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साहित्य का रस, बसंत के रंग, आपके संग

रिया


कदम बढ़ाते ही रुक से गए। ऑटो से उतरने के बाद, जैसे ही क़दमों ने देह को गेट तक पहुंचाया, आँखों के सामने जो दिखा वो आम नहीं था! क़दम देह को तो आगे अपने साथ ले चले, लेकिन मन वहीं रह गया। किताबों के तिलिस्म से मन कलाबाज़ियाँ करने लगा।

बसंत के रविवार 27 फ़रवरी को साहित्य के रंग में रंगने हम जा पहुँचे मंत्रा स्पोर्ट्स क्लब, खटीमा। बसंत की सुनहरी धूप और मचलती ठण्ड के दौरान हर साल खटीमा की मॉडर्न यूटोपियन सोसायटी द्वारा सीमांत साहित्य उत्सव का आयोजन किया जाता है।

“साहित्य का रस
बसंत के रंग
आपके संग…”

इस टैगलाइन के साथ जश्न-ए-साहित्य मनाया जाता है। साहित्य! हमारे बापू महात्मा गांधी ने कहा था – “साहित्य वह है जिसे चरख़ खींचता किसान और खूब पढ़ा लिखा इंसान दोनों समझ सकें।” साहित्य हमारे समाज का आईना है। इस आईने में देखकर हम ख़ुद को पहचानते हैं। समझते हैं। और संवारते भी हैं। ज़ाती तौर पर साहित्य से एक लगाव है मेरा। पिछले 4 सालों से साहित्य उत्सव में जाते हुए कई चेहरों से जान-पहचान हो गई। वहीं कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जिनसे हर अगली बार मिलने पर नए ढंग से शिनाख़्त होती है।

उस रोज़ का आलम कुछ और ही था। गेट के सामने कई टेबलों की कतार लगी थी। उन्हें सजाया जा रहा था। हर शिक्षार्थी के नूर-ए-नज़र से! किताबों से! रुद्रपुर की संस्था “द बुक ट्री” ने यह नुमाइश लगाई थी। साहित्य उत्सव की शुरुआत किताबों की ख़ुशबू लेने से हुई। हर सफ़्हा पलटते ही विचारों का अज़ीम संसार नज़रों के सामने आ खड़ा हो रहा था। सभी साथियों की नज़रें किस्म-किस्म की किताबों में गढ़ी हुई थीं। उपन्यास, कहानी और किस्सों से सराबोर किताबें, आत्मकथाएं, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चिंतन से जुड़ी किताबें लिए संस्था के संचालक श्री नवीन चिलाना जी वहाँ मौजूद थे।

इस बीच कार्यक्रम शुरु होने का ऐलान हुआ। हम सभी साथियों ने हॉल की ओर कदम बढ़ाए। कुर्सियों से खचाखच भरे हॉल में लोगों की शिरकत बाकी थी। तमाम तरह की विविधता से भरे हॉल में सरस्वती वंदना गायन से दिन का आगाज़ हुआ! उस हॉल में जहाँ भाषाई, धार्मिक और क्षेत्रीय विभिन्नता की मौजूदगी थी, वहाँ स्टेज की दाहिनी ओर माँ सरस्वती की तस्वीर के आगे दीप प्रज्वलन किया गया! भारतीय प्राचीन संस्कृति से जोड़ी जाने वाली इस प्रथा का अनुसरण शुभ मानकर देश के हर छोटे से बड़े काम में किया जाता है।

दीप प्रज्वलन हो जाने के बाद संचालक डॉ. आशुतोष ने कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। पहले कार्यक्रम की शुरुआत हुई। हाथ में पेन और डायरी लिए मैं तैयार थी मंचासीनों के साथ सीखने के सफ़र में जाने के लिए। सामने हमारे मैंटर डॉ. कमलेश अटवाल भी बातचीत में शामिल थे। पहले सत्र को आगे बढ़ाते हुए कमलेश सर ने शिक्षक साहित्यकार महेश पुनेठा की कविता से सभी का तारुफ़ कराया। कविता बात करती है कि किस तरह लोग किताबों को बाँचते हैं। कमलेश सर का कहना था कि ये बताना बिल्कुल भी सही नहीं है कि हमें क्या पढ़ना चाहिए। कई मर्तबा उन्होंने ज़ोर दिया कि कुछ ऐसा पढ़ना चाहिए जो हमें तार्किक रूप से सोचने पर मजबूर करे।

दूसरे पैनलिस्ट डॉ. हरिओम सिंह ने चर्चा को एक अलग रुख़ दिया। उन्होंने भारत की घटती पढ़ने की संस्कृति पर प्रकाश डाला। उनका कहना था कि हमारा देश इसलिए विकसित देशों की सूची से बाहर है क्योंकि जब पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो रहा था तब हम ख़ुदको रूढ़ीवादी सोच में जकड़ते जा रहे थे। इस बीच मैं अपने 10वें दर्ज़े के दिनों की सैर कर आई। NCERT इतिहास के पहले पाठ “यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय” में हमने पढ़ा था कि फ्रांस में जब लोगों में तार्किकता का विकास हुआ और चर्च जैसे धार्मिक संस्थान का महत्व कम हुआ तब जाकर लोगों में आज़ादी, भाईचारे और बराबरी के मूल्यों का प्रसार हुआ।

