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अवधेश त्रिपाठी की पुस्तक ‘कविता का लोकतंत्र’ पर परिचर्चा

अनुपम सिंह


जन संस्कृति मंच की घरेलू गोष्ठी में अवधेश त्रिपाठी की पुस्तक “कविता का लोकतंत्र” पर परिचर्चा संपन्न हुई .
यह परिचर्चा दिनांक 21 सितम्बर 2019 को संत नगर बुराड़ी, दिल्ली में रखी गयी . परिचर्चा में शामिल वक्ताओं ने जो बातें कहीं उनका सार-संक्षेप इस प्रकार है-

आलोचक बजरंग बिहारी जी ने इस पुस्तक पर बीज वक्तव्य दिया . उनका कहना था कि, ‘यह पुस्तक हिंदी के पाँच महत्वपूर्ण कवियों- नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पर केन्द्रित है .सर्वेश्वर दयाल पर किया गया विश्लेषण दिलचस्प है. इसमें उनके रुमान से लेकर यथार्थ तक की यात्रा को बेहतर तरीके से दिखाया गया है. पुस्तक में भारतीय लोकतंत्र की आलोचना की तीन दिशाएं गिनायी गयी हैं-मार्क्सवादी, नक्सलवादी और लोहियावाद. मुझे यह भी उम्मीद थी कि इसमें लोहियावाद की प्रखर आलोचना होगी .हालाँकि यह नागार्जुन और रघुबीर सहाय के जरिये आया भी है . यह पुस्तक जनांदोलनों और नागार्जुन के बीच रिश्ता तलाशती है .मध्यवर्ग और मुक्तिबोध के सम्बन्ध को भी खोलती है. इसमें रघुबीर सहाय को एक दमदार कवि की तरह प्रस्तुत और प्रतिष्ठित किया गया है.

पूंजीवाद की एक प्रणाली है लोकतंत्र, यह पुस्तक ऐसा कहती है .नागार्जुन इस लोकतंत्र के अंतर्विरोध को अच्छे से पकड़ते हैं .बेलछी काण्ड में जो भूस्वामी थे, वे कुर्मी थे.  इसकी भी शिनाख्त होनी चाहिए .मुक्तिबोध की कविता में राष्ट्रवाद के सवाल को अधूरा छोड़ दिया गया है. इस किताब में जेंडर का सवाल आमतौर पर नहीं है, लेकिन धूमिल व रघुवीर सहाय के सिलसिले में ये सवाल उठे हैं . प्रगतिशील आन्दोलन में स्त्री कहाँ है, इस सवाल का उत्तर नहीं देती यह किताब .धूमिल पर सिनिसिज्म का आरोप लगाया गया .लेकिन धूमिल में सिनिसिज्म नहीं हैं, क्योंकि वे किसान जीवन से जुड़े हैं. इस पुस्तक में अम्बेडकर का शुरू में जिक्र है लेकिन पूरी पुस्तक में कहीं नहीं है .’

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक उमा राग ने कहा कि  ‘अवधेश की यह किताब कविता के माइक्रोस्कोप से लोकतंत्र का डाइग्नोसिस करती है. स्वतंत्रता संग्राम की जनाकांक्षाओं व स्वप्नों का लोकतंत्र ने क्या किया उसे परखने की एक महत्वपूर्ण कोशिश इन पाँच कवियों की कविताओं के माध्यम से की गयी है. इसमें किताब में साहित्य और राजनीति की अंतःक्रिया और अन्तर्सम्बन्ध को स्पष्ट करने का प्रयास है. 1965-80 के दौर में लोकतंत्र और जनता के बीच के बढ़ते अन्तर्विरोध की अनुगूंज है, जिसमें लोकतंत्र के प्रभावों की अभिव्यक्ति इन पाँचों कवियों की कविताओं के माध्यम से सामने आती है। उन्होंने अपनी बातचीत को मुख्य रूप से धूमिल की कविता पर केंद्रित रखा। निराशा के कवि के रूप में नहीं बल्कि यह किताब धूमिल को नक्सलबाड़ी आंदोलन के वेग और दूसरे ‘प्रजातंत्र की तलाश’ के कवि के रूप में उनकी शिनाख़्त करती है।

उन्होंने कहा कि समाज, विमर्श और रचना इन तीनों के अन्तर्सम्बन्ध और एक दूसरे पर इनके प्रभाव के एक बेहतर अध्ययन के लिए अवधेश की यह किताब महत्वपूर्ण है.’

कहानीकार योगेन्द्र आहूजा ने कहा कि, इस किताब में लोकतंत्र में पहली दरार पड़ने के दौर के कवि हैं .ये कवि सही मायने में आवाम से गहरे प्रतिबद्ध कवि थे .

