भारत का किसान आंदोलन आज एक नई करवट ले रहा है. एक तरफ देश में सत्तासीन भाजपा देश को कारपोरेट फासीवादी शासन की दिशा में धकेलने के लिए जोर लगाए है तो दूसरी ओर इन नीतियों से तबाह देश का किसान आंदोलन की नई इबारत लिखने की तैयारी में दिख रहे हैं. देश के 210 किसान संगठनों का एक मंच पर आना और “किसान मुक्ति यात्रा” से लेकर “किसान मुक्ति संसद” के बाद अब तक चल रहा किसानों का हाल का धारावाहिक राष्ट्रव्यापी आंदोलन यही संदेश दे रहा है.
यह पहली बार है कि देश के 210 किसान संगठन “अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति” नाम के एक साझे मंच पर एकत्रित हुए हैं. यह भी पहली बार है कि असम से लेकर गुजरात तक और कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक के किसान संगठन इसमें शामिल हुए हैं. किसान संगठनों की इस समन्वय समिति में बड़े फार्मरों और धनी किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसान संगठन भी मौजूद हैं और बटाईदार किसानों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों और आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले किसान संगठन भी मौजूद हैं. इनमें से कई तो अपने कार्यक्षेत्रों में अपनी वर्गीय प्रतिबद्धता के कारण एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा लेते रहे हैं.
राजनीतिक पृष्ठिभूमि से देखें तो इसमें भाकपा (माले), माकपा, सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी सहित कम्युनिस्टों की विभिन्न धाराओं, स्वराज इंडिया, सेतकारी संगठना के लेकर डॉ सुनीलम और प्रतिभा सिंदे जैसी समाजवादियों की विभिन्न धाराओं, कांग्रेस पृष्ठिभूमि से आकर किसान संगठन चलाने वाले सरदार वीएम सिंह, आरएसएस पृष्ठिभूमि से निकल कर किसान संगठन चलाने वाले अय्याकन्नू और रामपाल जाट जैसे लोग और संगठन भी मौजूद हैं. किसानों की इस संयुक्त संघर्ष समन्वय समिति के बाहर भी 90 किसान संगठनों का एक और समन्वय बना है जो कुछ आंदोलनात्मक कार्यवाहियों की दिशा में बढ़ रहा है.
इतने बड़े पैमाने पर किसान संगठनों का एक मंच पर आना कोई संयोग या किसी की सद्इच्छा का नतीजा नहीं है. बल्कि देश में व्याप्त सर्वव्यापी कृषि संकट और उसके कारण बदलते कृषि परिदृश्य ने इसकी भूमिका तैयार कर दी थी. यह कृषि संकट अब तक के कृषि संकटों से कहीं गहरा और कहीं ज्यादा व्यापक है. इसने भारत के कृषि परिदृश्य को काफी हद तक बदल दिया है. इस बदलाव ने न सिर्फ देश की खेती किसानी को तबाही के रास्ते पर धकेला है बल्कि खेती पर निर्भर पूरे ग्रामीण समाज को अपने आगोश में ले लिया है. सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण आज खेती घाटे का सौदा हो चुकी है. इससे बचने के लिए मध्यम व छोटे किसानों के एक बड़े हिस्से ने खेती को बटाई पर देकर अन्य रोजगारों की ओर रुख किया है मगर वहां भी निराशामय माहौल मौजूद है.
कल तक के खेत मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा छोटा बटाईदार किसान में तब्दील हो चुका है. अपने खुद के पारिवारिक श्रम को लगाकर खेती करने वाले इस बटाईदार किसान को किसान का दर्जा न मिलने के कारण यह उत्पादन तो करता है पर उसे किसानों को मिलने वाली कोई सरकारी सुविधा नहीं मिलती है. आज घाटे की खेती ने किसानों को बैकों, सहकारी समितियों और साहूकारों से लिए गए भारी कर्ज में डुबो दिया है. कर्ज न चुका पाने के कारण पिछले 10 वर्षों में आत्महत्या करने वाले 3.5 लाख किसानों में बड़े फार्मरों से लेकर बटाईदार किसान तक किसानों के सभी हिस्से शामिल है.
देश के कई हिस्सों में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ एक दशक पहले से किसान आंदोलनों का एक दौर हमने देखा. अभी हाल में जमीन के मालिकाने के लिए लाल झंडे लिए महाराष्ट्र के नासिक से मुम्बई तक निकला आदिवासियों–किसानों का लाँग मार्च, झारखंड में तमाम आदिवासी किसान संगठनों का जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ एकताबद्ध संघर्ष चला है. महाराष्ट्र के अहमद नगर में नीरव मोदी द्वारा ली गयी जमीन पर किसानों द्वारा फिर से कब्जा करने और गुजरात के भावनगर में विद्युत कम्पनी द्वारा अधिग्रहित जमीन से प्रभावित किसानों द्वारा इच्छा मृत्यु की मांग ने भूमि अधिग्रहण विरोधी आन्दोलन को नई धार दी है.
