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याद करने और भुलाने की ज़रूरत के बीच चन्द्रबली सिंह की याद में एक संगोष्ठी आज के सवालों पर

20 अप्रैल 2019 को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में चन्द्रबली सिंह स्मृति न्यास, जन संस्कृति मंच और जनवादी लेखक संघ की साझीदारी में ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन की विरासत और आज के सवाल : सन्दर्भ चन्द्रबली सिंह’ विषय पर एक संगोष्ठी हुई|

अध्यक्ष-मंडल में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और अशोक भौमिक थे, और वक्ताओं में मैनेजर पाण्डेय, चंचल चौहान और जीवन सिंह|रेखा अवस्थी ने संचालन किया| कार्यक्रम की शुरुआत में जसम, दिल्ली के सचिव रामनरेश राम ने कार्यक्रम की पृष्ठभूमि का परिचय देते हुए अध्यक्ष-मंडल और वक्ताओं को मंच पर आमत्रित किया और श्री अवधेश त्रिपाठी से आग्रह किया कि वे न्यास की ओर से वक्ताओं को सम्बोधित करें|

अपने संक्षिप्त वक्तव्य में अवधेश जी ने बताया कि यह न्यास चन्द्रबली जी के समृति में गठित किया गया था और इसकी ओर से उनके जन्मदिन पर अलग-अलग जगहों पर कार्यक्रम होते रहे हैं|

उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि विभिन्न संगठन अलग-अलग संगोष्ठियाँ करने की जगह अधिकाधिक साझा आयोजन करने की पहल ले रहे हैं|

मौजूदा आयोजन को उन्होंने फ़ासीवादी हमले के ख़िलाफ़ हो रहे साझा आयोजनों की एक कड़ी के रूप में ही देखने का अनुरोध किया|

श्री मैनेजर पाण्डेय ने अपने वक्तव्य में इस बात पर बल दिया कि प्रगतिशील सांस्कृतिक विरासत के नाम पर पीछे का सब कुछ अपनी पीठ पर ढोते चलने की ज़रूरत नहीं है| कुछ भुलाने की भी ज़रूरत है|

चन्द्रबली जी को भी इसी तरह से देखा जाना चाहिए| सभी प्रगतिशीलों में कुछ चीज़ों को लेकर एक ज़बरदस्त नकारवाद था जिसकी आवश्यकता नहीं थी|

चन्द्रबली जी ने अपने एक लेख में सार्त्र जैसे आदमी के लेखन को ‘गीदड़ों और लकड़बग्घों के साहित्य’ की श्रेणी में रख दिया, जबकि सार्त्र के संघर्ष को याद करें तो उस समय सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े होने का वैसा साहस किसमें था! ऐसे कई उदाहरण उनमें मिल जायेंगे जिन्हें विरासत का हिस्सा मानने की ज़रूरत नहीं|

हाँ, उनमें सबसे अच्छी बात यह थी कि वे दुविधारहित लेखक थे| दुविधा उन्हीं में रहती है जो सुविधा चाहते हैं| चन्द्रबली सिंह उस सुविधा के अभिलाषी नहीं थे|

अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि इस समय सत्ता पर जो आरएसएस क़ाबिज़ है, उसके निशाने पर सबसे पहले कम्युनिस्ट हैं|

इन ताक़तों से लड़ने के लिए प्रगतेशील आन्दोलन की शक्तियों से सीखिए और उसकी कमियों को भुलाइये|
अलवर से आये हुए आलोचक जीवन सिंह ने चन्द्रबली सिंह के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि उनकी आलोचना में जैसी सफाई और द्वंद्वात्मकता है, वैसी रामविलास जी में भी नहीं है|

‘प्रेमचंद की परम्परा’ लेख में इसे देखा जा सकता है| वे रामविलास जी की तरह इकहरी दृष्टि सामने नहीं रखते| जहां तक प्रगतिशील आन्दोलन की कमज़ोरियों का सवाल है, वह जिन बाधाओं के बीच खड़ा हुआ था, उन्हें देखते हुए वे कमज़ोरियाँ कम लगती हैं|

साम्राज्यवाद, सामंतवाद, समाज की जातिगत संरचना, स्त्री-विरोधी संरचना—इन सबको ध्यान में रखें तो लगेगा कि इनके बीच यह आन्दोलन एक बड़ी बात थी| आज का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग तो बहुत सुविधाओं के बीच है| तब ऐसा न था|

उन्होंने कहा कि आज आन्दोलन को किसानों तक ले जाने की ज़रूरत है| शहरी मध्यवर्ग तक सीमित रहकर हम अपना नुकसान कर रहे हैं| फासीवाद को इसीलिए चुनौती नहीं दे पा रहे|
चंचल चौहान ने शुरुआती प्रगतीशील आलोचना और बाद की प्रगतीशील आलोचना के अंतर पर रोशनी डालते हुए कहा कि रामविलास जी और प्रकाश चन्द्र गुप्त जैसे आलोचक गाल देखकर तमाचा मारते थे| उनकी आलोचना व्यक्ति-केन्द्रित थी|

