समकालीन जनमत
पुस्तक

आधुनिक स्त्री जीवन का दस्तावेज : मिट्टी का दुःख

डॉ. वंशीधर उपाध्याय


बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिंदी काव्य परम्परा के भीतर जो स्वर उभरे उनमें स्त्री रचनाकारों की लेखनी का स्वर मुकम्मल और प्रमुख है। भारतीय साहित्य में स्त्री संघर्ष की एक लम्बी परम्परा रही है जो संस्कृत, बौद्ध , लोक, आधुनिक तथा वर्तमान साहित्य में देखने को मिलती है। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशक में स्त्री रचनाकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से ‘अनुभूति की प्रमाणिकता’ को जिस रूप में अभिव्यक्त किया है, वह स्त्री लेखन को नया आयाम देता है।

वर्तमान में आए काव्य संग्रहों पर विचार करें तो कल्पना पन्त का काव्य संग्रह ‘मिट्टी का दुःख’ इसका सार्थक उदाहरण है। यह काव्य संग्रह इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें स्त्री जीवन की मुकम्मल तस्वीर उभर कर सामने आती है। एक लड़की की बाल मन की अभिव्यक्ति के साथ ही साथ स्त्री जीवन में घटित होने वाले सभी प्रमुख पड़ावों को कल्पना पन्त ने बहुत ही बारीकी से अपने संकलन में उकेरा है। यह पड़ाव जितना स्त्री मन की आतंरिक अनुभूति का है उतना ही सामाजिक और राजनीतिक परिवेश का भी। अगर इस काव्य संग्रह को आधुनिक स्त्री जीवन का दस्तावेज कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें सन् 1984 ई० से लेकर 2021 ई० तक के परिवेश को लेखिका ने अपनी कविताओं में संजोया है। यह संग्रह स्त्री जीवन के विविध छवियों का गुलदस्ता है। (यानी बालपन से लेकर सहेली,पत्नी, माँ और शिक्षिका बनने तक का संघर्षपूर्ण स्त्री जीवन का दस्तावेज़।) इस संग्रह को पढ़ते हुए तत्कालीन दौर के सामाजिक और राजनैतिक परिवेश में स्त्री जीवन के संघर्ष को समझा जा सकता है । यही कारण है कि पाठक जब इस संग्रह से गुजरता है तो निर्मला पुतुल की यह काव्य पंक्ति बार-बार टकराती है –तन के भूगोल से परे / एक स्त्री के / मन की गाँठें खोलकर / कभी पढ़ा है तुमने / उसके भीतर का खौलता इतिहास।

इस संग्रह की भूमिका लिखते हुए प्रसिद्ध आलोचक और संपादक आशुतोष कुमार ने ठीक ही रेखांकित किया है कि – “कल्पना की कविताएँ जीवन और धूप से छन कर आई हुई सहज सुन्दर कविताएँ हैं। ये कविताएँ हम तक ऐसे आती हैं, जैसे जीवन का कोई लम्हा धड़कता हुआ चहचहाता हुआ खिलखिलाता हुआ हमारी हथेली पर आ बैठा हो। आकार में प्राय: छोटी, अनुभूति में जटिल।” अनुभूति की इस जटिलता को लेखिका ने बहुत ही सजगता से अभिव्यक्त किया है-
मेरे भीतर / कई जंग खाई / दीवारें थी / जो रेजा-रेजा / गिर रही है…. / गिरती हुई दीवारों / की झिर्रियों से / आहिस्ता- आहिस्ता रौशनी / उतर रही है।

वास्तव में ये जो दीवारें हैं, वे जड़वादी परम्परा और रूढ़िवादिता की हैं जो धीरे-धीरे टूट रही हैं। इसका मुख्य कारण अनुभव और शिक्षा के माध्यम से स्त्रियों के भीतर स्वचेतना का विस्तार होना है। वे अपनी अस्मिता और हक़ की लड़ाई खुद लड़ रही हैं क्योंकि उन्हें यह भली-भांति मालूम हो गया है कि जब तक इस पुरुषवादी समाज में मनुष्य की चेतना का रूपांतरण नहीं होगा पुरुष और स्त्री के बीच समानता होना सम्भव नहीं है। वे इस बात को भी जान गई हैं कि पुरुषों की बनाई इस दुनिया में सबसे अधिक अत्याचार स्त्रियों ने झेला है।

