गोरख पांडे से कुछेक बार की ही मुलाकातें रहीं लेकिन इतने से ही जो रिश्ता बना उसने बड़ी भारी जिम्मेदारी दे दी । तीन बार बनारस और एक बार इलाहाबाद । बनारस में पहली बार वे लगभग एक सप्ताह अवधेश प्रधान के पास रुके थे । तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था । वहीं रहकर उन्होंने ‘लोकचेतना’ के लिए ‘कविता की वापसी’ वाला लेख लिखा था । एक हाथ से टेक लगाकर अधलेटे जांघ के सहारे दफ़्ती पर कागज रखकर लिखने की विचित्र मुद्रा पहली बार देखने को मिली थी । प्रूफ़ पढ़ते हुए उनके तर्क पर मुग्ध होकर बोला कि मुझे यह बात नहीं सूझी थी । बोले इसीलिए तो हम लोगों की जरूरत पड़ती है । अपनी उपयोगिता की यह समझ उनमें आखिरी दिनों तक रही ।
जब बीमारी के बाद लौटकर जे एन यू आए तो डाक्टरों ने अकेला छोड़ने से मना किया था । जिन सज्जन को रात में उनके पास रहना होता उन्होंने शिकायती लहजे में कहा कि मेरे भी तो काम हैं । गोरख ने सहानुभूति जताने की जगह राजनीतिक कार्यकर्ता के भाव से समझाया कि लोग कम हैं और जिम्मेदारी ज्यादा तो सभी को निबटाने के लिए समय सही तरीके से बांटिए । अपनी देखरेख को वे बाकायदे एक गंभीर दायित्व मानकर यह बात बोल रहे थे ।
जन संस्कृति मंच के गठन के सिलसिले में एक बैठक काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयोजित थी । उसे गोरख जी संचालित कर रहे थे । ढेर सारे लोग थे । याद है धन संग्रह की बात हो रही थी । कोई बोला कि दिल्ली में तो घनीभूत स्रोत हैं । तपाक से गोरख बोले इसीलिए तो पीड़ा हैं । कहने की जरूरत नहीं कि ये कथन जयशंकर प्रसाद के ‘आंसू’ के एक छंद से निकले थे । हिंदी साहित्य के उनके अध्ययन का पार नहीं था ।
लखनउ के शकुंतला मिश्र विश्वविद्यालय के अध्यापक देवेंद्र ने बताया कि यू जी सी में उनसे पूछा गया था मत्स्येंद्रनाथ के गुरु कौन थे । देवेंद्र ने क्षोभ के साथ यह बात गोरख को बताई । गोरख बोले आपको नहीं मालूम ? देवेंद्र शर्मिंदा होकर रह गए । बहरहाल सांगठनिक बैठक को धैर्य के साथ चलाने की कला उनमें देखी थी इसलिए उन्हें अराजक कहने वालों पर यकीन नहीं होता ।
दूसरी बार फिर अवधेश प्रधान के घर पर ही । उम्र ऐसी हो चली थी कि कुछ समझदारी आने लगी थी । कविता भी लिखता था । इस बार साथ घूमे और बातें भी कीं । एक छोटी काव्य गोष्ठी भी हुई थी । उस गोष्ठी में गोरख ने जो कविताएं सुनाईं उन्हें अजय कुमार ने टेप में रेकार्ड कर लिया था । उसी से ‘आशा का गीत’ और ‘बीसवीं सदी’ शीर्षक कविताएं मिलीं । गोरख की आवाज उसी टेप में सुरक्षित है । ‘आशा का गीत’ पर हल्का सा मजाक भी हुआ क्योंकि अजय जी की पत्नी का नाम आशा है । गोरख जी का कुर्ता भाभी जी ने मरम्मत करके धुल दिया था । गोरख जी पहचान ही नहीं पा रहे थे । बताने पर निष्कर्ष निकालते हुए बोले कि कभी कभी चीजों का रूप बदल जाने से भी वे बदल जा सकती हैं । जाना कि दर्शन की समस्याओं से हर समय वे मुब्तिला रहते थे ।
गोष्ठी में मैंने एक कविता सुनाई जो कविता के बारे में थी । मजाक करते हुए गोरख बोले कविता किसी का नाम तो नहीं । तब राम जी भाई के प्रभाव में मुक्तिबोध का नशा चढ़ा हुआ था । उनकी ‘इस चौड़े ऊंचे टीले पर’ सुनाई । गोरख ने धीरज के साथ सुना । फिर बातचीत शुरू की । बोले किसी का अनुकरण ठीक नहीं होता । सीखना बड़े लोगों से चाहिए ।
