समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

गज़ल ‘बहुलता की संस्कृति’ की रक्षा करने वाली विधा – डा. जीवन सिंह

डी. एम. मिश्र के गज़ल संग्रह ‘वो पता ढूँढे हमारा ’ का विमोचन सम्पन्न
दुष्यन्त ने गज़ल को यथार्थपरक बनाया – कौशल किशोर
डी. एम. मिश्र की गज़लें हमारी बोली-बानी की – स्वप्निल श्रीवास्तव
गज़लों की भाषायी संस्कृति गंगा-जमुनी तहज़ीब से बनी – रामकुमार कृषक
डा.मालविका हरिओम ने गज़ल गायन से समां बांधा

लखनऊ.  ‘रेवान्त’ पत्रिका की ओर से कवि डी. एम. मिश्र के नये गज़ल संग्रह ‘ वो पता ढूंढे हमारा ’ का विमोचन 21 अप्रैल को लखनऊ के कैफ़ी आज़मी एकेडमी के सभागार में हुआ। यह उनका चौथा गज़ल संग्रह है।

जाने माने आलोचक डा. जीवन सिंह, मशहूर कवि व गज़लकार रामकुमार कृषक, कवि स्वप्निल श्रीवास्तव, ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक कवि कौशल किशोर, गज़लकार व लोक गायिका डा.मालविका हरिओम, ‘रेवान्त’ की संपादक डा.अनीता श्रीवास्तव और कवयित्री सरोज सिंह के हाथों गज़ल संग्रह का विमोचन किया गया। मंच पर कथाकार शिवमूर्ति व ‘जनसंदेश टाइम्स’ के प्रधान संपादक कवि सुभाष राय भी मौजूद थे।

इस मौके पर हिन्दी गज़लों पर एक परिसंवाद तथा कविता पाठ का भी आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत डा. मालविका हरिओम के संक्षिप्त वक्तव्य से हुई। उन्होंने डी. एम. मिश्र की दो गज़लें सुनाकर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। उसके बाद विमर्श का सिलसिला शुरु हुआ। वक्तओं का कहना था कि डी. एम. मिश्र की गज़लें एक ऐसा आईना है जिसमें पिछले पांच साल के समय और समाज को देखा जा सकता है। यहा आम आदमी की दशा-दुर्दशा है तो वहीं इस अंधेरे से बाहर निकलने की छटपटाहट भी है। जहां एक तरफ अन्याय का प्रतिकार है, वहीं इनमें श्रम का सौदर्य है। बदलाव की चेतना है। उम्मीद की किरन है। इनमें जनतांत्रिक चेतना को बखूबी देखा जा सकता है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डा. जीवन सिंह ने मार्क्स को उद्धृत किया कि कविता मानवता की मातृभाषा है। उनका कहना था कि साहित्य हमें मनुष्य विरोधी के विरुद्ध खड़ा करता है। हमें इन्सान बनने की सीख देता है। आज समासिकता व बहुलता की हमारी संस्कृति पर खतरा है। गज़ल बहुलता की संस्कृति की रक्षा करने वाली विधा है। यही काम डी. एम. मिश्र की गजलें करती हैं।

ये असली हिन्दुस्तान को सहज अन्दाज़ में दिखाती है। यहां मध्यवर्गीय सीमाओं की तोड़ने की कोशिश है। इसके फैलाव का दायरा व्यापक होने की वजह है गांव से रिश्ते को बनाये रखना। यह जितना मज़बूत होगा इनकी गज़ल की विश्वसनीयता उतनी ही बढ़ती जाएगी। जीवन सिंह ने डी. एम. मिश्र की कई गज़लों का उदाहरण देते हुए कहा कि ये जितना पालिटिकल है, उतना ही सामाजिक भी।

