समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

सोचता हूँ, इसलिए अपराधी हूँ..( भीमा कोरेगांव-16 और असहमति से आतंकित राज्य )

भीमा कोरेगांव-16

ठीक इस समय, जब ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, देश के कुछ लब्धप्रतिष्ठ लेखक,कलाकार, प्रोफ़ेसर, वकील, बुद्धिजीवी और मानवाधिकारवादी कर्मकर्ता जेलों में बंद हैं. कुछ जो अभी बाहर हैं, बार-बार थानों में तलब किए जा रहे हैं. बहुत-से और लोग,जो अभी तक तलब नहीं किए गए, अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं. यह तय है कि आने वाले दिनों में जेल और भी बहुत से लेखकों का डाक-पता बनाने जा रही है.

इसी आठ अक्तूबर को झारखंड के मशहूर आदिवासी अधिकार कर्मकर्ता स्टेन स्वामी को यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें भीमा-कोरेगांव हिंसा (2018) से जुड़े एल्गार परिषद् मामले में गिरफ़्तार किया गया है. इस मामले में अब तक भारत के सोलह जाने माने कर्मकर्ता बुद्धिजीवियों को गिरफ़्तार किया जा चुका है. इन सभी को अब भीमा -कोरेगांव -16 के नाम से जाना जाता है.

दो सौ साल पहले यानी 01जनवरी 1818 को पुणे के नजदीक भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में मराठों के पेशवा धड़े की दो हज़ार की फौज से ईस्ट इंडिया कम्पनी के छह सौ सिपाहियों की भिडंत हुई थी. इसे तीसरे और अंतिम आंग्ल मराठा-युद्ध की एक कड़ी के रूप में देखा जाता है.

इस लड़ाई का तात्कालिक कारण था  लगान के लिए मराठों के विभिन्न धड़ों के बीच चल झगडे में कम्पनी का बडौदा के मराठा शासक गायकवाड के साथ खड़ा होना.

पेशवा की फौज में अधिक संख्या अरब लड़ाकों की थे, जबकि कम्पनी की सेना में महारों की संख्या ज्यादा थी. संख्या बल में एक तिहाई होने के बावजूद कम्पनी की सेना ने मराठों की फौज को पीठ दिखाने को मजबूर कर दिया. आधुनिक युद्धों के इतिहास में इस घटना को कम्पनी की तरफ से लड़ रहे सैनिकों की शूर-वीरता के नमूने के रूप में याद किया जाता है. भूख-प्यास से जूझते हुए एक विशाल पेशेवर सेना को दो दिन तक रोके रखना कोई साधारण उपलब्धि न थी.

इस घटना के ऐतिहासिक महत्व को सबसे पहले बाबा साहेब ने पहचाना. उनका ध्यान इस बात पर गया कि सिर्फ वेतन के लिए लड़ रहे सैनिकों में वैसी बलिदानी भावना और संकल्प शक्ति का होना मुश्किल है, जैसी उस लड़ाई में कम्पनी की महार-बहुल सेना ने प्रदर्शित किया था.

पेशवाई भारत के इतिहास में सबसे बर्बर ब्राह्मणवादी शासन के रूप में जानी जाती है. बाबासाहेब ने महसूस किया कि उस दिन पेशवा की फौज से लड़ते हुए महार सिपाही पीढ़ियों के संचित जाति-अपमान के प्रतिकार की भावना से भी संचालित रहे होंगे. 1927 की एक जनवरी को कोरेगांव के रण-स्तम्भ पर महार सिपाहियों की वीरता को याद करते हुए उन्होंने इस बात को रेखांकित किया.

उस दिन से कोरेगांव का रण-स्तम्भ दलितों के ब्राह्मणवाद -विरोधी संघर्ष और दलित गौरव का प्रतीक बन गया. हर साल एक जनवरी को वहाँ जन-सैलाब उमड़ता है और जाति-प्रथा  के उन्मूलन की लड़ाई को आगे बढाने के संकल्प को दुहराया जाता है. इसे शौर्य दिवस कहा जाता है, न कि विजय दिवस. भावना जीत के जश्न की नहीं, योद्धाओं के शौर्य को याद करने की रहती है.

इस सालाना रैली को ‘मराठों के ख़िलाफ़ महारों की जीत’ के जश्न का रूप देकर मराठों की भावनाएं भडकाने का खेल पहले कभी कभी कामयाब न हो सका था. लेकिन दो हज़ार अठारह का भारत एक बदला हुआ देश था. भारत में हज़ारों वर्षों की ‘ग़ुलामी’ के बाद कथित ‘हिन्दू-राज’ कायम हो चुका था.

सामाजिक न्याय का सियासी इंक़लाब बिना कोई जमीनी बदलाव किए अब उतार पर था. आरक्षण के अधिकार से इतना जरूर हुआ था कि वंचित तबकों के गिने-चुने सदस्यों को बेहतर शिक्षा और सम्मानजनक पेशे के चुनाव के कुछ मौके हासिल हुए थे.इतने भर से जाति के मनोवैज्ञानिक वर्चस्व में दरारें पड़ने लगी थीं. वे पीढ़ियों से चले आ रहे अपमानित जीवन को अपनी नियति मान लेने से इनकार करने लगे थे.

इस मनोवैज्ञानिक बदलाव ने सवर्ण महाप्रभुओं के मन में जो प्रतिक्रिया जगाई थी, उसे बलि की जरूरत थी. और उसका समय आन पहुंचा था.

 बदलता देश

 इस बदलते हुए समय का सुराग सितम्बर 2015 में ‘गोमांस’ पकाने के झूठे ‘आरोप’ में उत्तर प्रदेश के दादरी में हुई मोहम्मद अखलाक़ की सामूहिक हत्या से मिला था. अगले साल जनवरी में हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रखर दलित शोधप्रज्ञ रोहित वेमुला की ‘सांस्थानिक हत्या’ की खबर आई. जुलाई में गुजरात के ऊना में दलितों की सार्वजनिक यंत्रणा का बर्बर वीडियो वायरल हुआ. इन्ही घटनाओं के बीच देश भर में गौ-रक्षकों द्वारा की जाने वाली सामूहिक हत्याओं की  अनगिनत घटनाएं सामने आती रहीं.

ऐसी हर घटना पर लीपापोती करने की सरकारी कोशिशें भी उजागर होती रहीं. यूपी से लेकर झारखण्ड तक केंद्र सरकार के अनेक मंत्री ‘गोरक्षक’ हत्या-आरोपियों के पक्ष में बयान जारी करते रहे. यही नहीं, जेल से उनके छूटने पर फूलमालाएं पहनाकर उनका स्वागत करते भी नजर आए.

देश भर के लब्ध-प्रतिष्ठ लेखकों ने उत्पीड़ितों के खिलाफ बढ़ती प्रतिहिंसा और उसे मिल रहे सत्ता- संरक्षण के खिलाफ अपने राज्य-प्रदत्त सम्मानों और पुरस्कारों को लौटाने का अभियान शुरू किया. इस पर कोई शर्मिन्दगी महसूस करने की जगह नए सत्तासीनों ने इन लेखकों को ‘अवार्ड-वापसी गैंग’ का तगमा देकर इन लेखकों का मज़ाक उड़ाया. दुनिया भर में भारत की मौलिक रचनाशीलता को प्रतिष्ठा दिलाने वाले इन लेखकों को ‘देशद्रोही’ साबित करने में ‘गोदी’-मीडिया ने सत्तासीन नव-प्रभुओं की भरपूर मदद की.

भारत के अतिशय मुखर प्रधानमंत्री तब तक इन घटनाओं की नोटिस लेने से इनकार करते रहे, जब तक देश-व्यापी दलित-आक्रोश के चलते गम्भीर राजनीतिक नुकसान की आशंका पैदा नहीं हुई. आख़िरकार बोले भी तो अपनी निंदा को ‘नकली’ गौरक्षकों तक महदूद रखा. ‘नकली’ गौरक्षकों के खिलाफ भी सरकार की तरफ से किसी कड़ी कार्रवाई की घोषणा नहीं की गई. उलटे सत्ता-प्रमुख की तरफ से एक दयनीय-सी अपील की गयी कि मारना ही है तो मुझे मार लो, उन्हें छोड़ दो.

खुले आम मार-काट मचा रहे इन जबर ‘गौरक्षकों’  के खिलाफ सरकारी एजेंसिया क्या कार्रवाई करतीं, जिनके सामने ‘छप्पन इंच के सीने वाला’ प्रधानमंत्री ख़ुद दयनीय नज़र आ रहा हो?

 सन 2018 में भीमा-कोरेगांव संघर्ष के दो सौ साल पूरे हुए.  इस अवसर दलित-अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले 260 संगठनों ने पुणे के शानिवारवाड़े में एक आहवान-सभा – एल्गार परिषद- का आयोजन किया. यह आयोजन भीमा-कोरेगांव दिवस की पूर्व-संध्या पर 31 दिसम्बर को हुआ. शनिवारवाड़ा किसी जमाने में पेशवाओं का किला हुआ करता था.

एल्गार परिषद् का रूप एक सांस्कृतिक मेले जैसा था, जिसमें गीत-नृत्य, नाटक और कविताओं की अनेक प्रस्तुतियां हुईं. साथ ही वैचारिक भाषण भी हुए. इन भाषणों का मन्तव्य स्पष्ट था.

