जनवरी की सर्दी और सड़कों पर जनसैलाब
जनवरी का अंतिम सप्ताह ठीक नहीं रहा झारखंड के लिए। झारखंड के कई जनपदों के मुख्यालयों के सामने धरना प्रदर्शन हुए। सड़कें जाम हुईं। आदिवासी समुदाय के लोग सरकार के खिलाफ नारा लगाते और क्रोध से बोलते नज़र आए। सारा बवाल उस सरकारी निर्णय के आने के बाद खड़ा हुआ, जब सरकार ने जिला स्तर पर नौकरी के लिए आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में भोजपुरी, मगही और अंगिका को क्षेत्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने की अधिसूचना जारी की। बोकारो, धनबाद और रांची की सड़कों पर हजारों आदिवासी लड़के-लड़कियां सरकार के विरोध में धरना प्रदर्शन करते देखे गए। जनवरी के अंतिम सप्ताह में इस विरोध ने व्यापक जनांदोलन का रूप ले लिया।
विरोध प्रदर्शन की असली वजह क्या है?
विरोध की शुरूआत 24 दिसंबर 2022 को झारखंड कार्मिक, प्रशासन सुधार एवं राजभाषा विभाग द्वारा जारी उस अधिसूचना से हुई, जिसमें दर्शाया गया था कि झारखंड कर्मचारी चयन आयोग द्वारा जिला स्तर पर कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षा में मगही, भोजपुरी और अंगिका प्रदेश की दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ शामिल होगी।
बोकारो और धनबाद के स्थानीय सचेत आदिवासियों को उनकी अपनी भाषा में भोजपुरी और मगही का यह अंत:प्रवेश उनके अधिकारों में हस्तक्षेप जान पड़ा। बोकारो और धनबाद के आदिवासी समझ नहीं पा रहे हैं कि इन जिलों में मगही और भोजपुरी बोलने वालों की संख्या इतनी कम है कि इन भाषाओं को नौकरी में चयन का आधार बनाना चिंतत करता है और असुरक्षाबोध पैदा करता है। इस क्षेत्र में कार्य करने वाले आदिवासी कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह झारखंडियों के लिए सरकारी नौकरी के अवसरों को कम करने की कोशिश है। आगे वे कहते हैं लातेहार, गढ़वा या पलामू में इन भाषाओं को शामिल करने का हम विरोध नहीं करते, क्योंकि इन क्षेत्रों में कुछ आबादी इन भाषाओं को बोलती है।
क्या यह प्रदर्शनकारियों के लिए एक मुद्दा भर है?
भाषा के जिस मुद्दे को लेकर वहां के आदिवासी कार्यकर्ता सड़क पर हैं, उसकी जड़ थोड़ी गहरी है। भाषा का यह सवाल पेंचदार प्रतीत होता है। जाहिर है इस मुद्दे का संबंध झारखंड के मूलनिवासी पहचान से है। इन गैर-आदिवासी भाषाओं को शामिल न करने के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासी समाज के चिंतक इस मुद्दे को झारखंड सरकार की ‘अधिवास नीति’ से जोड़ते हैं। इसीलिए वे इन भाषाओं के विरोध के साथ-साथ राज्य की अधिवास नीति के लिए सन 1932 के दस्तावेजों को मान्यता देने के लिए भी धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। उनकी मांग है कि राज्य अधिवास के लिए सन 1932 को आधार वर्ष मान लिया जाए। गौरतलब है कि हेमंत सरकार के पहले जो सरकार थी, उसने राज्य में अधिवास के लिए झारखंड को फिर से परिभाषित करने पर विचार किया। सन 2000 में झारखंड के निर्माण के बाद वहाँ के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने स्थानीय लोगों को सरकारी नौकरियों में लाभ देने के लिए अधिवास के आधार वर्ष में परिवर्तन पर विचार किया। दरअसल ऐसे विचार को कार्य रूप में परिणत करने से संविधान की पांचवी अनुसूची का उल्लंघन भी होता। साथ ही आधार वर्ष को पहले अर्थात कम करने से राज्य के संसाधनों की लूट और आदिवासी पलायन को बल मिलता। दूसरे राज्य के पैसे वालों के लिए राज्य के मूल निवासी होने में आसानी हो जाती, जिससे आदिवासियों के अधिकारों के हनन और अप-संस्कृतिकरण की संभावना बढ़ जाती। इसीलिए गैर-आदिवासी भाषाओं की स्वीकृति का सवाल उतना मासूम नहीं है, जितना उसे दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। प्रदेश को बीच-बीच में इस तरह की अतार्किक स्थितियों का सामना संभवत: इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि वहां की कार्यपालिका में तैनात अधिकांश अफसर गैर-आदिवासी हैं और आदिवासी मुद्दों के प्रति असंवेदनशील हैं। कार्यपालिका और नीति निर्माण में आदिवासी अधिकारियों का अभाव कई विषयों को पेंचीदा बना देता है।
झारखंड में अधिवास नीति को लेकर हमेशा से खूब खींचा-तानी होती रही है। चरम दक्षिणपंथी विचारधारा की राजनीतिक पार्टी राज्य की जनसांख्यिकीय को प्रभावित (कु-प्रभावित) करने और मूलनिवासी आदिवासियों को अल्पसंख्यक बनाने के लिए बड़ी व्यग्र नज़र आती रही है। मरांडी सरकार के बाद सन 2016 में आई रघुबर दास सरकार “उदारअधिवास नीति” लेकर आई, जिसमें राज्य में पिछले 30 वर्षों से रोजगार करने वालों के लिए वहाँ का मूलनिवासी होना आसान बना दिया गया। रघुवर दास सरकार ने सन 1985 को आधार वर्ष बना दिया, जिसे सन 2019 में सत्ता में आने के बाद हेमंत सोरेन सरकार ने रोक लगाते हुए इस पर विचार करने के लिए एक कैबिनेट उप-समिति का गठन किया।
भाषा को लेकर इस तरह बातें जनवरी माह में शुरू हुईं। दूसरे आदिवासी राज्यों में बड़ी आबादी द्वारा आदिवासी भाषाओं का व्यवहार होने के बावजूद, उन्हें सूबों में राज्य भाषा का दर्जा नहीं मिल पाता है। झारखंड में आदिवासियों के प्रबल विरोध के कारण सरकार ने इस प्रस्ताव को फिलहाल ठंडे बस्ते में जरूर डाल दिया है। मगर यह सोचा जाना चाहिए कि ऐसी कौन परिस्थितियां हैं, जो भाषा को ढाल बनाकर आदिवासियों को हासिल संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार और पहचान को नेपथ्य में ले जाने के लिए व्याकुल हैं। यही कारण है कि झारखंड के आदिवासियों को अपनी पहचान, जैसे धूमकुड़िया, गोटुल, सरहुल, सोहराई पर हो रहे हमलों के साथ-साथ भाषा और अधिकार के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ रहा है। लगातार लड़ते रहना आदिवासियों की नियति बन गई है।