वहीं जब भारत ने रूढ़िवादिताओं का सहारा लिया तो लोगों में धर्मांधता बढ़ी और पढ़ने-समझने की संस्कृति घटती गई। स्टेज पर जब नज़र गई, देखा कि अब श्री प्रतुल जोशी के हाथ में माइक था। उन्होंने इस बात की ताईद की कि – “किताबें वो लोग ज़्यादा पढ़ते हैं जिन्हें अपने समय के जवाबों की तलाश होती है।” प्रतुल सर ने हमें बताया कि एक किताब इतने लंबे समय तक भी किस तरह उतनी ही प्रासंगिक बनी रहती है। उनका कहना था कि – “एक किताब अगर पाठक को नई दृष्टि और फ्रेमवर्क देती है तभी वह लंबे समय तक प्रासंगिक रह पाती है।”

किताबों की दुनिया से निकलने का समय आ चुका था। नेपाल से आए 4 पैनलिस्ट की ‘नेपाल साहित्य की दो कालजयी कृतियों’ पर चर्चा के बाद पत्रकार ओ.पी. पांडे ने डॉ. ब्रिगेडियर पी.एस. भंडारी का साक्षात्कार लिया। स्टेज पर जब सेशन चल रहा था तब मैंने देखा कि घुमक्कड़ साहित्यकार अशोक पाण्डे भी आ चुके थे। दरअसल मुझे उनके सेशन का बेसब्री से इंतज़ार था। अशोक सर को देखते ही दो साल पहले के साहित्य उत्सव का दृश्य चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूमने लगा। अशोक सर का इंटरव्यू लिया था मैंने। उस दिन बातों ही बातों में सर ने कहा कि हमें हिंदी और इंग्लिश के अलावा एक और भाषा ज़रूर सीखनी चाहिए। उनका कहना था कि स्पेनिश सीखने के बदौलत वे 53 देशों की सैर आसानी से कर पाए हैं।

मेरे ख़्यालों का गुब्बारा अचानक फटा जब मेरे कानों में गिटार बजने की आवाज़ पहुँची। नक्षत्र भैया ने अपनी ख़ूबसूरत आवाज़ में कबीर वाणी गाई। अगला सत्र कबीर संवाद था। कबीर को जानना एक पुरानी धूल-धूसर किताब पढ़ने जैसा है। कबीर की बातों को आत्मसात करना मतलब इस दुनिया के सारे कृत्रिम आडंबरों से खुद को मुक्त करा देना। कबीर को पढ़ना मतलब इस समाज के सच से रूबरू होना। कबीर को समझना मतलब अपने अस्तित्व को समझना। अपने लक्ष्यों को जानना। ख़ुद में शांति का कोना पा लेना। और सभी बंधनों और ढोंगों से मुक्त होकर अपने और समाज के लिए समर्पित हो जाना।

सत्र के दौरान मेरे मन के किसी कोने में “हद अनहद” और “कबिरा खड़ा बाज़ार में” जैसी फ़िल्मों की स्क्रीनिंग हो रही थी। मैं मन ही मन सोच रही थी – “वो कबीर जो जीवन-भर पूजा-अर्चना, ढोंग और आडंबरों के खिलाफ़ रहे, उन्हीं की मूर्ति या फ़ोटो की आराधना ‘कबीरपंथी’ कर रहे हैं। क्या विडंबना है!” हम मनुष्यों की यही सबसे बड़ी नाकामी है कि जब भी हम एक महदूद दायरे को तोड़ने की कोशिश करते हैं, कई नए दायरों से ख़ुदको घेर लेते हैं।

आख़िरकार, तमाम तरह के दायरों को तोड़ने पर विश्वास रखने वाले श्री अशोक पाण्डे का सेशन शुरू हो ही गया। उनकी हाल ही में प्रकाशित हुई तीन किताबों – लपूझन्ना, बब्बन कार्बोनेट और तारीख़ में औरत पर कमलेश सर को अशोक जी से चर्चा करनी थी। कमलेश सर ने अशोक सर का इस्तक़बाल उनके और उनकी किताबों के बारे में बताकर किया। सर ने कहा कि – “लपूझन्ना और बब्बन कार्बोनेट जैसी फ़सकों व किस्सों से भरी किताबें लिखने के बाद यकीन ही नहीं होता कि तारीख़ में औरत जैसी गंभीर किताब भी आपने ही लिखी है।”

