समकालीन जनमत
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संस्थाओं की स्वायत्तता और लोकतंत्र

सभी जानते हैं कि हमारे देश में जो भी लोकतंत्र है उसके पीछे संस्थाओं की स्वायत्तता की प्रमुख भूमिका है । न केवल न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में शक्तियों के बंटवारे में इसकी अभिव्यक्ति होती है बल्कि कार्यपालिका के भी कुछ निकायों, मसलन रिजर्व बैंक, लोकपाल या चुनाव आयोग को भी सापेक्षिक स्वायत्तता प्रदान करके इसकी गारंटी की जाती है । लोकतंत्र के क्षरण के साथ इन सबकी स्वायत्तता पर भी व्यावहारिक और सैद्धांतिक हमला व्यवस्थित रूप से तेज हुआ है । इनमें से एक निकाय चुनाव आयोग के प्रसंग में एम जी देवसहायम के संपादन में 2022 में प्रकाशित किताब ‘चुनावी लोकतंत्र’ को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र का एकमात्र व्यावहारिक रूप हमारे देश में होने वाले चुनाव ही हैं । इसके प्रकाशक परंजय हैं और इसका मूल्य 495 रूपये है ।

चुनावी लोकतंत्र के बारे में हमारी धारणा यह बनी हुई है कि इसे शासन ने कृपापूर्वक जनता को दे दिया जबकि सच यह है कि चुनावी लोकतंत्र और सार्वभौमिक मताधिकार की कानूनी स्वीकृति के लिए भी बहुत लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी है । दुनिया की बात छोड़ भी दें तो हमारे अपने देश में भी मताधिकार का क्रमश: विस्तार हुआ है । अंग्रेज पूरी दुनिया में संसदीय लोकतंत्र के शासन का ढिंढोरा पीटते थे लेकिन भारत जैसे उपनिवेशित देश में शासन के मामले में कोई प्रतिनिधित्व की व्यवस्था नहीं थी । इस पाखंड से लज्जित होकर और निरंतर प्रतिवाद को काबू करने के लिए उन्होंने चुनावी प्रतिनिधित्व की आंशिक व्यवस्था शुरू की । प्रेमचंद के ‘गोदान’ उपन्यास में जिस चुनाव का वर्णन आया है वह विस्तारित मताधिकार के साथ हुआ पहला चुनाव था । उसमें ही धनबल का खुला खेल नजर आता है । उसके पहले अंग्रेजी राज में जो चुनाव हुए थे उनसे निर्वाचित कांग्रेसी सरकारों ने बिना पूछे भारत को दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल करने का विरोध करते हुए इस्तीफा दिया था । कहने की जरूरत नहीं कि नीति निर्माण के सिलसिले में जनमत की राय लेने की परिपाटी इसीलिए है कि जिन पर नियमों का असर होना है उनसे नियम बनाते समय उनका मत पूछा जाना चाहिए । इस प्रत्यक्ष रायशुमारी के अलावे कानून बनाने के लिए जिम्मेदार विधायिका को जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों से गठित किया जाता है । यह गठन उसी लोकतांत्रिक भावना की सांस्थानिक अभिव्यक्ति है जिसके तहत नागरिकों को शासन में भागीदार बनाया जाता है ।

आजादी के बाद देश ने संसदीय चुनावी प्रातिनिधिक व्यवस्था को अपनाया और इस चुनाव को पूरी तरह निष्पक्ष रखने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के बतौर चुनाव आयोग का गठन किया । चुनाव के दौरान यह आयोग लगभग सर्वाधिकार संपन्न हो जाता है । देश की समूची कार्यपालिका को उसके मातहत काम करना पड़ता है । विगत कुछ वर्षों से उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं । साफ देखने में आया कि वर्तमान शासकों की ओर से चुनाव संहिता के बारम्बार उल्लंघन की शिकायतों की अनदेखी आयुक्त की ओर से की जा रही है । इसी क्रम में आयोग द्वारा प्रधानमंत्री को क्लीन चिट देने के फैसले पर आपत्ति दर्ज करने वाले चुनाव आयुक्त का उत्पीड़न शुरू हुआ और आखिरकार उन्हें विदेश में एक तैनाती पर भेजकर उनसे छुट्टी पायी गयी । आरोप यह भी लगा कि विभिन्न प्रदेशों में चुनाव की तिथियों का निर्धारण करते हुए प्रधानमंत्री की व्यस्तता का ध्यान रखा गया । सबसे बड़ा संदेह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन को लेकर पैदा हुआ । इस सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी तमाम याचिकाओं की सुनवाई को मुल्तवी रखा है ।

