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धूमिल के साहित्य के केंद्र में है लोकतंत्र की आलोचनाः प्रो. आशीष त्रिपाठी

वाराणसीः उदय प्रताप कॉलेज के हिंदी विभाग और धूमिल शोध संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में शिक्षा संकाय के सभागार में जनकवि धूमिल की पुण्यतिथि पर ‘भारतीय लोकतंत्र और विपक्ष का कवि धूमिल’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

इस मौके पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रो. आशीष त्रिपाठी ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए कहा कि लोकतंत्र की आलोचना धूमिल के साहित्य के केंद्र में है। लोकतंत्र की यह आलोचना उनके यहाँ हवा में न होकर एक परंपरा से प्राप्त होती है, जिसमें प्रेमचंद, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, फैज़ अहमद फैज़ जैसे कवि व शायर आते हैं। प्रेमचंद गबन उपन्यास में ही देवीदीन खटिक के माध्यम से आने वाले स्वराज की आलोचना करते हैं। फैज़ अहमद फैज भी अपनी ‘सुबह-ए-आज़ादी’ कविता में 1947 में प्राप्त भारत की राजनीतिक आजादी से गहरे रूप में असंतुष्ट दिखाई देते हैं। नागार्जुन ने भी 15 अगस्त 1948 को ‘जन्मदिन शिशु राष्ट्र का’ कविता में प्राप्त आजादी की गहरी आलोचना की है। उन्होंने कहा कि 1946 में आजादी के पूर्व ही प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने तत्कालीन नेतृत्व वर्ग की कठोर आलोचना अपनी ‘हमको न मारो नज़रिया’ जैसी काव्य-पंक्तियों के माध्यम से की। यही परंपरा धूमिल को प्राप्त होती है जो उन्हें तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसके जन-विरोधी रूपों के प्रति एक निर्मम आलोचक बनाती है।

प्रो. आशीष त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा कि धूमिल की कविता में भारतीय लोकतंत्र के अंतरविरोधों की गहरी आलोचना के साथ ही उनके यहाँ पक्ष और विपक्ष पूरी तरह स्पष्ट है। विपक्ष अगर संसद और लोकतांत्रिक व्यवस्था है तो पक्ष भारतीय जनता है। इसलिए विपक्ष का कवि धूमिल कहने का अर्थ जनता के पक्ष में और उसके हितों के लिए संघर्ष और प्रतिरोध करने वाला कवि है। उन्होंने कहा कि धूमिल को कुछ आलोचकों ने अराजकतावादी भी कहा है लेकिन यह आरोप किसी भी रूप में सही नहीं है। वास्तव में धूमिल वामपंथी झुकाव वाले ऐसे समाजवादी चेतना के कवि थे जो उन्हें दुष्यंत कुमार, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय के अधिक करीब ले जाता है। ऐसा इसलिए कि इन कवियों के यहाँ भी भारतीय लोकतंत्र और उसके अंतरविरोधों की गहरी आलोचना तो मिलती है लेकिन कोई विकल्प नहीं मिलता। दूसरी ओर नागार्जुन और मुक्तिबोध जैसे मार्क्सवादी कवियों के यहाँ जनता के आंदोलन और संघर्ष का विकल्प मौज़ूद रहता है। यही तत्व कई बार धूमिल की कविता में गहरे आक्रोश और निराशा के रूप में भी दिखाई देता है। इसलिए धूमिल की कविता में भारतीय लोकतंत्र की सबसे प्रामाणिक और विश्वसनीय आलोचना मिलती है।

प्रो. त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा कि धूमिल राजनीति के प्रचलित रूपों से असहमत थे लेकिन वे राजनीति को ही जनता की मुक्ति का एकमात्र रास्ता मानते थे। इसीलिए यह अब आवश्यक हो गया है कि हम सामाजिक संरचना के स्तर पर जब तक बदलाव नहीं लाएंगे तब तक धूमिल की चिंताओं और जनता के हितों के लिए उनके तनावों को व्यावहारिक परिणति तक नहीं पहुँचा सकते।

संगोष्ठी में बोलते हुए वरिष्ठ कवि शिव कुमार पराग ने कहा कि धूमिल को अपने परिवेश में जब कमी दिखाई देती है तो वे अपने समय से असंतुष्ट होते हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में मिलने वाला व्यंग्य अधिक धारदार और मारक हो जाता है। उन्होंने धूमिल पर लगाए गए आरोपों को नकारते हुए कहा कि धूमिल ने अपनी कविता में समय को शब्द में ढाला है, इसीलिए उनकी कविता में जीवन के गहरे दृश्य दिखाई देते हैं, जिसकी छाप पाठक पर पड़ती है। उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी कहा कि धूमिल को धूमिल की तरह ही देखना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र पर जब भी संकट के बादल मँड़राएंगे तब धूमिल एक जरूरी और अनिवार्य कवि के रूप में याद किए जाएंगे।

