(31 जुलाई को प्रेमचंद की 140वीं जयंती के अवसर पर समकालीन जनमत 30-31 जुलाई ‘जश्न-ए-प्रेमचंद’ का आयोजन कर रहा है। इस अवसर पर समकालीन जनमत लेखों, ऑडियो-वीडियो, पोस्टर आदि की श्रृंखला प्रकाशित कर रहा है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है हिंदी के प्राध्यापक और आलोचक रामायन राम का यह लेख: सं।)
हिन्दी साहित्य व अकादमिक जगत में व्याप्त जातिवाद पर इस बीच कई कारणों व संदर्भों में काफी वाद-विवाद हुआ है। अभी कुछ दिनों पहले वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने रेणु की उपेक्षा का सवाल उठाते हुए, हिन्दी आलोचना के जातिवादी नजरिए और आलोचकों के ‘किलिंग इंस्टिंक्ट’ को प्रश्नांकित किया। लेकिन, सोशल मीडिया पर चलने वाली साहित्यिक बहसों की परिपाटी के अनुकूल यह बहस भी अंतत: व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी व ‘कीचड़ उछालो अभियान’ में तिरोहित हो गयी। इसी तरह अप्रैल के महीने में हिन्दी की अकादमिक संस्थाओं में जातिवाद व ‘नेपोटिज़्म’ का सवाल उठाने के कारण युवा कवि विहाग वैभव को ‘घेर कर ढेर करने’ की कोशिश की गयी। अभी तुलसीदास की जयंती पर और नामवर सिंह के जन्मदिवस के बहाने भी यह बहस उठी, इन सभी बहसों ने हिन्दी साहित्य जगत की भीतरी सतह में पैठे परस्पर अविश्वास, खेमेबंदी, व जातिवादी दुराग्रहों को सामने ला दिया है।
आज दुनिया के तमाम समाजों में नयी पीढ़ी अपने पूर्वजों द्वारा वंचितों व कमजोरों का उत्पीड़न करने के कारण शर्मिंदा है, वे अपने पूर्वजों के कृत्यों के लिए आज क्षमा मांग रहे हैं। अमरीका में श्वेत उत्पीड़कों के वंशज काले लोगों से माफी मांग कर उनके साथ आंदोलन में शामिल हैं। भारतीय समाज के लिए यह सब अकल्पनीय है। लेकिन, क्या हम साहित्य से भी ऐसी उम्मीद कर सकते हैं? समाज की बात तो बहुत दूर की है, हिन्दी जगत के साहित्यिक-सांस्कृतिक व कला-जगत के अगुआ तत्वों के भीतर भी हमारे इतिहास और संस्कृति के विभेदकारी व अन्यायपूर्ण मूल्यों के प्रति घृणा का भाव नहीं है। आज इन मूल्यों के कारण इन्हें शर्मिंदा होने की जरूरत महसूस नहीं होती। ऐसा भी नहीं है, कि ये विभेदकारी जीवनमूल्य हमारी संस्कृति के हाशिये की चीज है, इसके उलट वर्ण व्यवस्था, पितृसत्ता व धार्मिक असहिष्णुता हमारी महान संस्कृति के मूलाधार हैं, जिसपर हिन्दू सनातनी संस्कृति का सारा बोझ टिका हुआ है।
आज यह दावा बार-बार किया जाता है, कि जातिवाद का स्वरूप अब पहले की तरह कठोर नहीं रहा। अब सब कुछ बदल गया है और अब भेदभाव सिर्फ आर्थिक आधार पर हो रहा है। इस धारणा का प्रचार प्रतिगामी विचार की ओर से हो ही रहा है, प्रगतिशील साहित्य ने भी अपने कारणों से इस धारणा को स्वीकार किया, जिसके कारण हिन्दी साहित्य के व्यापक परिदृश्य में जाति का सवाल जगह नहीं बना पाया। पुरानी बातें छोड़ भी दें और हिन्दी नवजागरण व सौ वर्षों से अधिक समय के आधुनिक युग के साहित्य का हिसाब लगा लें, तो यह सवाल उठता है, कि हमारे साहित्य ने समाज के लोकतान्त्रिक चेतना, समता व तार्किकता के विकास में क्या योगदान किया है ? आम समाज की बात छोड़ दी जाय और सिर्फ हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन करने वाले तबके के ही सोच-समझ को देखा जाय, तो परिदृश्य बहुत ही निराशाजनक है। यह निराशा ही बार – बार दलित साहित्य व अद्विज लेखकों की ओर से व्यक्त होती रहती है, जिसे कभी भी हिन्दी जगत के अगली कतार में रहने वाले लोगों ने सकारात्मक रूप में नहींं लिया।