पहले भी देश के चुनाव में भ्रष्टाचार के प्रवेश को लेकर सजग लोगों ने बहुतेरी ऐसी संस्थाएं बना रखी हैं जो प्रत्याशियों और पार्टियों द्वारा बाहुबल और धनबल के दुरुपयोग के बारे में जागरूकता अभियान चलाती हैं । चुनाव आयोग भी समय समय पर इसे रोकने के लिए नियम बनाता है । प्रत्याशियों द्वारा अपनी चल अचल संपत्ति और दायर मुकदमों के बारे में हलफ़नामा दायर करने की रवायत इसी जागरूकता अभियान का अंग है । उस आम समस्या के ऊपर बने इन नये हालात को उजागर करने के लिए जिम्मेदार नागरिकों ने नागरिक चुनाव आयोग का गठन किया । चुनाव के आधार पर प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र को संचालित करने वाले देशों में चुनाव प्रक्रिया की अंतर्राष्ट्रीय और नागरिक निगरानी कोई अनजानी बात नहीं है । इसी परम्परा में उक्त आयोग का भी गठन किया गया । इस आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और वजाहत हबीबुल्लाह ने इस किताब की प्रस्तावना लिखी है । उन्होंने चुनाव के पीछे के सिद्धांतों पर जोर दिया है अन्यथा केवल चुनाव को ही पैमाना मानने से हमें चीन को उसके दावे के मुताबिक दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानना होगा क्योंकि उसके मुताबिक उस देश में सबसे अधिक लोग (90%) मताधिकार का प्रयोग करते हैं । इसके मुकाबले भारत में मतदान का प्रतिशत बहुत कम होता है ।

सबसे पहली बात कि ‘मतदाता को उसके विकल्प के चयन में पूर्ण पारदर्शिता सुनिश्चित की जानी चाहिए और यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि उनके वोट सही ढंग से परिणामों में भी दिखें ।’ साथ ही ‘मतदान प्रक्रिया भी मतदाता द्वारा आसानी से समझने और सत्यापित करने लायक होनी चाहिए ।’ इसके लिए चुनाव के बाद भी उसके मत के सत्यापन की सम्भावना को बरकरार रहना चाहिए । चुनाव के साथ जुड़ी इन सैद्धांतिक बातों के लिए आवश्यक तकनीकी सवालों को किताब के दूसरे खंड में रखा गया है और उनकी सूची में पहले स्थान पर है मतदाता सूची की सत्यनिष्ठा और समावेशिता । इस प्रसंग में धीरे धीरे कुछ खतरे नजर आने लगे हैं । अधिकाधिक पहचान पत्रों की अनिवार्यता के सहारे आबादी के वंचित समुदायों को मतदान से विरहित करने की कोशिश गाहेबगाहे लक्षित की गयी है । सरकार ने बारम्बार आधार के साथ मतदान को जोड़ने का प्रयास किया । आधार का सवाल भी अभी सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है । उसकी अनिवार्यता पर रोक है फिर भी घुमा फिराकर तमाम मामलों में उसका इस्तेमाल बढ़ाया जा रहा है । सामान्य मतदाता पहचान पत्र तक के मामले में ढेर सारी गड़बड़ियों की जानकारी मिलती है । आधार तो उससे उन्नत दर्जे की चीज है । मतदाता सूची में नाम दर्ज होने के बावजूद मतदान से वंचित करने में पहचान पत्रों की भारी भूमिका है । इससे हमारे देश के लोकतंत्र का सामाजिक आधार व्यापक होने की जगह सिकुड़ेगा । जैसे आधार कार्ड के निर्माण का काम ढेर सारी निजी संस्थाओं के हाथ में थमाया गया जिसके चलते आंकड़ों की सुरक्षा में सेंध लगने की खबरें आयीं उसी तरह मतदाता पहचान पत्र बनाने की जिम्मेदारी के निजीकरण के भी प्रयास हो रहे हैं । कहने की जरूरत नहीं कि हमारे देश के सतही अमेरिकीकरण का अंग यह भी है । वहां बीसियों तरीकों से आबादी के ऐसे समूहों को मतदान से वंचित किया जाता है जिनके मत सत्ता विरोधी पार्टी को मिलने की सम्भावना हो ।