मुक्तिबोध पर रामविलास जी का लिखा पढ़ें तो यह पद्धति पूरी समझ में आती है| इसे अंग्रेज़ी वालों ने बायो-क्रिटिसिज्म कहा है| बाद के लोग समय को देखते और उसके अंतर्विरोधों की रोशनी में आलोचना करते हैं| मुक्तिबोध में और उसी तरह चन्द्रबली जी में यह पक्ष दिखता है|

जीवन सिंह की बात से असहमति जताते हुए उन्होंने कहा कि किसानों को महत्व दें, मध्यवर्ग को नहीं, यह नज़रिया सही नहीं है| आज तो बड़े-से-बड़े वर्ग-संश्रय की ज़रूरत है| लोक-संस्कृति की प्रति पूजा-भाव नहीं, आलोचनात्मक दृष्टि होनी चाहिए|

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि चन्द्रबली जी को 87 वर्ष की आयु मिली| इनमें से 67 वर्ष वे लिखते-पढ़ते रहे| उनका योगदान बड़ा है| प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन को उसके पूरेपन में देखने की ज़रूरत पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि यह कोई लेखन तक सीमित आन्दोलन नहीं था.

संगीत, चित्रकला, सिनेमा, नाटक, सबमें यह एक साथ चला| स्वाधीनता आन्दोलन के भीतर इन पक्षों को लेकर कुछ नहीं हो रहा था, लिहाजा प्रगतिशील आन्दोलन उस स्वाधीनता आन्दोलन का एक ज़रूरी हिसा बनकर उभरा|

आज हमें नफ़रत की राजनीति को पराजित करना है| तर्कवादियों, बुद्धिजीवियों की हत्याएं हो रही हैं; अल्पसंख्यकों की लिंचिंग हो रही है|

इस फ़ासीवादी मुहीम का मुकाबला कैसे किया जाए, यही असली सवाल है| चन्द्रबली जी ने अपनी किताब की भूमिका में फ़ासीवाद का उल्लेख किया था| वे इस संकट को देख रहे थे|

उन्होंने एक बड़ा काम यह किया कि अपने अनुवाद-कार्य के माध्यम से पाब्लो नेरुदा और नाज़िम हिकमत जैसे कवियों को हिन्दी पाठकों तक पहुंचाया| अनुवाद के लिए वे किन्हें चुनते थे, यह गौर करने की बात है| उनका लिखा आज भी हमें रास्ता दिखाता है|

जसम, दिल्ली के अध्यक्ष अशोक भौमिक ने कहा कि वे सिर्फ धन्यवाद-ज्ञापन तक अपने को सीमित रखना चाहते है, लेकिन प्रगतिशील आन्दोलन पर उन्होंने दो ज़रूरी टिप्पणियाँ कीं|

एक तो यह कहा कि हमारे यहाँ इतनी भाषाएँ हैं कि भाषाओं में होने वाले काम तक प्रगतिशील जनसंस्कृति को सीमित कर देना उसके अखिल भारतीय स्वरूप के रास्ते में बाधा है|

रविंद्रनाथ ने कहा था कि जब मैं पेंटिंग करता हूँ तो उसमें कोई भाषा नहीं होती, वह जितना भारतीय होता है, उतना ही यूरोपीय भी| अशोक भौमिक ने कहा कि हमने यह भुला दिया और सिर्फ भाषा तक सीमित हो गए| दूसरी बात उन्होंने यह कही कि जिनसे हम लड़ने की बात करते हैं, उनके कामों की व्यापकता को नहीं देखते| वे इस देश में 22000 सरस्वती शिशु मंदिर चलाते हैं| हमने क्या किया?
संचालन करते हुए रेखा अवस्थी ने कई महत्वपूर्ण बिंदु सामने रखे| शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि यह सोचने की बात है कि जिन लोगों ने प्रगतिशील-जनवादी आन्दोलन को अपना जीवन दे दिया, उनके परिजनों को ही उनकी याद में न्यास क्यों बनाने पड़ते हैं?

हम लोग उन्हें ठीक से याद भी क्यों नहीं कर पाते? चन्द्रबली जी के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि 1951 में लिखे गए लेख ‘प्रगतिवादी कला’ में वे जनकवि और जनकला का प्रश्न उठा रहे थे|

उसी दौर में दलित लेखन और उसकी उपेक्षा पर भी उन्होंने लोगों का ध्यान खींचा| वे ही थे जिन्होंने आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद के बरअक्स जनवादी यथार्थवाद की बात की|

संभवतः सोवियत संघ के विघटन के बाद उनकी यह समझ बनी थी और उन्हें लगा था कि नए आलोचनात्मक औज़ारों की ज़रूरत है|
संगोष्ठी शाम 6 बजे से 8 बजे तक चली और लगभग 60 श्रोताओं की उपस्थिति रही|

प्रस्तुति
संजीव कुमार

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