अधिकतर वक्ताओं ने इस बात को जोरशोर से दुहराया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी शक्तियाँ भारत में एक नयी पेशवाई का निर्माण करने में लगी हुई हैं. हिन्दू राज की विचारधारा हिन्दू वर्णाश्रम से प्रेरित है, जो दलितों और स्त्रियों की सम्पूर्ण पराधीनता का पोषक है.

दलितों के खिलाफ़ बढ़ते हुए अत्याचार पेशवा-राज की याद दिलाने लगे हैं. ऐसे अत्याचार दलितों की बढती हुई अधिकार-चेतना के विरुद्ध स-वर्णों की सीधी प्रतिक्रिया है. ‘औकात बताने’ की कार्रवाई है.

पुरानी और नई पेशवाई में अंतर यह है कि दलितों को नियंत्रित करने के संसाधनों में हिन्दू धर्मशास्त्र के साथ हिंदू-राष्ट्रवाद को भी शामिल कर लिया गया है. यह तो पहले भी था कि दलितों के लिए सम्मान और बराबरी की बात करना धर्मशास्त्र का उल्लंघन है. भगवान के बनाए विधान को चुनौती देना है. पाप है. दलितों को इस पाप का दंड देने के लिए ही जैसे भगवान ने वाक्-बली पुरोहितों और बाहुबली लड़ाकों की सेना जोड़ रखी है.

लेकिन भगवान के घर कभी-कभी देर हो जाती है. भगवान दूर है और अदृश्य है. ‘राष्ट्र’हर जगह है और प्रत्यक्ष है. भगवान को भुलाया जा सकता है, अगर तत्काल जरूरत न हो. ‘राष्ट्र’ ऐसा नया भगवान है, जो कभी भी खुद को भूलने नहीं देता.

नया भगवान पुराने से अलग होकर नहीं, उनसे मिल कर काम करता है. दोनों एक दूसरे को ताकत देते हैं.

सरकार तो ‘राष्ट्र’ की प्रतिनधि है ही, ‘राष्ट्रभक्त’ होने का दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति ‘राष्ट्र की तरफ़ से’ कार्रवाई कर सकता है. जैसे ऊना के ‘गो-रक्षकों’ या कठुआ के बलात्कारियों के समर्थकों ने किया था. ‘राष्ट्र’ तत्काल अपने विरुद्ध होने वाले या मान लिए गए अपराधों की सजा दे सकता है.

‘राष्ट्रविरोधी’ अथवा’ देशद्रोही’ का तमगा अपने आप में एक कठोर सजा है. दलितों,आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों और दीगर उत्पीड़ित श्रेणियों के लोगों के अधिकार और गौरव की बात करना राष्ट्र के विरुद्ध अपराध हो सकता है, क्योंकि इससे राष्ट्रीय ‘समरसता’ नष्ट होती है और तनाव बढ़ता है.

 कल्पित खलनायक 

 2017 के 28 दिसम्बर को ऐसा ही एक ‘अपराध’ घटित हुआ.

भीमा-कोरेगांव के क़रीब ही वधू बुद्रुक गाँव में शिवाजी के बेटे संभाजी की समाधि है. इतिहासकार एकमत हैं कि संभाजी महाराज की मृत्य 1689 में औरंगज़ेब के साथ हुए युद्ध में हुई थी. मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर का क्या हुआ, इस विषय में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है.

 स्थानीय महारों का दावा है कि उनके पूर्वज गोविन्द महार ने निजी भूमि पर संभाजी के क्षत-विक्षत पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया था. मुगल सम्राट की सख्त मनाही की अवहेलना करते हुए. जहां संभाजी की समाधि है, वहीं गोविन्द गोपाल गायकवाड़ महार की समाधि भी पिछली तीन सदियों से मौजूद है.

सम्भाजी समाधि-स्थल पर लगे हुए एक बोर्ड पर गोविन्द महार के नामोल्लेख के साथ अंतिम संस्कार में उनके योगदान के बारे में यह जानकारी दर्ज थी. सन 2015 में इस बोर्ड को हटा कर एक नया बोर्ड लगा दिया गया, जिसमें गोविन्द महार का उल्लेख नहीं था.

उसी समय स्थानीय महारों ने प्रशासन से इसकी लिखित शिकायत की. कोई कार्रवाई नहीं हुई.

पुराने और नए दोनों बोर्डों की तस्वीरें ‘फोरम फॉर इंटिग्रेटेड नेशनल सिक्योरिटी’ या ‘फिन्स’ की जांच-रपट में मौजूद है. भीमा-कोरेगांव की चल रही जाँच-पड़ताल की दिशा निर्धारित करने में फिन्स की केन्द्रीय भूमिका है, हालांकि यह ‘बिना लाभ के काम करने वाला’ महज एक एनजीओ है.

जाहिर है, यह कोई ऐसा-वैसा एनजीओ नहीं है. इसका काम भारत की सुरक्षा से सम्बन्धित नीतियों प्रस्तावित करना है. इस के दायरे में सीमाओं की रक्षा से लेकर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा, वाम उग्रवाद यहाँ तक कि अंतरिक्ष भी शामिल है. सेना के बड़े-बड़े भूतपूर्व अधिकारी इसकी कार्यकारिणी में शामिल हैं. अनेक विषयों के विशेषज्ञ और विमर्शकार भी हैं. इसके कई महासचिवों में एक संघ के पुराने प्रचारक और भाजपा नेता शेषाद्रि चारी हैं. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक ‘फ्रंट संगठन’ है.

इसी एनजीओ की रपट ने भीमा-कोरेगांव हिंसा की सरकारी जांच की दिशा बदल दी थी. इसी संस्था ने पहली बार यह कहा था कि भीमा-कोरेगांव हिंसा माओवादी पार्टी के फ्रंट-संगठनों की साजिश का नतीजा थी.

इस रिपोर्ट के आने तक मीडिया में लगभग आम राय थी कि भीमा-कोरेगांव दिवस की रैली पर हुए हमले, हिंसा और उसके बाद समूचे महाराष्ट्र में हुए उपद्रव में हिन्दुत्ववादी संगठनों के दो नेताओं मिलिंद एकंबोटे और संभाजी भिड़े की मुख्य भूमिका थी. शुरुआती एफआईआर में इन्ही के नाम थे. पुलिस इन्ही की तलाश कर रही थी. साम्प्रदायिक तनाव भडकाने वाली कार्रवाइयों में संलिप्त होने का इनका लम्बा इतिहास भी थी. एकबोटे को गिरफ्तार न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को फटकारा भी था.

लेकिन उपद्रव के सिर्फ दो महीनों के भीतर ‘फिन्स’ की विस्तृत जांच रिपोर्ट आ गयी, जिसमें भिड़े एकोबोटे को क्लीन चिट दे कर ‘माओवादी’ ‘अरबन नक्सल’ कर्मकर्ताओं को दंगे की साजिश का सूत्रधार बताया गया था.

इसके बाद  महाराष्ट्र पुलिस की जांच की दिशा बदल गयी. ‘अरबन नक्सल’ के नाम पर दलित-आदिवासी मुद्दों पर काम करने वाले और उन पर लिखनेवाले जानेमाने कर्मकर्ता लेखक गिरफ़्तार किए जाने लगे.

जनवरी 2020 में महाराष्ट्र में नई गैर-भाजपाई सरकार बनी. 22 फरवरी को नई सरकार ने नए सिरे से मामले की जांच के आदेश दिए और 25 फरवरी को केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र पुलिस को किनारे कर जांच एनआइए को सौंप दी. अक्तूबर 2020 में कुछ और मानवाधिकारवादियों की गिरफ्तारी के बाद एनआइए ने जो चार्जशीट दाख़िल की,उसमें उसी लाइन को पल्लवित किया गया है, जो फिन्स ने मार्च 2018 में खींच दी थी.

फिन्स ने अपनी रपट बहुत मेहनत से तैयारी की है. अधिक से अधिक तथ्यों, घटनाओं, दस्तावेज़ों, तस्वीरों, वाट्सऐप वार्ताओं और पोस्टरों आदि को जुटाने का काम किया है. विचारधारा और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल इन तथ्यों से मनमाफ़िक कहानी गढ़ने में किया गया है. इसे आख्यान या नैरेटिव बनाना कहते हैं. तथ्य लगभग वही रहते हैं,उनके अर्थ बदल जाते हैं. अर्थ आख्यान के हवाले हो जाते हैं.

 नायक और खलनायक अदल-बदल जाते हैं. शिकारी शिकार हुआ नजर आने लगता है और शिकार शिकारी.

आख्यान की कला सत्य और असत्य का कॉकटेल बनाने की नाज़ुक कला है. इसमें सत्य का एक निश्चित मिक़दार में होना जरूरी है.  फिन्स की रपट को ध्यान से पढ़ा जाए, प्रमाणित तथ्यों को निर्मित आख्यान से आज़ाद किया जाए, उन्हें सामाजिक वास्तविकताओं के सन्दर्भ में समझने की कोशिश की जाए तो आख्यान के द्वारा दबा दी गयी सच्चाई उभर आती है.

 फिन्स की इसी रिपोर्ट में सम्भाजी की समाधि पर लगे उस पुराने बोर्ड की तस्वीर देखी जा सकती है, जिसमें गोविन्द महार की भूमिका का उल्लेख है. इसी में 2015 में लगे नए बोर्ड की तस्वीर भी है, जिसमें यह उल्लेख गायब है. लिखा-पढी के बावज़ूद इसे जोड़ा नहीं गया.

