(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर निर्देशक ख़्वाजा अहमद अब्बास की धरती के लाल। समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की तेरहवीं क़िस्त:सं)
हिंदी सिनेमा में सन 1946 में ‘धरती के लाल’ जैसी मील की पत्थर फ़िल्म का बनना आश्चर्यजनक है। विश्व सिनेमा में नवयथार्थवाद का आगमन इटालियन फ़िल्मकार विटोरियो डी सिका की फ़िल्म ‘द बाइसिकिल थीफ’ (1946) से माना जाता है। भारतीय सिनेमा में यह आंदोलन सत्यजीत रॉय और ऋत्विक घटक की फिल्मों के जरिये आया जो 1955 के बाद आनी शुरू हुईंं। हिंदी सिनेमा में सर्वप्रथम 1969 में इस दृष्टिकोण से निर्मित फिल्में आईं। इस लिहाज से 1946 में आयी ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म धरती के लाल सिने प्रेमियों को अपने यथार्थवादी नजरिये के कारण आश्चर्यचकित कर देती है।1943 में पड़े बंगाल के भीषण अकाल को फ़िल्म उतने ही यथार्थवादी और हृदयविदारक ढंग से प्रस्तुत करती है जितना जैनुल आब्दीन ने अपने चित्रों में प्रस्तुत किया है। इस क्रम में उर्दू के शायर ज़िगर मुरादाबादी की ग़ज़ल ‘क़हत-ए-बंगाल’ का उल्लेख प्रासंगिक है, जिसमें उन्होंने बंगाली जनता की तकलीफ़ को गहराई से व्यक्त करने की कोशिश की है:-
बंगाल की मैं शाम-ओ-सहर देख रहा हूँ।
हर चंद कि हूँ दूर मगर देख देख रहा हूँ।
इफ़लास की मारी हुई मख़लूक़ सर-ए-राह
बे-गोर-ओ-कफ़न ख़ाक-ब-सर देख रहा हूँ।
‘धरती के लाल’ अकाल की त्रासदी को पूर्णता और पूरी निर्ममता से उजागर कर पाई क्योंकि यह ग़ैर व्यवसायिक फ़िल्म थी। 1944-45 में बने वामपंथी
संगठन इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन ने फ़िल्म को प्रोड्यूस किया था। इप्टा की बंगाल के अकाल में बहुस्तरीय भागीदारी थी। इस संगठन के जत्थे पूरे देश से अकाल पीड़ितों के लिए मदद जुटाने में लगे थे। फ़िल्म के निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास, मुख्य भूमिका अदा करने वाले अभिनेता बलराज साहनी और शंभु मित्र इप्टा के सदस्य थे। इस तरह फ़िल्म निर्माण से जुड़े लोगों में प्रतिबद्धता का स्तर बहुत ऊंचा था।
फ़िल्म की कहानी ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी है जो मूलतः विजन भट्टाचार्य के नाटक ‘नवान्न‘ और कृष्ण
चंदर की कहानी ‘अन्नदाता‘ पर आधारित है। इतिहासकार सुमित सरकार तत्कालीन बंगाल में ज्योतिरिंद्र मैत्र के साथ विजन भट्टाचार्य को नई और जनवादी सांस्कृतिक परिपाटी शुरू करने का श्रेय देते हैं। इस तरह देखें तो यह फ़िल्म एक वृहद सांस्कृतिक आंदोलन की उपज है जो कला के क्षेत्र में स्पष्ट जनपक्षधरता का हामी था। सुमित सरकार के अनुसार:-“यही वह समय था जब कलकत्ता के मध्यवर्गीय सांस्कृतिक जीवन पर मार्क्सवाद ने जादू कर दिया था।”
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में ही 1946 में धरती के लाल जैसी सार्थक और यथार्थवादी फ़िल्म के निर्माण को समझा जा सकता है।
फ़िल्म की कहानी बंगाल के एक गांव अमीनपुर के मुखिया की है। मुखिया के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा दो बेटे निरंजन (बलराज साहनी) और रामू तथा उनकी पत्नियाँ विनोदनी और राधिका हैं। फ़िल्म की शुरुआत में अकाल की आहट है किंतु अकाल आया नहीं है। गाँव का महाजन किसानों का अन्न सस्ते दामों पर खरीद कर गोदाम भरता जाता है। किसानों के अन्न बेचने के पीछे रूढ़ियाँ और कर्जे हैं। महाजन के चंगुल के साथ ही किसानों की गर्दन पर जमीदार का भी शिकंजा कसा हुआ है। जोर जबरदस्ती से लगान की वसूली जारी है। 43 का अकाल मुख्यतः मानव-निर्मित ही था। यह द्वितीय युद्ध जनित स्थितियों, जमाखोरी और सरकारी उदासीनता की कोख से जन्मा था जिसने लगभग 30 लाख मनुष्यों की जान ले ली। मानव क्षति के साथ लगी त्रासदी थी मनुष्यता की क्षति। जैनुल आब्दीन ने अपने चित्र में दिखाया कि एक ही शव को एक तरफ इंसान और दूसरी तरफ से मनुष्य खा रहा है। फ़िल्म में अनगिन ऐसे दृश्य हैं जो चित्र में व्यक्त तथ्य का रचनात्मक समर्थन करते हैं। मुखिया कहता है:“सुनते हैं इंसान पहले बन्दर था अब तरक्की करते-करते कुत्ता हो गया है।”
