प्रतिकृतियाँ बनाकर उन पर प्रयोग कर सकें, इसलिए समाज के बारे में वैज्ञानिक सिद्धांत के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए।
मार्क्सवाद विज्ञान-धर्मी मानवतावादी सोच है। यह अंधविश्वासों या अलौकिक ताकतों की कल्पना पर आधारित सोच नहीं है। मार्क्सवाद का विज्ञान-धर्मी होना हमें बदलते वक्त के साथ उस सपने की ओर बढ़ा ले जाता है, जहाँ इंसान बराबरी के आधार पर समाज में जीते हुए अपनी हर तरह की काबिलियत का भरपूर इस्तेमाल कर पाता है। अगर हम माँग करें कि मार्क्स का हर निष्कर्ष वैज्ञानिक हो तो हमें इंसानी जज्बात को भूलना पड़ेगा, क्योंकि विज्ञान का मकसद समाज की बेहतरी भले हो, जज्बात की कोई जगह उसमें नहीं है। यह एक ही साथ विज्ञान की सीमा और ताकत है।
मार्क्स के जीवनकाल में कई संकटों के बारे में कोई जानकारी या तो उपलब्ध न थी या बहुत ही कम थी, जो बीसवीं सदी में ही पूरी तरह उजागर हुए हैं। पर्यावरण के संदर्भ में विज्ञान की सीमाएँ, लिंगभेद, नस्ल और जाति पर समझ, ये तमाम बातें बीसवीं सदी में ही गहराई से सोची समझी गई हैं। पहले जो कुछ सोचा गया था, उस विचार-जगत में मार्क्सवाद सबसे अग्रणी भूमिका में था।
जैसा वैज्ञानिक पद्धति के बारे में माना जाता है, वैसे ही मानव समाज के विकास का एक निश्चित आख्यान गढ़ते हुए मार्क्स ने जिस दर्दनाक उदासीनता की माँग रखी थी, उसके बारे में फिर से सोचना ज़रूरी है। यह देखते हुए कि पूँजीवादी कुविकास का शिकार मानवता का विशाल बहुसंख्यक हिस्सा है, हमें यह सोचना होगा कि हम इस पत्थर के सनम जैसी उदासीनता से कैसे निकलें। अराजकतावाद (anarchism) के प्रति असहिष्णुता को कम करना होगा। सांस्कृतिक पटल पर सरलीकृत मॉडल काम नहीं करेंगे, सृजनात्मक अराजकता को भरपूर जगह देनी होगी। क्या विज्ञान ऐसी अराजकता को जगह देता है? अगर दार्शनिक फेयराबेंड की सुनें तो अराजकता ही विज्ञान को आगे बढ़ाती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तक मार्क्स की यात्रा की शुरूआत भी अराजक मानवतावादी चिंतन से ही हुई थी। सही है कि इस सोच को बेमतलब खींचा जाए तो सौ साल पहले तक विज्ञान के बारे में जो द्वंद्वात्मक समझ बनी थी, उसे बिल्कुल नकारने का खतरा रहता है, और सब कुछ उत्तर-आधुनिक गड्ढे में गिरता हुआ दिखता है, पर इतनी परेशानी की सचमुच कोई वजह नहीं है। विज्ञान के बारे में द्वंद्वात्मक सोच और सामाजिक-राजनैतिक विश्लेषण आज भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
विज्ञान के पेशे में नस्ल, जाति और स्त्री प्रश्न पर साम्यवादी मुल्कों में काफी हद तक बेहतर स्थिति रही है। क्यूबा इस मायने में तक़रीबन जन्नत रहा है। पश्चिमी मुल्कों की तुलना में रूस और चीन में विज्ञान में स्त्रियों की बड़ी भागीदारी रही है। साम्यवाद आने के पहले इन मुल्कों में स्त्रियों की स्थिति बेहद खराब थी। दीगर और मुल्कों में, जहाँ साम्य के विचार का प्रभाव रहा है, केवल पश्चिमी यूरोप ही नहीं, यहाँ तक कि लीबिया, सीरिया और ईराक तक में इन मुद्दों पर काफी तरक्की हुई थी, जिसे हाल की साम्राज्यवादी तबाही ने मटियामेट कर दिया है। सही सवाल यह होना चाहिए कि मार्क्सी पद्धति में इन सवालों से जूझने की कैसी संभावना है। मार्क्सवादियों को यह समझने में लंबा वक्त लगा है कि ये सवाल महज सांस्कृतिक बहिरचना का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये बुनियादी द्वंद्व हैं।
