जयप्रकाश नारायण
किसान आंदोलन का नौ महीना
26 अगस्त को किसान आंदोलन के 9 महीने पूरे हो गए । आज संयुक्त किसान मोर्चा के द्वारा सभी किसान संगठनों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया है। इस सम्मेलन में संगठनों की उनकी क्षमता के अनुकूल भागीदारी की एक पूरी प्रणाली तैयार की गई है। सुबह 10:00 बजे से सम्मेलन सिंघू बार्डर पर शुरू हो चुकाहै।
इसमें जो मुद्दे रखे गए हैं और विचार-विमर्श के बाद जो बातें निकल कर आएंगी, उस पर आगे बात की जाएगी।
आज हम इस बात पर विचार-विमर्श कर रहे हैं कि 9 महीने से चल रहे किसान आंदोलन ने लंबी यात्रा पूरी की है।
इस यात्रा ने अब तक क्या उपलब्धियां हासिल की हैं, आइए इस पर एक नजर डालते हैं। कुछ चंद बिंदुओं को यहां रखा जा रहा है।
एक- हजारों किसान 9 महीने से विकट परिस्थितियों में भी टीकरी, सिंघू, गाजीपुर और शाहजहांपुर बॉर्डर पर जमे हुए हैं ।
दो- किसान आंदोलन अपनी शुरुआती चेतना को उन्नत करते हुए कारपोरेट पूंजी नियंत्रित राज्य के चरित्र को समझने में कई कदम आगे बढ़ा है ।
तीन- आजादी के बाद भारत के पिछड़ेपन, गरीबी और किसान जीवन की दरिद्रता के कारण को चिन्हित करने में कामयाब हुआ है।
चार- किसान आंदोलन ने लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणतांत्रिक भारत के समक्ष मौजूद चुनौतियों और उसके कारण को चिन्हित करने में सफलता पायी है।
पांच- आंदोलन के क्रम में भारतीय जनता पार्टी के प्रति किसानों का नजरिया बहुत ही स्पष्ट हुआ है। भाजपा ने हिंदू धर्म के मिथकों, परंपराओं, देवी-देवताओं को केंद्र कर किसान जगत में अपना जनाधार विकसित किया था। उसको कमजोर करने और निष्प्रभावी बनाने में इस आंदोलन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस समझ ने गांव में किसानों के अंदर जुझारू सामाजिक-राजनीतिक एकता और चेतना का निर्माण किया है।
छः- किसान आंदोलन ने भाजपा सरकार और संघ के द्वारा निर्मित विभिन्न उपद्रवी आतंकी गुटों के द्वारा पैदा किए गए आतंक और भय को तोड़ने में सफलता पायी है।
सात- भाजपा की सांप्रदायिक, अपराधी कार्यनीति और हमलावर राजनीति को किसान आंदोलन ने बहुत बहादुरी के साथ निष्प्रभावी किया है।
आठ- दिल्ली के इर्द-गिर्द 700 किलोमीटर से ज्यादा फैले क्षेत्र में भाजपा के सांप्रदायिक राजनीति और मुहिम को किसान आंदोलन ने भारी धक्का पहुंचाया है।
नौ- किसान आंदोलन ने सामाजिक सांस्कृतिक जागरण की दिशा में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं।
दस- किसान आंदोलन के क्षेत्र में भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, स्वामी सहजानंद, सर छोटू राम, उधम सिंह और आदिवासी नायकों कानू-सिद्धू, बिरसा मुंडा जैसे लोगों की जयंतियों का आयोजन और उन पर लिखी ज्ञानवर्धक किताबें पढ़ी जा रही हैं।
ग्यारह- संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर किसान आंदोलन के मंच पर किसान आंदोलन के नायकों के साथ मजबूती से विराजमान हो गए हैं। यह सिर्फ एक प्रतीकात्मक कार्रवाई नहीं है । इसने गांव में किसान परिवारों और खेत मजदूरों, जो मूलतः दलित, गरीब समाजों से आते हैं, उनके प्रति सामाजिक नजरिए को बदलने में अहम भूमिका निभाई है।
