दुर्गा सिंह
शिब्ली मंजिल या शिब्ली अकादमी या दारुलमुसन्निफ़ीन (हॉउस ऑफ़ राइटर या लेखकों का अपना घर) आज़मगढ़ में स्थित ऐसी जगह है, जिससे कोई भी स्कॉलर अचंभित हुए बिना नहीं रहेगा. इसकी परिकल्पना अल्लामा शिब्ली नोमानी ने की थी. इसके लिए उन्होंने अपना बंगला और एक आम का बाग़ दिया. अपने परिवारीजनों से ज़मीन मांगी. भोपाल और हैदराबाद रियासत से मदद मांगी. बेगम भोपाल ने पैसों से मदद की. इसके अलावा उन्होंने अपने शागिर्दों को इसमें इन्वाल्व किया. जो लोग ऐसी हैसियत में थे उनसे ताल्लुक रखने वाले सबको उन्होंने याद किया सहायता के लिए. लेकिन इसे असली जामा पहनाने से पहले ही १८ नवम्बर १९१४ को उनकी मृत्यु हो गयी. उनके शागिर्दों ने तीन दिन बाद एक जुटान किया अर्थात २१ नवम्बर १९१४ को और उसी दिन शिब्ली मंज़िल की औपचारिक स्थापना कर अल्लामा शिब्ली के सपने को साकार किया.
इसकी अगुवायी सैय्यद सुलेमान नदवी ने की, जिनको शिब्ली नोमानी पुणे से बुला कर लाये थे. जहाँ नदवी साहब अध्यापन कार्य करते थे. यही शिब्ली मंज़िल के पहले डायरेक्टर बने. अपने शिक्षक, गुरु, मेंटर को दी गयी यह एक अनूठी, मिसाली श्रद्धांजली थी.
शिब्ली मंजिल या अकादमी की स्थापना पहले लखनऊ में करने की शिब्ली ने सोची थी, पर वहां मुस्लिम पुरातनपंथियों, पोंगापंथियों के विरोध के चलते वे इसे आज़मगढ़ ले आये.
अल्लामा शिबली नोमानी ने उर्दू भाषा और साहित्य के नवजागरण तथा मुस्लिम समाज को अपनी परम्परा और संस्कृति से परिचित कराने का उद्द्येश्य लेकर अकादमी की परिकल्पना की थी. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था ब्रिटिश सामराजी आधिपत्य, पाश्चात्य परम्परा और संस्कृति का हमला और अंग्रेजी भाषा का बढ़ता प्रभाव. इन सब के माध्यम से जो औपनिवेशिक सत्ता कार्यरत थी, शिब्ली उसको लेकर चिंतित थे. इसी चिंता ने उन्हें सर सैय्यद अहमद खान जैसे आधुनिकतावादियों और मुस्लिम लीग व् देवबंदियों के पुनरुत्थानवाद से अलग राह दी. यह एक साझे भारतीय राष्ट्र के निर्माण की उसी परिकल्पना का हिस्सा था, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद, प्राच्यवाद के खिलाफ आकार ले रहा था. जो बंगाल विभाजन के बाद तेजी से फैला था. इसीलिए शिब्ली अकादमी को वे रबीन्द्र नाथ टैगोर के शांति निकेतन की तरह परिकल्पित किये. इसमें स्कॉलर की परिकल्पना बौद्ध भिक्षुओं की तरह की गयी.
उर्दू भाषा व् साहित्य की खिदमत तथा शिबली नोमानी की सोच के अनुरूप शिबली अकादमी ने अपना मासिक जर्नल ‘मारिफ’ जुलाई १९१६ में निकाला. इस जर्नल की एक खासियत यह भी है कि आज तक इसका एक भी नंबर रुका नहीं. अर्थात यह आज तक अनवरत छपती और प्रकाशित होती है. मआरिफ सबसे ओल्ड और जीवित पत्रों में से एक है.