यही कारण है, कि हिन्दी की मुख्यधारा के साहित्य में प्रेमचंद के अलावा दलित-जीवन की प्रामाणिक अभिव्यक्ति और जातिवाद, वर्णव्यवस्था की आलोचना नहीं नजर आती। न तो रचनात्मक साहित्य में, न सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में। इसलिए हिन्दी जगत का जो मानस निर्मित हुआ, वह अपनी परंपरा के अन्यायपूर्ण पक्ष का न सिर्फ बचाव करता है, बल्कि कमोबेश उसका पालन भी करता है। यही कारण है कि हिन्दुत्व की राजनीति और भेदमूलक विचारधारा को हिन्दी क्षेत्र में पाँव पसारने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। क्योंकि, यहाँ उनका कोई वैचारिक प्रतिपक्ष उपस्थित ही नहीं है। जो, प्रतिपक्षी की भंगिमा में दिख रहे हैं, उनका कुछ भी दांव पर नहीं है। इसलिए उन्हें कथनी और करनी में एकता स्थापित करने की कोई विवशता नहीं है।
इसी पाखंड के चलते हिन्दी में लोगों ने प्रेमचंद को महान घोषित करने के बावजूद उनके रास्ते का अनुसरण नहीं किया। प्रेमचंद के बाद साहित्य के समूचे परिदृश्य से जाति का प्रश्न और दलित चेतना, दलित जीवन व पात्र लगभग गायब ही हो गये। जो नवें दशक में दलित साहित्य के अस्तित्व में आने के बाद ही नजर आना शुरू हुए। पाँच सौ बरस बाद 20वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में जाति व्यवस्था के इतिहास का अध्ययन करने वाले शोधार्थी के लिए इस दौर के हिन्दी साहित्य के संदर्भ किसी काम के नहीं होंगे। जबकि, इस काल-खंड में जाति-व्यवस्था अपने पूरे ‘अमानवीय वैभव’ के साथ मौजूद थी।
प्रेमचंद का साहित्य 20वीं सदी के पूर्वार्ध के उत्तर भारत की सामाजिक-राजनैतिक जिंदगी का धड़कता हुआ ऐतिहासिक अभिलेख है। यहाँ समाज की मुक्कमल जिंदगी के चित्र हैं, जहां जाति, धर्म, रीति रिवाज, अंधविश्वास, आर्थिक शोषण , विचारधारा और स्वतन्त्रता आंदोलन की राजनीति के बीच साधारण मानुष्य का उन्नयन होता है। प्रेमचंद भारतीय समाज की सबसे जटिल समस्या जातिवाद पर अपनी पैनी निगाह बनाए रखते हैं। उनके कथा साहित्य में दलित जीवन व जाति समस्या के अलग -अलग चित्र हैं, उनके उपन्यासों व कहानियों में वर्णित विषयों का एक बहुत बड़ा हिस्सा तत्कालीन समाज में दलित जीवन की समस्या और दलित चेतना की अभिव्यक्ति के प्रति समर्पित है।
वरिष्ठ आलोचक और भारतीय भाषा केंद्र जे एन यू के पूर्व अध्यक्ष चमन लाल ने ‘प्रेमचंद साहित्य में दलित विमर्श’ शीर्षक लेख में इस संदर्भ में विस्तृत ब्योरा प्रस्तुत किया है। यह लेख 27 अक्तूबर 2005 को साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित संगोष्ठी में उन्होंने पढ़ा था। पिछले वर्ष 25 जुलाई को समकालीन जनमत ने इसे पुनर्प्रकाशित किया था। इस लेख में प्रो. चमनलाल ने प्रेमचंद के कथा साहित्य के अलावा उनके वैचारिक लेखन में जाति-व्यवस्था संबंधी चिंतन का लेखा- जोखा रखा था। इस लेख का एक उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैं- ‘‘रंगभूमि’ के नायक सूरदास की जाति चमार होने का स्पष्ट उल्लेख करके भी प्रेमचंद ने उसे इतना सम्मानीय पात्र बनाया है, कि तथाकथित ऊंची जातियों के लोग उसकी कुर्बानी के सामने बौने नज़र आते हैं और उसकी कीर्ति से स्पृहा करते हैं।”