साम्यवाद में लोकतांत्रिक स्वरूप की माँग विज्ञानधर्मी माँग है। वैज्ञानिक शोध तब तक मायने नहीं रखता जब तक कि शोध-पद्धति और निष्कर्षों को वैज्ञानिक समुदाय की स्वीकृति न मिले। सरमाएदार ढाँचों के बीच रहकर काम करने की वजह से जैसी भी इसकी सीमाएँ हों, वैज्ञानिक समुदाय के बड़े तबके ने इसे मान लिया है। साम्यवादी ढाँचे में विज्ञान ही नहीं, साहित्य, कला, सिनेमा, यहाँ तक कि खान-पान और पहनावों तक में भी लोकतांत्रिक राजनीति को स्पेस मिलना चाहिए। एक ही मंच में परस्पर ईमानदारी पर यक़ीन रखते हुए लगातार बातचीत का माहौल तैयार करना और हाशिए पर खड़े हर किसी को बीच में लानाहोगा। पूँजीवादी विज्ञान और विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो मार्क्सवाद के लिए चुनौती है कि निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। इस नए मुहावरे के साथ ही समझना और समझाना होगा कि दुनिया कैसे बुनियादी रूप से बदल चुकी है।
जब धरती विनाश के कगार पर है और जालिम ताकतें वैश्विक तौर पर विज्ञान और तक्नोलोजी का फायदा उठा रही हैं, हमें राष्ट्रवाद पर सीधी चोट पहुँचाती मार्क्स की चिंता को हमेशा सामने रखना पड़ेगा कि – दुनिया के कामगारो, एक हो जाओ। बदलती परिस्थितियों में हमें इसे ‘दुनिेया के मजलूमो एक हो जाओ’ कह कर आलमी पैमाने पर संघर्ष और निर्माण का ऐसा दर्शन रचना होगा, जिसमें विज्ञान का अराजक मानवीय पक्ष ही सबसे ऊपर हो। तर्कशीलता को छोड़े बिना भी खुलापन हो सकता है, यही कोशिश होनी चाहिए। इस खुलेपन को पॉपर के ‘खुले समाज’ के बनिस्बत तकरीर करते हुए मॉरिस कॉर्नफोर्थ ने ‘खुला (स्वच्छंद) दर्शन’ कहा है।
साइंटिफिक टेंपर या विज्ञानधर्मी सोच : शायद भारतीय संविधान एकमात्र ऐसा संविधान है, जिसमें नागरिकों को साइंटिफिक टेंपर के विकास के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। विज्ञानधर्मी सोच क्या है, इसके बारे में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने व्याख्या की है, कि हर किसी को सत्य और ज्ञान के लिए विज्ञान की आलोचनात्मक पद्धति अपनानी चाहिए। हमारे आम नागरिक की ज़िंदगी में ऐसे निर्णय बहुत कम होते हैं, जिनमें वैज्ञानिक तर्कशीलता का इस्तेमाल दिखे। नागरिकों की बात तो दूर है, यहाँ हुक्काम लोग ऐसी बातों को फैलाते हैं, जो जाहिर तौर पर झूठ और कपट है। इसलिए मौजूदा वक्त को विज्ञान का युग नहीं कहा जा सकता। विज्ञान के जिन पहलुओं पर हमने विस्तार से चर्चा की है, उन सबको अपनी सोच में ढालना किसी के लिए भी मुमकिन न होगा, पर सदियों से चले आ रहे अंधविश्वास और जाति, धर्म, जेंडर के आधार पर भेदभाव करने वाली रीतियों को बेहिचक मान लेना अँधेरे की सोच है। विज्ञान हमें यह बतलाता है कि इस विशाल कायनात में हमारा अस्तित्व नहीं के बराबर है। निजी तौर पर हमें यह बात हमेशा ज़हन में रखनी चाहिए। साथ ही विज्ञान हमें यह साहस देता है कि हम हर मान्यता पर सवाल खड़ा कर सकें। इस मायने में ज्ञान पाने की पद्धति और संचित ज्ञान (एपिस्टीम) के रूप में विज्ञान धर्म जैसी संस्थाओं से बेहतर दिखता है।