28 दिसम्बर 2017 के दिन गोविन्द महार की समाधि के पास एक और बोर्ड लगा दिया गया, जिसमें संभाजी के अंतिम संस्कार में गोविन्द महार की भूमिका के बारे में बताया गया था. भीमा-कोरेगांव युद्ध की द्विश्ताब्दी के अवसर पर भीमा-कोरेगांव आने वाले लाखों आम्बेडकरवादियों की एक बड़ी संख्या के यहाँ पहुँचने की उम्मीद थी. बोर्ड लगाने का मकसद यही था.

अगले दिन भारी संख्या में वहाँ पहुंचे हिंदुत्व-वादी कार्यकर्ताओं ने केवल इस बोर्ड को हटा दिया, बल्कि गोविन्द महार की समाधि पर भी तोड़-फोड़ की. समाधि पर कंक्रीट की एक छतरी थी, जिस तोड़ दिया गया. महारों की तरफ से पुलिस में दी गई शिकायत के मुताबिक़ उन पर जातिसूचक अपशब्दों की बौछार भी की गयी. यह शिकायत 49 लोगों के ख़िलाफ़ थी, जिसमें गाँव के सरपंच के अलावा इलाके के सक्रिय ‘गो-रक्षक’हिंदुत्व-वादी नेता मिलिंद एकबोटे का नाम भी था. दूसरे पक्ष ने भी जवाबी शिकायत की.

30 दिसम्बर को मिलिंद एकबोटे ने प्रेस-कोंफ्रेंस की. इस प्रेस कोंफ्रेंस में एक पर्चा बांटा गया. इस पर्चे में भीमा -कोरेगांव शौर्य दिवस को भारतीय सिपाहियों पर अंग्रेजों की जीत के जश्न के रूप में पेश किया गया. इसे गद्दारी का काम बताया गया. यह भी कहा गया कि आम्बेडकर भी इसे महारों के लिए गौरव का विषय नहीं मानते थे. इतना ही नहीं, इस पर्चे में आम्बेडकर को एक मुस्लिम-विरोधी नेता के रूप में भी पेश किया गया.

01 जनवरी को हजारों की संख्या मराठा कार्यकर्ता संभाजी की समाधि पर इकट्ठे हुए. वहाँ वरिष्ठ हिंदुत्व-वादी नेता संभाजी भिड़े मौजूद थे.  भगवा झंडे लहराते उत्तेजक नारे लगाते वे भीमा कोरेगांव की तरफ चले. वहाँ शौर्य दिवस की द्विश्ताब्दी मानाने के लिए लाखों की संख्या दलित जनता एकत्रित थी. ऐसे में दोनों समूहों के बीच टकराव होना तय था. वो हुआ और उसने हिंसक रूप भी लिया.

इस घटना की जो पहली प्राथमिकी दर्ज हुई, उसमें हिंसा भड़काने वालों में मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े के नाम मौजूद थे. दोनों लम्बे समय से इस इलाके में हिंदुत्व के चर्चित चेहरे रहे हैं. बाद में एनसीपी नेता उदयनराजे भोंसले ने कहा कि सम्भाजी ने उन्हें बताया है कि वधू बुद्रुक तो वे समाधि स्थल की सफाई करने गए थे, हिंसा में उनका कोई हाथ नहीं है!

यह सारा घटनाक्रम फिन्स की रिपोर्ट में लगभग जस का तस मौजूद है. क्या यह स्पष्ट नहीं है कि गोविन्द महार के नाम वाले बोर्ड को तोड़ने वाले कौन थे? उनकी समाधि पर लगी छतरी को तोड़ने वाले कौन थे? हर साल मनाए जाने वाले शौर्य दिवस की रैली पर हजारों की भड़काऊ नारे लगाती भगवाध्वज-धारी भीड़ लेकर जाने वाले कौन थे? क्या यह भीड़ का यह मार्च वधू बुद्रुक से नहीं शुरू हुआ था? क्या दो दिन पहले शौर्य दिवस को देश के साथ गद्दारी करार देने वाली प्रेस कांफ्रेंस नहीं हुई थी? समूचे घटनाक्रम में क्या यह स्पष्ट नहीं है कि हमलावर कौन थे?

क्या हिंदुत्व के नारे लगाने वाली उत्तेजित भीड़ ने 29 से 01 जनवरी तक चले इन भड़काऊ कार्रवाइयों को स्वतःस्फूर्त ढंग से अंजाम दिया? क्या शक की सुई वहाँ दसियों साल से सक्रिय साम्प्रदायिक तनाव फैलाने वाली घटनाओं के कारण जाने जाने वाले हिंदुत्व-वादी नेताओं की तरफ नहीं जाती? यकीनन जाती है.

यह बात मीडिया से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की टिप्पणियों  में प्रकट भी होती है. आखिर सुप्रीम कोर्ट ने एकबोटे को गिरफ्तार न करने के लिए राज्य सरकार की खिंचाई यूं ही तो न की होगी. और तो और, तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने विधानसभा के अपने एक भाषण में भीमा-कोरेगांव हिंसा में दोनों नेताओं की संलिप्तता को स्वीकार किया था.

लेकिन फिन्स दोनों हिंदुत्व-वादी नेताओं की भूमिका को धुंधलाने की कोशिश करता है. मिलिंद एकबोटे की प्रेस कांफ्रेंस के बारे में कहा जाता है कि वह तो रद्द कर दी गयी थी. और यह कि एकबोटे मुश्किल से पांच मिनट वहाँ रुके थे. केवल प्रेस रिलीज की प्रतियाँ बांटी थीं.

प्रेस कांफ्रेंस अगर रद्द कर दी गयी थी तो प्रेस रिलीज किन लोगों में बांटी गयी? एकबोटे वहाँ कितनी देर रुके, इसका कोई रिकोर्ड है क्या? अगर है तो दस्तावेजों और तफसीलों से भरी इस रपट में उसका उल्लेख क्यों नहीं है?

भिड़े के बारे में रिपोर्ट कहती है कि वधू बुद्रुक में उनके भाषण की केवल अफवाह थी,वे वहाँ गए ही नहीं थे. लेकिन भिड़े ने एनसीपी नेता उदयन राजे को बताया था कि वे वहाँ समाधि की सफाई करने गए थे! यह रिपोर्ट पांच जनवरी को न्यू इंडियन एक्सप्रेस में छप चुकी थी. फिन्स ने इसका उल्लेख तक अपनी रिपोर्ट में क्यों नहीं किया?

फिन्स की नजर में अपराधी वे लोग नहीं हैं, जिन्होंने गोविन्द महार के नाम वाले बोर्ड को हटाया, उसकी समाधि पर तोड़फोड़ की, और फिर एक जनवरी को शौर्य-दिवस की दलित रैली को ललकारने समाधि-स्थल से ही हज़ारों की भीड़ के साथ मोर्चा निकाला. अपराधी वे लोग हैं, जिन्होंने वहाँ गोविन्द महार का बोर्ड लगाया!

सारा तनाव उस बोर्ड के कारण फैला! बोर्ड ने मराठों की भावनाओं को उत्तेजित किया! बोर्ड ने उन्हें हिंसा और तोड़-फोड़ करने पर मजबूर किया! बोर्ड के कारण शौर्य दिवस पर दलित-विरोधी जुलूस निकाला गया.

बोर्ड लगाया महारों ने. जरूर उसके पीछे दलित अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठनों की भूमिका होगी. और उसके पीछे माओवादियों की भूमिका होगी. दलितों-आदिवासियों के लिए काम करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सन्गठन माओवादियों के फ्रंट-संगठन हैं. अपनी पहचान छुपाने के लिए नाम बदल लेते हैं, लेकिन काम तो माओवादियों का ही करते हैं.

दलितों-आदिवासियों के लिए काम करना माओवाद तो है ही, देश-विरोधी काम भी  है. इससे सामाजिक ‘समरसता’ भंग होती है. देश कमजोर होता है. जैसे ‘एल्गार परिषद’ के भाषणों से हुआ. ‘हिंदुत्व’ को नयी पेशवाई बताने से हुआ. हिंदुत्व-वादी पार्टियों को साम्प्रदायिक और ब्राह्मणवादी करार देने से हुआ. सरकार की आलोचना करने से हुआ.

इन भाषणों से हिंदुत्व-समर्थकों में रोष पैदा हुआ, बात हिंसा तक पहुँची. फिन्स के मुताबिक़  अपराधी वे हैं, जिन्होंने अपने भाषणों से समर्थों में अपने विरुद्ध रोष पैदा किया. समर्थ थोड़े ही दोषी हैं, जिन्होंने वास्तव में हिंसा शुरू की. वे तो क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया कर रहे थे, जो कि प्रकृति का नियम है!

दलितों-आदिवासियों को अपने गौरव और अधिकारों के लिए खड़ा कर ‘माओवादियों’ ने देश-विरोधी काम किया, जिससे मराठों का आक्रोश जगा. यह एक जायज आक्रोश है. हिंसा करने वाले अपराधी  नहीं हैं. अपराधी वे हैं, जिनके विरुद्ध हिंसा हुई. उन्होंने अपनी नापाक हरकतों से हिंसा करने वालों को उकसाया!

