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कहानी

दास्तानगोई परंपरा और स्त्रियों की भूमिका

बीते रविवार ‘कोरस’ के फेसबुक लाइव ‘स्त्री संघर्ष का कोरस’ में ‘दास्तानगोई परंपरा और स्त्रियों की भूमिका‘ विषय पर कोरस की साथी समता ने सुप्रसिद्ध दास्तानगो पूनम गिरधानी से बातचीत की ।

सबसे पहले दास्तानगोई क्या है और इसकी परंपरा कहाँ से कैसे शुरू होती है? इस पर अपनी बात रखते हुए पूनम गिरधानी ने कहा कि ‘दास्तानगोई’ पारसी के दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसमें ‘ दास्तान ‘ का अर्थ है एक लंबी कहानी और ‘ गोई ‘ का मतलब है कहना। दास्तान सुनाने के फ़न को ही दास्तानगोई कहा जाता है। यह मौखिक परंपरा का हिस्सा रहा है। अलग-अलग जमानों में, अलग-अलग वक्तों में यह परंपरा बढ़ती गई। हमारे पास लिपि बाद में आई, उससे पहले हमने कहानियाँ कहना शुरू कर दिया था । माना जाता है कि दास्तानगोई की परंपरा अरब से शुरू हुई। दास्तानगोई के हिंदुस्तान पहुँचने का सफ़र सदियों का सफर है और इस लंबे सफर में दास्तान को कहने की विधा, दास्तान को बरतने के फ़न में और जबान में बदलाव आए। अरब में थी तो अरबी का ज्यादा प्रयोग था, ईरान में फारसी का और हिंदुस्तान में उर्दू का चलन जोरों पर था। धीरे – धीरे अरबी और फारसी से आई हुई दास्तान में हिंदुस्तान की रवायतें और फ़न जुड़ता गया। कहा जाता है कि अरब से जब दास्तानें शुरू हुई तो उसमें रज़्म और बज़्म की बातें थी लेकिन हिंदुस्तान में आई तो इसमें तिलिस्म, अय्यारी, जादूगरी भी जुड़ते गए और इसकी वजह थी कि हिंदुस्तान में पहले से भी कथाएं कहने, सुनने की परंपरा थी जिसका प्रभाव दास्तानों में दाखिल होता गया। पूनम जी ने कहा कि दास्तानों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि दास्तानें अलग-अलग परिस्थितियों में भी अपने को कुबूल लेती हैं और आपकी बन जाती हैं।

पूनम जी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि 16 वीं सदी में दास्तानगोई की परंपरा हिंदुस्तान में दाखिल हुई और अकबर के ज़माने में इसे बहुत मोहब्बत भी मिली जिसकी वजह से ये कला अपने उरूज़ पर थी लेकिन बीसवीं सदी तक आते-आते यह फ़न गायब होने लगा क्योंकि उस वक्त राजनीतिक उथल-पुथल बहुत थी, स्वतंत्रता आंदोलन का समय था और उसी वक्त धीरे-धीरे पारसी थियेटर आ रहा था, सिनेमा की शुरुआत हो रही थी। 1927 में ही आखिरी दास्तानगो मीर बाकर अली साहब का भी इंतकाल हो गया जो‌‌ कि बड़े दास्तानगो में आखिरी नामलेवा थे। उसके बाद इस कला को उस रूप में बरता नहीं गया जिससे धीरे-धीरे यह रवायत हमारी यादों से भी गायब होने लगी। 19वीं सदी के आखिर में मुंशी नवल किशोर, जो कि प्रेस चलाते थे, उन्होंने अलग-अलग जगहों से दास्तानों को इकट्ठा करना शुरू किया और उसे नोट करवाया जिसकी वजह से दास्तानें हमारे पास महफूज़ हो पाईं। शम्सुर्रहमान फारुकी साहब ने भी इस पर काम किया और महमूद से इसका जि़क्र किया । फिर 2005 में महमूद पहली बार बतौर कला इसे मंच पर ले आए । पूनम जी ने कहा कि दास्तानें जिस माहौल, जिन लोगों के बीच में कही जाती हैं उनके बीच अपनी ही एक दुनिया बनाती हैं जो हमें खुली आंखों से दिखाई नहीं देती बल्कि वो दुनिया हमारे ज़हन में बनती है।