इन कवियों के साथ इनके वक्त को भी जांचा गया है .कविताओं के साथ सामाजिक -सांस्कृतिक आलोचना भी है .सर्वेश्वर का यहाँ होना सुकून देय है. किताब से गुजरते हुए इन कवियों की विराटता और भविष्यदृष्टि का बोध होता है. अम्बेडकर की तरह ये कवि भी आने वाले दिनों को देख रहे थे .मुक्तिबोध बड़े कवि हैं ,लेकिन नागार्जुन जोखिम उठाकर लिख रहे थे .नागार्जुन का तेवर समकालीन कविता से नदारद है .जबकि उसकी जरुरत बहुत है .कवितायेँ नयी बदली स्थितियों में नए अर्थ ग्रहण करती हैं .इसलिए कविताओं के पाठ भी अंतिम नहीं होते .आज इन पाँच कवियों के नए पाठ की जरुरत है .क्योंकि स्थितियां बहुत बदल गयी हैं .यह किताब पांचों कवियों का परिचित पाठ करती है .पाठ इस नए समय में बदलना चाहिए .

 

शोधार्थी सुधांशु कुमार ने कहा कि ‘अम्बेडकर जहाँ उद्धृत हैं वह महत्वपूर्ण है .अम्बेडकर के विचार की रोशनी में ही इस किताब को देखा गया है .शोषको को आमतौर पर सवर्ण ही दिखाया जाता है ,जैसे अभी बेलछी काण्ड का जिक्र हुआ.सुधांशु ने फिल्म आर्टिकल-15 का भी जिक्र किया.

मार्क्सवादी चिंतक और प्रोफ़ेसर गोपाल प्रधान ने कहा कि ‘इस किताब से मुझे थोड़ी अधिक अपेक्षा थी. भूमिका लगता है कि छपने के समय लिखी गयी है . रघुवीर सहाय वाले अध्याय ने मुझे प्रभावित किया. इसमें काव्यवस्तु और काव्य रूप, दोनों का संतुलित विवेचन है .धूमिल वाले प्रसंग में काशीनाथ सिंह पर प्रहार करना बेहतर था .धूमिल को काशीनाथ के ‘अराजक’ कथन से उठाकर सुसंगत विपक्ष का कवि बनाया है इस किताब में. इस किताब में स्त्री को देखने की गहन अंतरवर्ती धारा है .धूमिल के सिलसिले में भी यह देखा जा सकता है. मेरी निराशा इसलिए है कि यह शोध विषय प्रवेश था .यह किताब उम्मीद जगाती थी कि काम बढ़ेगा लेकिन यह नहीं हुआ .जैसे नागार्जुन के बारे में काम को बढ़ाना चाहिए.’

जसम दिल्ली की सचिव अनुपम ने कहा कि ‘इस किताब में कवियों की सिर्फ राजनितिक लोकतंत्र संबंधी कविताओं को चुना गया है. लोकतंत्र के आज के संकट को और उस समय के संकट को मुकम्मल ढंग से यह किताब रखती है . आज के दौर में कोई इस किताब को सिर्फ़ कांग्रेस की आलोचना की तरह ले सकता है, यह बात महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र विहीन सत्ता की पहचान के उपकरण यह किताब उपलब्ध कराती है’

संपादक और आलोचक और आशुतोष कुमार का कहना था कि ‘जो हम कविताओं को भविष्य दर्शी कह रहे हैं ,ऐसा मामला नहीं है .समय हमारा बहुत बदल चुका है. इस सत्ता ने लोकतंत्र ,समाजवाद आदि शब्दों के आवरण हटा दिए .पर सत्ता का चरित्र एक सिलसिले में देखा जा सकता है .रघुवीर सहाय जनता में अंध आस्था के मिथ का खंडन करते हैं.’

गोष्ठी के अंत में किताब के लेखक अवधेश ने अपना एक संक्षिप्त लेखकीय वक्तव्य रखा, जिसमें उन्होंने तमाम सुझावों को नोट किया। गोष्ठी में यह भी सहमति बनी कि अवधेश की किताब ‘कविता का लोकतंत्र’ पर जिन साथियों ने आज अपनी बात रखी उसे क्रम से पर्चे के रूप में प्रकाशित भी किया जा सकता है।

घरेलू गोष्ठी के इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए यह भी निश्चित किया गया कि अगली घरेलू गोष्ठी दर्शन पर आधारित प्रसन्न कुमार चौधरी की किताब ‘अतिक्रमण की अंतर्यात्रा’ नवंबर की माह की शुरुआत में की जाएगी।

(अनुपम सिंह जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई की राज्य सचिव हैं ।)

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