खुद जिन लोगों से सीखने की बात कही उनमें कालिदास, गालिब और ब्रेख्त का नाम था । वे साहित्याचार्य थे । पहले इस पढ़ाई की गम्भीरता के बारे में नहीं जानता था । बाद में डिग्री कालेज में एक सहकर्मी मिले जो सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से आचार्य रहे थे । उन्होंने आचार्य का जो स्तर बताया उससे पता चला कि संस्कृत में वार्तालाप करने की योग्यता उन लोगों में होती है । ऐसे में स्वाभाविक है कि गोरख जी को समूचा संस्कृत साहित्य हस्तामलकवत रहा होगा । बताया था कि पहले ही साल उन्हें इतने अंक मिले थे कि लोग देखने आते थे ।
क्रांतिकारी धारा के साथ संस्कृत पढ़े लोगों में केवल गोरख ही नहीं जुड़े थे । उनके एक अन्य सहपाठी मोदनाथ प्रश्रित भी नेपाल में क्रांतिकारी वामपंथी धारा से जुड़े ही नहीं, सांसद और बाद में मदन भंडारी की सरकार में शिक्षा मंत्री भी बने । गोरख के साथ पढ़ते हुए ही उन्होंने ‘नेपाली बहादुर’ नामक एक मशहूर हिंदी कविता भी लिखी थी । बाद में पता चला कि नेपाली वामपंथी आंदोलन में संस्कृत के अध्यापकों का महत्वपूर्ण योगदान है । वे नेपाली समाज के पारम्परिक बौद्धिक माने जाते हैं । इस पूरी परिघटना से जाना कि क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने में किसी भी बात से बाधा नहीं आती है ।
इस नाते गोरख की कविता पर संस्कृत के क्लासिक साहित्य के प्रभाव के पहलू पर सोचने का रास्ता खुलता है । संस्कृत साहित्य के विद्वान अपनी भाषा को व्याकरण की उपज नहीं मानते बल्कि उसके मूल जनजीवन में खोजते हैं । गोरख की कविताओं और गीतों में जन जीवन की घनघोर उपस्थिति के पीछे संस्कृत की इस क्लासिक परंपरा का प्रभाव सम्भव है । उनका गीत ‘झुर झुर बहे बयार गमक गेंदा की आवे’ है तो हिंदी में लेकिन इसकी भाषा, भाव, छंद और निर्वाह पर नजर डाली जाए तो क्लासिक और लोक की मिली जुली जमीन दिखाई पड़ेगी ।
उनकी कविताओं में स्त्री की निर्णायक उपस्थिति के पीछे भी कहीं न कहीं कालिदास मौजूद हो सकते हैं । न केवल गोरख पर इस प्रभाव का सही विवेचन अब तक नहीं हो सका है बल्कि उनके पहले के प्रगतिशील कवि नागार्जुन पर भी संस्कृत साहित्य के असर का कारण सही गंभीरता के साथ नहीं देखा गया है । इसके लिए संस्कृत साहित्य के प्रति भी नकारवादी की बजाए आलोचनात्मक नजरिया अपनाना होगा । लम्बे समय तक इसमें सब कुछ की अभिव्यक्ति हुई है । सौंदर्य, आभिजात्य और शिष्टता के साथ ही गर्हित, विद्रोह और विचार की भी अभिव्यक्ति संस्कृत भाषा में होती रही है । इसलिए उससे यथास्थितिवादियों को ही नहीं विद्रोहियों को भी सामग्री मिलती रही है ।
उर्दू साहित्य के प्रभाव को केवल गजलों में खोजना उचित नहीं होगा । विरोधाभास को गोरख जी ने कविता में जितनी आसानी से साधा उसकी मिसाल दुर्लभ है और यह बात गालिब तथा ब्रेख्त से जुड़ती है । इस तत्व को उनके पहले कविता संग्रह के संयोजन में देख सकते हैं । उसमें मुक्त छंद की खड़ी बोली की कविताओं वाला खंड तो बुआ को समर्पित है लेकिन भोजपुरी गीतों वाला खंड ज्योति जी के लिए है । साफ है कि वे ग्रामीण बुआ को आधुनिक स्तर पर उठाना चाहते हैं और आधुनिका ज्योति जी को लोक संवेदना के पास ले जाना चाहते हैं । ‘चादर लम्बी होती गई है, पाँव सिमटता जाए है’ में एक मशहूर कहावत के साथ छेड़छाड़ के अतिरिक्त विरोधाभास भी पहचान सकते हैं । इसी तरह ‘सरजमीं सब्ज मुफ़लिसी से है, बस्ती आबाद बेपनाहों से’ में विरोधाभास के सहारे विडम्बना को तीखा किया गया है ।