क्या वैज्ञानिक सोच या दृष्टि हमें अनुमान, अवलोकन, कुदरत के नियम से सिद्धांतों तक की यात्रा पर ले चलती है? वैज्ञानिक सोच के बिना हम इस यात्रा में आगे नहीं बढ़ सकते, पर सोच ही पद्धति नहीं है। वैज्ञानिक खोज की प्रवृत्ति बुनियादी इंसानी फितरत है, पर कोई सिद्धांत तभी वैज्ञानिक कहलाता है, जब वह उन विशेषताओं पर खरा उतरे, जो वैज्ञानिक पद्धति के साथ जुड़ी हैं। दूसरी ओर यह भी होता है कि कोई अपने काम में सटीक वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल कर रहा है, पर वह वैज्ञानिक सोच को नहीं अपना पाया है। भारतीय वैज्ञानिकों में यह आम बात है। इसलिए उच्च-स्तरीय प्रशिक्षण और भरपूर सुविधाओं के बावजूद भारतीय वैज्ञानिकों का काम अक्सर पश्चिम में हो रहे शोध की नकल मात्र रह गया है। वैज्ञानिकों के सामाजिक-राजनैतिक विचारों में पिछड़ापन भी इसी वजह से है।
विज्ञान और साहित्य :
किसी कृति में वैज्ञानिकता या वैज्ञानिक सोच है या नहीं, इस बात का मतलब अक्सर यह होता है कि रचना में तर्कशीलता पर जोर दिया गया है या कि इसके विपरीत रचना की संरचना और इसके कथ्य में भावनात्मकता या आस्था का असर अधिक है। यह साहित्य के रूप का नहीं बल्कि सरोकारों का सवाल है। रूप के नियम होते हैं, जैसे रस-शास्त्र के नियम हैं, इन नियमों का विज्ञान से कोई संबंध नहीं है। सरोकारों में भी तार्किकता का होना ही विज्ञान की पहचान नहीं है। जहाँ विज्ञान पहली शर्त हो वह कथा, कविता, नाटक आदि विधाओं का साहित्य नहीं होता। यहाँ तक कि विज्ञान-कथा भी विज्ञान नहीं होती, हालाँकि उसमें वैज्ञानिक जानकारियाँ – सच या काल्पनिक – हो सकती हैं।
तरक्कीपसंद साहित्यकारों को अपने समय की वैज्ञानिक जानकारियों का ज्ञान होना लाजिम है। हर तरह की ज्ञान-मीमांसा अंतत: किसी जीवन-दृष्टि से जुड़ी होती है। विज्ञान हमें एक जीवन-दृष्टि देता है। हम साहित्य पढ़ते हुए यह सोच सकते हैं कि हमें स्थूल जानकारियों से लेकर सूक्ष्म एहसास तक जो कुछ भी मिल रहा है, क्या वह वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि से संगति रखता है।
प्रत्यक्ष ज्ञान में किस स्तर की अनिश्चितता होती है, इस बारे में एक निश्चित समझ हमें विज्ञान से मिलती है। साहित्य और कला इस अनिश्चितता को मापे बगैर हमें जीवन, प्रकृति के रहस्यों और समाज की सच्चाइयों के रुबरु करते हैं। किसी साहित्यिक कृति का कद उसमें वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि होने या न होने से नहीं मापा जाता।
