सुपरस्टार रजनीकांत की जानी पहचानी शैली की फ़िल्म होते हुए भी महज एक कल्ट फ़िल्म नहीं है।
मनोरंजन और यथार्थ का मेल
यह देश के वर्तमान राजनीतिक माहौल का नाटकीय रूपक बनने की भरपूर कोशिश करती है और इसमें दूर तक सफल भी होती है।
यों तो यह झोपड़पट्टी की जमीन हथिया कर उस पर जगमगाते आवासीय प्रोजेक्ट खड़े करने की चाह रखने वाले ताक़तवर राजनेता के साथ गरीब नायक के संघर्ष की वही घिसीपिटी कहानी है। इसके बावज़ूद विकास और देशभक्ति के नाम पर चलनेवाली फ़ासिस्ट राजनीति की पोल खोलने वाली फ़िल्म बनने में भी कामयाब हो जाती है।
पी रंजीत ने मनोरंजन प्रधान शुद्ध व्यावसायिक फ़िल्म के खोल में एक विचार-प्रधान यथार्थवादी फ़िल्म परोस दी है।
यह दुस्साहस वे अपनी मद्रास और कबाली जैसी पहले की फिल्मों भी कर चुके हैं। लेकिन इस तरह एक तीर से दो निशाने साधते हुए इस बार वे पहले की तरह मुंह के बल नहीं गिरे हैं।
मनोरंजन के साथ कोई समझौता न करते हुए भी वे समय की सच्चाई को काफी कुछ उजागर कर गए हैं। ठीक इसी कारण, न कि इसके बावजूद, वे दर्शकों को कुछ सोचने का मसाला भी सरका देते हैं।
सिनेमा के बौद्धिक दर्शक को फ़िल्म में रजनीकांत के लटके झटके बोरिंग लगेंगे। काला यानी रजनी को छोड़कर बाकी के सब चरित्र कमजोर लगेंगे। कथानक जहां-तहां तर्कबुद्धि की पकड़ से छूटता जान पड़ेगा।
विस्मय और मनोरंजन की चाह रखनेवाले दर्शकों को मज़े में कोई कमी नहीं महसूस होगी, और कुछ सोचने का मसाला घलुए में मिल जाएगा।
कहानी में घुमाव
यह सब करने के लिए पी रंजीत ने घिसी पिटी कहानी में कई घुमाव डाल दिए हैं।
काला में रजनीकांत शक्तिशाली दुश्मन को अकेले धूल चटाने वाले हीरो नहीं हैं। वे बार बार धारावी की कुल जनता से एकजुट होकर लड़ने की अपील करते हैं। इसके बावजूद वे जीत कर नहीं निकलते। मारे जाते हैं। जनता की असली एकजुटता और लड़ने की ताकत उनकी मौत के बाद उभरती है। सिनेमाहाल में बैठे काला के दीवानों के लिए इसका मतलब साफ है। हीरो तुम्हें नहीं बचा पाएगा। हीरो को बचाने के लिए तुम्हें एकजुट होकर लड़ना होगा।
काला और उसके बेटे लेनिन में फ़िल्म की शुरुआत में ही इस बात पर बहस होती है। धोबीघाट को बिल्डर माफिया से बचाने की लड़ाई में बेटा अपने बाहुबली बाप को बीच में न पड़कर जनता को ख़ुद लड़ने देने की चेतावनी देता है।
बाप इस चेतावनी की अनसुनी तो करता ही है, आगे कई बार क्रांतिकारी कह कर उसका मज़ाक भी उड़ाता है। लेनिन नाम भी सांकेतिक है। काला उसकी खिंचाई करता है कि इस नाम के चलते उसे गाली भी नही दी जा सकती! बीच लड़ाई में ही जब लेनिन अपनी प्रेमिका के साथ घर छोड़कर जाना चाहता है, तब उसका अवसरवादी चेहरा भी उजागर होता है।