इसी प्रकार प्रेमचंद के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास ‘गोदान’ के बहुचर्चित सिलिया-मातादीन प्रसंग में भी जिस आक्रामक ढंग से मातादीन के मुंह में हड्डी डालकर उसे चमार बनाया जाता है और कैसे पं. दातादीन को चमारिन स्त्री सिलिया को उसके पुत्र द्वारा भोग्या समझे जाने पर दंडित किया जाता है, इससे भी प्रेमचंद का अक्स दलित विरोधी का न होकर काफी सशक्त दलित समर्थक का ही उभरता है।
उपन्यास की अन्य प्रमुख पात्र कुर्मी स्त्री धनिया का किरदार भी प्रेमंचद ने ऐसी प्रखर और जागरूक स्त्री के रूप में चित्रित किया है, कि उपन्यास के सभी पुरुष पात्र उसके सामने छोटे लगने लगते हैं।
‘कर्मभूमि’ उपन्यास में तो प्रेमचंद ने दलितों के लिए अत्यंत संवेदनशील मुद्दे, मंदिर-प्रवेश की ही समस्या नहीं उठाई, बल्कि दलित कर्म के संगठित होकर संघर्ष करने का भी विस्तार से चित्रण किया है। ‘कर्मभूमि’ में दलित समस्याओं व संघर्षों का चित्रण व्यापक रूप में किया गया है।
‘प्रेमाश्रम’ में अछूतों से बेगार लिए जाने व किसानों द्वारा भी उनसे अच्छा व्यवहार न किए जाने का चित्रण हुआ है। ‘कायाकल्प’ में भी दलितों द्वारा बेगार करवाए जाने की प्रथा के प्रतिरोध के स्वर मुखरित हुए हैं। ‘कायाकल्प’ में प्रेमचंद पहली बार चमारों के लिए मजदूर शब्द का भी इस्तेमाल करते हैं।
‘गबन’ उपन्यास में प्रेमचंद ने देवीदीन खटीक के पात्र रूप में राष्ट्रीय आंदोलन में दलितों के योगदान को रेखांकित किया है। ‘गबन’ के दलित पात्र अपने को निम्न जाति न समझ कर अपने जाति गौरव का भी परिचय देते हैं।
इस आलेख में प्रेमचंद के चिंतनपरक लेखन में दलित विमर्श पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है, लेकिन उनके कथा-साहित्य पर संक्षेप में इसलिए विचार किया गया है कि प्रेमचंद के दलित विमर्श संबंधी अभी तक उनके सृजनात्मक साहित्य को केन्द्र में रख कर ही चर्चा अधिक हुई है। उपन्यासों के अतिरिक्त दलित जीवन को मार्मिक रूप से चित्रित करने वाली प्रेमचंद की करीब पचास कहानियों में से अधिक चर्चित कहानियां हैं- ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘मंदिर’, ‘मंत्र’, ‘घासवाली’, ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘शूद्र’, ‘कफन’, ‘देवी’, आदि। ‘कफन’ को यद्यपि दलित विरोधी या प्रगतिवाद विरोधी कहा गया है, लेकिन कहानी के वस्तुगत ढंग से अध्ययन से ऐसी कोई लेखकीय भावना नजर नहीं आती। बल्कि ‘कफन’ कहानी में एक रूपक के ज़रिए वर्चस्ववादी या शोषक वर्गों द्वारा गरीब व दलित वर्गों के क्रूर शोषण का वर्णन कथित निठल्ले पात्रों द्वारा करवाया गया है।’’1
प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि 1924-25 में प्रकाशित हुआ। जिसमें उन्होंने एक दलित पात्र सूरदास को कथानायक बनाया, सूरदास को प्रेमचंद ने औपनिवेशिक भारत में गुलामी की चक्की में पिस रही भारत की आम जनता का प्रतीक बना कर पेश किया, सूरदास का चरित्र भारत के किसानों व मजदूरों की प्रतिरोधी चेतना को रूपायित करता है, जिसमें अहिंसा का तत्व प्रबल है। आलोचकों ने इसके पीछे महात्मा गांधी के अहिंसा व सविनय अवज्ञा का प्रभाव देखा