मुखिया का परिवार और पूरा गाँव अंततः अपनी सारी संपदा महाजन को बेचते जाते हैं। 10 रुपये मन में जो धान किसानों ने बेचा था उसे 22 रुपये में खरीदते हैं। स्थिति इतनी बिगड़ती है कि तीन तोला सोने में दो शेर धान खरीदना पड़ा। इस बीच जमींदार ने किसानों की जमीन और स्त्रियों की लज्जा पर आंख गड़ा दी। अंततः मजबूर हो गाँव के लोग जान बचाने के लिए शहर की तरफ चलते हैं। सड़क पर चलते गाँव वालों का दृश्य बहुत भयावह है।कई -कई दिनों के भूखे और बीमार लोग निहायत दुबले और शक्तिहीन दिखते हैं। फिर भी वे शहर इसलिए जा रहे हैं क्योंकि वहाँ भीख मांग सकते हैं और सरकार की तरफ से मिलने वाली खिचड़ी खा सकते हैं।
फ़िल्म में स्पष्ट किया गया कि कैसे गाँव स्तर पर चलने वाली जमाखोरी महानगर में विशाल रूप लेती है। पूरे बंगाल से धान खरीदकर शहर लाया जा रहा है। खुद अमीनपुर से 550 मन धान कलकत्ता के सेठ ने लिया। जो धान गाँव का महाजन 22 में दे रहा था वह शहर का बड़ा सेठ 40 रुपया मन बेच रहा है। इन स्थितियों में मेहनत कर सम्मान की रोटी खाने वाले किसान जलालत की जिंदगी जीते हैं। अंततः मुखिया की बहू राधिका अपने नवजात बच्चे की भूख से जान बचाने के लिए अपनी अस्मिता बेच देती है।
फ़िल्म में नगरीय मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की भव्य जीवन शैली के बरक्स किसानों की दुरावस्था के अनेक मार्मिक दृश्य रखे गए हैं। एक दृश्य वह जिसमें जन्म भर पोते के लिए तरसती मुखिया की बीबी अपने नवजात पोते का दूध छीन कर पी लेती है। यह वही दूध था जिसे राधिका ने जिस्म बेचकर खरीदा था।
फ़िल्म में पूंजीवादी और सामंती शोषण के साथ साम्प्रदायिक प्रश्न को भी उठाया गया है। गाँव में मुखिया और रमजान चाचा की दोस्ती सदियों के साहचर्य का परिणाम प्रतीत होती है-बेहद सहज और स्वाभाविक। शहर में हिंदू और मुसलमान अकाल पीड़ितों के अलग-अलग रिलीफ सेंटर हैं। ईश्वर के न्याय पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न रमजान का लड़का अजीज़ यह कहकर उठाता है कि जमींदार और महाजन मजे कर रहे हैं क्या सारा गुनाह हम किसानों ने ही किया है।
फ़िल्म का संगीत सुप्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर ने दिया है।अकाल पीड़ित, कृशकाय और लाचार किसानों के पार्श्व में बजता संगीत प्रत्येक दृश्य को श्मशान सी भयावहता प्रदान करने में सफल हुआ है। ‘अब न जबाँ पर ताले डालो’ फ़िल्म का अविस्मरणीय गीत है। ‘भूखा है बंगाल’ गीत बंगाली जनता की देश से कारुणिक अपील है।
फ़िल्म का अंत बेहद खास और किंचित विवादास्पद है।निरंजन शहर में बिताए गये दिनों में कुछ युग-बोध अर्जित करता है। जब किसान लौटकर गाँव वापस आते हैं तो उनके सामने खेती शुरू करने के लिए पूंजी की समस्या आती है। निरंजन साझे खेती का सुझाव देता है ताकि उपस्थित समस्या हल हो और महाजन तथा जमीदार पर निर्भरता समाप्त हो। यह अंत ऐतिहासिक रूप से सच नहीं है। भारत इस दिशा में आगे नहीं बढ़ सका। संसदीय जनतंत्र के जरिये सामूहिक कृषि शुरू करने के नेहरू के प्रयास भी विफल ही रहे थे। इसके बावजूद यह तो कहा ही जा सकता है कि आजादी की दहलीज पर खड़े मुल्क में इस मुद्दे पर बहस थी। मेहनतकश जनता के सपने थे। यह आश्चर्य नहीं कि 46 में बनी फिल्म में यब सपने उतर आए हों। हम किसानों और मजदूरों के आजादी से जुड़े सपने नहीं पूरे कर पाये, इसी का तो परिणाम है कि 2020 में हमें पुनः मनुष्यों का वैसा ही भीषण पलायन देखने को मिला जैसा ‘धरती के लाल‘ में दिखाया गया है और जैसा 43 के अकाल में हुआ था।
‘धरती के लाल‘ फ़िल्म अनेकशः कविताओं, चित्रों और नाटकों के समान ही बीसवीं शताब्दी की बड़ी त्रासदियों में से एक की स्मृति को हमारे लिए सहेजने का काम करती है। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा की एक उपलब्धि है।