जयप्रकाश नारायण
किसान आंदोलन के नौ महीने, उपलब्धियां, चुनौतियां और संभावनाएं।
किसान आंदोलन के तरफ से 9 महीने पूरे होने पर सिंघू बॉर्डर पर 26 और 27 तारीख को 2 दिन का किसान सम्मेलन आयोजित किया गया है।
किसान सम्मेलन में किसानों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ मजदूरों, छात्रों, नौजवानों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया गया है।
इन सभी सामाजिक तबकों के लोगों को आमंत्रित करने का उद्देश्य भारत में चल रहे जन आंदोलनों को समन्वित करना और उन्हें किसान आंदोलन के साथ एकताबद्ध करना है, और आंदोलन की गति को तेज करना है।
26 तारीख को किसान मंच पर पेश प्रस्ताव साफ-साफ यह बता रहा है, कि किसान आंदोलन अपनी अग्रगति की समस्या से जूझ रहा है। और, आंदोलन के मित्रों और सहयोगियों की तलाश को लेकर गंभीर है ।
कोई आंदोलन अपनी कमजोरियों और खूबियों को समझे और उसको हल करने के रास्ते तलाशने के लिए गंभीर प्रयास चलाए तो स्पष्ट है, कि वह आगे बढ़ने की अग्रगति की जटिलता को हल कर लेगा।
निश्चय ही किसान आंदोलन को आगे बढ़ने के लिए इस समय बेहतरीन वातावरण है। देश गंभीर आर्थिक संकट में है। महामारी के चलते उद्योग धंधे बंद हैं। बेरोजगारी चरम पर है । विकास दर लुढ़क कर जमीन पर पहुंच गई है। साथ ही, लोगों के वेतन और आय में भारी गिरावट दर्ज की गई है । नौकरियां जा रही हैं, वेतन घट रहा है, महंगाई की मार ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह भयानक होती जा रही है।
इस स्थिति में देश के सारे तबके अंदर से बहुत ही उद्वेलित और आक्रोशित हैं। दूसरी तरफ, सरकार आर्थिक संकट को हल करने के नाम पर भारत के सारे संसाधन कारपोरेट घरानों को लुटाने की नीति पर आगे बढ़ रही है ।
इसी सप्ताह में वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री की घोषणाओं से सरकारी क्षेत्र से लेकर सभी तरह के उत्पादक समूह में भारी आक्रोश पैदा हुआ है।
सरकार द्वारा 6:30 लाख करोड़ रूपए जुटाने के लिए सैकड़ों संस्थानों के निजीकरण की घोषणा कर दी गई है। निजीकरण की परियोजना ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र को तहस-नहस कर दिया है।
रेल, सेल, खेल, गेल, भेल, कॉल, सड़क, पटरियां, स्टेडियम, होटल, जमीनें, सेना के फॉर्म सब कुछ बाजार में सेल के लिए लिस्टेड कर दिया गया है।
लगता है, सरकार न होकर एक मार्केटिंग कंपनी है। भारत के प्राकृतिक संसाधनों से लेकर 70 वर्षों में निर्मित सारे संस्थान, सब कुछ बाजार में बेचने के लिए यह सरकार उतावली है।
आईआईटी, विश्वविद्यालय, कॉलेज, हॉस्पिटल, एम्स जैसे संस्थान भी निजी हाथों में देने और पैसा कमाने के लिए बाजार में बिक्री के लिए खोल दिए गए हैं। मंत्रिमंडल के सदस्य किसी कारपोरेट कंपनी के व्यापारिक प्रबंधक की तरह से काम कर रहे हैं।
उनके पास नागरिकों के जीवन के दुख-दर्द, रोजगार, महंगाई जैसे सवालों को देखने और हल करने के लिए समय ही नहीं है।
संसद में पीयूष गोयल ने जिस तरह से निजीकरण की वकालत की, वह एक शर्मनाक तर्क था और खिल्ली उड़ाने जैसा घिनौना व्यवहार था।