उनकी सबसे नापाक हरकत थी इतिहास को विकृत करना. भला एक महार धर्म-रक्षक संभाजी महाराज का अंतिम संस्कार कैसे कर सकता है! जो भी ऐसा दावा करता है,वह मराठों का दुश्मन  है, धर्म का दुश्मन है, देश का भी दुश्मन है. इस पर मराठों का खून खौलना जायज है.

 कार्रवाई-योग्य विन्दुओं के तहत फिन्स की रिपोर्ट मांग करती है कि जैसे वकालत के लिए लाइसेंस की जरूरत होती है, वैसे ही इतिहास लिखने के लिए भी सरकारी लाइसेंस की जरूरत होनी चाहिए. कोई भी मुंह उठाए चला आता है और इतिहास लिखने लगता है. ऐसा कैसे चलेगा? इतिहास सरकारी देखरेख में लिखा जाना चाहिए.

इतिहास समाज-विज्ञान का एक अनुशासन है. इतिहासकार बनाने के लिए लम्बे अकादमिक प्रशिक्षण की जरूरत होती है. सरकारी देखरेख में कैसा इतिहास लिखा जाएगा? जैसे अयोध्या के रामजन्मभूमि-मन्दिर का इतिहास लिखा जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट को भले ही वहां किसी प्राचीन राम-मन्दिर के कोई साक्ष्य न मिले हों.

फिन्स का यह कहना सच है कि संभाजी महाराज के अंतिम संस्कार में गोविन्द महार की भूमिका के कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है. प्रमाण तो सिवले-पाटिल परिवार के युगल की भूमिका के भी नहीं हैं, जिन्हें रिपोर्ट प्रामाणिक मान कर चलती है. दोनों लोक-प्रचलित कहानियां ही हैं.

 फिन्स के लिए महारों की कहानी इतिहास के साथ देशद्रोह-पूर्ण तोड़फोड़ है, जबकि मराठों की कहानी देश का प्रामाणिक इतिहास है!

फिन्स का अटूट पक्षपात स्पष्ट है. सत्य और असत्य के कॉकटेल के साथ हिंसा के असली अपराधियों को बचाते हुए हिंसा के शिकार हुए पक्ष को अपराधी ठहरा देने की करामात जग-जाहिर है. इसपर इतनी चर्चा की जरूरत नहीं होती, अगर हमने फिन्स की इसी रिपोर्ट से सरकारी जांच-पड़ताल की दिशा निर्धारित होते नहीं देखा होता.

 क्या संघ से जुडी सरकारी एजेंसियां जाँच-पड़ताल की सरकारी एजेंसियों, जैसे पुलिस और एनआइए, के कामकाज को निर्धारित करने लगी हैं? यह सम्भावना ही डराने वाली है. देश की सुरक्षा और प्रगति के लिए ख़तरनाक है. विरासत की रक्षा की दृष्टि से भी खतरनाक है.

 हिंदू पदपादशाही और जाति  

महाराष्ट्र की राजनीति में आमतौर पर मराठों का दबदबा रहा है. मराठों ने संभाजी के अंतिम संस्कार में महारों की भूमिका के दावे को कभी  मंजूर नहीं किया. इसके बावजूद गोविन्द महार की समाधि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश नहीं की गई.

इसका कारण सिर्फ यह नहीं था कि मजबूत मराठों को महारों की ओर से  कम से कम नब्बे के दशक तक कोई चुनौती नहीं महसूस हुई.

ब्राह्मण-वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष में मराठों और महारों के बीच एक सांझा भी रहा है.मराठों की बहुसंख्या महाराष्ट्र के मेहनतकश किसान जातियों की थी. इन्होने अपनी संघर्ष-क्षमता और शौर्य से ‘क्षत्रियत्व’ हासिल किया. ब्राह्मणों की नज़र  में शिवाजी एक ‘शूद्र’ थे, जिन्हे राज-सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं था. इसी कारण साम्राज्य स्थापित कर लेने के बाद भी राज्याभिषेक के लिए शिवाजी को लम्बी प्रतीक्षा करनी पडी.

शिवाजी ने ब्राह्मणों को झुकने के लिए मजबूर किया, लेकिन वे जाति के अंकुश को अच्छी तरह पहचान गए थे. यही कारण है कि शूद्र और दलित जातियों के संघर्ष के प्रति उनके मन में गहरी सहानुभूति थी. उत्पीडित के प्रति इस सहानुभूति ने उन्हें धार्मिक दृष्टि से उदार बनाया, न्याय का विवेक दिया और स्त्रियों का सम्मान करना सिखाया.

 शिवाजी की विरासत के इस महत्व को उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने पहचाना. फुले ने शिवाजी को ‘कुलवाडीभूषण’ यानी किसानों का राजा कह कर पुकारा. ब्राह्मणवाद-विरोधी सघर्ष के मराठा नायक के रूप में स्थापित किया. आगे  चलकर नारायण मेघाजी लोखंडे, विट्ठल रामजी शिंदे, छत्रपति शाहूजी महाराज और बाबा साहेब आम्बेडकर जैसे जाति-उन्मूलन-वादी योद्धाओं ने शिवाजी के नायकत्व को आगे बढाया.

इतिहासकार गोविन्द सखाराम सरदेसाई (1957) ने शिवाजी के द्वारा ज़ज़िया के खिलाफ औरंगज़ेब को लिखे गए एक पत्र को उद्धृत किया है. इस पत्र से शिवाजी के धार्मिक नज़रिए का सुंदर परिचय मिलता है.

“… अगर आप कुरआन में यकीन रखते हैं तो क्या आप नहीं जानते कि अल्लाह सब का मालिक है, सिर्फ़ मुसलमानों का नहीं? हिंदूमत और इस्लाम तो वे अलग-अलग रंग हैं, जिन्हें घुला-मिला कर वो महान चित्रकार अपनी तस्वीरों में रंग भरता है. मस्जिद की अज़ान जिस अल्लाह को पुकारती है तो मन्दिर की घंटियां भी उसी भगवान को रिझाती हैं. किसी भी धर्म के लिए कर्मकांडी कट्टरता दिखाने का मतलब है, उसके पवित्र ग्रन्थों के उदार आशय को बदल देना….”(अंग्रेज़ी से अनूदित)

 शिवाजी ने ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की संकल्पना पेश की थी. ‘हिंदू पदपादशाही’ की संकल्पना पेशवा बाजीराव प्रथम की थी, शिवाजी की नहीं. शिवाजी की प्रगतिशील विरासत को साम्प्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और ब्राह्मणवादी मोड़ देने का काम पेशवाई ने किया. आधुनिक काल में ‘हिंदू पदपादशाही’ को पुनर्जीवित किया ‘हिंदुत्व’ के प्रस्तावक विनायक सावरकर ने.

पेशवाई के साथ ‘हिन्दुत्व’ की परियोजना का सीधा सम्बन्ध है. इसे सबसे साफ़ ढंग से चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के प्रति दोनों के नज़रियों में देखा जा सकता है. सावरकर से लेकर संघ तक की जाति-भेद विरोधी चर्चा सहभोज के समारोहों और विवाहों से आगे नहीं जाती. पेशवाई से ‘हिंदुत्व’ का इतना ही अंतर है. पेशवाई में चातुर्वर्ण्य की क्रूरता प्रत्यक्ष दिखाई देती है, हिंदुत्व में उस तरह नहीं. लेकिन दिखाई न देने से वह कम नहीं हो जाती.

यह अंतर भी इसलिए आया कि पेशवाई के खात्मे के बाद वर्ण-वर्चस्व को बनाए रखने के लिए राजदंड का सहारा नहीं रहा. वर्ण-वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किंचित उदारता का दिखावा करते हुए ‘हिंदू एकजुटता’ का नारा लगाना जरूरी हो गया. इस ‘हिंदू एकजुटता’ को सम्भव करने के लिए सामने एक ख़तरनाक दुश्मन चाहिए. भारतीय परिस्थितियों में यह ख़तरनाक दुश्मन ‘इस्लाम’  ही हो सकता है, क्योंकि मध्यकाल से लेकर आज तक भारत में मूर्तिपूजा और चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को चुनौती देने की शक्ति सिर्फ उसी के पास रही है.

इस ‘आपात-धर्म’ को छोड़ दें तो पेशवाई और ‘हिंदुत्व’ दोनों का आधार एक ही है- चातुर्वर्ण्य व्यवस्था.  बाबासाहेब ने ‘जाति का उन्मूलन’ वर्णव्यवस्था के क्रूरतम उदाहरण के रूप में पुणे में पेशवाओं द्वारा निर्मित उस परिपाटी का उल्लेख किया है, जिसके तहत दलितों को गले में घड़ा और कमर में झाडू बाँधा कर चलना पड़ता था. ताकि ग़लती से उनके मुंह से निकली थूक या उनके पैरों से लिपटी धूल किसी सवर्ण हिंदू के रस्ते में न आए!

