“जब मैं पहले दिन स्कूल पहुंचा तो नाम लिखते हुए अध्यापक मुंशी राम सूरत लाल ने पिता जी से पूछा यह कब पैदा हुआ था? जवाब मिला चार- पांच साल पहले बरसात में। मुंशी जी ने तुरंत बरसात का मतलब 1 जुलाई,1949 समझा और यही दिन हमेशा के लिए मेरे जन्म से जुड़ गया।”
(प्रो. तुलसी राम, अपनी आत्मकथा मुर्दहिया में)
आज प्रोफेसर तुलसी राम का जन्म दिन है। उत्तर भारत मे मार्क्सवाद – अम्बेडकरवाद और बौद्ध दर्शन के बीच वैचारिक अन्तःक्रिया और साझा संघर्ष की जमीन तैयार करने वाले बौद्धिकों में उनका नाम सबसे ऊपर है।
13 फरवरी 2013 को लंबी बीमारी के कारण उनका निधन हुआ था।अपने मृत्यु से पूर्व मुर्दहिया व मणिकर्णिका- दो खंडों में अपनी आत्मकथा लिखने के कारण वे पूरे भारत में मकबूल हो गए थे। इन पुस्तकों के प्रकाशन में आने के बाद सबको पता चला कि प्रो. तुलसी राम का जीवन किन अभावों के बीच शुरू होकर पहले आज़मगढ़ के हरिजन छात्रावास और उसके बाद बीएचयू में परवान चढ़ा।बीएचयू में अध्ययन के दौरान उन्होंने वामपंथी छात्र आंदोलन में संगठक की भूमिका निभाई। छात्र आंदोलन में इनकी सक्रियता ने उनके व्यक्तित्व को आकार दिया व उनके वैचारिक आधारभूमि को भी तैयार किया।
अपनी आत्मकथा में उन्होंनें अपने जीवन का अहवाल जिस तरह से दर्ज किया है वह साहित्यिक मानदंडों के आधार पर उत्कृष्ट तो है ही साथ ही उसमें हमे 60 व 70 के दशक की सामाजिक व राजनैतिक परिदृश्य का पुरा खाका उभरता है। मुर्दहिया व मणिकर्णिका पिछले वर्षों में हिंदी में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में शामिल हैं।
भारत के वाम आंदोलन व मुख्यधारा के अकादमिक विमर्श में जैसे जैसे जाति के प्रश्न पर बहस तेज़ हुई वैसे वैसे प्रो. तुलसी राम का महत्व समझ मे आने लगा है।उनके अकादमिक योगदान पर चर्चा तेज़ हुई है,हालांकि हिंदी जगत अभी उनकी आत्मकथा के प्रभाव से अभी बाहर नहीं आ पाया है।जबकि बौद्ध दर्शन , मार्क्सवाद व अम्बेडकरवाद को लेकर उनके लेखन से सम्बंधित बहुत सारी सामग्री अभी सामने नहीं आ पाई है।
प्रो. तुलसी राम के सम्पादन में ‘अश्वघोष’ नामक पत्रिका के दो दर्जन से ज्यादा अंक प्रकाशित हुए थे। आज उन सभी अंकों को सामने लाने की जरूरत है।इस पत्रिका के संपादकीय लेखों में प्रो. तुलसी राम के धारदार वैचारिक लेखन का रत्न छुपा हुआ है,जिसकी आज के समय मे बहुत ही ज्यादा उपयोगिता हो सकती है।
विभिन्न संस्थानों में दिये गए उनके भाषणों का संकलन भी आज हमारे लिए मार्गदर्शक साबित हो सकते हैं।उनकी आत्मकथा का तीसरा खण्ड भी प्रकाशित होने को है,जिसकी प्रतीक्षा समूचा हिंदी समाज कर रहा है,जिसमे उनके दिल्ली आने के बाद व जेएनयू के जीवन के ब्योरे दर्ज हैं।
आज जब भारत में मार्क्सवाद व अम्बेडकरवाद पर सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारों का संगठित हमला हो रहा है।जाति व्यवस्था को पुनर्संगठित व पुनर्नियोजित किया जा रहा है,जब मार्क्सवादी होने को अपराधी होने के बराबर ठहराया जा रहा है और बौद्ध दर्शन को सनातन हिन्दू धर्म का एक ‘पंथ’ साबित किया जा रहा है, ऐसे समय मे प्रो. तुलसी राम के वैचारिक अवदान को सामने लाना,उसे अकादमिक व जन विमर्श का हिस्सा बनाना हमारा जरूरी कार्यभार बन जाता है।