बीज वक्तव्य ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक तथा जसम के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष कवि कौशल किशोर ने दिया। उनका कहना था कि कविता की दुनिया विभिन्न काव्यरूपों से बनती है जिसमें गज़ल विधा भी है लेकिन यह आज हिन्दी आलोचना के विमर्श से आमतौर पर बाहर है। यह गज़ल की सीमा नहीं आलोचना की दशा को दिखाता है। भारतेन्दु के काल से लेकर साहित्य के हर दौर में गज़लें लिखी गयीं। लेकिन दुष्यन्त ने इसे यथार्थपरक बनाया, उसे समकाल से जोड़ा। यहां सामाजिक चेतना की भरपूर अभिव्यक्ति हुई। यह हिन्दी गज़लों में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। अदम गोण्डवी, शलभ श्रीराम सिंह, गोरख पाण्डेय जैसे कवियों ने इसे आगे बढ़ाया। डी एम मिश्र की गज़ले इसी परम्परा से जुड़ती है। उनका नया संग्रह इसका उदाहरण है।

कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि डी. एम. मिश्र की गज़लों में किसी तरह की नज़ाकत या नफ़ासत नहीं है और न ये बातों को घुमा फिरा कर कहते हैं। ये ठेठ भाषा की गज़लें हैं। हमारी बोली-बानी की। उन्हीं के बीच से शब्द उठाते हैं। इनकी नजर समकालीन हलचलों पर है। अन्य गज़लगो की तरह वे अतीतरागी नहीं हैं बल्कि वर्तमान में घटित हो रही घटनाओं पर उनकी नजर है। उसे ही अपनी गज़ल की विषय वस्तु बनाते हैं। राजनीति के पतन के अनेक मंजर इनकी गज़लों में देखने को मिल सकते हैं।

वरिष्ठ कवि रामकुमार कृषक का कहना था कि हिन्दी कवियों ने यथार्थवादी व समाजोन्मुख काव्य परम्परा के द्वारा जिस काव्य संस्कृति का विकास किया डी. एम. मिश्र इसी संस्कृति के वाहक हैं। शोषित, पीड़ित व वंचित समाज की त्रासदियों व विडम्बनाओं तथा उनकी संघर्ष चेतना के अनेक बिम्ब उनके शेरों में उभरते हैं। इनमें शोषकों व जनता के लुटोरों की पहचान है। गज़लों की भाषायी संस्कृति गंगा-जमुनी तहजीब से बनी है। इन्हें न हिन्दी से गिला है, न उर्दू से शिकायत। भाषायी प्रयोग बिना वैज्ञनिक दृष्टि के संभव नहीं। इन गजलों में यह दृष्टि निरन्तर सक्रिय दिखायी देती है।

कार्यक्रम के अन्त में कविताओं का भी श्रोताओं ने आस्वादन किया। कविता सत्र की अध्यक्षता रामकुमार कृषक ने की तथा डी. एम. मिश्र, डा. मालविका हरिओम तथा स्वप्निल श्रीवास्तव ने अपनी गज़लों के विविध रंग से परिचित कराया। इस आयोजन के लिए डी एम मिश्र ने ‘रेवान्त’ पत्रिका तथा लखनऊ के साहित्य प्रेमियों के प्रति आभार प्रकट किया। डा. अनीता श्रीवास्तव ने अतिथियों का स्वागत किया तथा मंच का कुशल संचालन कवयित्री सरोज सिंह द्वारा किया गया। धन्यवाद ज्ञापन नीरजा शुक्ला ने किया।

इस मौके पर विजय राय, हरीचरण प्रकाश, नलिन रंजन सिंह, दयानन्द पाण्डेय, प्रताप दीक्षित, राजेन्द्र वर्मा, रविकान्त, बिन्दा प्रसाद शुक्ल, महेन्द्र भीष्म, सर्वेश असथाना, कलीम खान, निर्मला सिंह, देवनाथ द्विवेदी, तरुण निशान्त, अजीत प्रियदर्शी, ब्रजेश नीरज, विमल किशोर, शोभा द्विवेदी, सीमा मधुरिमा, सत्यवान, अनिल कुमार श्रीवास्तव, ज्ञान प्रकाश, दव्या शुक्ला, आभा चन्द्रा, आशीष सिंह, फरज़ाना महदी, उमेश पंकज, आर के सिन्हा, राजवन्त कौर, एम हिमानी जोशी, विजय पुष्पपम, इरशाद राही, नूर आलम, माधव महेश, वीरेन्द्र त्रिपाठी, के के शुक्ला, वर्षा श्रीवास्तव, आशुतोष श्रीवास्तव, अजय शर्मा, प्रमोद प्रसाद, रामायण प्रकाश, राजीव गुप्ता आदि उपस्थित रहे।

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