इसी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को सावरकर ने अपने बीज-ग्रन्थ ‘हिंदुत्व’ में हिन्दू-राष्ट्रीयता का आधार बताया है. यह रचना अंग्रेज़ी में ‘इसेंशियल्स ऑव हिंदुत्व’ नाम से इंटरनेट पर उपलब्ध है. पेज बारह पर ‘इंस्टीट्यूशंस ऑव नेशनैलिटी’ खंड में सावरकर ने लिखा है कि बौद्ध धर्म के कारण भारतीय संस्कृति पर आये संकट का मुकाबला करने के लिए जिस संस्था को सबसे पहले पुनर्गठित किया गया वह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ही थी! उनका यह मानना है, और ठीक ही मानना है, कि समुद्र यात्रा पर लगाई गयी रोक भी इसी संस्था की रक्षा के निमित्त थी. हिन्दू राष्ट्रीयता यानी हिंदुत्व की रक्षा के लिए वे इसे जायज भी ठहराते हैं.

      यह कहा जाता है कि सावरकर जाति-भेद के विरोधी थे. संघ भी अपने बारे में यही दावा करता है. अभय कुमार दुबे (‘हिन्दू एकता और ज्ञान की राजनीति’-2019)  समेत कुछ गंभीर सामाजिक अध्येताओं का तो यहाँ तक मानना है कि संघ के भीतर अब द्विज-वर्चस्व की अघोषित लाइन अप्रासंगिक होती जा रही है. संघ   अब ‘समरसता’की अवधारणा के साथ शूद्र, दलित और आदिवासी समुदायों को अपने साथ जोड़ने की सोची-समझी नीति पर काम कर रहा है. उसे सफलता भी शानदार मिल रही है.

अगर जाति-भेद विरोध का मतलब दलितों के गले में घड़े और कमर में झाडू बाँधने वाली पेशवाई परिपाटी का परित्याग है तो निश्चय ही हिंदुत्ववादी इदारा जाति-विरोधी है. लेकिन रोहित-वेमुला से लेकर हाथरस गैंगरेप-हत्या तक के मामलों में इस जाति-विरोध की असलियत सामने आती रही है.

 ‘हिन्दूराज’ में सामने आए दलित–उत्पीडन के ऐसे सभी मामलों में हमने सत्ता-पक्ष को या तो सीधे उत्पीड़क की भूमिका में देखा है, या उत्पीड़िकों का पूरी ताकत से बचाव करते देखा है. भीमा-कोरेगांव मामले में भी ठीक यही हो रहा है. हमले दलितों पर हुए. गिरफ्तारी ही उन्ही की हो रही है. या उनके साथ खड़े होने वाले कर्मकर्ता लेखकों की.

‘समरसता’ कोई नई बात नहीं है. सावरकर स्वयं हिंदू एकजुटता के पैरोकार थे. उनका जातिभेद-विरोध समरसता का ही काम था. हिंदुत्व की उनकी परियोजना में शूद्र, दलित और आदिवासी ही नहीं, सिख, जैन, बौद्ध जैसे स्वतंत्र धार्मिक समूह भी जोड़ लिए गए थे. बौद्धों को जरूर कुछ हिचकिचाहट के साथ. सिर्फ़ मुसलमानों और ईसाइयों को इस दायरे से बाहर रखा गया था. इस तर्क से कि उनके मुख्य धार्मिक स्थान भारत के बाहर हैं, इसलिए भारत के लिए उनकी श्रद्धा पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता.

लेकिन हिंदुत्व की इस परियोजना में शामिल होने की एक अटल शर्त थी. वह शर्त थी- ‘हिंदू संस्कृति’ के प्रति वफ़ादारी. इस एक शर्त को पूरा करने वाले मुसलमान को भी अगर हिन्दू नहीं तो लगभग हिंदू मान लेने से उन्हें गुरेज़ न था.

सावरकर यह भी मानते थे कि हिन्दुओं के विभिन्न समूहों के धार्मिक विश्वास, वैचारिक दृष्टिकोण, रीति-रिवाज और तीज-त्यौहार एक दूसरे से एकदम अलग हैं. फिर हिन्दू संस्कृति में वह कौन-सी चीज है, जिसे आत्मसात किए बगैर हिन्दू नहीं हुआ जा सकता? सावरकर की वैचारिक कृति ‘हिंदुत्व’ में इसे एक ऐसा ‘संस्कार’ बताया गया है,जो संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों, ख़ास तौर पर रामायण और महाभारत, में निरूपित है.

इस संस्कार के मुख्य तत्व क्या हैं, इस प्रश्न को सावरकर ने अनकहा छोड़ दिया है. लेकिन हम जानते हैं कि इन दोनों ग्रंथों में अन्य चीजों के अलावा जिस एक भारतीय संस्कार की महत्ता है, वह है चातुर्वर्ण्य. गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने चातुर्वर्ण्य को अपनी सृष्टि बताकर अप्रश्नेय बना दिया है. रामायण में राम चातुर्वर्ण्य को चुनौती देने के कारण ही शम्बूक की हत्या करते हैं.

रामायण में वर्णाश्रम आद्यन्त अनुस्यूत है. शम्बूक-प्रसंग निकाल दें तो भी चातुर्वर्ण्य की रक्षा ही रामायण का परम रचनात्मक उद्देश्य सिद्ध होगा. मर्यादा पुरुषोत्ताम की मर्यादा यही है. “रामो भामिनी लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता.”

रामायणकार की दृष्टि में स्त्री-हत्या जैसे घृणित कार्य को भी चातुर्वर्ण्य की रक्षा के नाम पर उचित ठराया जा सकता है. शम्बूक का ही नहीं, ताटका का वध भी चातुर्वर्ण्य की रक्षा के लिए ही किया गया. “नहि ते स्त्रीवधकृते घृणा कार्या नरोत्तम/ चातुर्वर्ण्यहितार्थ ही कर्तव्यं राजसूनुना.”

     तुलसीदास के राम भी वर्णाश्रम की रक्षा के लिए ही अवतार लेते हैं. रामराज्य के रूप में वे वर्ण-राज्य की ही स्थापना करते हैं, जिसमें प्रजाजन वर्णाश्रम के अनुसार ‘निज-निज धरम’ का पालन करते दिखाई पड़ते हैं. हिंदुत्व के पुनरुत्थान के लिए ‘राम’से बढ़कर कोई दूसरा नायक हो ही नहीं सकता था. हनुमान, शिव, कृष्ण और यहाँ तक कि विष्णु भी चातुर्वर्ण्य के प्रतीक देवता नहीं हो सकते थे.

राममन्दिर आन्दोलन में ब्राह्मण साधु-संतों की अग्रणी भूमिका और राजनीतिक शक्ति के रूप में उनका उदय ध्यान देने योग्य है. मन्दिर आन्दोलन को, जिसे राष्ट्र-निर्माण का नया आन्दोलन बताया जा रहा है, असल में वर्ण-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के आन्दोलन के रूप में भी देखा जा सकता है.

जाति को संस्कार के रूप में सुदृढ़ करने का काम धर्मग्रंथों से भी अधिक रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों ने किया है. गीता और रामायण दोनों का मूल संदेश अपने वर्ण-निर्धारित कर्म और धर्म -स्वकर्म और स्वधर्म- पर टिके रहना है. स्वधर्म का पालन करते हुए निधन भी श्रेयस्कर है.

रामायण और महाभारत की सबसे बड़ी सफलता इस संदेश को धर्मादेश के रूप में बाहर से थोपने में नहीं, संस्कार के रूप में भीतर को अनुकूलित करने में है. इसी मरजाद और धरम की रक्षा करते हुए हिन्दू स्त्रियाँ और दलित-जन हज़ारों वर्षों से हर प्रकार के शोषण और अन्याय को सहन करते हुए भी कभी इस हद तक बेचैन नहीं होते कि विद्रोह कर बैठें.

सावरकर द्वारा इंगित हिन्दू संस्कार मूलतः वर्ण-मनोदासता है. यह सामाजिक अनुशासन के रूप में कम करता है. यहाँ इस बात की पूरी गुंजाइश रहती है कि कोई एक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने असाधारण उद्यम से वर्ण-मर्यादा को पार कर जाए. ब्राह्मण धर्म-रक्षकों से समर्थन भी हासिल कर ले. लेकिन यह समर्थन हमेशा सामाजिक वर्ण-संस्कार की रक्षा करने की शर्त पर मिलता है. व्यक्ति इसे पार कर सकता है, समाज या समुदाय नहीं. वर्ण व्यवस्था में सबसे कांटे की बात यही है.

शूद्र भी शासक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन तभी जब वह गोब्राह्मण की रक्षा का संकल्प ले. अर्थात् वर्ण-संस्कार की रक्षा. वर्ण-मनो-दासता की रक्षा.

समाज में वर्ण-संस्कार के बने रहने से सभी प्रकार की सामाजिक सत्ताओं -जाति, लिंग,धर्म, कुल, राजन्य- का असंदिग्ध वर्चस्व बना रहता है. शोषण पर आधारित आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था चलाए रखने के लिए सुलभ दास-श्रम की अबाध आपूर्ति भी सुनिश्चित रहती है.

वर्ण-संस्कार पूंजीवाद के सबसे नृशंस रूपों को सहनीय बनाता है. इसका सीधा सम्बन्ध कर्मफल के सिद्धांत से है. अगर आपके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट रहा है तो उसे सहन कीजिए. यह सब पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम है. पूर्वजन्म के कर्मों से ही यह तय होता है कि आप किस वर्ण या वर्ग में जन्म लेंगी, आपकी कितनी दुर्दशा होगी. अगर किसान खेती नहीं कर पा रहा, वणिक वाणिज्य नहीं कर पा रहा, चाकर को चाकरी नहीं मिल रही, भिखारी को भीख तक नहीं मिल पा रही, तो भी क्या. यह सब भी पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है.

