29 जनवरी गोरख पांडेय का स्मृति दिवस है। यह उनकी 34 वीं पुण्यतिथि है। उनका जन्म 1945 (पंडित के मुंडेरवा, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। गोरख पांडे सिर्फ कवि नहीं थे। इसके साथ वे एक चिंतक, दार्शनिक और संगठनकर्ता भी थे। इन सभी क्षेत्रों में उनका योगदान अविस्मरणीय है। उनका रचना कर्म करीब दो दशक का रहा है। उनके पहले चरण की शुरुआत बनारस में होती है। यह उनके बनने का दौर है। नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन का सांस्कृतिक प्रभाव साहित्य की खास परिघटना है। इसने भारतीय साहित्य की जमीन और दिशा को बदलने का काम किया। हिन्दी में एक नई पीढ़ी सामने आई। ‘शुरुआत’ नाम से हिन्दी के चार कवियों का संग्रह सामने आया जिसकी भूमिका हंसराज रहबर ने लिखी। कुमारेन्द्र, आलोक धन्वा, वेणु गोपाल, कुमार विकल आदि उस दौर की अगली कतार के कवि थे।
यह इमरजेंसी के बाद अस्सी के दशक का दौर था, जब लोक संवेदना के नाम पर चिड़िया, पेड़-पौधे आदि को केन्द्र कर कविताएं लिखी जा रही थीं। इसी समय ‘कविता की वापसी’ का नारा दिया गया। यह कविता में कलावाद को प्रतिष्ठित करना था। यही वक्त है जब गोरख पांडे का कविता में हस्तक्षेप देखने में आता है। उन्होंने कविता के विभिन्न रूपों में जनवाद को प्रतिष्ठित किया और छंद मुक्त से लेकर गीतों, गजलों में कविताएं लिखीं।
गोरख पाण्डेय के भोजपुरी में लिखे नौ गीत चर्चा में आये और लोगों की जबान पर चढ़ गए। उनके आंदोलनों में सांस्कृतिक हथियार बन गए। वस्तु और रूप दोनों धरातल पर यह कविता की नई जमीन थी। यह जमीन जन संघर्षों की जमीन थी। यह यथार्थ जनजीवन का यथार्थ था। यह सौंदर्य श्रम और संघर्ष का सौंदर्य था। गोरख पाण्डेय का लिखा गीत ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेला झकझोर दुनिया’ आज भी संघर्षों में गाए जाते हैं। यह कविता में जनशक्ति के आलोड़न की अभिव्यक्ति है। 1983 में उनका पहला कविता संग्रह आया ‘जागते रहो सोने वालो’। इस शीर्षक से ही समझा जा सकता है कि गोरख अपने गीतों-कविताओं से क्या संदेश देना चाहते थे। एक अन्य भोजपुरी गीत में वे कहते हैं ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।’ उन्होंने किसानों के लिए कहा कि ये सूरज हैं, हम उनकी किरण हैं। किसान जनता और शोषित श्रमिक जन के साथ जो अपनापा, प्रेम और भावनात्मक रिश्ते की अभिव्यक्ति गोरख की कविता में है, वह अद्भुत ही नहीं है बल्कि हिन्दी कविता में आज दुर्लभ है। ‘नेह के पांती’ में गोरख कहते हैं ‘तूं हव श्रम के सुरुजवा हो, हम किरनिया तोहार/तूं हव जग के परनवा हो, हम संसरिया तोहार/रचना के हव तूं बसूलवा हो, हम रुखनिया तोहार/तूं हव नेह के पतिया हो, हम अछरिया तोहार/तूं हव मुकुति के धरवा हो, हम लहरिया तोहार’।
गोरख पाण्डेय की कविताओं-गीतों में हम कला का उच्च स्तर तथा सौंदर्य का नया नमूना पाते हैं। भोजपुरी कविता में उन्होंने अद्भुत बिम्बों की रचना की है। ये गढ़े हुए नहीं हैं बल्कि लोकजीवन व आम जिंदगी के हैं। यह जनकवि का इंद्रियबोध और दृष्टि है जो उसे पकड़ती है, कविता में ले आती है और श्रम की दुनिया को गरिमा प्रदान करती है। ‘मैना’ को लेकर उन्होंने कविता लिखी। इसमें सामाजिक द्वन्द्व और शोषक वर्ग की क्रूरता सामने आती है। गोरख ने ‘मेहनतकशों का गीत’, ‘मोर्चे का गीत’, ‘आशा का गीत’, इंकलाब का गीत’, ‘सोहनी का गीत’, ‘पैसे का गीत’, ‘समझदारों का गीत’, ‘मल्लाहों का गीत’, ‘संसद का गीत’, ‘वतन का गीत’ जैसे अनेक गीत लिखे। इनके शीर्षक से ही संदर्भ को समझा जा सकता है।
इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि अकविता के अराजक दौर जिसमें छन्दों को कविता से बाहर का रास्ता दिखाया गया तथा कहा गया कि ‘गीत हो, नवगीत हो या नव नवगीत हो, ये भावुकता से मुक्त नहीं हो सकते इसलिए ये आधुनिक संवेदना को अभिव्यक्त नहीं कर सकते।’ इस मध्यवर्गीय काव्यचेतना से अलग सामंतवाद विरोधी किसान संघर्षों से पैदा हुई काव्य चेतना थी जो गोरख पाण्डेय की कविताओं में अभिव्यक्त हो रही थी। छन्दों, गीतों, गजलों जैसे लोकप्रिय काव्य रूपों में कविता की रचना इस जरूरत से पैदा हुई थी कि इसे जनचेतना के प्रचार प्रसार का हिस्सा बनाया जाय। बाद के दिनों में गोरख ने गजलें भी लिखीं। वे एक ग़ज़ल में लिखते हैं: ‘रफ़्ता रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है/रुख़ से उनके रफ़्ता रफ़्ता परदा हटता जाए है/गालिब-ओ-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए/उनका शहर लोहे का बना था, फूलों से कटता जाए है’।
हम देखते हैं और पाते हैं कि गोरख जहां सशरीर नहीं पहुँच सकते थे, वहां भी इनकी कविताएँ पहुँची। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, के आंदोलन में इनकी कविताएँ जनचेतना के प्रचार का हथियार बनी हुई हैं। वास्तव में यह ‘कविता की वापसी’ जैसे कलावादी जुमले के बरक्स कविता में जनचेतना का विस्फोट है।
यह गोरख पाण्डेय की शोषित पीड़ित जन के साथ का आत्मीय लगाव है जो उनका दुख कवि का दुख बन जाता है। उसकी गहन अनुभूति न सिर्फ इसके कारणों की पड़ताल करती है बल्कि दुख को पैदा करने वाली दुनिया (व्यवस्था) को बदल देने की उत्कट आकांक्षा तक जाती है। यह दुख दर्द बन छलछलाता है, बेचैन कर देता है और कविता में कुछ यूं व्यक्त होता है: ‘ये आंखें हैं तुम्हारी/तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर/इस दुनिया को/जितना जल्दी हो बदल देना चाहिए’। इस कविता में ‘जितना जल्दी हो’ आवेजक है जो बदलाव को मात्र आकांक्षा तक सीमित नहीं कर उसे आवेग और त्वरण से पूर्ण क्रिया में बदल देता है। यहां प्रेम और घृणा के बीच का तीव्र द्वन्द्व है। गोरख के काव्य की यह खासियत है कि वहां अपने जन के प्रति अगाध लगाव है, वहीं शोषक-शासक वर्ग, प्रभु वर्गों, प्रतिगामी शक्तियों और सत्ताधारियों के प्रति नफरत का भाव है।
यह कविता आजादी के बाद की दमनकारी सत्ता की बर्बरता को सामने लाती है, बाबरी मस्जिद ध्वंस जैसा फासीवादी कुकृत्य, गुजरात 2002 की सांप्रदायिक हिंसा….के इतिहास को दृश्यमान करते हुए यह 1984 से आगे बढ़कर वर्तमान में पहुंच जाती है और हमारे साथ चलती है। कविता में अक्सर कालजयी की बात होती रहती है। लेकिन कालजीवी होकर ही कोई कविता कालजयी बनती है। गाोरख पाण्डेय की यह विशेषता है कि कविता अपने काल में भी है और उसका अतिक्रमण कर वर्तमान में हमारे साथ चलती है, राह दिखाती है।
इस तरह एक तरफ गोरख पाण्डेय ने कविता को क्रांतिकारी राजनीति व वैचारिकी पर खड़ा किया, वही उसमें कला के नए प्रतिमान गढ़े और कलात्मक विस्तार दिया। यही कारण है कि गोरख पाण्डेय की कविताएं जनवादी काव्यधारा में माॅडल का काम करती हैं। उनका कविकर्म सामाजिक कर्म भी था जो जन सांस्कृतिक आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका के रूप में सामने आया। आज उनको याद करना अपने साथी, सहयात्री और सहयोद्धा को याद करना है। हमारा करीब डेढ़ दशक का साथ रहा। हम लोगों ने मिलकर बिहार व उत्तर प्रदेश के विभिन्न अंचलों सहित पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब आदि का दौरा किया। यह सांस्कृतिक आंदोलन को खड़ा करने और उसे संगठित करने की कोशिश थी। उसी का प्रतिफल 1985 में जन संस्कृति मंच (जसम) की स्थापना के रूप में सामने आया। मंच के निर्माण से लेकर उसकी वैचारिकी की निर्मिति में गोरख पाण्डेय की महती भूमिका थी।