ऐसी स्थिति में देश के करोड़ों लोग अपने अपने ढंग से सरकार के विरोध में सड़कों पर हैं। छात्र दो साल से शिक्षण संस्थानों के बंद होने, शिक्षण कार्यों के ध्वस्त होने से भारी तनाव में हैं।
रोजगार और नौकरियों में आरक्षण से लेकर विश्वविद्यालय खोलने के लिए लाठियां खा रहे हैं, जेल जा रहे हैं, लेकिन पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। कामगारों के रोजगार छिन जाने से वे अंधकारमय भविष्य से बहुत ही चिंतित हैं। आत्महत्या की दरें बढ़ गई हैं। परिवार के परिवार नदियों में कूद कर या रेल की पटरियों पर लेट कर आर्थिक तंगी में पूरे परिवार को जहर देकर आत्महत्या कर रहे हैं।
भारतीय समाज इस भयानक स्थिति में है। इस घुटन और अंधकार भरे वातावरण ने स्वाभाविक रूप से आंदोलन के लिए वास्तविक परिस्थिति का निर्माण कर दिया है।
किसान आंदोलन ने इस बात को समझा और अपने 9 महीनों के आंदोलन के अनुभव का सार-संकलन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इन सब शक्तियों को एक साथ किए बिना कारपोरेटपरस्त मोदी सरकार को गंभीर चुनौती नहीं दी जा सकती।
यही वह परिस्थिति है, जिसमें सिंघु बॉर्डर पर किसान मोर्चे द्वारा बुलाए हुए सम्मेलन को भारी सफलता दिला रही है। किसान आंदोलन में भी साढ़े पांच सौ से ज्यादा संगठन शामिल हैं।
उनके अलग-अलग हिस्से, संस्तर हैं। कृषक समाज बहुवर्गीय, बहुजातीय, बहुभाषी तथा बहुकृषि व्यवस्था मूलक समाज है। जहां एक तरफ आधुनिक हरित क्रांति के जगमगाते इलाके हैं, भारी पूंजी का प्रवाह है, मंडियां हैं, भंडारण है और उत्पादन के लिए बहुत सारी सुविधाएं हैं। वहीं दूसरी तरफ घोर विपन्नता, दरिद्रता और पिछड़ा हुआ कृषक समाज है, जहां ज्यादा से ज्यादा लोग अपने पेट भरने के लिए ही खेती का सहारा लेते हैं।
बहुत बड़ा कृषि इलाका ऐसा है, जहां से अतिरिक्त श्रम आधुनिक खेती के इलाकों, महानगरों और शहरों की तरफ पलायन करता है। और वहां से अपनी रोजी-रोटी और परिवार के खर्चे चलाता है।
दूसरी तरफ आदिवासियों का विशाल क्षेत्र है।इसके बहुत सारे इलाके अभी भी प्राकृतिक जीवन प्रणाली पर आधारित हैं। इसलिए इस विभिन्नता मूलक समाज को एक झंडे पर संगठित करना और आंदोलित करना थोड़ा सा कठिन काम है।
इस उद्देश्य से किसान आंदोलन को बहुत ही बारीक और सुसंगत नीति अख्तियार करनी होगी, तभी आंदोलन को अंतिम मंजिल तक ले जाया जा सकता है।
किसान आंदोलन ने छात्रों के आंदोलन के साथ मजदूरों, महिलाओं, राजनीतिक बंदियों सहित समाज के अन्य हिस्सों के भी सवालों को संबोधित किया है। मजदूरों पर लादे गए चार श्रम संहिताओं, काम का बोझ बढ़ाने के लिए 12 घंटे का कार्य दिवस घोषित करने, गरीबों को मुफ्त अनाज और खाने की सुविधाएं देने और उनके लिए आवास, रोजगार तथा नकदी हस्तांतरण की नीतियों को भी उठाया है।
इस तरह धीरे-धीरे यह आंदोलन अपने सघन इलाके से विस्तार करते हुए भारत के विभिन्न कोनों तक फैल चुका है।
22 राज्यों से किसान सम्मेलन में आए हुए सभी प्रतिनिधि इस बात की गवाही दे रहे हैं, कि किसान आंदोलन ने अपना राष्ट्रव्यापी चरित्र अख्तियार कर लिया है। अब यह कारपोरेटपरस्त मोदी सरकार के साथ सीधे-सीधे दो-दो हाथ करने की स्थिति में आ गया है।
(अगली कड़ी में जारी)