समकालीन जनमत
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उर्दू की क्लास : “ज़ौक़” और “जौक़” का फ़र्क़

( युवा पत्रकार और साहित्यप्रेमी महताब आलम की शृंखला ‘उर्दू की क्लास’ की ग्यारहवीं     क़िस्त में ज़ौक़ और जौक़ का फ़र्क़ के बहाने उर्दू भाषा के पेच-ओ-ख़म को जानने की कोशिश. यह शृंखला हर रविवार प्रकाशित हो रही है. सं.) 

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उर्दू के एक मशहूर शायर हुए हैं, मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़। वो मिर्ज़ा ग़ालिब और मोमिन ख़ाँ मोमिन के समकालीन थे और बहादुर शाह ज़फर के उस्ताद। उनका एक मशहूर शेर है :

“अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे”

चलिए, बात शायरी की निकली है तो मोमिन ख़ाँ मोमिन का ये शेर भी पेश है।मैंने हाई स्कूल के सिलेबस में पढ़ी थी लेकिन आज तक याद है।

“उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में ‘मोमिन’

आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे”

ख़ैर, अस्ल बात ये है कि ज़ौक़ और जौक़ दो अलग-अलग शब्द है। ज़ौक़ का मतलब होता है taste, enjoyment, delight, joy, pleasure यानी मज़ा, रस, आनन्द। जैसे सआदत हसन मंटो का ये जुमला (वाक्य) देखिये :

“आपको मेरी नाराज़गी का कोई ख़याल नहीं।”

“मैं सबसे पहले अपने आपको नाराज़ नहीं करना चाहता… अगर मैं आपकी हंसी की तारीफ़ न करूं तो मेरा ज़ौक़ मुझ से नाराज़ हो जाएगा… ये ज़ौक़ मुझे बहुत अज़ीज़ है!”

यहाँ पर ज़ौक़ लफ़्ज़ taste के सेंस में इस्तेमाल हुआ है। लेकिन अगर “ज़ौक़” के “ज़” में से नुक़्ता ग़ायब हो जाये तो मतलब ही बदल जायेगा। क्योंकि जौक़ मतलब होता है भीड़ या किसी चीज़ का समूह, झुंड या गिरोह।

जैसे मंटो का ही ये जुमला देखें : “मैं ये नहीं कहता कि हुस्न-फ़रोशी और जिस्म-फरोशी अच्छी चीज़ है। मैं इस बात की वकालत भी नहीं करता कि इन वैश्याओं को फ़िल्म कंपनियों में जौक़ दर जौक़ दाख़िल होना चाहिए। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ या जो कुछ मैं कह चुका हूँ निहायत वाज़िह और साफ़ है।”

ये वाक्य उनके लेख “शरीफ़ औरतें और फ़िल्मी दुनिया” से लिया गया है और यहाँ “जौक़” का इस्तेमाल बड़ी संख्या के सेंस में इस्तेमाल हुआ है।

अख़्तर-उल-ईमान की नज़्म “ज़िंदगी का वक़्फ़ा” का ये हिस्सा भी देखिये :

“जौक़-दर-जौक़ जो इंसान नज़र आते हैं

दाना ले कर किसी दीवार पे चढ़ना गिरना”

इसीलिए अगर कोई ग़लती से ही “ज़ौक़ के साथ” की जगह “जौक़ के साथ” कह दे या लिखे तो उसका अर्थ ही बदल जायेगा। मतलब “चाव” के साथ की जगह वो “भीड़” के साथ हो जायेगा।

 

 

(महताब आलम एक बहुभाषी पत्रकार और लेखक हैं। हाल तक वो ‘द वायर’ (उर्दू) के संपादक थे और इन दिनों ‘द वायर’ (अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी) के अलावा ‘बीबीसी उर्दू’, ‘डाउन टू अर्थ’, ‘इंकलाब उर्दू’ दैनिक के लिए राजनीति, साहित्य, मानवाधिकार, पर्यावरण, मीडिया और क़ानून से जुड़े मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं। ट्विटर पर इनसे @MahtabNama पर जुड़ा जा सकता है ।)

( फ़ीचर्ड इमेज  क्रेडिट : ज़ोया  लोबो    )

इस शृंखला की पिछली कड़ियों के लिंक यहाँ देखे जा सकते हैं :

उर्दू की क्लास : नुक़्ते के हेर फेर से ख़ुदा जुदा हो जाता है

उर्दू की क्लास : क़मर और कमर में फ़र्क़

उर्दू की क्लास : जामिया यूनिवर्सिटी कहना कितना मुनासिब ?

उर्दू की क्लास : आज होगा बड़ा ख़ुलासा!

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उर्दू की क्लास : क़वायद तेज़ का मतलब

उर्दू की क्लास : ख़िलाफ़त और मुख़ालिफ़त का फ़र्क़

उर्दू की क्लास : नाज़नीन, नाज़मीन और नाज़रीन

उर्दू की क्लास : शब्बा ख़ैर या शब बख़ैर ?

उर्दू की क्लास : ज़ंग और जंग का फ़र्क़ ?

 

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