सौ साल पहले जो तीन नाम वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि के संदर्भ में लिए जाते थे, वे मार्क्स, डार्विन और फ्रॉएड के हैं । इनमें से फ्रॉएड का संदर्भ काफी हद तक भुलाया जा चुका है, पर जिस खास तरह के मनोवैज्ञानिक विशलेषण को फ्रॉएड ने लोकप्रिय बनाया, उसका व्यापक प्रभाव साहित्य और कलाओं पर पड़ा। धीरे-धीरे फ्रॉएड की जगह फूको, लाकान आदि ने ले ली और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के नए आयाम सामने आए, जो व्यक्ति और समाज के रिश्तों की पड़ताल करते हैं। फ्रॉएड के काम की वैज्ञानिकता पर शंकाएँ सामने आईं और अब दिमाग के साइंस की समझ बढ़ने के साथ उनकी कुछ खोजों पर दुबारा चर्चा हो रही है। पिछली सदी के अंत तक इन तीन नामों के अलावा जिनको वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि बनाने या बढ़ाने में गिना जाने लगा, उनमें आइन्स्टाइन, श्रोडिंगर, हाइजेनबर्ग, फाइनमैन और हॉकिंग हैं।
फ्रॉएड के निष्कर्षों को आज वैज्ञानिक नहीं माना जाता और मार्क्स का विश्लेषण वैज्ञानिक है या नहीं, इस पर विवाद है। इससे इनका दर्जा कम नहीं हो जाता, और साथ ही यह बात भी मिट नहीं जाती कि इन दोनों धाराओं ने वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य का काम वैज्ञानिक सिद्धांत गढ़ना नहीं है, इसलिए साहित्य में वैज्ञानिक पद्धति के सभी पहलू नहीं ढूँढना चाहिए।
वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि में एक खास बात है कि हर सोच आगे नई सोच को जन्म देता है। अच्छे साहित्य में भी यह खासियत है। जो दिखता है, उसके परे जा कर प्रत्यक्ष अवलोकन में निहित अंत:कारणों की पड़ताल वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि का हिस्सा है। अगर यह पड़ताल आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य तक सीमित रह जाती, तो वह एक अलग दृष्टि होती; वह सही होती या ग़लत, सवाल यह नहीं है – वह अलग है। इस बात को समझना ज़रूरी है, वैज्ञानिक दृष्टि के पीछे गहन अध्यात्म काम कर रहा हो सकता है, पर वह हमें भौतिक जगत में हो रही घटनाओं में भौतिक कारणों को ढूँढने को कहती है। यही नहीं, जहाँ तक हो सके, वह हमें प्रत्यक्ष अवलोकनों में कारण-कारक संबंध ढूँढने को और इस तरह मिले निष्कर्षों को सैद्धांतिक समझ तक ले चलने को विवश करती है। मूर्त से अमूर्त की यह यात्रा यहीं खत्म नहीं होती है। वैज्ञानिक दृष्टि में अमूर्त सिद्धांतों का औचित्य तभी है, जब वह हमें परिघटनाओं की कल्पना करने और उनके सचमुच घटित होने की संभावनाओं का ऐसा विवरण सामने रखती हैं, जिन्हें हम न केवल गुणात्मक रूप से समझ सकें, बल्कि जिनमें जो कुछ भी माप-तौल लायक हो, उसे माप सकें। साहित्य में इतनी लंबी भौतिक यात्रा नहीं होती, होना ज़रूरी भी नहीं है। कोई भी रचनाकार सचेत रूप से ऐसी कोशिश नहीं करता है, पर हम चाहें तो इसके होने या न होने को ढूँढ सकते हैं।
वैज्ञानिक सोच का एक पहलू यह है कि वह हमें अपने और दूसरों की, समाज और परिवेश की बेहतरी के लिए उकसाता है (इसके बावजूद कि विज्ञान या तकनोलोजी से पर्यावरण का विनाश हुआ है, यह बात सच है)। इसी बेचैनी को हम उम्दा अदब में देखते हैं, जैसे मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ हैं : ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया?जीवन क्या जिया?’ एक और पहलू ऐसे वर्गीकरण का है, जिसमें पहले से उपलब्ध वर्गीकरणों से अधिक स्पष्टता हो। मुक्तिबोध के ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ जैसे मुहावरों के इस्तेमाल में यही पद्धति दिखती है। पर वैज्ञानिक पद्धति में भावनात्मकता की जगह नहीं होती, यह विज्ञान की ताकत है और यही उसकी सीमा भी है। यह सही है कि संवेदना हमेशा सही निष्कर्ष तक ले जाए, ऐसा कहना मुश्किल है। पर संवेदना के न होने पर सही निष्कर्ष के पास तक पहुँचना भी असंभव ही है।