बारह- किसान आंदोलन के ताप और ऊर्जा ने बहुत बड़ी संख्या में गीतकार, संगीतकार, नाट्यकार, कहानी लेखक, कलाकारों को जन्म दिया है। बौद्धिक और सांस्कृतिक समाजों को इस आंदोलन ने आकर्षित किया है। आंदोलन के गर्भ से निर्भीक पत्रकारों की पूरी एक टीम सामने आई है, जो सत्ता के दमन को झेलते हुए आंदोलन की वास्तविकता को सामने ला रही है। नहीं तो गोदी मीडिया द्वारा खड़ा किया गया किसान विरोधी प्रचार का मुकाबला इन बहादुरों के बिना संभव नहीं हो पाता। आज गांव-गांव आंदोलन पर लिखे गीत लाखों लोग सुनने के लिए इकट्ठा होते हैं। दर्जनों लोक कलाकार, जिसमें नौजवान लड़के-लड़कियां शामिल हैं, आंदोलन के बीच से उभर कर सामने आए हैं। आजादी के 40 वें दशक की यादें जिंदा हो गई हैं, जब स्वतंत्रता के गीत गाते हुए आंदोलनकारी सड़कों पर निर्भीकता से घूमा करते थे।
तेरह- किसान आंदोलन ने अखिल भारतीय समर्थन और सहयोग हासिल कर लिया है, इसलिए बौखला कर संघ के कार्यकर्ता विभिन्न जगहों पर मुस्लिम नौजवानों की माॅब लिंचिग की एक नई श्रृंखला शुरू करके सांप्रदायिक आग में देश को झोंकने की कोशिश कर रहे हैं।
चौदह- अगस्त की संध्या में मोदी द्वारा भारत विभाजन की स्मृतियों को फिर से पुनर्जीवित करने की कोशिश इसी हताशा का संकेत है।
पन्द्रह- किसान आंदोलन ने कारपोरेट के प्रतीक प्रतिनिधि अडानी-अंबानी को चिन्हित कर यह बता दिया है, कि भारत में सत्ता को संचालित करने वाले मुख्य केंद्र कहां हैं। इसलिए भारतीय जनता की जीवन की बेहतरी की लड़ाई की रेखा सीधी-सीधी खींच दी गई है। कारपोरेट खेती छोड़ो, यह लड़ाई इसी नारे में मुकम्मल रूप से व्यक्त हो रही है।
सोलह- नौ अगस्त भारत छोड़ो दिवस को सामने रखकर किसान आंदोलन ने आवाहन किया कि कारपोरेट खेती छोड़ो, तीन कृषि कानून वापस लो या गद्दी छोड़ दो। इस नारे ने भारत की राजनीति और समाज के सबसे तीखे अंतर्विरोध को अपने आंदोलन के झंडे पर ला दिया है।
सत्रह- किसान आंदोलन ने भारत में व्यापक गरीब जनता के भुखमरी से लेकर रोजगार तक के सवाल को अपने आंदोलन का मुद्दा बनाया है, जिससे अब निचले स्तर के गरीबों तक संदेश गया है। और ग्रामीण गरीबों की भागीदारी और सहानुभूति आंदोलन के प्रति बढ़ रही है।
अठारह- किसान आंदोलन जो भारत की धरती पर चल रहा है, इसने विश्व में कारपोरेट पूंजी द्वारा भूमि, जंगल, पर्यावरण, जल, पहाड़, खनिज और जीवन को बर्बाद करने का जो अपराध किया है, उसको दुनिया में आंदोलन के पटल पर लाकर रख दिया है। अब भारत का किसान आंदोलन भी अपनी चार मांगों के साथ-साथ पर्यावरण, मानवाधिकार, राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई और लोकतांत्रिक मूल्यों के सवालों को भी संबोधित करने लगा है। जिस कारण से विश्व स्तर पर प्रगतिशील और आधुनिक चेतना और कारपोरेट पूंजी की विध्वंसक परियोजना से चिंतित लोगों का समर्थन किसान आंदोलन को मिलने लगा है। प्रसिद्ध बुद्धिजीवी नोम् चाम्सकी, ब्रिटिश संसद के सांसद अमेरिकी संसद के प्रतिनिधि कनाडा और लैटिन अमेरिकी देशों के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भारतीय किसान आंदोलन के समर्थन में खड़े हो चुके हैं। विश्व की बड़ी-बड़ी हस्तियों ग्रेटाथनबर्ग से लेकर कलाकारों, साहित्यकारों तक का समर्थन भारत के किसान आंदोलन में बढ़ा है।
