नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में हिंदी प्रदेश का बहुत बड़ा हाथ है। 16 वीं लोकसभा चुनाव में 10 हिंदी राज्यों से भाजपा को 225 सीटों में से से 190 सीटी प्राप्त हुई थी। शेष सीट मात्र 35 थी। कांग्रेस को दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान से एक भी सीट नहीं मिली थी। उसे 225 में केवल 7 सीटें प्राप्त हुई थी। बिहार में एक, छत्तीसगढ़ में एक, हरियाणा से एक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से 2-2।
सबसे बुरी हालत बसपा की रही थी। वह शून्य में चली गई। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा को 6 सीटें मिली बिहार से और उत्तर प्रदेश में सपा को मात्र 5 सीटों पर संतोष करना पड़ा था।
16 वीं लोकसभा के चुनाव में लालू के राजद से चार सांसद थे और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के तीन सांसद थे। झारखण्ड मुक्ति माोर्चा के 2, उत्तर प्रदेश के अनुप्रिया पटेल के अपना दल के 2, हरियाणा के भारतीय लोकदल के 2 और जदयू के मात्र 2 सांसद थे। भाजपा के 190 सांसदों के सामने 8 क्षेत्रीय दलों के सांसदों की संख्या मात्र 28 थी।
अब 5 वर्ष बाद हिंदी प्रदेश का चुनावी गणित और समीकरण क्या है ? कैसा है ? मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार और दिल्ली में आप की सरकार के बाद भी भाजपा का किला मजबूत है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और झारखंड में भाजपा की सरकार है और बिहार में वह जदयू के साथ है। हिंदी प्रदेश में राजग अधिक मजबूत है। केवल भाजपा का साथ उपेंद्र कुशवाहा ने छोड़ा है।
क्षेत्रीय दलों में जदयू, लोजपा, राजद, रालोसपा, सपा, बसपा, अपना दल, राष्ट्रीय लोकदल, झामुमो, झाविमा, आजसू और आप प्रमुख हैं। भाजपा कांग्रेस की तुलना में अधिक लचीली और समझौतावादी है। उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल और ओमप्रकाश राजभर को उसने अपने से अलग नहीं होने दिया जबकि इन दोनों के दलों का पूरे राज्य में कोई आधार नहीं है और न राज्य राजनीति में इनके दल प्रमुख हैं।
ओमप्रकाश राजभर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री हैं और अनुप्रिया पटेल मोदी सरकार में मंत्री हैं। राजभर ने हमेशा भाजपा से असहमति प्रकट की है और सरकार की नीतियों की सरकार में रहते हुए भी आलोचना की है। अपनी इस आलोचना के कारण ही वे सुर्खियों में आए। उनके दल के कई सदस्यों को सरकारी पद दिए गए। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में ही सब नहीं जानते। अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने चुनाव के पहले अपना विरोधी स्वर प्रकट किया। भाजपा ने उन्हें 2 सीट दी है।
भाजपा इस चुनाव में हिंदी प्रदेश में अपने संख्या बल को कायम रखना चाहती है जो पहले की तरह संभव नहीं है। बिहार में वह जदयू के सामने पूरी तरह झुकी और उसने अपनी 5 सीटें कम कर दी जिस पर उसकी जीत लगभग सुनिश्चित थी। वह अपने सहयोगी दलों को छिटकने नहीं दे रही है। उसे चुनाव में किसी प्रकार बहुमत प्राप्त करना है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे ने भाजपा को कम परेशान और अपमानित नहीं किया जबकि वह स्वयं सरकार में है। भाजपा की विचारधारा से भिन्न नीतीश और रामविलास पासवान की विचारधारा दिखाई पड़ सकती है पर भाजपा ने एक साथ उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान से समझौते किए। वह किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहती।