राजनीति का अपराधीकरण हमारे देश के चुनावों से जुड़ा ऐसा सवाल है जिसकी मौजूदगी से चिंतित सभी होते हैं लेकिन अंतत: उसका लाभ उठाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं । इसे भी संपादकों ने विचारणीय सवालों में शामिल किया है । अपराधीकरण का एक रूप बाहुबल है तो इसी का दूसरा रूप धनबल भी है । सत्ता पर कब्जा करने में पूंजी की ताकत के मुकाबले जनता की ताकत को मान्यता देने का ही तरीका चुनाव है इसलिए इसमें धनबल के प्रवेश से चिंता स्वाभाविक है । इस बुराई को दूर करने की जगह वर्तमान शासन ने चुनावी बांड को ही अपारदर्शी बना दिया । अकेले इस पहल ने चुनाव में शासक पार्टी को बरतरी प्रदान की और विपक्षी पार्टियों को पैदल कर दिया है । सरकार को तो पता रहता है कि किस पार्टी को किसने चंदा दिया लेकिन उसकी जानकारी किसी अन्य के साथ साझा नहीं की जा सकती । इस व्यवस्था के कारण विपक्षी पार्टियों को चंदा देने वालों को प्रताड़ित करने का खतरा बेतरह बढ़ गया है ।

हाल के दिनों में मीडिया की भूमिका भी चिंतनीय विषय बन गया है । अखबारों के वर्चस्व में फिर भी निगरानी आसान थी लेकिन टेलीविजन के आगमन के बाद तो इस मोर्चे पर चुनौतियां बहुत ही अधिक हो गयी हैं । फ़ेक समाचार चलाकर ध्रुवीकरण किया जाता है, अखबारों में समाचार की शक्ल में विज्ञापन छपवाये जाते हैं और बरगलाने वाले जनमत सर्वेक्षण प्रचारित करके मत को प्रभावित भी किया जाता है । टेलीविजन के दृश्य माध्यम होने के चलते विश्वसनीयता अधिक तो महसूस होती है लेकिन उसमें भी पुराने जमाने की नजरबंदी की तरह तस्वीरों का धोखा पैदा किया जाता है । चुनाव सर्वेक्षण का सवाल मीडिया के लिए बेहद अहम सवाल है । मीडिया संबंधी समस्याओं के साथ ही सोशल मीडिया जनित समस्या भी जुड़ गयी है । इसकी त्वरित पहुंच और प्रसार के कारण अफ़वाह फैलाने का सबसे उपयोगी माध्यम फिलहाल सोशल मीडिया बन चुका है ।

इन सब बातों पर सामान्य नागरिकों को ध्यान देना इसलिए भी जरूरी है कि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हमारे राजनेता अक्सर ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं । न केवल राजनेता बल्कि इस मोर्चे पर समूचे समाज की चेतना का ही सुफल है कि दुनिया के जिन भी देशों में भारत के प्रवासी रहते हैं वहां आबादी में अनुपात कम होने से भी चुनावी राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी दमदार उपस्थिति रहती है । आम तौर पर इसे लोकतांत्रिक भावना का सबसे बड़ा सूचक माना जाता है और वर्तमान शासक तो इसे ‘हमारी सभ्यता के मूल्यों का अभिन्न अंग’ भी मानते और घोषित करते प्रतीत होते हैं । किताब के तीन खंडों में शामिल लेखों में ऊपर के इन विषयों के विवेचन के अतिरिक्त तीन परिशिष्ट भी शामिल किये गये हैं । इनमें पहले परिशिष्ट में यह सवाल उठाया गया है कि ‘क्या मतदाताओं को इस बात की गारंटी है कि उन्होंने जहां चाहा, वहीं उनका वोट दर्ज हुआ और जैसे दर्ज हुए, वैसे ही उनकी गिनती की गयी ।’यह सवाल भी उठाया गया है कि ईवीएम आधारित मतदान के सही होने का और उसमें छेड़छाड़ की सम्भावना न होने का वैज्ञानिक आधार क्या है । दूसरे परिशिष्ट के बतौर निर्वाचन आयोग की चुनाव आचार संहिता को शामिल किया गया है । तीसरे परिशिष्ट में कुछ महत्वपूर्ण लिंक दर्ज किये गये हैं । इस तरह यह किताब भारत में चुनावों के सिलसिले में भरपूर जानकारी उपलब्ध तो कराती ही है । सामान्य तौर पर ऊपर से नजर आने वाली प्रक्रियाओं के पीछे कार्यरत सैद्धांतिक मान्यता को भी एकाधिक जगहों पर जोर देकर दुहराती है । इससे पाठक को निर्वाचन के आधार और उसके समक्ष उपस्थित चुनौतियों की जानकारी अच्छी तरह हो जाती है ।

अगर इसका कोई संक्षिप्त और सस्ता संस्करण भी छापा जाये तो राजनीति और प्रशासन के विद्यार्थियों को बहुत सुविधा होगी । देश में शासन प्रणाली के बारे में जागरूकता इस समय सबसे अधिक जरूरी है । पूरी दुनिया में लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं पर जिस स्तर का खतरा पैदा हुआ है उसको देखते हुए यह और भी आवश्यक है ।

 

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