शब्दों की कंजूसी भी उन्होंने बड़े कवियों से सीखी । ‘पैसे का गीत’ में लगातार लगता है कि तुक के लिए भी कुछेक शब्द आ सकते हैं लेकिन प्रत्येक पंक्ति समूची और स्वतंत्र कहानी लेकर आती है । प्रत्येक पंक्ति में अंतिम शब्द समान हैं ‘अजी पैसे की’ लेकिन उसके पहले के शब्दों से मिलकर उनका अर्थ बदल जाता है । ‘लपटों से बुनी ससुराल’, ‘सबसे मीठी झनकार’ और ‘खाए जा पंचों मार’ के साथ मिलकर ये शब्द एक समूचा संसार खड़ा कर देते हैं ।
परिवार, कानून और अभिजात साहित्य संस्कृति की दुनिया असल में पैसे से मिलकर उत्पीड़क बन जाती है और गुलामी को मजबूत बनाती है । इन संस्थाओं के बीच समानता भी गोरख ने महसूस की । बाद में उनके शोध प्रबंध का अनुवाद करते हुए महसूस किया कि अलगाव की दार्शनिक धारणा को वे किस तरह वर्तमान व्यवस्था की तमाम चीजों को व्याख्यायित करने के लिए इस्तेमाल करते थे ।
गंगा की घाटों पर घूमते हुए उनके कुछ पुराने साथियों से संवाद सुने । उनमें से ढेर सारे लोग चुनाव बहिष्कार के दिनों में फंसे हुए थे । गहराई के साथ राजनीतिक परिस्थिति के बदलाव को स्पष्ट करते हुए तदनुरूप लड़ाई के तौर तरीकों में बदलाव का तर्क देकर वे चुनाव संबंधी कार्यनीति पर बात कर रहे थे । तभी जयप्रकाश नारायण का सुनाया संस्मरण समझ पाया कि वे जब सोनारपुरा में कुछेक दिन साथ रहे थे तो गोरख ने विदा करते हुए कहा कि बीमार होने के कारण बातचीत नहीं हो पाई । मतलब कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में थोड़ा बहुत भी वाम समझ जिस किसी कार्यकर्ता में थी उसके साथ गोरख की जीवंत बातचीत होती रहती थी ।
इस मामले में एक और बात पर ध्यान गया । वैचारिक राजनीतिक बातचीत में उम्र का अंतर उनके लिए कोई बाधा नहीं था । राम जी राय उनसे दस साल छोटे थे । हम लोग तो बच्चे ही कहलाएंगे लेकिन कभी इस अंतराल का अनुभव नहीं हुआ । संवाद में महत्व सवाल और समस्या का होता है और बातचीत भी उसे सुलझाने की ओर सिर्फ ले जाती है तो इस यात्रा में ‘सिर बोझ भारी क्या’ !
बहरहाल आखिरी मुलाकात इलाहाबाद में हुई । कर्नलगंज में संगठन के दफ़्तर में चौकी पर लेटे हुए थे । गंभीर मुख । उसके एक दिन पहले एक गोष्ठी में जो बोले वही सब ‘समकालीन कविता में रूप की समस्याएं’ में लिखा देखा । बाद में पता चला यहीं संपन्न बैठक में तीखा विवाद हुआ था । दिल्ली लौटते ही संगठन के पदों से इस्तीफ़ा भेजा । उसके बाद अकेले पड़ते गए । खबर आती रहती कि सिज़ोफ़्रेनिया की चपेट में हैं । कल्पना की दुनिया के नागरिक होकर रह गए थे । फिर अस्पताल में दाखिल कराए जाने की सूचना । अचानक आत्मघात की खबर मिली । उसके बाद से उनकी अनुपस्थिति की लम्बी यात्रा शुरू हुई जो अब तक जारी है ।
उनकी तरह ही कुछ दिन मैं भी माले का पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहा । उस दौरान बैठकों और सभाओं में गोरख के गीत गाता । एक बार हरिबंशी मास्टर साहब ने एक सभा में ‘तू हउअ श्रम के सुरुजवा हो हम किरिनिया तोहार’ गाया था और इसकी व्याख्या की थी । पता चला वे सच में जमीनी कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं और भावनाओं को सटीक तरीके से पकड़ते और उन्हें माकूल भाषा में व्यक्त करने में सक्षम थे ।