वैज्ञानिक सोच में सबसे बड़ी बात यह है कि वह प्रतिष्ठित मान्यताओं (paradigm) को तोड़कर नई मान्यताओं को निर्मि करता है। मान्यताओं के टूटने-बनने की इस प्रक्रिया की बुनियाद सवाल उठाने का साहस (अक्सर दुःसाहस) है। इसलिए जब मुक्तिबोध कहते हैं – ‘अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे।/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब’, हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि की सबसे सशक्त पहचान सामने आती है। यही पहचान है जो हमें ब्रह्मांड की देश-काल विशालता के सामने निडर होकर खड़े होने की ताकत देती है। यही पहचान हममें यह एहसास लाती है कि मानव होना, प्राणी होना, ब्रह्मांड में होना और इस होने को जान पाना कितना सुंदर है।
जहाँ साहित्य नैतिक सवालों को उठाता है या हमें फंतासी की दुनिया में लो जाता है, वहाँ हम विज्ञान से परे चले जाते हैं। नैतिक सवाल दार्शनिक सवाल हैं, वैज्ञानिक सोच पर दर्शन हावी हो सकता है, पर ये दोनों एक बात नहीं हैं। नैतिक निर्णयों को वैज्ञानिक सोच की कसौटी पर परखा जा सकता है, पर दोनों को गड्ड-मड्ड नहीं किया जाना चाहिए। इसी तरह जहाँ साहित्य में फंतासी का प्रयोग है, वहाँ ऐसी बेमेल बातें दिखेंगी, जो वैज्ञानिक नहीं हैं, पर वे ज़रूरी हैं। फंतासी तर्कशीलता से परे हो, ऐसा नहीं है, पर किसी निश्चित और नियमों में बँधी संरचना में सिमटी हो, ऐसा नहीं हो सकता।
उत्तरआधुनिक, स्त्रीवादी और पर्यावरणवादी आलोचना :
यूरोप में प्रबोधन और आधुनिक विज्ञान का उभार तक़रीबन एक ही समय हुआ। इस वजह से आधुनिकता और विज्ञान को अक्सर एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। नवजागरण ने सत्य के सार्वभौमिक सिद्धांतों पर विश्वास पैदा किया था। इसके विपरीत उत्तरआधुनिक चिंतक स्थानीय परंपराओं को स्वीकार करते हैं, जिनकी खासियत पूरी तरह तर्क आधारित या यांत्रिक नहीं हैं, बल्कि जो पवित्र, अयांत्रिक और यहाँ तक कि तर्कहीन विचारों को भी जगह देती हैं।
प्रबोधन ने कायनात में इंसान को स्वच्छंद अस्तित्व दिया। वह कुदरत का होकर भी कुदरत से अलग हो पाया। जैसे-जैसे औद्योगिक विकास की रफ्तार बढ़ी, इंसान ने कुदरत को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के गुर बढ़ाए। तर्कशीलता के जरिए कुदरत के रहस्य को समझा जाने लगा। पहले चिंतन और दर्शन ईश्वर के नियमों को समझने की कवायद थे, अब उभरते प्रकृति-विज्ञान में ईश्वर से अलग हटकर सिर्फ फितरती कौतूहल मिटाने के लिए प्रयोग होने लगे। हम, कुदरत, और कुदरत के साथ हमारे रिश्ते को लेकर सार्वभौमिक नियमों की तलाश और प्रस्तावना शुरू हुई। उन्नीसवीं सदी तक