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काशीनाथ सिंह सामाजिक संस्थानिक परिवर्तनों को पकड़ने वाले कथाकार हैं

(साठोत्तरी कहानी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर काशी नाथ सिंह का आज जन्मदिन है ।इस मौके पर प्रस्तुत है ‘कथा’ के संपादक, युवा आलोचक दुर्गा सिंह का उनके चर्चित उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर यह लेख: सं)
दुर्गा सिंह 
‘काशी का अस्सी’ काशीनाथ सिंह की किस्सागोई का चर्चित रचाव है। यह दोहरे अर्थ से युक्त है या दो अर्थ देता है। एक तो काशीनाथ सिंह के नजरिये से अस्सी घाट और मोहल्ले का हालचाल तथा दूसरा है काशी में स्थित अस्सी घाट और मोहल्ले का ‘लाइव शो’।
काशीनाथ सिंह किस्सागो बड़े हैं, उनमें समय में घटित होते परिवर्तन को पकड़ने, जानने, समझने की खूबी बहुत है।
लेकिन उनमें एक और खूबी है, जो साठोत्तरी पीढ़ी के कहानीकारों की अपनी आइडेण्टिकल है।इसका असर ट्रीटमेण्ट में साफ दिखता है। कई जगह यह ट्रीटमेण्ट मनुष्य को गरिमाहीन ढंग से प्रस्तुत करता है या बहुत ही हल्के किस्म का हास्यबोध उत्पन्न करता व्यंग्य होता है। ‘काशी का अस्सी’ काशीनाथ सिंह की दोनों खूबियों का बेहतरीन रचनात्मक नमूना है। यह हिन्दी की बहुत चर्चित कृति के रूप में अब दर्ज हो चुकी है।
इस कृति की प्रवेशिका में लिखा है-‘खासा चर्चित, विवादित और बदनाम। लेकिन बदनाम सिर्फ अभिजनों में, आमजनों में नहीं! आम जन और आम पाठक ही इस उपन्यास के जन्म की जमीन रहे हैं!’
अभिजन और आमजन के विभाजन को बड़े ही सरलीकृत ढंग से कर दिया गया है। खास कर हिन्दी समाज में यह विभाजन इतना जटिल है कि अभी यही नहीं पक्के तौर पर कहा जा सकता कि हिन्दी पाठकों का कोई अभिजन भी पूरी तरह से तैयार हो चुका है।
समाजशास्त्र के हिसाब से देखें तो प्रायः हिन्दी के पाठक समुदाय का जो ‘आम जन’ है, उसकी सुरुचि में वर्णवादी स्तरीकरण से जन्मी सुरुचि अधिक है। वह जाने-अनजाने दोनों तरह से है।खैर काशी का अस्सी इसी आम जन और आम पाठक को सामने रख कर लिखा गया है।खैर साठोत्तरी कहानीकारों की खूबी भी रही है, वास्तविकता की जटिलता से बचना और चेतना के पिछले पायदान पर खड़े पाठक के पिछड़े सौन्दर्यबोध या समाजबोध को सहलाना।
बाॅलीवुड सिनेमा और इधर भोजपुरी फिल्मों की उठान में भी इसी तत्व पर अधिक जोर रहा।बहरहाल
काशी का अस्सी में पांच प्रसंग या उपकथाएं हैं। ‘देख तमाशा लकड़ी का’, ‘संतों घर में झगरा भारी’, ‘संतों, असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी’, ‘पांड़े कौन कुमति तोहें लागी’, ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’। हालांकि, खुद में ये स्वतंत्र कहानी भी हैं। यहां ‘पांड़े कौन कुमति तोहें लागी’ प्रकरण या उपकथा पर कुछ बातें-
जैसा कि ऊपर यह बात हो आयी है, कि काशीनाथ सिंह सामाजिक संस्थानिक परिवर्तनों को पकड़ने वाले कथाकार हैं।’पांड़े कौन कुमति तोहें लागी’ किस्से में उनकी यह खूबी मौजूद है।
भारत में लोकतंत्र बहुत सारे पेंचोखम के साथ अंगीकृत हुआ।सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से वर्णवादी व्यवहार-मूल्य संरचना और आर्थिक रूप से मिश्रित अर्थव्यवस्था जिसमें पंचवर्षीय योजना के द्वारा राज्य के नियंत्रण की कोशिश थी, तो विदेशी पूंजी भी खूब आ रही थी।इसे नेहरूबियन माॅडल कहा गया।इस माॅडल में सामाजिक-संस्थानिक रूप प्रायः वर्णवादी सांचे-खांचे में बने रहे।अर्थात कृषि-आधारित सम्बंध या भूमि-सम्बंध और व्यावहारिकता, क्रिया-व्यापार बने रहे।