जब उन्होंने आत्मघात किया था तब काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर के अंतिम साल में था । हिंदी साहित्य की दुनिया के मुकाबले वैचारिक बहसों की दुनिया अधिक आकर्षक लगती थी । उसी लिहाज से इधर उधर कुछ लिखने की कोशिश शुरू की थी । दैनिक ‘आज’ में एक छोटी सी टिप्पणी लिखी । शीर्षक उनकी एक गजल से दिया ‘वक्त गुजरे है कत्लगाहों से’ । इससे पहले का टुकड़ा तो शब्द संक्षिप्ति की मिसाल था ‘टूटे घुटनों से बंद राहों से’ । यह गजल उनके ही मुख से बनारस में सुनी थी । इसके एक शेर ‘खुदकुशी करती हैं उम्मीदें/ छत की चूलों पर लटक बांहों से’ में कानपुर में तीन बहनों की सामूहिक आत्महत्या की छाया है ।
बहरहाल उनके देहांत के छह महीने बाद दिल्ली में उसी जेएनयू में दाखिला लिया जहां वे रहे थे । मुनिरका में रह रहे प्रमोद सिंह के पास अक्सर जाता । दोस्त बहुत जल्दी बन जाते हैं । सबके साथ आदतन खूब बहसें करता । प्रमोद बोले गोरख के रहते तुम लोग आ गए होते तो शायद वे अभी न मरते । उनके देहांत के एक साल पूरा होने पर ‘प्रतिपक्ष’ नामक पत्रिका में फिर एक निहायत छोटी टिप्पणी लिखी । उनके देहांत के बाद जिन लोगों ने संस्मरण लिखे थे उनमें ज्यादातर ने गोरख पर अपने अहसान गिनाए थे । लोगों के इस रुख पर क्रोध उस टिप्पणी में आ गया था ।
उनका महत्व बहुत धीरे धीरे खुल रहा था । दोस्त राधेश्याम राय ने गोरख की कविता पर जब एम फिल का लघु शोध प्रबंध लिखने का निश्चय किया तो जितना समझ आया मदद की । गोरख की कविता में आजादी बहुत बड़ा मूल्य है । बनारस में ही उन्होंने बताया था कि जो गीत आजकल ‘सपनों की मंजिल हो सुख का आधार हो’ की शक्ल में मिलता है उसे उन्होंने जब लिखा था तो ‘सुख का संसार हो’ था । दस साल बाद यह छोटा सा बदलाव किया था । आजादी सुख का आधार होती है यह बात ‘सुख के बारे में’ शीर्षक लेख में भी मिलती है । यह बदलाव उनके दार्शनिक चिंतन से आया था । अंदाजा उनके शोध प्रबंध के अनुवाद के समय चला ।
आजादी तमाम रूपों में उनके समस्त लेखन में मौजूद है । संस्कृति से भी स्वतंत्रता का गहरा रिश्ता जन संस्कृति मंच के घोषणापत्र में रेखांकित किया था । इसे सही तरीके से समझने के लिए यूरोपीय दर्शन की ‘अनिवार्यता बनाम स्वतंत्रता’ की लम्बी बहस को देखना होगा । इसी बहस में हस्तक्षेप करते हुए एंगेल्स ने ‘ड्यूहरिंग मत खंडन’ में लिखा कि ‘अनिवार्यता तभी तक अंधी होती है जब तक उसे समझ नहीं लिया जाता’ । इस कोण को राधेश्याम राय ने गोरख पर लिखे पहले शोध में उजागर किया है । ‘मेहनत के हाथों से आजादी की सड़कें ढलें’ जैसी दार्शनिक सूक्ति को कविता में ढालने के लिए श्रम की महत्ता के स्वीकार के साथ ही उसकी सृजनात्मक सम्भावना की समझ भी होनी चाहिए । उनके गीतों के सहज प्रवाह के चक्कर में कई बार अर्थ की गहराई छूट जाने की आशंका होती है । विचार को कविता में ढालने के मामले में वे कबीर और मुक्तिबोध से तुलनीय लगते हैं ।