वर्तमान दौर में स्त्री अस्मिता और विमर्श का संघर्ष तीन स्तरों पर चल रहा है। अभी भी तीन मजबूत दीवारें स्त्री मुक्ति की राह में बाधक हैं। पहला- पितृसत्ता, दूसरा सामंतवाद और तीसरा बाजारवाद। इन दीवारों को गिराने के लिए दुनिया के तमाम हिस्सों में जनवादी आन्दोलन चल रहे हैं जिसमें स्त्रियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हैं। संघर्ष के इस चेतना को रेखांकित करते हुए कल्पना पन्त लिखती हैं-
मैं यहाँ हूँ जिन्दा! / अभी मरने की फुरसत नहीं है! / बाकी अभी सारी लड़ाईयाँ हैं, / मरने को अभी एक उम्र पड़ी है../

इस कविता को स्त्रीवादी संघर्ष के मेनिफेस्टो के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। निराला की कविता ‘मार खाई रोई नहीं ’ से आगे जाकर यह कविता स्त्री संघर्ष की मुकम्मल तस्वीर पेश करती है। वैसे तो दुनियां की तमाम स्त्रियों का संघर्ष अपने आप में इतिहास का स्वर्ण अध्याय है लेकिन पहाड़ की स्त्रियों का संघर्ष सत्ता, समाज के साथ – साथ हिंसक जानवरों से है। उनका संघर्ष और साहचर्य मनुष्य और मनुष्येत्तर दोनों के साथ है। इस कारण उनके यहाँ दुःख जितना स्थाई भाव है उतना ही प्रेम का फलक विस्तृत है-
वह एक दिन जब कब्र में सो जाऊँगी / तब भी तुम्हारे पास आऊँगी / मेरे नन्हों! / तुम्हारे सपनों में रोज उतरती हूँ / अँधेरी पथरीली सतह से लड़ती हूँ / क्योंकि तुम्हे प्यार करती हूँ /

इस संग्रह में कुल 103 कविताएँ है। इन कविताओं पर गौर करें तो इन्हें चार स्तरों पर विभाजित किया जा सकता है। पहला- भोली-भाली पहाड़ी लड़की के बाल मन में उठती उमंगें, दूसरा- प्रकृति के अनछुए और अनूठे बिम्ब, तीसरा- पारिवारिक जीवन का प्रेम और संघर्ष, चौथा जो इस संग्रह का मजबूत पक्ष है- गहन सामाजिक और राजनीतिक बोध की कविताएँ, जहाँ पितृसत्ता और राजसत्ता दोनों को चुनौती देता स्त्री स्वर मुखर है। उदहारण के तौर पर कल्पना पन्त की कविता ‘फौलाद बनो अब’ देखिए –
लड़कियों! / इतनी पीड़ा, इतनी वहशत / मत सहन करो अब / चट्टानों को तोड़-मोड़ / फौलाद बनो अब / अपने भीतर की / ज्वाला को…. / वहन करो अब / अपने ही अपराधी को / मत सहन करो अब / दहन करो अब!।

यह कविता अपनी अभिव्यक्ति में प्रतिरोध की ऊँचाई पर पहुँच, नारे में तब्दील हो जाती है । जो कविताएँ प्रतिरोध की चरम बिंदु पर पहुँचती हैं वे स्वाभाविक रूप से नारे में तब्दील हो जाती हैं। उदहारण के तौर पर ‘धूमिल’ और ‘गिर्दा’ की कविताओं को देख सकते हैं। इस तरह की कविताओं में बिम्ब की तलाश करेंगे तो निराशा हाथ लगेगी, क्योंकि ऐसी कविताएँ आक्रोश की अभिव्यक्ति के लिए बिम्ब से ज्यादा सहज सम्प्रेषण को महत्त्व देती हैं। इस कविता का जो कलेवर है, वह धूमिल की ‘भूख में तनी हुई मुट्ठी’ जैसा प्रतीत होता है। यह कविता शिल्प में इतनी प्रभावशाली है कि सम्प्रेष्ण के लिए यहाँ किसी बिम्ब की जरूरत नहीं पड़ती है। कल्पना पन्त की कविताओं को विश्लेषित करते हुए आशुतोष कुमार ने ठीक ही रेखांकित किया है कि इनकी कविताएँ ‘आकार में प्राय: छोटी तथा अनुभूति में जटिल हैं’।