वंशानुगत पेशे बने रहे।पेशे जन्म और जाति से चलते रहे, बस ऊपर राजनीतिक रूप से लोकतंत्र का एक बेहद कमजोर ढांचा मौजूद था। अर्थात पूंजीवादी लोकतंत्र भारत में आया तो वह योरोप में पहले से ही सामंतवाद के साथ गठजोड़ कायम कर अपनी ऐतिहासिक भूमिका से पीछे हट चुका था।इसलिए भारत के समाज में आधुनिकता सदैव जटिल बनी रही हर स्तर पर।नागरिक निर्माण, नौकरी-पेशा, व्यक्तिगत नैतिकता, राजनीतिक संस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हर स्तर पर।
लेकिन, 1990 के बाद घोषित रूप से भारत में मुक्त अर्थव्यवस्था को स्वीकार करने के बाद आयी पूंजी ने परम्परागत संस्थानिक रूपों को और जटिल व संकटग्रस्त किया।यह और भी अधिक अंतर्विरोधों से भर गया।पांड़े कौन कुमति तोहें लागे में इसमें से धार्मिक-संस्थानिक संकट  और अंतर्विरोध को कथा-रूप दिया गया है।इसे ही इस किस्से का केन्द्रीय तत्व माना जाए।
आधुनिकता, प्रगतिशीलता का पिछड़ेपन से या नये बनते समाज-संस्थान का पुराने समाज-संस्थान से जब द्वन्द्व, अंतर्विरोध अपने मुखर रूप में प्रकट होता है, तो वह एक साथ हास्यबोध और विषाद दोनों को धारण करता है।हालांकि काशीनाथ सिंह विषाद से बच कर निकल गये हैं, जो वही साठोत्तरी खास खूबी है, जिसकी पहले ही चर्चा हो आयी है।दिलचस्प है कि इसी किस्से पर आधारित नाट्य रूपांतरण मशहूर रंगकर्मी उषा गांगुली ने प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने उस छूटे हुए विषाद को शामिल किया और संवेदना के स्तर पर इस किस्से को या रचना को पूर्ण किया।

पांड़े कौन कुमति तोहें लागे की घटनाओं और प्रसंगों या कथानक यह है कि शास्त्री जी के यहां एक फ्रेंच लेडी रहने आती है।उसके लिए जो जगह चाहती हैं, वहां पुरोहित शास्त्री के शिव का स्थान है।अब शिव कहां जाएं! शिव नहीं जाते तो 15000 रूपये हर महीने का नुकसान।रूपये को ध्यान में न रखें, तो परिवार की जिम्मेदारी और खर्चे कैसे पूरे हों।इन सबका समाधान है कि शिव के कमरे को पेइंग गेस्ट रूम में बदलना।पेइंग गेस्ट कल्चर पूंजीवादी सामाजिक सम्बंधों और शहराती जरूरतों की परिणति में प्रचलन में आया।शास्त्री जी के आस पास के केवटों और अन्य अन्त्यज जातियों ने पेइंग गेस्ट कल्चर को अपनाने में देर न की।उनके लिए तो यह वरदान की तरह आया।
उन्होंने इसे अपना कर अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार कर लिया, लेकिन शास्त्री जी के भीतर द्वन्द्व है क्योंकि उनके साथ पिछड़े संस्थानिक मूल्य जुड़े हैं जो पहले उन्हें बैठे बिठाये अन्न धन दिला देते थे, लेकिन अब जजमान रहे नहीं, उनकी जगह एक फ्रेंच लेडी आयी है, जो पर्यटक, यात्री, और ज्ञानार्थी है।पुराने जजमान तो पाप छुड़ाने और पुण्य लूटने आते  आते थे, यह नया जजमान जो ‘पेइंग गेस्ट’ के रूप में उपस्थित है वह ज्ञान और शिक्षा और प्राकृतिक-मानवीय सौन्दर्य  की आकांक्षी है पुण्य की नहीं। अब शास्त्री के धन समस्या या आजीविका के संकट का समाधान इसी नये जजमान के हाथ में है, बस आड़े आ रहे शिव ।
एफजी बेली अपने शोध में दिखाते हैं कि जब ब्रिटिशर्स आये तो अपनी जरूरत की चीजों का निर्माण भारत में ही करने की सोचे लेकिन वे चीजें बनाने को ऊंची जातियां वर्णवादी निषेध के चलते न तैयार हुईं लिहाजा अंत्यज और निम्न जातियों ने वे पेशे अपना कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारी और फिर सामाजिक उच्चता का दावा किया
‘पेइंग गेस्ट’ अर्थात ऐसा किरायेदार जो मेहमान की सी सेवा लेगा और उसके बदले में नगद मुद्रा देगा।वर्णवादी श्रेष्ठता बोध से घिरा कोई कमरा तो किराये पर दे सकता है लेकिन सेवा नहीं देगा क्योंकि सेवा देना तो निचले वर्ण का कर्म है।लेकिन यह वर्ण निषेधी कर्म कर के जगुआ मल्लाह अपनी स्थिति सुधार लेता है।जगुआ ‘टाइप’ है।कन्ट्रास्ट में है शास्त्री जी के चरित्र को तानने के लिए।