अशोक सर का कहना था कि वे भीतर से आवारा हैं। ये तीनों किताबें वे कई सालों से लिखते आ रहे हैं। उन्होंने कहा – “हर रोज़ मैं करीब 1,000 शब्द लिखता हूँ तभी कुछ बेहतर लिख पाता हूँ।” अशोक सर के लेखन का नमूना पेश करने के लिए कमलेश सर ने लपूझन्ना से एक इबारत सभी के सामने पढ़ी। आज के समय में वे अपने अनोखे लेखन के लिए खूब पढ़े जा रहे हैं। उनकी ख़ासियत है कि व्यंग्यात्मक शैली से वे राजनैतिक और सामाजिक हालातों पर तंज कसते हैं। हाकिम का मुँह देखकर ही कोई भी बात कहने का इन दिनों रिवाज़ है। खिलाफ़ बोलना ख़तरे से खाली नहीं। ऐसे में अशोक सर इतमीनान से हालातों पर अप्रत्यक्ष ढंग से कटाक्ष करते हैं।

पिछले 5 घंटों से बैठने के बाद अब लंच करने का समय था। सभी साहित्य प्रेमी हॉल के बाहर काउंटर पर जाने लगे। अगला सत्र भाषा और विकास की यात्रा पर था। पैनलिस्ट प्रो. एन. के. अग्रवाल, प्रो. गिरिजा पाण्डेय, डॉ. सिद्धेश्वर सिंह और श्री अशोक पाण्डे रहे। प्रो. गिरिजा पाण्डेय के मुताबिक इतिहास गौरवान्वित होने का टूल नहीं है। वह तो मनुष्य की कहानी है। ये सुनना मुझे अच्छा लगा। कई लोगों को हमेशा ही गौरवशाली इतिहास की तारीफ़ों के पुल बाँधते देखा है। चाहे वह पब्लिक नैरेटिव के कारण हो या नॉस्टैलजिया की वजह से!

वे बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि – “इतिहास लेखन और पाठन में विज्ञान का इस्तेमाल होना ही चाहिए।” सच ही कहा। जिस ढंग से नैरेटिव सैट करने में इतिहास का रुख़ अपनी सहूलियत के हिसाब से बदल दिया जाता है, लोगों को वैज्ञानिक चेतना से ही उसका अवलोकन करना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो वे सत्ता की हिदायत पर ग़लत को भी सही मान सकते हैं। श्री अशोक पाण्डे इससे भी कुछ आगे बढ़ते हैं। “इतिहास से छेड़छाड़ की जा सकती है, लेकिन जिन शब्दों से इतिहास लिखा जाएगा उनको नहीं बदला जा सकता। भाषा से कोई छेड़छाड़ नहीं हो सकती।”

इतिहास और भाषा का गहरा नाता है। हमारा इतिहास गवाह है कि हम मनुष्य हमेशा से ही ख़ुदको व्यक्त करने की चाहत रखते आ रहे हैं। मुझे जाने माने इतिहासकार युवाल नोआ हरारी की किताब “सेपियन्स” की शुरुआत में बना एक चित्र याद आ रहा है। दक्षिणी फ्रांस की एक गुफ़ा में आज से 30,000 सालों पहले के हाथ के पंजे का निशान मिला है। इस फ़ोटो के नीचे हरारी ने लिखा है कि – “किसीने यह कहने की कोशिश की है कि – मैं यहाँ मौजूद था।” भले ही हाथ का निशान बनाने के लिए उस जीव का जो भी इरादा रहा हो, लेकिन तमाम तरह की प्राचीन पेंटिंग्स और लिपियों से ज़ाहिर होता है कि हज़ारों लाखों साल पहले भी मानव के जीवन में भाषा और कला की धड़कन थी।

इस बात पर डॉ. सिद्धेश्वर ने भी ज़ोर दिया कि बोलना ही भाषा नहीं है। अपने विचारों को व्यक्त करना भाषा है। चाहे बोलकर हो, लिखकर या चित्र बनाकर। “भाषा का काम बस कहना ही नहीं है। नहीं कहना भी भाषा का ही काम है। कई बार ना कहकर भी हम बहुत कुछ कहते हैं। हमारा लिखना, बोलना, सुनना कई तरह से सामने आता है।” इन बातों के साथ इस सत्र का समापन हुआ। आख़िर में बारी आई रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों की। दो बच्चियों ने अपने नृत्य के माध्यम से एक कथा कही। उन्होंने प्राचीन समय से कथा कहने के एक रूप कथक का सहारा लिया। नेपाली संस्कृति का भी एक नमूना सभी के सामने प्रस्तुत किया गया। तराई क्षेत्र के मूल निवासी थारु समुदाय में ज़ोरों-शोरों से मनाए जाने वाले त्योहार होली का ग्रुप डांस भी किया गया।

कोई चेहरा ग़मज़दा न था। हर चेहरे पर सुकून दिख रहा था। इसी के साथ साहित्य का जश्न बहुत कुछ दे गया। समझ को नई दिशा। नए साथी। और हमराही।

(रिया नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 11वीं की छात्रा हैं.)

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