यह बात कुदरत से आगे इंसान के बनाए समाज तक आ गई। बीसवीं सदी में मेर्टन ने विज्ञान के समाजशास्त्र की प्रस्तावना रखी, जिसमें विज्ञान को सामुदायिक, सार्वभौमिक, उदासीन, संगठित जिज्ञासा का एपिस्टीम कहा गया। जल्दी ही इस ‘प्रोजेक्ट’ के संकटों की पहचान हुई। विज्ञान की निरपेक्षता और समाज में वैज्ञानिकों के रुतबे को चुनौती मिली। सार्वभौमिक आख्यानों की धारणा पर सवाल उठे। यूरोकेंद्रिक सोच और यूरोपी मुल्कों द्वारा उपनिवेशों की बेइंतहा लूट पर सवाल उठे। सार्वभौमिक आख्यानों की जगह स्थानीय संस्कृति और आस्थाओं की अपनी तर्कशीलता को महत्व दिया गया। रीडक्शन (टुकड़ों में बँटकर जाँच) की पद्धति पर सवाल उठे (सच टुकड़ों में नहीं बँटा है, सच सर्वांगीण है)। जब तक यह आलोचना समाज और सामाजिक नियमों में विज्ञान के हस्तक्षेप तक सीमित थी, ज्यादातर वैज्ञानिकों ने इस पर सोचा नहीं, पर जल्दी ही यह आलोचना विज्ञान तक पहुँच गई। हालत यह हो गई कि बीसवीं सदीं के उत्तरार्द्ध में समाज-विज्ञान में लगभग हर सैद्धांतिक काम विज्ञान से जुड़ा था। स्त्रियों के पक्ष में विज्ञान की चीरफाड़ की गई। सदी के बीचोबीच तक नाभिकीय बम-विस्फोट या उद्योगों के कराण पर्यावरण का विनाश बढ़ता चला था, ओज़ोन परत में छेद और मौसम का गर्म होते रहना जाहिर हो रहा था। विज्ञान की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं था, पर ज्यादातर आलोचना ऐसी थी जिसका संबंध सामाजिक-राजनैतिक ढाँचों से अधिक और खालिस विज्ञान से कम था। मसलन विज्ञान के पेशे में आजतक स्त्रियों की मौजूदगी बहुत कम है। पर क्या ये समस्याएँ विज्ञान की हैं, जो ज्ञान पाने का एक साधन है या उस पेशे की हैं, जो वैज्ञानिक कहलाता है, या बृहत्तर समाज की हैं, यह सोचने की बात है। कुछ बातें ऐसी हैं जो विज्ञान की संरचना से जुड़ी हैं। जैसे प्रयोग करते हुए किसी वस्तु या प्राणी से छेड़छाड़ किस हद तक हो, इसकी सीमा क्या हो, इस पर स्पष्टता ज़रूरी है। जब जंतुओं के साथ प्रयोग होते हैं, तो यह हिंसा से कम नहीं होते। इसी तरह जीनोमिक्स-डी-एन-ए-टेक्नोलोजी और नाभिकीय विकरण आदि पर शोध के खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। पेशेवर वैज्ञानिकों ने अपने लिए नैतिक मानदंड बनाए हैं, और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कानून हैं, जो जंतुओं पर हिंसा या किसी भी नुकसानदेह शोध पर रोक लगाते हैं। पर ये कानून किस हद तक लागू हों, यह स्थानीय लोगों पर निर्भर करता है। शोध के सवालों के चयन को लेकर भी समस्याएँ हैं। चूँकि विज्ञान में सामुदायिक स्वीकृति महत्वपूर्ण है, इसलिए उन सवालों पर ज्यादा काम होता है, जिन्हें पश्चिमी मुल्कों के वैज्ञानिक ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। भारत में पचास साल पहले कैंसर की बीमारी पैसे वालों और यक्ष्मा ग़रीबों की बीमारी थी, पर शोध का ज्यादातर काम कैंसर पर ही हो रहा था। प्रजनन और जन्म-निरोध से जुड़े ज्यादातर शोध स्त्रियों के साथकिए गए खतरनाक प्रयोग थे, जबकि पुरुष के जननांग जिस्म के बाहरी ओर होने से उन पर प्रयोग कहीं ज्यादा आसान होता। क्यूबा जैसे छोटे मुल्कों में चिकित्सा-शास्त्र जैसे विषयों को प्राथमिकता दी गई है, जबकि भारत जैसे बड़े मुल्क के वैज्ञानिक अमेरिका और दीगर पश्चिमी मुल्कों के पिछलग्गू हैं।