है, जो कि ठीक ही है, लेकिन प्रेमचंद का मौलिक योगदान इस संबंध में यह है कि उन्होंनेे आज़ादी के लिए संघर्ष कर रही जनता के नेतृत्वकारी भूमिका में सूरदास को रखा है, और उसके नेतृत्व में पाण्डेयपुर का उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष चलता है। प्रेमचंद ने बहुत ही सावधानी से अंग्रेजी शासन के देसी एजेन्टों को भी सामने रखा है, इस उपन्यास में जयशंकर प्रसाद और अन्य राष्ट्रवादी लेखकों की तरह गुलामी का ‘सांस्कृतिक चित्रण’ नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक विश्लेषण मौजूद है, जिसके कारण उनकी निगाह पूंजीवादी लूट, सामंती पितृसत्ता और जातिवादी शोषण पर है।
महात्मा गांधी के आंदोलन में अछूत समस्या पर ध्यान 1930 के बाद दिया गया, डॉ. अंबेडकर के राष्ट्रीय परिदृश्य में आने के बाद। 1932 में अस्पृश्यों को पृथक निर्वाचन व कम्यूनल अवार्ड मिलने और उसे निरस्त कराने हेतु अनशन के बाद गांधी जी ने दलित वर्गों को राष्ट्रीय आंदोलन में दलितों को जोड़ने के लिए काँग्रेस के अंदर अछूतोद्धार कार्यक्रम चलाया। इसके अंतर्गत अछूतों को ‘हरिजन’ की संज्ञा दी गई, उनके हीन काम को सम्मान से देखने का आग्रह किया गया, लेकिन वर्णव्यवस्था के विरुद्ध कोई सवाल नहीं उठाया गया। रंगभूमि का सूरदास 1924-25 में ही गांधी जी के भावी ‘हरिजन’ का प्रतिरूप है, लेकिन उपन्यास में प्रेमचंद ने उसे नायकत्व प्रदान किया और उसे लगभग गांधी जी की तरह चित्रित किया। निश्चित तौर पर एक भविष्यद्रष्टा लेखक के रूप में प्रेमचंद एक ‘हरिजन’ को आज़ादी की लड़ाई, जो पूंजीवाद और ज़मीदारी प्रथा के खिलाफ भी थी, के नेतृत्व करते हुए देखना चाहते रहे होंगे। लेकिन काँग्रेस के आंदोलन में यह संभव नहीं रहा होगा। इसलिए प्रेमचंद की धारणाएं भी बदली। 1934 तक प्रेमचंद गांधी के अछूतोद्धार कार्यक्रम के प्रभाव में रहते हैं, उसके बाद जैसा कि प्रो. चमनलाल जी ने पड़ताल किया है, कि वे दलित प्रश्न को लेकर गांधीवाद का अतिक्रमण करते नजर आते हैं। प्रो. चमन लाल लिखते हैं-
‘‘8 जनवरी 1934 को एक लंबा लेख, ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ उपशीर्षक टके पंथी पुजारी, पुरोहित और पंडे हिन्दू जाति के कलंक हैं, लिखा।
इस लेख में प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता और जातिवाद को राष्ट्रवाद का घोर विरोधी बताते हुए लिखा-
‘हिन्दू जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है। राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य भाव का दृढ़ होना। उसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना नहीं की जा सकती।’ (पृ. 417 वही)
राष्ट्रीयता की अपनी अवधारणा की कुछ और व्याख्या करते हुए प्रेमचंद इसी लेख में आगे कहते हैं- ‘हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं, उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन न कायस्थ न क्षत्रिय। उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे या सभी हरिजन होंगे। (पृ. 473)