संगोष्ठी में बोलते हुए काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रो. मनोज कुमार सिंह ने कहा कि धूमिल अकेले ऐसे कवि हैं जो केवल भारतीय लोकतंत्र के अंतरविरोधों की ही आलोचना नहीं करते बल्कि जनता की भी आलोचना करते हैं। यह तत्व उन्हें अपने समय के अन्य कवियों से अलग करता है। इस रूप में धूमिल अपनी कविता में अपने समय के छल और अन्याय को ध्वस्त कर देना चाहते हैं। प्रो. मनोज कुमार सिंह ने धूमिल को गँवई संवेदना और किसानी संस्कार का कवि बताते हुए यह भी कहा कि उनकी कविताओं का एक केंद्रीय तत्व ऊब है। इस ऊब का मूल कारण भारतीय जनता के जीवन में प्राप्त होने वाली भूख है। जब भारतीय लोकतंत्र जनता की इस भूख को समाप्त करने में असफल होता है तो यह स्थिति धूमिल को गहरे आक्रोश से भर देती है।

संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए धूमिल के पुत्र और उनके साहित्य के गहरे अध्येता रत्नशंकर पांडेय ने कहा कि धूमिल की कविता वास्तव में अक्षर के बीच पड़े हुए आदमी की कविता है। उन्होंने यह भी कहा कि धूमिल का जो भी साहित्य अभी उपलब्ध है वह अधूरा है। राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित होने वाले ‘धूमिल समग्र’ से धूमिल की वर्तमान छवि बहुत कुछ बदल जाएगी और उन्हें नए सिरे से पढ़ना अनिवार्य हो जाएगा। उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी कहा कि न तो धूमिल नकारवादी थे और न ही उन्हें समाजवादी खाँचे में फिट किया जा सकता है। उनकी कविता में भविष्य की वह दृष्टि प्राप्त होती है जो इन बने बनाए साँचों को तोड़ते हुए उन्हें एक नए धरातल पर स्थापित करती है। तभी वे अपनी कविता के लिए दूसरे प्रजातंत्र की तलाश करते हैं। रत्न शंकर पांडेय ने यह भी कहा कि वे अपनी कविता के प्रति भी बहुत निर्मम थे क्योंकि उन्होंने अपनी अनेक कमज़ोर कविताओं को अपने संग्रहों से हटा दिया है। यही नहीं 1960-61 तक लिखे गए गीतों को भी अपने किसी संग्रह में जगह नहीं दी क्योंकि उन्हें लगता था कि ये गीत उनकी प्रतिरोधी चेतना और भीतर के आक्रोश से मेल नहीं खाते।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ. गोरखनाथ ने कहा कि हम सब सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की मानस परंपरा के उत्तराधिकारी हैं और हमारा यह गहरा दायित्व बनता है कि उनके तनावों और आक्रोश को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए प्रतिरोध की परंपरा को बनाए रखें। उन्होंने कहा कि इसीलिए हम प्रत्येक वर्ष धूमिल की कविता पर चर्चा के साथ ही उनकी चेतना की परंपरा का संवहन करने वाले अपने समय के कवियों से संवाद और उनकी कविता पर चर्चा का सिलसिला आगे भी जारी रखेंगे। इससे नई पीढ़ी धूमिल को न केवल समझेगी बल्कि उनकी चिंताओं और सरोकारों से भी जुड़कर जनता के हित में काम करने की ताकत प्राप्त करेगी।

आए हुए अतिथियों के प्रति आभार डॉ. अनिता सिंह ने प्रकट किया तथा स्वागत डॉ. अनिल कुमार सिंह ने किया। संगोष्ठी में डॉ. मोहम्मद आरिफ, डॉ. आनंद तिवारी, श्री प्रकाश राय, कामता प्रसाद, डॉ. शशिकांत द्विवेदी, डॉ. अनूप कुमार सिंह, डॉ. उपेंद्र कुमार, डॉ. शैलेंद्र कुमार सिंह, सोनिया कपूर, श्री प्रसाद श्रीवास्तव, डॉ सपना सिंह, जितेंद्र सिंह, राहुल, दीपक प्रजापति सहित बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

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