लेकिन इतने भर से यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि यह फ़िल्म वामपंथी रास्ते को नकार कर दलितवादी राजनीति की हिमायत करती है। आगे बाप-बेटे समूची जनता के साथ मिलजुल कर लड़ते हैं। जनसंघर्ष की बेटे की कल्पना और किसी भी कीमत पर अपनी जमीन न छोड़ने की बाप की ज़िद – दोनों के मेल से ही लड़ाई आगे बढ़ती है। इस बात को फ़िल्म के अखीर में काले, नीले और लाल के साथ तमाम रंगों के विस्फोट के रूप में भी दिखाया गया है। यह जरूर है कि लेनिन का किरदार काला के सामने बहुत हल्का जान पड़ता है। इस कारण वाम बहुजन एकता की थीम कुछ दबी-दबी सी रहती है। यह फ़िल्म के आशय का जरूरी हिस्सा रहते हुए भी मजबूत हिस्सा नहीं बन पाती। यह निर्देशक की चूक है।
उलट रामकथा
फ़िल्म का दलित बहुजन कोण केवल बाबा साहेब की तस्वीर और जय भीम के नारे तक सीमित नहीं है। यह ब्राह्मणवाद की सबसे मजबूत विरासत रामकथा को पलट कर कहने की तजवीज़ से भी उभरता है। रामकथा सुनने वाला माफिया पलट राजनेता हमेशा श्वेत वस्त्र धारण करता है। वह ख़ुद को असुरों का संहार करनेवाले वाले राम की भूमिका में पेश करता है। उधर काला का नाम भी काला है और रंग भी। हरि दादा के लिए वह रावण है, जिसका संहार किया जाने वाला है। लेकिन फ़िल्म के प्लाट में सत्तासम्पन्न हरि दादा खलनायक है, जबकि आम आदमी का नेता काला नायक।
इस उलटबांसी में इशारा यह है कि गौरवर्णी सवर्ण अश्वेत दलितों की मेहनत से कमाई गई जमीन पर कब्ज़ा करना चाहते हैं। दलित जब इस गुंडई का विरोध करते हैं, तब राक्षस बताकर उनका संहार कर दिया जाता है। इसलिए ऐतिहासिक सच्चाई का पता लगाने के लिए रामकथा को भी पलट कर पढ़ने की जरूरत है।
यों रामकथा भारतीय समाज में सदियों से जारी जातीय वर्चस्व और उत्पीड़न का आख्यान बन जाती है। लेकिन इस आख्यान के केंद्र में जमीन पर कब्जे की लड़ाई है, जो जैसी कथित सतयुग में थी, वैसी ही आज भी है। यह बात इस फ़िल्म के शुरू होते ही किसी अदृश्य सूत्रधार की तरफ से कह दी गई है। यह सूत्रधार शुरुआती प्रवचन के बाद गायब हो जाता है, लेकिन दर्शकों को इस बात के लिए तैयार कर जाता है कि वे फ़िल्म को महज एक मनोरंजक कहानी की तरह नहीं, बल्कि जमीन के लिए चलने वाले सत्ता संघर्ष के रूपक की तरह देखें। जमीन ही वास्तविक संपत्ति है। बाकी सब माया है।
नया धारावी
फ़िल्म का दूसरा घुमाव धारावी को नए ढंग से पेश करने में है। यह धारावी एशिया का सबसे बड़ा स्लम तो है, लेकिन यह केवल गंदगी, गरीबी और गलाज़त का घर नहीं है। यह बहुत सच्चे, भोले , प्यार करने वाले जिंदादिल लोगों की बस्ती भी है। वे मिलजुल कर रहना और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ना भी जानते हैं। काला की शक्ति किसी सुपरमैन की नहीं, इसी धारावी की सामूहिक शक्ति है, यह बात यह फ़िल्म अनेक छोटे मोटे प्रसंगों में बताती चलती है।
सबके पास शौचालय की सुविधा नहीं है। लंबी लाइन लगानी पड़ती है। लेकिन जब हर घर में शौचालय की मांग उठाई जाती है तब एक महिला तंज करती है- ‘अगर पब्लिक टॉयलेट नहीं रहे तो लड़के लाइन मारने कहां जाएंगे’!