काम छीन लिया जाए, आसरा छीन लिया जाए, नंगे पैर सडकों पर धकेल दिया जाए,हज़ारो मील पैदल चलना पड़े तो भी क्या. सब कर्मों का फल है. इसे शान्ति से भुगत लेना है. धर्म, भगवान और राष्ट्र पर भरोसा बनाए रखना है. इस तरह की भावना आसानी से नहीं आती. इसके लिए वर्ण-संस्कार जरूरी है.

समाज में वर्ण-संस्कार बने रहें तो दो-चार दलितों, शूद्रों और स्त्रियों के अपने वर्ण-जेंडर दायरे के बाहर निकल जाने से इस व्यवस्था पर कोई भी आंच नहीं आती.

हिंदुत्व के एजेंडे में ‘समरसता’ का आधार और उसकी शर्त भी यही है. हिन्दू-संस्कार यानी वर्ण-संस्कार की रक्षा. यही कारण है कि हिंदुत्व-परियोजना में बड़े पैमाने पर आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के जुड़ जाने के बाद भी चातुर्वर्ण्य पर आधारित हिन्दू सामाजिक-संरचना प्रभावित नहीं होती. उलटे अधिक मजबूत हो जाती है.

राम मन्दिर आन्दोलन ‘हिंदुत्व’ की ‘समरसता’ का बेहतरीन उदाहरण है. शूद्रों, दलितों और स्त्रियों की व्यापक भागीदारी के बिना मन्दिर आन्दोलन सफल नहीं हो सकता था. वे  नेता, आंदोलनकारी, कारसेवक और दंगे-फसाद में जमीनी लड़ाकों के रूप में भी अपनी भूमिका निभाने के लिए आगे बढाए जाते हैं.

लेकिन जब वे कथित ‘गोरक्षकों’ के निशाने पर होते हैं, या जब वे दबंगों के यौन अत्याचार की शिकार होती हैं, तब हिन्दुत्ववादी मशीनरी उनके साथ खड़ी नहीं होती.

वाल्मीकि की रामायण, गीता-महाभारत और तुलसीदास के रामचरित मानस से लेकर अयोध्या के मन्दिर आन्दोलन तक की कहानियां इसी ‘हिन्दू संस्कृति’ का पुनरुत्पादन करती हैं. इसी ‘हिन्दू संस्कृति’ का नवीनीकरण करना नयी पेशवाई है.

दलितों, शूद्रों और स्त्रियों के न्याय-आन्दोलन इसे चोट पहुंचाते हैं. अस्मितावादी आंदोलनों से दिक्क़त नहीं होती. उन्हें देर-सबेर समायोजित कर लिया जाता है. आरक्षण को भी जैसे-तैसे स्वीकार कर ही लिया गया है. नयी पेशवाई  सबसे ज्यादा चोट तब पहुँचती है, जब न्याय की मांग आरक्षण से आगे बढ़कर बुनियादी सामाजिक -राजनीतिक बदलाव की मांग में बदलने लगती है. एलगार परिषद एक ऐसी ही कोशिश थी.

 अरबन नक्सल?

माओवादी आन्दोलन का 2018 के भीमा-कोरेगांव शौर्य दिवस और एलगार परिषद से क्या रिश्ता था? पुणे पुलिस और एनआइए ने अपनी चार्जशीटों में इसे एक विराट माओवादी षड्यंत्र के रूप में पेश किया है, जिसे अर्बन नक्सलों के एक नेटवर्क के द्वारा अंजाम दिया गया. लेकिन इन आरोपपत्रों में ऐसी एक भी बात नहीं है, जिससे इस मामले  में गिरफ्तार किए गए सोलह मानवाधिकार कर्मकर्ताओं का शौर्य-दिवस और उसके आसपास हुई हिंसा से कोई सम्बन्ध बनता हो. हजारों पृष्ठों में फैले इन चिट्ठों में सभी आरोपियों के माओवादी पार्टी से जुड़े होने यानी कथित रूप से ‘अर्बन नक्सल‘ होने के आरोप लगाए गए हैं.

बीच में एक समय पुलिस ने इन्हें सीधे प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र में शरीक होने का आरोप भी लगाया था, लेकिन आरोप पत्र दाखिल करते समय इसे बिलकुल भुला दिया गया.

एल्गार परिषद् के माओवादी कनेक्शन की बात सबसे पहले फिन्स की रिपोर्ट में कही गयी थी. इस रिपोर्ट में सुधीर धवले को, जो एल्गार परिषद के आयोजकों में एक हैं,सिर्फ इस आधार पर माओवादी मान लिया गया है कि वे एक बार पहले भी अदालत के द्वारा इस आरोप से मुक्त किए जा चुके हैं!

छतीसगढ़ की गांधीवादी कर्मकर्ता सोनी सोरी को भी इसीलिए माओवादी करार दे दिया गया है कि उन पर भी माओवादी होने के आरोप हैं! ‘कबीर कला मंच’ नामक लोकप्रिय दलित सांस्कृतिक संस्था भी माओवादी करार दी गयी है. मंच से जुड़े सागर गोरखे और रमेश गैचोर पर भी एजेंसियों द्वारा माओवादी होने का संदेह किया जाता रहा है, जिन्हें इसी कारण इस रिपोर्ट में माओवादी मान लिया गया है.

बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर के पोते पूर्व लोकसभा सदस्य प्रकाश आंबेडकर भी माओवादी हैं, क्योंकि माओवादियों को भारत का दोस्त बता चुके हैं! और इसलिए भी कि उनकी सगी बहन के साले मिलिंद तेलतुम्बडे माओवादी पार्टी की केन्द्रीय समिति के सदस्य हैं. मिलिंद के सगे भाई, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के दलित चिंतक, आनंद तेलतुम्बड़े का ज़िक्र रिपोर्ट में नहीं है, लेकिन वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए सोलह आरोपियों में शामिल हैं.

पुणे पुलिस और एनआइए ने फिन्स द्वारा माओवादी बताए गए लोगों में से दलित-अधिकार कर्मकर्ता सुधीर धवले और कबीर कला मंच के कलाकारों गोरखे और गैचोर को गिरफ्तार कर लिया है. इस पूरे मामले में अब तक कुल सोलह लोग गिरफ्तार किए गए हैं. ये सभी लोग यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए हैं. इनमें से कुछ तो अब तक दो साल से ज़्यादा समय जेल में गुजार चुके हैं.

यूएपीए के तहत बेल मिलना वैसे भी मुश्किल होता है. ऊपर से पुलिस को अदालतों का सहयोग इतना है कि वे घर-तलाशी और गिरफ्तारी के निर्धारित नियमों के खुले उल्लंघन की भी अनदेखी कर जाती हैं.

खुद सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट अगर 90 के दिन भीतर दाख़िल नहीं की जाती तो उन्हें आज़ाद कर दिया जाना चाहिए. लेकिन इस मामले में रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ खुद अपने ही पुराने फैसले को एक तरफ रख कर पुलिस को अतिरिक्त समय दे देती है. वृद्धावस्था, बीमारियाँ और कोरोना महामारी जैसी परिस्थितियों पर मानवीय आधार पर विचार करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है.

गिरफ़्तार लोगों में सबसे वरिष्ठ हैं क्रांतिकारी कवि वरवर राव और आदिवासियों के उत्पीड़न और उनकी नाज़ायज गिरफ्तारियों के खिलाफ़ निरंतर संघर्ष करने वाले फादर स्टेन स्वामी. दोनों की उम्र अस्सी के ऊपर है. वरवर राव इस हद तक बीमार हैं कि अपनी देखभाल खुद नहीं कर सकते.

सुधीर धवले, रोना विल्सन, महेश राउत, वर्नन गोंजाल्वेस दलितों, आदिवासियों और राजनैतिक कैदियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले जाने-माने कर्मकर्ता है. सुरेन्द्र गाडलिंग, सुधा भारद्वाज और अरुण फरेरा वकील हैं, जो गरीबों और उत्पीड़न के शिकार हुए कमजोर वर्ग के लोगों को नया दिलाने के लिए काम करते रहे हैं. शोमा सेन और हैनी बाबू अंग्रेज़ी साहित्य के प्रोफेसर और लेखक हैं. सागर तात्याराम गोरखे,रमेश मुरलीधर गैचोर और ज्योति राघोबा जगताप कबीर कला मंच के कलाकार हैं. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विचारक और लेखक हैं. तेलतुम्बड़े गोआ इंस्टीच्यूट ऑव मैनेजमेंट में प्रोफ़सर भी हैं.

इनमें से हर एक का जीवन खुली किताब है. उनका लेखन और उनका सामाजिक काम भी हर समय दुनिया की आँखों के सामने रहा है. इनमें से कुछ एक लोग पहले भी माओवादी पार्टी से जुड़े होने के आरोप में गिरफ्तार किए गए हैं, लेकिन कई साल जेल काटने के बाद बाइज्जत बरी कर दी गए हैं. इनके किसी भी अवैध क्रिया-कलाप में संलिप्त होने के कोई सबूत किसी के पास नहीं हैं.