पिछले तीन साल से कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप फसलों का मुनाफा युक्त दाम की मांग पर किसान आंदोलन का नया दौर पंजाब और महाराष्ट्र के किसानों ने शुरू कर दिया था. इस बीच देश के कई हिस्सों में तीन साल तक पड़े भीषण सूखे और सूखाग्रस्त क्षेत्रों की सरकार द्वारा की गई भारी उपेक्षा ने आग में घी का काम किया और किसान आत्महत्याएं देश के नक्शे में नए क्षेत्रों को भी अपने आगोश में लेने लगी. किसानों की कर्ज माफी और खेती को घाटे से उबारने का सवाल देश व्यापी सवाल बनने लगा.
इन सवालों को लेकर किसान नेता अय्याकन्नू के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर तमिलनाडू के किसानों के आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा. इस बीच जून की शुरुआत में महाराष्ट्र की किसान हड़ताल से प्रेरित हो मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के किसानों ने फसलों के सही दाम और कर्ज माफी की मांग पर स्वत:स्फूर्त हड़ताल शुरू कर दी. इस आंदोलन में 6 जून 2017 को 5 किसानों की पुलिस ने ठंडे दिमाग से गोली मार कर और एक किसान की दो दिन बाद थाने में पीट- पीट कर हत्या कर दी. इस घटना ने तमाम संघर्षरत किसान संगठनों को एकमंच पर लाने में प्रेरक की भूमिका निभाई.
एक माह बाद यानी 6 जुलाई को मन्दसौर के शहीद किसानों को श्रद्धांजलि देने और दो निर्विवाद मुद्दों “किसानों की कर्जा मुक्ति” और फसलों की लागत का डेढ़ गुना दाम” की मांग पर मन्दसौर से “किसान मुक्ति यात्रा” शुरू करने पर सबकी सहमति बनी. 6 जुलाई 2017 को मन्दसौर से “किसान मुक्ति यात्रा” शुरू करने तक देश के 160 किसान संगठन “अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति” के साथ जुड़ चुके थे.
इस “किसान मुक्ति यात्रा” में 50 से लेकर 25 हजार संख्या तक किसानों की सभाएं हुई. सबसे बड़ी सभा अखिल भारतीय किसान महासभा द्वारा आयोजित पीरो की सभा थी. वहीं आल इंडिया किसान मजदूर सभा द्वारा आयोजित खम्मम रैली और मंगलूरू में कर्नाटका स्टेट रैयत संघम द्वारा भी बड़ी सभाएं आयोजित की गई थी. पूरे बिहार और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में सभाओं, स्वागत कार्यक्रमों के साथ ही मोटरसाइकिलों और चार पहिया वाहनों के काफिले भी यात्रा के साथ चले जिसने यात्रा को और प्रभावी और दमदार बना दिया था.
पूर्वोत्तर भारत के राज्यों की यात्रा से पहले समन्वय समिति से जुड़े वहां के प्रमुख किसान नेता अखिल गोगोई को सरकार ने एनएसए में गिरफ्तार कर लिया. इसके कारण वहां यात्रा टालनी पड़ी और उसकी जगह 12 नवम्बर को गुवाहाटी में एक विशाल किसान मुक्ति रैली आयोजित की गई. किसान मुक्ति यात्रा के इस पूरे अभियान में लगभग 10 हजार किलोमीटर की यात्रा कर 10 लाख से ज्यादा किसानों से सीधे सम्वाद किया गया. यात्रा देश के 18 राज्यों में गई. हर जगह किसानों ने यात्रा का जोरदार स्वागत किया. इस यात्रा में मैंने महसूस किया कि देश भर में किसान खेती-किसानी की तबाही से भारी गुस्से में हैं. किसान ही क्या नोटबन्दी और जीएसटी के कारण व्यापारियों-व्यवसायियों की भी कमर टूट चुकी है. हैंडलूम उद्योग तबाह हो गया है. निर्माण क्षेत्र भारी मंदी का शिकार है और बाजार में मांग की कमी के कारण उद्योग या तो बंद हो रहे हैं या कम उत्पादन के कारण वहां मजदूरों की भारी छंटनी हो रही है. बेरोजगारी हर तरफ फैल रही है. बेरोजगारों के बड़े हिस्से के वापस गांव लौटने के कारण पहले से घाटा और तबाही की मार झेल रही खेती पर और दबाव बढ़ता जा रहा है.