उन्नीस- मोदी सरकार की समग्र रूप से किसान, मजदूर, छात्र, महिला, नौजवान, आदिवासी और अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों से किसान आंदोलन को जन समर्थन बहुत बढ़ा है। संयुक्त मोर्चे द्वारा जब किसी आंदोलन का आवाहन होता है, तो ये सामाजिक समूह सड़क पर उतर कर अपनी मांगों के साथ-साथ किसानों के सवाल को भी उठाते हैं और उसे हल करने की मांग करते हैं। किसान आंदोलन ने अपने मंच से केंद्र सरकार द्वारा मजदूरों को बंधुआ बनाने और कारपोरेट पूंजी की लूट को आसान तथा वैध करने की नीयत से लाए गए चार श्रम संहिताओं का विरोध कर मजदूर आंदोलन में भी एक नई ऊर्जा फूंक दी है।
बीस- पिछले नौ महीनों के किसान संघर्ष ने मोदी सरकार की लोकप्रियता को भारी क्षति पहुंचाई है। आरएसएस और भाजपा नीत सरकार के अंदर निहित अलोकतांत्रिक और फासीवादी विचारों और प्रवृत्तियों को नंगा किया है। साथ ही, जनता में संविधान, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हो रहे हमलों, उन्हें कमजोर करके निष्प्रभावी करने को लेकर आक्रोश बढ़ा है। सरकार द्वारा सीबीआई, ईडी, एसआईटी, पुलिस और आईबी जैसी संस्थाओं के दुरुपयोग की पूरी प्रवृत्ति और परियोजना को किसान आंदोलन के तरफ से गंभीर चुनौती मिल रही है। 70 वर्षों में बनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाने और उन्हें और ज्यादा लोकतांत्रिक करने के लिए लड़ाई लड़ने की चेतना प्रगतिशील बौद्धिक वर्गों से लेकर दलित समाज तक प्रबल हुई है। संविधान बचाओ, लोकतंत्र बचाओ का नारा सड़कों पर गूंज रहा है।
इक्कीस- सहयोग, समन्वय, सांप्रदायिक भाईचारा, सामूहिकता, जाति सीमाओं के बंधन को तोड़ना और सबके हित एक हैं, इस प्रवृत्ति ने इस आंदोलन के दौरान नागरिकों की चेतना को रेडिकलाइज करने में अहम भूमिका निभाई है । जो भारत के भविष्य के लिए एक बहुत सुखद संकेत है।
बाईस- न्यायविदों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों तक ने भारत के किसान आंदोलन के समर्थन में आवाज बुलंद की है। भारत सहित दुनिया में कारपोरेट नियंत्रित राष्ट्र-राज्यों के चरित्र को बदल कर जनतांत्रिक समतामूलक समाज बनाने की संभावनाओं के बीज को देखना शुरू कर दिया है। इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है। जब अमेरिका के नेतृत्व में विश्व कारपोरेट्स पूंजी ने समाजवादी परियोजना पर विजय हासिल कर ली थी तो किसी नई दुनिया के सपने को उपहास और घृणा की निगाह से देखा जाता था । इस आंदोलन ने उस सपने को फिर से जागृत कर दिया है । स्वीकृत और सम्मान दिलाया है और उसे यथार्थ में घटित होने के लिए नई ताकत दे दी है । जिसे आने वाले समय में आंदोलनकारियों को आगे बढ़ाना है । वर्ल्ड सोशल फोरम का नारा, एक नई दुनिया संभव है आज फिर महत्व ग्रहण कर रहा है। अमेरिका के आकूपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन द्वारा दिए गए एक प्रतिशत बनाम 99% की लड़ाई को किसान आंदोलन ने आज फिर से भारत सहित दुनिया में पुनर्जीवन प्रदान किया है। इसके लिए किसान आंदोलन को सलाम ही किया जा सकता है।
आंदोलन जब आगे बढ़ता है और उपलब्धियां हासिल करता है तो उसके समक्ष कुछ जटिल नीतिगत व्यावहारिक और आंदलन को एकता बद्ध बनाए रखने के कार्यभार भी उठ खड़े होते हैं, उन्हें हल करके ही आंदोलन को आगे ले जाया जा सकता है। आगे हम इन प्रश्नों पर विचार करेंगें।
(अगली कड़ी में जारी)