अगर कुछ है तो इनका वह सामाजिक कर्म और लेखन है, जो पूरी तरह सशस्त्र क्रांति की माओवादी विचारधारा के खिलाफ जाता है. यह विचारधारा लोकतांत्रिक राज्य की सभी संस्थाओं को उत्पीडन का साधन मानती है. उनके पूर्ण बहिष्कार पर जोर देती है. उनके साथ सहयोग आकर उन्हें वैधता प्रदान करने की जगह उनके खिलाफ युद्ध छेड़ने की बात करती है.

 इन कर्मकर्ताओं का सारा जीवन-व्यवहार इस विचारधारा को कमजोर करता है. उत्पीडित जनता के मन में यह विश्वास पैदा करता है कि वर्तमान राज-व्यवस्था से अभी भी उम्मीद की जा सकती है.

एनआइए का आरोपपत्र फिन्स की रिपोर्ट का वृहद् विस्तार है. पुलिस का दावा है कि उसे सोलह आरोपियों के माओवादी पार्टी से जुड़े होने के बहुत सारे सबूत मिले हैं. ये सारे सबूत आरोपियों के मोबाइल फोन और लैपटॉप आदि से ईमेल के आदान-प्रदान की शक्ल में मिले हैं. जैसे प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र के ‘सबूत’ मिले थे! चार्जशीट में यह आरोप गायब हो गया.

एनआइए शायद मानती है कि माओवादी पार्टी दुनिया की एकमात्र प्रतिबंधित पार्टी है जो अपना सारा पत्राचार ईमेल के खुले आदान-प्रदान के जरिए करती है.

आरोपियों का कहना कि ये सारे सबूत उनके उपकरणों में पुलिस द्वारा बाद में प्लांट किए गए हो सकते हैं. उनके वकीलों का कहना है कि आरोपपत्र में ऐसा एक भी सबूत नहीं है, जो अदालती जांच-पड़ताल में टिक सके. उनका कहना है कि तलाशी के समय स्वतंत्र गवाहों का होना जरूरी है. इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की जप्ती के समय यह जरूरी है कि उनकी ‘हैश वैल्यू’ बताई जाए ताकि बाद में कोई छेड़छाड़ हो तो पकड़ में आ सके. अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं किया गया.

इन लेखकों-कर्मकर्ताओं के ‘माओवादी’ होने का सबसे बड़ा सबूत यह है कि ये संरचनागत अन्याय के शिकार हुए वर्गों के हितों के लिए काम करते रहे हैं. उनके ‘माओवादी’ होने का ठोस सबूत है वह साहित्य, जो इनके घरों से बरामद हुआ है. दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साहित्य पर आज भी वामपंथी लेखकों के नाम मिलते हैं. उनके ‘माओवादी’ होने का सबूत यह है कि वे पढ़ते-लिखते हैं! श्रेष्ठ साहित्य पढ़ते हैं.

एनआइए ने अपनी चार्जशीट में इन लेखकों पर माओवादी पार्टी से सम्बद्ध होने के अलावा माओवादी विचारधारा के प्रचार करने का, संवैधानिक रीति से चुनी हुई सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने, सरकार के खिलाफ बुद्धिजीवियों को संगठित करने,छात्रों के मन में सरकार के खिलाफ असंतोष और विद्रोह की भावना भरने के आरोप भी लगाए हैं.

ये आरोप ही बता देते हैं कि यह चार्जशीट फर्जी है. यह किसी प्रोफेशनल जांच-एजेंसी की चार्जशीट न होकर किसी राजनीतिक पार्टी या विचारधारात्मक संस्था का आरोपपत्र है.

सरकार के ख़िलाफ़ असंतोष पैदा करना किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपराध कैसे हो सकता है? लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका ही यही है कि वह सरकार के कामकाज की सीमाओं को उद्घाटित करते हुए उसके खिलाफ जनता में असंतोष जगाए. अगर यह अपराध है तो लोकतंत्र को ही अपराध मानना पड़ेगा.

माओवादी विचारधारा के  प्रचार का आरोप और भी दिलचस्प है. जिनका सारा पढ़ना-लिखना कथित माओवादी विचारधारा से भिन्न ही नहीं, उसके विरुद्ध है, वे इसके प्रचारक कैसे बताए जा सकते हैं? क्या इसका मतलब यह है कि उनकी जिन पुस्तकों के कारण दुनिया उन्हें जानते और पढ़ती है, वे खुद उनमें विश्वास नहीं करते? रात के अँधेरे में या किन्ही गुप-चुप बैठकों में अपनी ही पुस्तकों को खारिज करते हुए वे ‘माओवादी’ विचारधारा का प्रचार करते हैं?

यह आरोप कितने त्रासद ढंग से हास्यास्पद है, इसके सब से अच्छे उदाहरण आनन्द तेलतुम्बडे हैं.

वे अकेले ऐसे दलित चिन्तक हैं, जिन्होंने भीमा कोरेगांव युद्ध को पेशवाई के खिलाफ़ महारों के आत्मसम्मान की लड़ाई के रूप में देखने से इनकार कर दिया था. 02 जनवरी 2018 को प्रकाशित एक लेख में उन्होंने साफ़ कहा कि लड़ाई ईस्ट इंडिया कम्पनी और पेशवा बाजीराव-2 की सैनिक टुकड़ियों के बीच थी, जिसका न भारतीय राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना था न ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष से.

 बाबासाहेब आम्बेडकर ने अपने समय में दलितों को राजनीतिक रूप से संगठित करने के लिए भीमा कोरेगांव को दलित गौरव का प्रतीक बनाया. लेकिन वर्तमान समय में दलित-गौरव के लिए इतिहास को मिथक में बदलना न्याय के संघर्ष को अस्मितावाद की राजनीति में उलझा देना है.

तेलतुम्बड़े ने ठीक ही इशारा किया है कि हिंदुत्व से लड़ना जरूरी है, लेकिन यह लड़ाई अस्मितावाद के रास्ते नहीं हो सकती. यह रास्ता हिंदुत्व-वादियों का है, जो दलितों को गौरव के अनेक मिथकीय और धार्मिक प्रतीक थमाकर उन्हें हिंदुत्व के महा-आख्यान में खींच लेने की कोशिश करते हैं. दलित-गौरव हिंदू होने के गर्व के साथ जुड़कर अधिक ताक़तवर हो जाता है. यह अंततः वर्ण-संस्कार को और अधिक सुदृढ़ करने के काम आता है.

एल्गार परिषद के आयोजन के अस्मितावादी तर्क की आलोचना करने वाले और इसी कारण उसमें हिस्सा लेने से इनकार करने वाले तेलतुम्बड़े उसी परिषद के आयोजन के आरोप में जेल में हैं! यह कोई संयोग नहीं है.

 तेलतुम्बड़े और बाकी सभी भीमा-कोरेगांव आरोपी, जो आज जेल में हैं, दलित-राजनीति की अस्मितावादी धारा के मुरीद नहीं हैं. वे दलित-अस्मितावाद की सीमाओं को समझते हैं, इसलिए ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व-वाद से लड़ने के नए रास्ते की तलाश में हैं. यह चंपू-पूंजीवाद (‘क्रोनी कैपिटलिज्म’) और हिंदुत्व-वाद के गहरे गंठबंधन को बेनक़ाब करते हुए दोनों को एक साथ चुनौती देने का रास्ता है.

भारत में देशी-विदेशी पूंजी पूरी तरह वर्ण-व्यवस्था और वर्ण-संस्कार के सहारे फली-फूली है. दोनों ने एक दूसरे का पालन-पोषण किया है. एक से लडे बिना दूसरे से नहीं लड़ा जा सकता.  एल्गार-परिषद के प्रस्तावक वर्ण-संस्कार से दूषित समाज-राजनीति के आमूलचूल बदलाव का रास्ता ढूंढ रहे हैं. हिंदुत्व-वाद को असली खतरा इसी रास्ते से है.

गुरिल्ला लड़ाई के ‘माओवादी’ तरीके से भारतीय राज्य-व्यवस्था को कोई ख़ास परेशानी नहीं होती. उन्हें आसानी से एक ख़ास इलाके में सीमित किया जा सकता है. मध्यवर्ग को उनका डर दिखाकर राज-व्यवस्था अपने लिए अनेक तरह के विशेष-अधिकार और सुविधाएं और हासिल कर लेती है. यूएपीए और अफ्स्पा जैसे कानून हासिल कर लेती है, जिन्हें आतंकवाद और वाम अतिवाद सरीखे हौओं के बिना किसी संवैधानिक लोकतंत्र में खपाया नहीं जा सकता.

भीमा-कोरेगांव की चार्जशीट इस मानी में भी खोखली है कि वह माओवादी पार्टी से जुड़े होने के आरोप को अपना मुख्य आधार बनाती है. भारतीय क़ानून के अनुसार किसी प्रतिबंधित पार्टी या संगठन का सदस्य होना स्वतःसिद्ध अपराध नहीं है. सुप्रीम कोर्ट 2011 में ही फैसला दे चुका है कि अपराध सिद्ध करने के लिए किसी निश्चित आपराधिक गतिविधि में आरोपी की संलिप्तता सिद्ध होनी चाहिए.