इस लेख में प्रेमचंद ने पं. ज्योतिप्रसाद निर्मल द्वारा अपने ऊपर लगाए आरोपों का उत्तर भी दिया है- ‘निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बताकर संतुष्ट नहीं हुए, उन्होंने हमें हिन्दू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है। तो क्या आप चाहते हैं, कि हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है, कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के सामने रखो, चाहे हिन्दू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो। इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे और गरीब किसान-मजदूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवाभाव पाया है। (पृ. 475, वही)
लेख के अंत में प्रेमचंद एक बार फिर इस बात पर जोर देते हैं, कि ‘राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है।’ (पृ. 476, वही)
8 जनवरी 1934 को प्रकाशित प्रेमचंद का यह लेख उनके दलित-विमर्श पर भविष्य की भारतीय समाज व्यवस्था की अवधारणा को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। वास्तव में इस लेख में दलित-समस्या संबंधी प्रेमचंद के विचार महात्मा गांधी के विचारों से आगे बढ़े हुए दिखाई देते हैं। विशेषतः भारतीय समाज व्यवस्था के संभावित नये रूप का उनका स्वप्न प्रगतिशील विचारों व वर्ग दृष्टि की झलक देता है।’’2
प्रेमचंद की वैचारिकी में आ रहे परिवर्तन का प्रभाव हम उनकी कहानियों पर भी देख सकते हैं। रंगभूमि में अति विनम्र, अहिंसक दलित पात्र सूरदास की प्रतिष्ठा करने वाले प्रेमचंद गोदान की सिलिया और उसकी माँ के रूप मेंं आक्रामक दलित पात्र की सर्जना करते हैं। घासवाली कहानी की ‘मूलिया’ भी एक आक्रामक पात्र है। सूरदास और देवीदीन खटीक जैसे नायकों के बरक्स कफन कहानी में घीसू-माधव के रूप में प्रतिनायक गढ़ते हैं। सूरदास जहां मुख्यधारा के समाज में सम्मिलन की सोच का प्रतिफलन है, वहीं घीसू और माधो एक नकारात्मक विद्रोह की चेतना की निर्मिति हैं। उनकी उपस्थिति ही राष्ट्र और समाज की असफलता का प्रमाण है। ‘कफन’ भारतीय राष्ट्रवाद की लोकप्रिय अवधारणा की आलोचना करती हुई कथा है। जबकि ‘रंगभूमि’ राष्ट्रवादी संघर्ष का दिवास्वप्न रचता है, जिसमें पूंजीवादी सामंती सत्ता के खिलाफ उत्पीड़ित जन की एकता की आकांक्षा समाहित है, यहाँ राजनीतिक संघर्ष और सामाजिक सुधार आंदोलन एक साथ चलते हैं।
लेकिन प्रेमचंद के बाद कथा के परिदृश्य से जातिवाद की समस्या पृष्ठभूमि में चली गई। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद विभाजन और स्वतन्त्रता से उपजे सवालों ने पहले जाति समस्या को बेदखल किया, उसके बाद नई कहानी और उसके बाद के कथा आंदोलनों में लगभग समूचा ग्रामीण जीवन ही साहित्य से बाहर हो गया, कथा के केंद्र में मध्यवर्गीय जीवन की गुत्थियाँ आ गईं। कविता के क्षेत्र में परिस्थितियाँ लगभग ऐसी ही रहीं। रेणु , नागार्जुन और मार्कन्डेय जैसे कथाकारों ने बीच में कहानी को ग्रामीण यथार्थ और उसके बीच पनप रहे जातिवाद को अपने अपने नजरिए से देखा लेकिन वे भी प्रेमचंद की व्यापकता, दृष्टिकोण और निहितार्थ से बहुत दूर ही रहे। प्रेमचंद ने जाति-समस्या को साहित्य की अनिवार्य चिंता के रूप में देखा था। वे भारतीय राष्ट्र की एकता के लिए जाति-भेद की ‘जड़ खोदने’ की बात करते थे। डॉ. अंबेडकर ने भी राष्ट्रीयता और लोकतन्त्र के विकास के लिए जाति-उन्मूलन को अनिवार्य बताया था। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में सामाजिक सुधार दल पर राजनैतिक सुधार दल की विजय के बारे में लिखते हुये अंबेडकर ने कहा था- ‘‘इतिहास सामान्यतया इस बात को सिद्ध करता है कि राजनैतिक क्रांतियाँ हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई हैं… मन और आत्मा की मुक्ति जनता के राजनैतिक विस्तार के लिए पहली आवश्यकता है।’’3