शास्त्री जी का तनाव, द्वन्द्व शुरू होता है। इस तनाव और द्वन्द्व का स्वाभाविक ऐतिहासिक समाधान किस्से में वास्तविक घटना के रूप में नहीं घटित होता है, बल्कि सपने में घटित होता है।जबकि है वास्तविकता में पूंजी की संस्कृति के दबाव में घटित होने वाली घटना।जगुआ के बच्चे कान में ईयरफोन खोंस कर और बेटी-पत्नी अगरबत्ती की सी खुश्बू लिए शास्त्री जी के घर के सामने से गुजरती जबकि पहले वे घिन मारती थीं।सामाजिक उच्चता के बोधासन पर बैठे शास्त्री जी आर्थिक हीनता के बोध से घिर जाते हैं।अपने ही सिद्धांत बेड़ी लगने लगते हैं।परम्परागत पुरोहिती के पेशे का हिसाब लगाने लगते हैं-दू आना-चार आना से कितना होगा जबकि ‘पेइंग गेस्ट’ बना लेने से पन्द्रह हजार तो किराया साढ़े चार हजार और
यह हिसाब किताब एक पुरोहित को उसकी श्रद्धा आदि को ठिकाने लगाने पर विवश कर देता है।
देखिए कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कार्ल मार्क्स क्या लिखते हैं-उसने मनुष्य को अपने “स्वाभाविक बड़ों” के साथ बाँध रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला और नग्न स्वार्थ के “नकद पैसे-कौड़ी” के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया।
धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक को, वीरोचित उत्साह और कूपमंडूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फीले पानी में डुबा दिया है।…जिन पेशों के संबंध में अब तक लोगों के मन में आदर और श्रद्धा की भावना थी, उन सब का प्रभामंडल पूंजीपति वर्ग ने छीन लिया।…पारिवारिक संबंधों के ऊपर से भावुकता का पर्दा उतार फेंका है और पारिवारिक संबंध को केवल द्रव्य के संबंध में बदल डाला है।
ऐसा नहीं है कि 1990 के बाद मुक्त व्यापार और बाजार का हिस्सा बनने के बाद पूंजीवादी विकास ने भारतीय समाज को उसी तरह प्रभावित किया, जैसा कि उसने योरोप में अपने आगमन के समय किया था।खुद योरोप में ही 1848 तक आते आते पूंजीवाद ने सामंतवाद से समझौता कर लिया था और एक गठजोड़ कायम कर लिया।भारत में 1857 के बाद यही गठजोड़ सक्रिय हुआ, जिसने भारतीय समाज में जो कुछ भी सहज, सरल, मानवीय था उसे जटिल  और अमानवीय बना दिया।
और कम व बेशी यही चीज आजादी के बाद तक चलती रही और 1990 के बाद जब उदारीकरण, वैश्वीकरण के नाम से वह आया तो जैसे ही आर्थिक मंदी आयी उसने भारत की सबसे पिछड़ी और प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी शक्तियों के साथ, वर्णवाद के साथ गठजोड़ कायम कर लिया।लेकिन, 1990 के बाद जब मुक्त व्यापार और बाजार के रास्ते पूंजीवाद का आगमन हुआ तो उसकी स्वाभाविक गतिकी के कुछ प्रभाव और परिणाम भारत के समाज पर दिखने लगे। जिसमें एक था परम्परागत पेशों के समक्ष उपस्थित संकट।शास्त्री जी का संकट इसी में से एक है।यह संकट एक साथ हर्ष और विषाद दोनों पैदा करता है।अर्थात जब कहानी में यह घटनाओं और प्रसंगों में व्यक्त होता है, तो वह गुदगुदाता भी है और रुलाता भी है।हालांकि, काशीनाथ सिंह तयशुदा ट्रीट देते हैं इस कहानी को, जिसके चलते संवेदना का दूसरा पक्ष नहीं आ पाया।
खैर अच्छा यह है कि साठोत्तरी ऐब की मौजूदगी के बावजूद यथार्थ की अपनी गतिकी के चलते ‘पांड़े कौन कुमति तोहें लागे’ प्रकरण, किस्सा-कहानी अपने समय के सांस्कृतिक बदलाव को पकड़ने व व्यक्त करने की खूबी लिए हुए है।इसकी इसी खूबी के चलते रंगकर्मियों से ले कर फिल्मकारों तक को इस कहानी ने आकर्षित किया!

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