तीनों आरोप-पत्रों में ऐसी किसी आपराधिक गतिविधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं है. किसी विचारधारा का प्रचार करना, नेटवर्किंग करना, चंदा इकट्ठा करना और सरकार के खिलाफ असंतोष भडकाना- ऐसी ही आमफ़हम बातों पर सारा नैरेटिव बुना गया है. यह सब ऐसे किसी भी सामाजिक राजनैतिक कर्मकर्ता की रोजाना की ज़िंदगी है, जो सत्ता-पक्ष से जुड़ा हुआ न हो .

 यूएपीए का पलट-न्याय 

फिन्स के गढ़े नैरेटिव से प्रेरित आरोप-पत्रों के विधिक खोखलेपन को एनआइए न समझती हो, सो बात नहीं. यूएपीए के तहत दाखिल किए गए दो-तिहाई आरोप पत्र ऐसे ही हवा-हवाई होते हैं. अदालत में खारिज हो जाते हैं. लेकिन यह कानून और इसके प्रति न्यायालय का हालिया रवैया ऐसा है कि पुलिस आपको जब तक चाहे जेल में रख सकती है.

यूएपीए के एक ऐसा काला कानून है, जो न्याय के सिद्धांत को पूरी तरह पलट देता है. आधुनिक न्याय सिद्धांत आरोपी को तब तक निर्दोष मान कर चलता है, जब तक वो अदालत में दोषी साबित न हो जाए. न्याय का यही सिद्धांत लोकतांत्रिक राज्य में नागरिक की आज़ादी की गारंटी करता है.

अगर राज्य को यह अधिकार मिल जाए कि वह जिस पर चाहे इल्ज़ाम लगा दे और ख़ुद को बेक़सूर साबित करने की ज़िम्मेदारी मुलजिम पर आयद हो जाए तो सभ्य दुनिया की निगाह में वह एक निरंकुश और नृशंस राज्य होगा. सर्वशक्तिमान राज्य की सामने अकेला गरीब नागरिक भला कैसे खुद को बेक़सूर साबित कर पाएगा! यूएपीए के तहत सरकार को अधिकार है कि बिना कोई सबूत पेश किए किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर दे.

यूएपीए के तहत अदालतें तब तक किसी को जमानत तक नहीं दे सकतीं, जब तक उनके पास उसे ‘निर्दोष मानने के पर्याप्त कारण न हों’. अब जब तक चार्जशीट दाख़िल न हो, सबूत न पेश किए जाएं , मुकदमा न चले, तब तक किसी को निर्दोष मानने के पर्याप्त कारण अदालत को कहाँ से मिलेंगे? यही कारण है कि पहिए वाली कुर्सी से बंधे बीमार प्रोफेसर साईबाबा को या अस्सी साल के कोरोनाग्रस्त हो चुके रोगी कवि वरवर राव को नहीं जमानत नहीं मिल पाती, जो कि अपनी निजी क्रियाएं भी कर पाने में असमर्थ हैं.

यूएपीए के तहत चार्जशीट दाख़िल करने की नब्बे दिन की अवधि को 180 दिन तक बढ़ाया जा सकता है, अगर सरकारी अभियोजक इसकी जरूरत की ताईद करे. इस शर्त के पूरे न होने के कारण ही  सुरेन्द्र गाडलिंग और दूसरे भीमा-कोरेगांव कैदियों के मामले में मुम्बई हाईकोर्ट ने नब्बे दिन पूरे होने पर जमानत की इजाजत दे थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जज रंजन गोगोई की पीठ ने उस राहत को भी निरस्त कर दिया, जो इस कठोर क़ानून तहत भी कैदियों का अधिकार है.

2019 के ज़फूर अहमद शाह वताली के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उस जमानत को भी निरस्त कर दिया, जो इस आधार पर दिया गया था कि पुलिस द्वारा पेश किए गए सबूत अदालत में स्वीकार करने लायक ही नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट ने फरमाया कि जमानत पर गौर करते समय अदालत को पेश किए गए सबूत की गुणवत्ता पर गौर करने का अधिकार  नहीं है. मतलब पुलिस कुछ भी उलटे सीधे सबूत पेश कर दे, अदालत को उसे मंजूर करना होगा. यही कारण है कि पुस्तकालय में रखी जगतप्रसिद्द किताबों को भी पुलिस सबूत के तौर पर पेश करते घबराती नहीं है.

पांच-सात साल, और कई मामलों में दस-बारह साल,  की निरर्थक मुकदमेबाजी से निकल कर कैदी अगर बाइज्जत बरी भी हो जाए तो क्या फ़र्क पड़ता है!

 बिना किसी अपराध के लम्बी क़ैद, जेलजीवन के अपमान और सामाजिक कलंक की सज़ा तो उसने भुगत ली. जीवन तो उसका और उसके प्रियजन का नष्ट हुआ ही हुआ. इसके बाद भी अगर सरकार उसे अंदर रखना चाहे, तो नया केस बनाने से कौन रोकता है!

भीमा -कोरेगांव मामले के आरोपियों के अलावा जिन लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया है, उनमें से कुछ नाम ये हैं- सीएए-विरोधी आन्दोलन में हिस्सा लेने वाले जेएनयू और जामिया मिलिया की लड़के-लड़कियां जैसे शर्जील इमाम, उमर ख़ालिद, सफूरा ज़रगर, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल; दिमागी बुखार से सैकड़ों बच्चों की जान बचाने वाले डॉक्टर कफ़ील खान; सूचना-अधिकार कर्मकर्ता अखिल गोगोई और अंतर्रराष्ट्रीय ख्याति की फोटो-पत्रकार मसरत जहरा! जाहिर है, किसी भी रूप में सरकार या सरकारी पार्टी/ संघ  को नाराज़ करना यूएपीए के तहत ‘अनलॉफुल एक्टिविटी’ और ‘टेररिज्म’ हो सकता है.

अगर आप यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए मशहूर नामों की फेहरिश्त पर नज़र डालें तो उसमें बुद्धिजीवियों, लेखकों, सामाजिक कर्मकर्ताओं, वामपंथी/आम्बेडकरवादी/स्त्रीवादी आंदोलनकारियों की बहुतायत मिलेगी. वे अधिकतर मुसलमान या दलित होंगे. या फिर स्त्रियाँ होंगी.

यूएपीए का उल्टा न्याय-सिद्धांत और उसके शिकार लोगों की पृष्ठभूमि बताती है कि यह हमारे समय की नई पेशवाई का प्रधान कानूनी उपकरण है. यह हमारी नयी ‘मनु-स्मृति’ है.

लेकिन याद रखना चाहिए कि यूएपीए नए हिंदुत्व-वादी निज़ाम की खोज नहीं है. उसके अब तक के आख़िरी, और सबसे खतरनाक, संशोधन का श्रेय जरूर नए निज़ाम को दिया जा सकता है. लेकिन उपहार यह पुराने कांग्रेसी जमाने का ही है.

अगर आप सोचने-समझने  वाले प्राणी हैं तो कहीं न कहीं आप सरकार की नीति या समाज की किसी रीति से असहमत जरूर होंगे. आप अपनी असहमति को कहीं कहीं दर्ज भी करेंगे. यूएपीए के तहत देश के ख़िलाफ़ ‘डिस-अफेक्शन’ (हिन्दी में इसका अर्थ बताना मुश्किल है) फैलाना और समाज के विभिन्न वर्गों/ समूहों/ समुदायों  के बीच तनाव बढ़ना या ऐसा करने का ‘इरादा रखना’ भी संगीन जुर्म है.

यह एक ऐसा कानून है, जो ‘इंटेंशन’ यानी इरादे या सोच को भी जुर्म ठहरता है. यह क़ानून मुझे बताता है कि मैं अपराधी हूँ, अगर मैं सोचता-विचारता हूँ. सोचने से सवाल पैदा होते हैं. सवालों से तनाव बढ़ता है. डिस-अफेक्शन और ना-राज़ी बढ़ती है.

मीडिया में कुछ समय से एक और शब्द चलने लगा है– बौद्धिक आतंकवाद. अवार्ड-वापसी के दौर में आरएसएस के कुछ नेताओं की तरफ से इस शब्द का इस्तेमाल किया गया था. उसी दौर  में लेखकों- बुद्धिजीवियों के लिए ‘गैंग’ शब्द का इस्तेमाल कर उन्हें गैंगस्टर की छवि प्रदान की गयी थी.

बौद्धिकता ही आतंकवाद है- यह धारणा धीरे-धीरे जनमानस में बिठाई जा रही है. इसी कारण यह संभव हुआ है कि देश की सबसे सुसंस्कृत मेधाओं के अकारण सालों जेल में बंद रहने पर भी समाज में गुस्से की लहर नहीं दिखाई देती.

यों ‘बौद्धिक आतंकवाद’ के ख़याल में कुछ सच्चाई भी है. सक्रिय बुद्धि ही गढ़ी हुई कहानियों और रची हुई सच्चाइयों को सवालों के कठघरे में खड़ी कर सकती है. बौद्धिकता से सत्ता का आतंकित होना आश्चर्य की बात  नहीं है. सुकरात से लेकर स्टेन स्वामी तक यह सिलसिला जारी है.

 

  • प्रस्तुत लेख ‘आलोचना 63’ के सम्पादकीय की आंशिक प्रस्तुति है जिसे यहाँ साभार प्रस्तुत किया जा रहा है।

(प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कार्यरत हैं और आलोचना पत्रिका के सम्पादक हैं। सम्पर्क: 99530 56075, ईमेल: ashuvandana@gmail.com)

 

 

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