जसम का निर्माण कोई अचानक हो जाने वाली सांस्कृतिक परिघटना नहीं थी। इमरजेंसी के दौरान लिखने-बोलने की आजादी, नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों पर आघात हुआ था। इसी का परिणाम था कि इमरजेंसी के बाद लोकतंत्र के लिए व्यापक आकांक्षा जन समुदाय में उमड़ने लगी थी। पीयूसीएल, पीयूडीआर जैसे लोकतांत्रिक अधिकार संगठन अस्तित्व में आए। नई राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों का उदय हुआ। उत्तराखंड में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, बिहार किसान सभा, तराई किसान सभा, पूर्वांचल किसान सभा, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, दत्ता सामंत का मुंबई में मजदूर आंदोलन ऐसे संगठन और आंदोलन इमरजेंसी के बाद की एक नई व विशिष्ट परिघटना थी। कहने का आशय है कि आंदोलनों की एक ऐसी श्रृंखला शुरू हुई जो अपने चरित्र में गैर संसदीय था, वहीं इसकी अपील लोकतांत्रिक थी। इस आंदोलन ने एक नई जन संस्कृति की जमीन भी तैयार की। इसी से अनुप्राणित गीतों, कविताओं की रचना हो रही थी। रचनाकारों के स्थानीय स्तर पर संगठन, सांस्कृतिक टोलियां, नाट्य टीमों का उदय होने लगा था।
सांस्कृतिक आंदोलन को संगठित करने की प्रक्रिया का आरंभ उत्तर प्रदेश जन संस्कृति मंच और नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार के साथ गोरख पाण्डेय की पहल पर दिल्ली में नवजनवादी सांस्कृतिक संगठन के निर्माण से होता है। गोरख पाण्डेय का एक संस्कृतिक एक्टिविस्ट, विचारक व संगठनकर्ता का रूप सामने आता है। उनकी चिंता और चिंतन के केंद्र में यह बात है कि जो संस्कृतिकर्म हो रहा है, जो सांस्कृतिक टीमें अस्तित्व में आ रही है, उन्हें और लेखकों व संस्कृतिकर्मियों को कैसे संगठित किया जाए ? उसका वैचारिक आधार और सांस्कृतिक स्वरूप क्या हो ? सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा क्या हो ? जन संस्कृति की परंपरा क्या है? वैचारिक दृढ़ता के साथ व्यवहारिक लचीलापन वाली कार्यशैली कैसे बने ? विमर्श का विषय यह भी था कि राजनीति के साथ साहित्य का रिश्ता क्या हो ? कहने का आशय कि संस्कृति की स्वायत्ता का प्रश्न भी था। दो तरह के प्रयोग सामने थे। एक तरफ प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ था, वहीं तेलुगू लेखकों का संगठन विप्लवी रचयितालु संघम (विरसम) और आल इंडिया लीग फाॅर रिव्योलूशनरी कल्चर (एआईएलआरसी) का प्रयोग था। इन प्रयोगों को समझने-सीखने और इस दौर के सवालों से जूझने और हल करने के संबंध में गोरख पाण्डेय की भूमिका को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनके सृजन और विचार से लेकर संगठनात्मक कार्य में भी सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता मौजूद रही है। उनकी यह खूबी अपने विचारों को थोपने की जगह लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के साथ संवाद, बहस और संगठन निर्माण में दिखती है। सांस्कृतिक प्रश्नों विशेष रूप से संगठन के स्वरूप, आंदोलन की दिशा और संगठन की स्वायत्ता को हल करने में उनकी ऊर्जा लगी। उसी का मूर्त रूप जन संस्कृति मंच के निर्माण के बतौर सामने आया। वे मंच के पहले या कहिए संस्थापक महासचिव थे।