कांग्रेस की नीति भाजपा से भिन्न है। लंबे समय तक शासन करने के बाद अतीत उसका साथ नहीं छोड़ता उत्तर प्रदेश में वह अकेली हो चुकी है। महागठबंधन तो दूर अब गठबंधन भी पूरी तरह नहीं है। सपा बसपा ने कांग्रेस को अपने साथ शामिल नहीं किया। 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को 43 सपा को 22 बसपा को लगभग 20 और कांग्रेस को 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे। सपा व बसपा का वोट प्रतिशत भाजपा से कम था। इस चुनाव में इन दोनों दलों ने अपने साथ कांग्रेस को रखा होता तो भाजपा को उत्तर प्रदेश में मुश्किल से 20 से 25 सीट मिलती।
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने कांग्रेस को अपने साथ नहीं लिया तो दिल्ली में कांग्रेस इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ‘आप’ से समझौता नहीं कर सकी है। कांग्रेस का गठबंधन भाजपा की तुलना में कमजोर है। उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली की कुल सीट संख्या 127 है। कुल सांसद संख्या की लगभग एक चौथाई। कांग्रेस की इन 3 राज्यों से शायद ही 30 सीट मिले। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस की भाजपा से सीधी टक्कर है। इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों की भूमिका गौण है।
इन 5 हिंदी राज्यों की कुल संसदीय सीट 74 है जहां कांग्रेस को लगभग 30-35 सीट मिल सकती है। हरियाणा में रालोद भाजपा से गठबंधन की इच्छुक है। केवल बिहार और झारखंड में कांग्रेस का क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन है। बिहार में तेजस्वी यादव कांग्रेस पर हावी हैं। चुनावी गणित में वे ‘परिपक्व’ हो रहे हैं।
भाजपा पहले उत्तर भारतीय पार्टी मानी जाती थी। अब वह सर्व प्रमुख अखिल भारतीय पार्टी है। उसका प्रचार व प्रभाव सर्वत्र है पर हिंदी प्रदेश उसका घर है। हिंदी प्रदेश में राजद और संप्रग से अलग एक तीसरा मोर्चा है जो केवल उत्तर प्रदेश में है। सपा बसपा और रालोद का गठबंधन चुनाव पूर्व हो चुका है। हिंदी प्रदेश 17 वीं लोकसभा चुनाव में भी निर्णायक रहेगा। मोदी के पुनः आगमन को हिंदी प्रदेश ही सुनिश्चित करेगा। 2014 के चुनाव में भाजपा को 5 दक्षिण राज्य – आंध्र प्रदेश तेलंगाना कर्नाटक केरल और तमिलनाडु की कुल 129 सीटों में से 27 सीटें मिली थी।
इन 5 दक्षिण राज्यों में केवल कर्नाटक में उसकी अधिक पैठ है, वह भी तटवर्ती और उत्तरी कर्नाटक में। तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु क्षेत्रीय दलों के गढ़ हैं। क्षेत्रीय दलों का ऐसा कोई गढ़ हिंदी प्रदेश में नहीं है। वहां क्षेत्रीय दलों की अपील अपने गौरव संस्कृति और भाषा की है। भाजपा वहां सीमांत पर है। हिंदी प्रदेश में वह केंद्र में है और कांग्रेस हिंदी राज्यों में सीमांत पर है। भाजपा दक्षिण में क्षेत्रीय दलों के भरोसे है। कांग्रेस हिंदी प्रदेश में क्षेत्रीय दलों के साथ है।
इस चुनाव में क्षेत्रीय दल अधिक प्रमुख हो गए हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने क्षेत्रीय दलों को महत्व दिया है। यह उनकी मजबूरी है। समझौते दोनों ने किए हैं। पहले जम्मू कश्मीर की 6 सीटों पर 2014 में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस में गठबंधन था। उस समय मोदी का शुभागमन नहीं हुआ था। अब 5 वर्ष बाद वहां 3 सीटों पर कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस एक साथ हैं और शेष तीन सीटों पर दोस्ताना मुकाबला होगा।
अखिल भारतीय स्तर पर विपक्षी एकता का अभाव है। प्रदेशों में यह एकता मजबूरी के तहत है। देश के बड़े सवाल अब किसी राजनीतिक दल को नहीं मथते। सत्ता के स्वाद चख चुके है। गठबंधन-महागठबंधन का शोर थम चुका है। अवसरवादी राजनीति से कोई दल मुक्त नहीं है। लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिक सौहार्द, भाईचारा की चिंता किसी को नहीं है। जिस प्रकार से वर्षों से दल विशेष में रहे नेता चुनाव के समय अपना रंग और पाला बदलते हैं वह उनकी स्वार्थपऱता और पदलोलुपता का प्रमाण है। सीट ना मिलने, मनोनुकूल संसदीय क्षेत्र न प्राप्त करने के बाद कई नेता अपने दलों से बगावत करते हैं। होड़ा होड़ी और मारामारी के दृश्य कम नहीं है। सत्ता पक्ष के साथ मिलकर सत्ता सुख मांगना अधिसंख्य राजनीतिक दलों का चरित्र है। समय समय पर सबने मिल जुलकर सत्ता भोग किया है। सचमुच नामुमकिन भी मुमकिन है।