धारावी में रोमांस के लिए न और समय है, न और जगह। लेकिन यह एक वाक्य धारावी के अभाव और उसकी जिंदादिली दोनों को व्यक्त कर देता है।
तीसरा घुमाव यह है कि धारावी के दुश्मन कहीं बाहर से नहीं आए हैं। वे भी यहीं पले बढ़े हैं। वे भी इलाके को जानते पहचानते हैं और रहनेवालों की खूबियां-खामियां भी। वे बहुत छोटी हैसियत से छोटे मोटे अपराधों के सहारे सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे हैं । इसलिए उन्हें यकीन है कि वे बहला फुसला कर या डरा धमका कर या लोगों में फूट डालकर, उन्हें दंगे फसाद में उलझाकर भी अपना काम निकाल सकते हैं। कथानक में बुनी गई इन्ही बारीकियों के चलते दर्शक को बार बार अहसास होता है कि वह महज एक मनोरंजक फ़िल्म नहीं देख रहा है।
फ़ासीवाद की पहचान
धारावी की जमीन पर कब्ज़ा करने की नीयत रखनेवाले जिस सफ़ेदपोश माफिया राजनेता को हाज़िर किया गया है, वह एक राजनीतिक पार्टी से सम्बंधित है। वह एक अकेला विलेन नहीं है। पार्टी से जुड़े होने के नाते वह एक खास तरह की राजनीति का प्रतीक बन जाता है। यह राजनीति देशभक्ति, राष्ट्रवाद, विकास, डिजिटल धारावी और धार्मिक भावनाओं की रक्षा के साथ-साथ हिन्दू मुस्लिम विद्वेष की बातें भी जमकर करती है। लेकिन दर्शक जानते हैं कि ये सारी बातें सिर्फ़ जमीन हड़पने के अभियान का हिस्सा है।
पहले धारावी के लोगों को डिजिटल विकास के सब्ज़बाग बेचने की कोशिश जाती है। इस कोशिश के नाकाम रहने पर आवासीय अधिकार के लिए एक एनजीओ का इस्तेमाल किया जाता है।जब या भी नाकाम हो जाता है तो साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाया जाता है, दंगे भड़काए जाते हैं। चुनचुन कर हत्याएं की जाती हैं। फ़िल्म कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती कि कोई दर्शक फ़िल्म के राजनैतिक संदर्भ को समझने से रह जाए।
विकास के सब्ज़बाग और असहमति का क़त्ले-आम फ़ासीवादी राजनीति के लक्षण हैं। एक दृश्य में ज़रीना यानी कि हुमा कुरैशी फ़ासीवाद को बाक़ायदा परिभाषित भी करती हैं- सवाल पूछने वालों को मार डाला जाए तो इसे फ़ासीवाद कहते हैं!
इस फ़ासीवाद को जीवंत किया है नाना पाटेकर ने हरि दादा की विलक्षण भूमिका में। यों तो इस फ़िल्म के सभी कलाकारों ने सधी हुई एक्टिंग की है, लेकिन नाना पाटेकर सबसे आगे नज़र आते हैं। यह एक ऐसा खलनायक है, जिसकी हर बात, हर अंदाज़ और हर चाल से शालीनता टपकती है। वह हत्या करने की बात भी बेहद शालीनता और मासूमियत के साथ कर सकता है। आप उसकी साफगोई और निष्कपटता पर फिदा भी हो सकते हैं , जब वह रजनीकांत से कहता है- ‘अगर तुम मेरे रास्ते में नहीं आओगे तो मैं भला तुम्हे क्यों मारूंगा?’
पाटेकर और रजनी की बातचीत फ़िल्मप्रेमियों के लिए एक अद्भुत उपहार है। यह एक स्टार और एक अभिनेता की जबरदस्त भिड़ंत है। लेकिन निर्देशक की कल्पनाशीलता तब दिखाई देती है, जब पाटेकर की नन्ही सी बच्ची कमरे में आकर अपने पापा से सहज भाव से कहती है- ही इज़ अ नाइस मैन। डोंट किल हिम।
बच्ची जानती है कि उसका पिता हत्यारा है। लेकिन उसके लिए यह एकदम सहज और सामान्य स्थिति है। हत्यारे का यह सहज स्वीकार समाज में फ़ासीवाद के जड़ पकड़ लेने का सबसे प्रधान लक्षण है।