पिछले 6 माह से मोदी के मैजिक ने अब काम करना कम कर दिया है और उनके जुमला शासन की पोल जनता के बीच खुलती जा रही है. इसलिए अभी 6 माह पहले तक मोदी की आलोचना में हर जगह लड़ पड़ने वाला माहौल बदल गया है. जनता के विभिन्न तबके अब मोदी और उनकी सरकार की आलोचना को ध्यान से सुन रहे हैं और साथ ही सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का इज़हार करना शुरू कर दिए हैं. मैंने वाराणसी में वरुणा नदी के किनारे बने घाट पर पूजा-पाठ और कर्मकांड करा रहे लोगों से जब मोदी के वाराणसी से जीतने के बाद वरुणा नदी के घाट व किनारे के सौंदर्यीकरण होने पर बात की तो कई लोगों ने एक साथ तपाक से बताया कि यह काम अखिलेश ने कराया है. लोगों ने गुस्से में बताया कि जब से मोदी यहां से जीते हैं वाराणसी में कोई काम नही हुआ है. उत्तर प्रदेश में हर जगह लोगों से बात करने पर एक बात साफगोई से लोग बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश में काम करने वाली सरकार अखिलेश की थी, अधिकारी मायावती के शासन में डर कर रहते थे, योगी के शासन में विधायकों और मंत्रियों की तक अधिकारी नहीं सुन रहे हैं. पूरे देश में चाहे किसान हो, मजदूर हो, रिक्शा टैम्पो वाला हो या दुकानदार, व्यवसायी और ट्रांसपोर्टर हो “इस सरकार को 2019 में बताएंगे” कहते मिले. राजनीतिक दलालों, व्यापारियों के एक छोटे हिस्से और सातवां वेतन आयोग से फायदा बटोरे कर्मचारियों के एक हिस्से को छोड़कर आम जनता में मोदी सरकार की छवि रोजगार विरोधी, लुटेरी और कार्पोरेटपरस्त सरकार की बनी है. ऐसे बदलते माहौल में देश के किसानों और किसान संगठनों की यह एकता और एकताबद्ध आंदोलन आने वाले समय में देश में बदलाव की राजनीति के आगे बढ़ने का आधार बन सकता है.
मैंने 1980 में जब से मैं राजनीति में सक्रिय हुआ हूँ, संयुक्त मोर्चा आंदोलन में नीचे से ऐसी गति कभी नहीं देखी जो इन 10 महीनों में किसान संगठनों के इस संयुक्त मोर्चे में देखी है. इस देश में जन संगठनों के संयुक्त मोर्चे का एक प्रयोग पिछले 25 वर्षों से ट्रेड यूनियन मोर्चे पर चल रहा है. उस से बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक हड़तालें और अभी दिल्ली में तीन दिनों तक मजदूरों का पड़ाव जैसी बड़ी आंदोलनात्मक कार्यवाहियां हुई हैं.
मेरा मानना है कि किसान संगठनों की यह एकता लंबे समय तक बनी रहेगी. यह अस्थाई परिघटना नहीं है. इस एकता के पीछे देश में 3.5 लाख किसानों की आत्महत्या और भांगूर-मन्दसौर जैसे गोलियों से शहीद हुए किसानों की पीड़ा है. इसके पीछे देश के किसानों के मन में छुपी वह आकांक्षा है जो उन्हें अहसास कराती है कि काश हमारा भी देश भर में एक मंच होता तो खेती और किसान की यह दुर्दशा नहीं होती. इसलिए इस साझे मंच से कोई संगठन बाहर हो सकता है पर यह कारवां अब रुकने वाला नहीं है. किसान मुक्ति संसद के बाद फरवरी-मार्च माह में लगभग सभी प्रमुख राज्यों की राजधानियों में किसान कन्वेंशन और किसान विरोधी केन्द्रीय बजट के खिलाफ 12 फरवरी से एक सप्ताह का राष्ट्रव्यापी विरोध कार्यक्रम का सफल होना इसका उदाहरण है.
सबसे अहम बात जो इसमें है वह वामपंथ का ही मुख्य ताकत होना है. देश भर में चली किसान मुक्ति यात्रा और दिल्ली में हुई किसान संसद में लगभग 70 प्रतिशत भागीदारी वामपंथ से जुड़े किसान संगठनों की ही रही है. माकपा से जुड़ी किसान सभा, भाकपा (माले) से जुड़ी किसान महासभा और सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी से जुड़ा आल इंडिया किसान मजदूर सभा इसमें शामिल देश व्यापी तीन किसान संगठन हैं. बाकी सभी किसान संगठन एक या कुछ जिलों में या कुछ क्षेत्र या एक राज्य में कार्यरत हैं. किसान महासभा और किसान सभा इसमें सबसे ज्यादा आधार रखने वाले राष्ट्रीय संगठन हैं. ऐसे में वामपंथ की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो इस नए प्रयोग में और ताकत लगाए. इस आंदोलन में केंद्रीय भूमिका के लिए खुद को तैयार करे और नीचे से चल रही इस हलचल को कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ एक नए जनवादी भारत के निर्माण की ओर मोड़ दे.
(लेखक अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव और “विप्लवी किसान संदेश” पत्रिका के संपादक हैं . यह लेख अखिल भारतीय किसान महासभा द्वारा हाल में प्रकाशित पुस्तिका “भारत का किसान आन्दोलन-संभावना और चुनौतियां” से लिया गया है.)