भाजपा के कार्यकाल में देश में सांप्रदायिक घटनाएं 28 प्रतिशत बढ़ी हैं। भय, आतंक, असुरक्षा अधिक है। लोकसभा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के पैटर्न पर लड़ा जा रहा है। मोदी बनाम कौन ? विपक्ष है मौन । अब गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी नारे गढ़ रहे हैं ‘ चौकीदार प्योर है, पीएम बनना श्योर है’। नरेंद्र मोदी का आत्म प्रचारचरम पर है। वे बार-बार कहते हैं देश उनके हाथों में सुरक्षित है और वे देश नहीं झुकने देंगे, देश नहीं मिटने देंगे गोया देश की किस्मत केवल एक व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है। एक बनाम एक अरब 35 करोड़। यह राजनीति का चुनावी गणित है।
देश में व्यक्ति पूजा घटने के बजाय बढ़़ी है। व्यक्ति पूजा से कोई मुक्त नहीं है। भारतीय राजनीति और आदर्श लुप्त हो चुके हैं। चुनाव अपने नग्न और अश्लील रूप में है। सत्ता के लोगों के कारण ही देश इस मुकाम पर पहुंचा है। विपक्षी एकता सदैव कठिन रही है। इस समय उसकी जितनी संभावनाएं थी पूरी नहीं हुई है। महागठबंधन ‘भुस्स’ हो चुका है। बिहार में महागठबंधन में भाकपा और झारखंड में माले शामिल नहीं है। वाम दल अलग अलग है। उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय संघर्ष है। बिहार में वाम दल संप्रग में शामिल नहीं है। प्रश्न नेतृत्वविहीन गठबंधन का नहीं मोदी विरोधी गठबंधन का है जो अगर सशक्त होता, प्रांतीय स्तर पर सुदृढ़ होता तो अगली बार मोदी का प्रधानमंत्री न बनना सुनिश्चित था।
राहुल गांधी की रणनीति में कांग्रेस को पुनः स्थापित करना है। उनकी चिंता अपने दल के सांसदों की संख्या बढ़ाकर 100 से अधिक करने की है। मोदी और भाजपा की हार से अधिक मतलब नहीं है। इस बार पहले की तरह मोदी लहर नहीं है पर उनका करिश्मा समाप्त भी नहीं हुआ है। मुद्दे कई है जिनके स्थान पर भाजपा अपना मुद्दा बनाती है। विवेक चेतना को नष्ट करने में उसका कोई उदाहरण नहीं है।
हिंदी प्रदेश पर देश का भविष्य बहुत अर्थों में निर्भर है। 80 सीट संख्या के कारण उत्तर प्रदेश पर अब भी बहुत कुछ निर्भर है सपा-बसपा का अपना आधार क्षेत्र है और यह गारंटी नहीं दी जा सकती कि अधिक सीट संख्या पाने के बाद मायावती किस ओर न मूड़ेंगी। कांग्रेस् को यहां से अधिकतम 10 सीट मिलने की संभावना है। अगर हिंदी प्रदेश से भाजपा को 100 सीट प्राप्त होती है तो केंद्र में उसे सरकार बनाने में मुश्किल होगी। पहले से इसे भापकर वह क्षेत्रीय दलों से समझौते कर रही है। वह 5 वर्ष में 282 से घटकर 272 आ गई है। कांग्रेस की एक और सपा की 2 सीट ही सही इन 5 वर्षों में बढ़़ी है।
प्रचार और विज्ञापन के मामले में भाजपा सर्व प्रमुख है। दक्षिण के सहारे भाजपा सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती। उसकी निगाह प्रत्येक संसदीय सीट पर है। पूर्वोत्तर राज्य की 25 सीटों पर वह प्रमुख रहेगी। त्रिकोणीय संघर्ष से उसे फायदा मिल सकता है। देश बुरी तरह आंतरिक रूप से विभाजित हो चुका है। विभाजित करने वाली ताकतें प्रमुख है, जोड़ने वाली ताकते कम है। कॉरपोरेट और बाजार पूंजी मनुष्य की सामाजिक व नैतिक चेतना को नष्ट करती है। हम सब उसकी गिरफ्त में हैं।
हिंदी प्रदेश औद्योगिक प्रदेश नहीं है। वहां अब भी बहुत कुछ अच्छा और सुंदर शेष है। इसमें लड़ाकू शक्ति भी है। बड़े दुश्मन और छोटे दुश्मन की पहचान भी है। इसकी विवेक चेतना नष्ट नहीं हुई है। हिंदी प्रदेश की विवेक चेतना से भी जुड़ा है भारत का आगामी लोकसभा चुनाव।
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