लेखिका का अधिकांश समय पहाड़ में गुजरा है। यही कारण है कि इस संग्रह की अधिकतर कविताओं में प्रकृति के अनछुए बिम्ब तथा पहाड़ के जीवन का दुःख-दर्द उभर कर सामने आया है। लेखिका के यहाँ ‘पहाड़’ के कई रूप हैं। (ठीक वैसे ही जैसे शमशेर के यहाँ ‘शाम’ के कई रूप हैं।) पहाड़ के विस्थापन पर हिंदी में कई महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखी गई हैं। पहाड़ के जीवन को देख कर ऐसा लगता है कि विस्थापन इसका स्थाई भाव बन गया है। कल्पना पन्त की कविता ‘पहाड़ के सीने पर पहाड़ था’ इसी भाव को तोड़ती दिखती है। इसलिए लेखिका पहाड़ के दुःख से भागती नहीं हैं बल्कि उसे मिटाने के लिए वह नदी बन जाना चाहती हैं, महादेवी वर्मा की ‘मैं नीर भरी दुःख बदली’ की तरह।
पहाड़ के सीने पर एक पहाड़ था / एक पहाड़ और था / जो दिल्ली से दिख रहा था / गर्मियों के मौसम में, / एक पहाड़ दिन रात जूझ रहा था मौसम से, / एक पहाड़ हमारे और / हमारे अपनों के बीच भी आ गया था, / एक पहाड़ मैदानों में निर्झर की मानिंद / बह रहा था / मगर खुद में सूखा / सह रहा था / मैं अब पहाड़ पर / नदी होना चाहती हूँ।/

कल्पना पन्त की कविताएँ पहाड़ का उल्लास तथा दुःख, स्त्री जीवन के संघर्ष और वर्तमान राजनीतिक संकट के बारे में पाठक को सजग करती हैं। साथ ही साथ आतंरिक दुर्बलताओं के बारे में सावधान करती हैं। उनकी कविताएँ हमें आत्मविश्लेष्ण के लिए प्रेरित करती हैं। उनकी कविताओं में भावुक प्रलाप नहीं बल्कि सजग वैचारिक दृष्टि है जो पाठक को जिंदगी की सच्चाई से परिचित कराता है। वह सच्चाई जिसमें कोमलता, स्नेह, ममता, विश्वास, आक्रोश, कुरूपता, ग़रीबी इत्यादि रंग भरे पड़े हैं। इसलिए इस संग्रह में जहाँ एक तरफ़ ‘माँ कहती है’, ‘हवा में शामिल लड़कियां’, ‘अभी भरपूर जी लेने का मन है’, ‘स्पर्श’, ‘तुम्हारा आना’ आदि संवेदनात्मक कविताएँ हैं तो दूसरी तरफ ‘दंगा और मौत’, ‘अजीब समय है’, ‘जंग खाई दीवारें’, ‘जंगलराज’, ‘फ्रांस की जीत पर’, ‘एक और हस्तिनापुर, जैसी गहन राजनैतिक कविताएँ हैं।

ये कविताएँ बेहतर दुनियां के निर्माण में संघर्षरत मनुष्य को नयी ताजगी से भर देती हैं। यह संग्रह स्त्री काव्य लेखन की परम्परा को समृद्ध करता है। साथ ही मिट्टी के दुःख से परिचित कराता है, जहाँ जीवन के लिए और जीवन के पक्ष में लड़ती हुई स्त्री का स्वर पाठक को आह्लादित करता है।

 

कविता संग्रह: मिट्टी का दुःख
कवयित्री: कल्पना पंत
समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून
मूल्य ₹150

 

 

कवयित्री कल्पना पन्त, अध्ययन- नैनीताल अध्यापन- वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में प्रवक्ता हिन्दी के पद पर एक वर्ष कार्य तदनन्तर लोक सेवा आयोग राजस्थान से चयनित होकर राजकीय महाविद्यालय धौलपुर तथा राजकीय कला महाविद्यालय अलवर में तीन वर्ष और 1999 में लोकसेवा आयोग उ० प्र० द्वारा चयन के उपरान्त बागेश्वर , गोपेश्वर एवं ऋषिकेश के रा०स्ना०मेंअध्यापन, मई 2020 से सितबंर 2021 तक रा० म० थत्यूड़ में प्राचार्य पद पर,वर्तमान में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के त्रषिकेश परिसर में आचार्य
लेखन- पुस्तक-कुमाऊँ के ग्राम नाम-आधार सरंचना एवं भौगोलिक वितरण- पहाड प्रकाशन, 2004
कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षाएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित
यू ट्यूब चैनल-साहित्य यात्रा
ब्लाग- मन बंजारा, दृष्टि

सम्पर्क: 8279798510
ईमेल: kalpanapnt@gmail.com

 

समीक्षक डॉ.वंशीधर उपाध्याय,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
राजकीय स्नातकोत्तर महविद्यालय मुनस्यारी,
सम्पर्क: 8448771785

मेल – upljyoti22@gmail।com

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