हिन्दी साहित्य में समाज सुधार आंदोलन का जातिविरोधी पहलू प्रेमचंद के अलावा प्रखर रूप में अन्य किसी के यहाँ नहींं दिखता। मार्क्सवादी साहित्य में भी मुक्तिबोध, नागार्जुन जैसे कुछेक अपवादों के अलावा स्थिति बहुत भिन्न नहीं है।
आज प्रतिगामी और यथास्थितिवादी और पोंगापंथी साहित्यिक-सांस्कृतिक मूल्य पूरी ताकत से संगठित हमला कर रही हैं। यह हमला इतना तेज है, कि इसमें भारतीय विरासत के हर मूल्यवान विचार व परिवर्तनकामी चेतना के मटियामेट होने या जनतंत्र विरोधी दुरभिसंधियों में इस्तेमाल हो जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। ‘रंगभूमि’ के सूरदास ने शहीद होते अपने प्रतिपक्षियों से कहा था – ‘‘तुम जीते, मैं हारा। यह बाजी तुम्हारे हाथ रही, मुझसे खेलते नहीं बना। तुम मँजे हुए खिलाड़ी हो, दम नहीं उखड़ता, खिलाड़ियों को मिलाकर खेलते हो और तुम्हारा उत्साह भी खूब है। हमारा दम उखड़ जाता है, हाँफने लगते हैं और खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलते, आपस में झगड़ते हैं, गाली-गलौज, मार-पीट करते हैं, कोई किसी की नहीं मानता। तुम खेलने में निपुण हो, हम अनाड़ी हैं। बस, इतना ही फरक है। तालियाँ क्यों बजाते हो, यह तो जीतनेवालों का धरम नहीं? तुम्हारा धरम तो है हमारी पीठ ठोकना। हम हारे, तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धांधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हारकर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक-न-एक दिन हमारी जीत होगी, जरूर होगी।’’4
वर्तमान सत्ता जाति, धर्म, पूंजी सबके साथ मिलकर ‘खेल’ रही है और इस खेल में पिस रहे साधारण जन आपस में विभाजित होकर जी रहे हैं। इस विभाजन और विभेद को खत्म करके ही मानव मुक्ति के स्वप्न को साकार किया जा सकता है। यही प्रेमचंद के साहित्य की वर्तमान प्रासंगिकता है।
संदर्भ–
1- प्रो. चमन लाल , प्रेमचंद साहित्य मे दलित विमर्श, समकालीन जनमत samkaleenjanmat.in , 25 जुलाई 2019
2-वही
3- जातिप्रथा उन्मूलन , डॉ अंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय खंड 1 पृ.सं. 61 ,डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान,नई दिल्ली
4-रंगभूमि , hindisamay.com
(आज़मगढ़ में जन्मे डॉ. रामायन राम की शुरुआती पढ़ाई लिखाई पं. बंगाल के दुर्गापुर शहर के औद्योगिक माहौल में हुई जहां इनके पिता स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड में कार्यरत थे।
हाइस्कूल के बाद इंटरमीडिएट से लेकर डी. फिल. तक की शिक्षा इलाहाबाद वि .वि. से।यहीं पर वाम धारा की छात्र राजनीति से सक्रिय जुड़ाव और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के साथ छात्र मोर्चे पर लगभग एक दशक का जुड़ाव।
फिलहाल जन संस्कृति मंच के उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव और शामली के एक कॉलेज में हिंदी अध्यापन। ‘ डॉ. अम्बेडकर: चिंतन के बुनियादी सरोकार’ किताब प्रकाशित।)