शिबली अकादमी ने हिन्दुस्तानी जुबान के बतौर उर्दू को आगे रख रिसर्च, प्रेस, पब्लिकेशन, वितरण आदि को आज तमाम संसाधनों की कमी के बावजूद जारी रखा है. साझी संस्कृति के सन्दर्भ तलाशने से लेकर उसके निर्माण के कार्यों को केंद्र में रख कर आज भी यह अकादमी सक्रिय है. यहाँ से साहित्य के अलावा ज्ञान के अन्य अनुशासनों पर भी पुस्तकें छपती हैं. इंडियन हिस्ट्री पर अब तक ४० किताबें छप चुकी हैं. मुग़ल काल में सांस्कृतिक आदान-प्रदान को लेकर तीन वाल्यूम में ‘बज़्म तैमूरिया’ किताब गौरतलब है. यहाँ के सीनियर स्कॉलर उमैर सिद्दीक एक दिलचस्प तथ्य बताते हैं कि मुगलों के समय संस्कृत भाषा की १४०० पुस्तकों का फ़ारसी में अनुवाद हुआ था. इसको लेकर एक किम्वदंती भी है कि जब मुगलों ने संस्कृत की पुस्तकों का अनुवाद कराना शुरू किया तो कई पुरोहितों ने रातों-रात पुस्तकें लिख डालीं. इस तथ्य पर अगर ध्यान दिया जाए तो हम पायेंगे कि अधिकांश संस्कृत में लिखा साहित्य और धर्म सिद्धांत अरब, फारस, मध्य-पूर्व तथा योरोप के देशों के संपर्क में इसी प्रक्रिया में आया. विदित हो कि इस काल-खंड से पहले मौर्यों के समय में भारतीय चिंतन, दर्शन और धर्म भारतीय प्रायद्वीप से बाहर गया था. भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन को समझने के लिए मौर्य, अरब और मुग़ल कालखंड के इस सांस्कृतिक पहलू को जानना जरूरी है. क्योंकि तीनों को आक्रांता और बर्बरता के प्रतीक के रूप में हिंदूवादी तथा वर्णवादी लेखकों द्वारा प्रचारित किया जाता है. यह भी गौरतलब है कि अरब और मुग़ल दौर में गैर-इस्लामिक संस्कृतियों और धर्मों को जानने-समझने के क्रम में यह ज्यादा हुआ, जबकि ब्रिटिश सामराजी दौर में भारतीय संस्कृति को लेकर फार्मूलेटेड काम ज्यादा हुआ. यह अंतर जानते रहना चाहिए. शिबली अकादमी में इस्लामिक मेधा तथा अकादमिक कार्यों के ऐसे कितने प्रमाण हैं जिनसे हम ऊपर कही बातों की ताकीद कर सकते हैं.
उमैर साहब एक तथ्य और बताते हैं कि ‘पंचतंत्र’ का पहला रूपांतरण अरबी में सातवीं सदी में हुआ. अब्दुल्ला बिन अलमुखफा ने यह काम ‘कलेला दिम्ना’ नाम से किया. अर्थात इस्लामिक सांस्कृतिक जगत अपने प्रारम्भ से ही भारतीय प्रायद्वीप संस्कृति से संपर्क में था. एक बात और कि अरब के ज्ञानी-विज्ञानी, विद्वान् आदि जब भारत की तरफ रुख किये तो उसके पीछे कारण यहाँ के चितन, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान को जानने-समझने के साथ उनके अपने खुद के निर्माण का भी मामला भी था. इसमें भौगोलिक साझापन अरब और सिंध के बीच पहले से था, जिसमें संस्कृति के साझेपन को निर्मित कर जोड़ना था. और यह पहल निःसंदेह अरब विद्वानों की तरफ से हुआ. इसे कोई स्वीकार करे या न करे लेकिन यह तथ्य है. शिबली अकादमी के स्कालर्स ऐसी कितनी बातों, ऐसे कितने सन्दर्भ को सामने रखकर अरबी-फारसी का अध्ययन और उर्दू भाषा-साहित्य व् लेखन में खुद को बड़े समर्पण के साथ लगाए हुए हैं. ज्ञान और विचार का एक सेंटर होने के अलावा शिबली अकादमी अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, स्थापत्य तथा बेहद संजीदा, खुशमिजाज, डीसेंट मनुष्यों की भी एक जगह है जो जीवन की न्यूनतम सुविधाओं के बीच हैं भी और आगे की पीढ़ियों के निर्माण को तत्पर भी.
(युवा आलोचक दुर्गा सिंह प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कथा’ के संपादक हैं ।)
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