दास्तानगोई की परंपरा में महिलाओं की भूमिका पर बात करते हुए पूनम कहती हैं कि हमेशा से औरतों ने कहानी सुनाने में एक अहम किरदार निभाया है। हम जब भी कहानियों की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे ज़हन में अपनी दादी, नानी का ख़याल ही आता है न कि किसी पुरुष का। मौखिक परंपरा को आगे बढ़ाने में औरतों ने अपनी खास भूमिका निभाई लेकिन हैरत है कि इतिहास में हम उनके होने को नहीं देखते। लोक कथाओं और गीतों के बहुत से हिस्से विजय दान देथा ने राजस्थान में घूम घूम कर इकट्ठे किए जिनमें अधिकतर वर्ज़न औरतों के होते थे इन सब से भी जाना जा सकता है कि औरतों की कितनी अहम भूमिका रही है लेकिन बावजूद इसके अगर हम बात करना चाहें तो बमुश्किल ही कुछ नाम मिलते हैं जिनमें तीजन बाई, लक्ष्मी बंजारे, सुरुज बाई खांडे जैसे नाम हैं। कोई भी कला अपने समाज से हटकर नहीं होती समाज में औरतों की जैसी स्थिति होती है कला परंपरा में भी उसकी झलक हमें दिखती ही है।

पूनम ने अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा कि दास्तानगो के रूप में भले ही हमें ज़्यादा औरतें ना दिखती हों लेकिन रवायती दास्तानगोई में इनके जो किरदार रखे गए हैं, वो अपनी बहुत अहम और मजबूत भूमिका में हैं। औरतें इसमें सिर्फ श्रृंगार रस की पूर्ति के लिए एक कमोडिटी के रूप में ही नहीं आती बल्कि अपने पूरे ह़क के साथ एक अहम जरूरत के रूप में आती हैं। दास्तान की बनावट में औरतों का किरदार अहम है लेकिन उसे बरतने वाले मर्द ही हैं।

अगला सवाल था कि जब कि दास्तानें रवायती और आधुनिक दोनों होती हैं तो अभी जब कोई किस्सा तैयार किया जाता है, उसमें अभी के समाज के आईने से मूलतः किन-किन चीजों का ध्यान रखना होता है? इसका जवाब देते हुए पूनम ने कहा कि दास्तानों में अपने आज का होना, अपनी ज़बान का होना बहुत जरूरी है। अगर हम इसे आज के समय में सुना रहे हैं तो आज से संबंधित इर्द-गिर्द के समाज, लोग और माहौल से इसे जोड़ना ही होता है। इस कला को सिर्फ नुमाइश करना नहीं होता बल्कि दास्तानों को अपनाना होता है, इसे अपने समय से जोड़ना होता है। पूनम जी ने अपनी बात समझाते हुए महमूद जी की दास्तान ‘ दास्तान – ए सेडिशन ‘ जो कि विनायक सेन की गिरफ्तारी पर लिखी गई थी का जिक्र किया, जिसका स्वरूप बिल्कुल रवायती था लेकिन बात अपने समय से जुड़ी हुई थी। महमूद ने बंटवारे पर भी दास्तान लिखी। उन्होंने कहा कि दास्तानों का कोई विशेष स्वरुप नहीं होता बल्कि वो तो मुसलसल परत दर परत अपने मुकम्मल रूप में चलती रहती हैं। पूनम जी ने दास्तान ‘चबोली’ और ‘दास्तान-ए- एलिस की’ के कुछ हिस्सों को भी सुनाया।

इस दौर में उर्दू जबान और हिंदी उर्दू की गंगा जमुनी तहजीब पर पूनम जी ने कहा कि एक ज़माने में हिंदी और उर्दू ज़बान को हिंदवी कहते थे। उन्होंने कहा कि कोई भी ज़बान यूं ही बनती या खत्म नहीं होती, उसके बनने में जितना वक्त लगता है उससे कहीं ज्यादा वक्त उसके खत्म होने में लगता है और उर्दू को लेकर अभी ये चिंता नहीं की जा सकती।

बातचीत के अंतिम सफर में पूनम जी ने दास्तानगो बनने के अपने अनुभवों को साझा किया और कहा कि दास्तानों को बरतने की अदायगी में मैंने पुरुष या स्त्री होने के अंतर को ज्यादा महसूस नहीं किया लेकिन दास्तानों को लिखने पर मैंने महसूस किया कि जब मैं लिख रही होती हूं तो औरतों का दृष्टिकोण अपने मुखर रूप में आता है क्योंकि उन अनुभवों को जिया गया होता है। उन्होंने कहा कि जब मैंने बुद्ध पर दास्तान लिखी तो उसे समझने के लिए मुझे बहुत जरूरी हो गया कि मैं यशोधरा को भी समझूं और उन सभी औरतों को भी जो उनसे जुड़ी हुई थी।

(प्रस्तुति: शिवानी)

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