इसके बाद उनके लिखे का भंडार मिलना शुरू हुआ तो उसे प्रकाश में लाने की कोशिश शुरू की । सबसे पहले उनका एम ए का लघु शोध प्रबंध मिला बनारस में । काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर करते हुए उन्होंने यह प्रबंध हर्षनारायण के निर्देशन में लिखा था । ‘धर्म की मार्क्सवादी धारणा’ शीर्षक यह किताब अपने तरह की अकेली किताब है । बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि धर्म के सवाल पर तत्कालीन नकारवाद की छाया होते हुए भी इसमें मार्क्सवादी समझ की परिष्कृति मौजूद है । उसे किताब की शक्ल देने के लिए अध्यायीकरण किया लेकिन मूल शोध प्रबंध को बहुत नहीं छेड़ा । पीएच डी का शोध जे एन यू से लिखा था । वह मिला उनके मित्र तिलक के पास । शोध प्रबंध अंग्रेजी में था । अनुवाद का काम मृत्युंजय और अवधेश के साथ मिलकर पूरा किया ।
शोध ‘अस्तित्ववाद में अलगाव की धारणा’ पर लिखा गया था । आश्चर्यजनक रूप से उसमें सबसे हाल के चिंतक इस्तवान मेज़ारोस का भी उल्लेख था । मेज़ारोस ने सार्त्र पर काम किया था । गोरख की यह किताब अस्तित्ववाद पर बहुत ही विवेचनापरक है । जे एन यू में दर्शन का यह पहला शोध प्रबंध था ।
इन शोध ग्रंथों के अतिरिक्त कागजों का एक बंडल अवधेश प्रधान जे एन यू के उनके कमरे से उठा लाए थे और मुझे सौंप दिया । उसमें एक लेख ऐसा महसूस हुआ जो उनके लेख ‘सरलता के पक्ष में’ का ही दूसरा रूप था । अंग्रेजी में टंकित प्रपत्र था ‘साइंटिफ़िक मेथड’ जिसका हिंदी अनुवाद मृत्युंजय ने किया ।
एक और टंकित प्रपत्र मिला ‘बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद’ जो उन्होंने सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की किसी संगोष्ठी में प्रस्तुत किया था । उनके सम्पूर्ण गद्य को छापने की योजना बनी तो बनारस में लोकचेतना में प्रकाशित ‘कविता की वापसी’ वाला लेख मिल गया । कभी दिल्ली से एक अंग्रेजी पत्रिका डी प्रेमपति के संपादन में निकली थी- मार्क्सिज्म टुडे । उसके पहले अंक में गोरख जी ने माओ के विरोध में एम बासवपुन्नैया के लेखन का विरोध करते हुए लम्बा लेख लिखा था । वह अंक प्रसन्न कुमार चौधरी के खजाने में मिला तो उसका हिंदी अनुवाद किया । इसी खोजबीन के दौरान इतिहासकार सलिल मिश्र ने उनकी एक डायरी होने का संकेत दिया । पता नहीं किस तरह वह उनके पास पड़ी हुई थी । बनारस में जब उन्हें सिजोफ़्रेनिया का पहला दौरा पड़ा था उसके कुछ दिन पहले से शुरू होकर उनके पहली बार दिल्ली आने तक की वह डायरी विभिन्न अनुभवों, साथियों के जिक्र और कविताओं के प्रारूपों से भरी थी ।
हिंदी में उनके जिक्र से लोग बचते हैं । कविता के क्षेत्र में उनकी याद को मिटा देने की कोशिश के पीछे कुछ स्वनामधन्य कवियों और आलोचकों की हीनता ग्रंथि है । बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि यदि हिंदी कविता पर नक्सलबाड़ी का असर देखना हो तो गोरख के बिना वह अराजक विद्रोह भावना से आगे की चीज नहीं प्रतीत होगा । नक्सलबाड़ी का प्रभाव हिंदी में जिस उन्नत समझदारी की ओर ले गया उसकी मिसाल गोरख की कविता है । इस मामले में वे निराला और मुक्तिबोध की परम्परा में आते हैं । तोड़ फोड़ को कविता में साध लेना आसान नहीं होता । उनके समकालीन बड़े कवि लोकप्रियता के मामले में उनसे ईर्ष्या करते थे । कवि का नाम जाने बिना उनके भोजपुरी गीत बिहार और उत्तर प्रदेश के आंदोलनकारी किसान कार्यकर्ता गाते थे । जन संस्कृति मंच के नेता के बतौर वैचारिक और रचनात्मक दोनों स्तरों पर उन्होंने ऐसे लेखकों की जमात खड़ी की जिनमें क्रांतिकारी समझ और लोक चेतना का अद्भुत समन्वय मिलता है । उनके गद्य की तरह सहज प्रवाही और विचार सघन गद्य हिंदी में बहुत कम दिखाई देता है ।
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