गंभीर स्त्रीवादी आलोचना पेशे में प्रतिनिधित्व के सवाल से आगे जाती है। शोध में सवालों के चयन और विज्ञान की भाषा आदि को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। मसलन यह आम सोच है कि प्रजनन में पुरुष के लाखों शुक्राणुओं में से कोई एक-दो स्त्री के गर्भाशय की नाल में अंडे को निषेचित (fertilise) करते हैं। इसका वैकल्पिक विवरण यह हो सकता है कि स्त्री के गर्भाशय में अंडा किसी एक-दो शुक्राणु को स्वीकार करता है। भाषा सत्ता समीकरण को बदल देती है। पुरुषप्रधान वैज्ञानिक समुदाय में पितृसत्ता हावी रहेगी, इसमें अचरज नहीं है। विज्ञान से मूल्य-निरपेक्ष होने की अपेक्षा है, जो मुमकिन नहीं लगती। उत्तरआधुनिक आलोचना का यही सार है कि विज्ञान मूल्य-निरपेक्ष नहीं है। सेंड्रा हार्डिंग का कहना है कि विज्ञान सेक्सिस्ट और वर्चस्ववादी गतिविधि है जो पश्चिमी मध्य-वर्गी गोरों के हित में काम करती है। आशीष नंदी ने कहा, ‘ विज्ञान ज्ञान के विषय, मकसद, इससे लाभ पाने वाले, के और खुद ज्ञान ही के विरोध में, हिंसा का धर्म-शास्त्र है’।
समाज-विज्ञान में विज्ञान की आलोचना में उभरी कई महत्वपूर्ण बातों के अलावा ज्यादातर बातें बेतुकी थीं। स्त्रीवाद और पर्यावरण के नाम पर कोई भी विज्ञान के खिलाफ कुछ भी लिखने लगा। नतीजतन तरक्कीपसंद वैज्ञानिकों में चिंता बढ़ गई। 1996 में ऐलन सोकल नामक फिज़िक्स के प्रोफेसर ने एक लंबा जाली परचा अमेरिका के सबसे नामी समाज-विज्ञान शोध पत्रिका में प्रकाशित किया, जिसे संपादक मंडल ने खासतौर पर ‘साइंस वार्-स’ नामक विशेषांक में छापा। छपने के बाद सोकल ने प्रेस कॉन्फरेंस में खुलासा किया कि वह परचा जाली था और इसमें विज्ञान की बुनियादी बातें ग़लत पेश की गई थीं, और वह इसलिए छपा कि उसमें स्त्रीवादी आलोचना की गई थी। हालाँकि समाज-विज्ञान में इस बात को गंभीरता से नहीं लिया गया, पर यह घटना दिखलाती है कि पेशेगत नैतिकता का अभाव सिर्फ विज्ञान में नहीं, बल्कि पूरे बुद्धिजीवी समाज में है। सोकल ने मुद्दे की गंभीरता को समझाते हुए कहा कि कुदरत में बहुत सारी बातें ऐसी हैं जो मानव-संस्कृति या धर्मों से निरपेक्ष हैं। मसलन विज्ञान की उत्तरआधुनिक आलोचना कोविड या एड्स जैसी बीमारियों का इलाज़ नहीं दे सकती है। इसके लिए हमें आधुनिक विज्ञान की पद्धतियों के मुताबिक काम करना होगा। विज्ञान की सामान्य आलोचना की कमज़ोरी को समझते हुए डेविड ब्लूर और कुछ और समाजशास्त्रियों ने ‘सट्रॉँग प्रोग्राम (strong programme)’ की प्रस्तावना रखी, जिसमें सामाजिक-राजनैतिक कारणों से या नाकाबिल वैज्ञानिकों की वजह से पनपी समस्याओं से आगे हटकर विज्ञान की संरचनात्मक खामियों पर ध्यान दिया गया।
बहरहाल, विज्ञान पर बातें कभी खत्म नहीं होंगी। फिलहाल हम यहीं रुकेंगे और अगले लेख में हम टेक्नोलोजी पर चर्चा शुरू करेंगे।
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