कविता क्या है और इसका काम क्या है- इस पर अनेक बातें हैं, अनेक परिभाषाएं हैं। लेकिन मौजूदा समय सत्य पर संकट का समय है। मौजूदा समय विवेक पर हावी होते विश्वास का दौर है। समाज में झूठ के बोलबाले का दौर है। इस पोस्ट-ट्रुथ समय में जब सत्य कहीं हाशिये पर पड़ा है और झूठ विजयी भाव से अट्ठहास कर रहा है, आज जब जनमत को बनाने में वस्तुगत तथ्य, भावनात्मक अपील और आस्था (निजी विश्वासों) से कम प्रभावशाली हो गया है, जनमत के निर्माण में सत्य अप्रासंगिक हो गया है, तब ‘सत्य की खोज’ ही कविता का सबसे बड़ा काम है, और ये काम कवि राकेश रेणु बखूबी और बेखौफ़ करते हैं।
उत्तर सत्य युग में सत्य की खोज करने निकले राकेश रेणु का अद्यतन कविता संग्रह ‘इसी से बचा जीवन’ लोकमित्र प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इसका लोकार्पण इस वर्ष जनवरी 2019 के पुस्तक मेले में हुआ था। उत्तर सत्य-एक कविता में राकेश रेणु लिखते हैं –
“सच है कि वह सच को जिबह करने ले जा रहा था/ आँकड़े सच नहीं/ आत्महत्या करनेवाले का बयान सच नहीं/ सच एक मारीचिका है/ सच उसकी उंगुलियों में फँसा/ टूँगर है/ नचाता है जिसे वह/ विजय-पर्व के ठीक पहले”
उत्तर सत्य राजनीति के मंसूबों को आम जन नहीं समझ सकते। ‘उत्तर सत्य’ जन के विवेक पर सवाल उठाकर एक दुष्चक्र के तहत जनसमाज को बौद्धिक वर्ग से काट दे रहा है। ऐसे में बौद्धिक जमात की भूमिका और उत्तरदायित्व अधिक बढ़ जाती है। बौद्धिक जमात जानती है, सबकुछ जानते हुए भी बौद्धिक वर्ग जन समुदाय से कटकर सोशल मीडिया और उपलब्ध मंचों पर आखि़र क्या कर रहा है। ‘अंधेरे समय की कविता-एक’ में लिखते हैं-
“जब सेकुलर मारे जा रहे थे, चुप थे विचारवान/ नीरो लगातार युद्ध का उद्घोष कर रहा था दुंदुभी बजाता/बार-बार धार लगा चुके थे राष्ट्रसेवक अपने अपने औजारों पर /दोस्तों, यह तब हो रहा था, ठीक उसी समय/ जब घना अंधकार, बेचैनी औऱ कोलाहल पसरा था आर्यावर्त में/ इतनी विकल्पहीन कभी नहीं थी दुनिया/ साहित्य और समाज में/”
इस लगातार संवादहीन होते जाते समय में राकेश रेणु अपने पूर्वज कवि नजीर से संवाद स्थापित करते हैं। और नजीर अकबराबादी के लिए कविता में अपनी बिरादरी की अराजनीतिक भूमिका, नैतिकता और उत्तरदायित्वहीनता पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं-
“अचानक पूछा उसने/ कवि क्या कर रहे हो तुम लोग/ मेरे शहर में दंगा हुआ पहली बार/ पहली बार बेकसूर मारे गए/ पहली बार रिश्ता टूटा यकीन का/ शहर के धमाके मेरी नींद उड़ा ले गए हैं/ तुम सो कैसे पाते हो कवि?”।
पूँजीवादी आधुनिकता के बरअक्श औद्योगीकरण नगरीकरण ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया, जिससे लोगों में एलियनेशन (अलगाव) पैदा हुआ। इस एलियनेशन को भरने के लिए पूंजीवाद ने टेक्नोलॉजी की मदद से एक आभासी दुनिया का वितंडा खड़ा किया। आज टेक्नोलॉजी सत्य को बाधित कर रही है, हमसे हमारा यथार्थ छीनकर ‘आभासी’ को ही हमारा यथार्थ बनाकर प्रतिस्थापित कर रही है। ये आभासीपन सिर्फ बाहर बाहर नहीं है ये मनुष्य के मानवीय भावों व मानवीय संबंधों को भी अपने गिरफ्त में ले रही है। आभासीपन दरअसल सत्य को खत्म कर देने की ये एक बहुत ही खतरनाक पूंजीवादी फेनोमिना है। राकेश रेणु इसकी शिनाख्त करते हुए संग्रह की स्मार्ट कविता में लिखते हैं-
“चुनाव आयोग भी स्मार्ट हो चला है/ चुनावों को स्मार्ट और आभासी बनाना चाहता है/ स्मार्ट होना / केवल चतुर होना नहीं/ आभासी होना भी है/ आभासी विकास/ आभासी रोज़गार/ आभासी परोपकार/ आभासी साथ आभासी प्रेम/ आभासी तुम-हम/”
सत्य, तथ्य और बहस से परे हम जिस उत्तर सत्य समय में जी रहे हैं। उसमें दक्षिणपंथी विचार और राजनीति का उभार इस उत्तर सत्य का बाई-प्रोडक्ट है। पूंजीवाद जब भी संकट से घिरता है वो फासीवादी विध्वंसक शक्तियों को आगे करके उनकी सहारे अपना मार्ग प्रशस्त करता हुआ आगे बढ़ता है। पूंजीवाद के जनक देश अमेरिका में ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति को जनसमर्थन मिला, ब्रिटेन निवासियों ने ‘ब्रिक्जिट’ के पक्ष में मतदान किया और पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांगकर दक्षिणपंथी देश में दोबारा सत्ता में आए। कविता संग्रह ‘इसी से बचा जीवन’ की फ़ैसला कविता देश की वर्तमान राजनीति की सचबयानी है। कि कैसे जब दक्षिणपंथी विचारों को राजनीतिक सत्ता और भारी जनसमर्थन मिल जाता है तो वो अपने सांस्कृतिक सांप्रदायिक मंसूबों को जोर जबर्दस्ती से दूसरे वर्ग संप्रदाय के लोगों पर थोपने लगती है।
“औपचारिक भौंक भरे स्वागत के बाद/ प्रधान कुत्ते के इशारे पर प्रस्ताव रखा गया/ कि तमाम मरियल-नामलूम से कमजोर कुत्तों को/ देश से बाहर खदेड़ दिया जाए/ वे हमारी जात के हो नहीं सकते/ इतने मरियल-सड़ियल से/ राष्ट्रीय विकास के महान लक्ष्य में/ हो नहीं सकता इनका कोई योगदान/ वैसे भी ये बाहर से आए घुसपैठिए हैं”
विध्वंस कविता नस्लीय वर्चस्व के सिद्धांत वाली ताकतों द्वारा देश में वैचारिक, सांस्कृतिक, सांप्रदायिक और भाषाई एकरूपता थोपे जाने और समाज में व्याप्त बहुलता की संस्कृति, भाषा व विचार को बर्बरतापूर्वक खत्म कर देने की फासीवादी प्रवृत्ति की परतें उघेड़ती हुए उसके मनुष्यविरोधी होने का उद्घोष करती है।
“वे जो रंग न पाएंगे/ उस एक पवित्र रंग में/ वे काफिर देशद्रोही/ ओढ़ा दिया जाएगा उन पर एक रंग/ धरती की उर्वरा बढ़ाएंगे वे अपने रक्त से/ महाद्वीप के इस भूभाग की धरती /सुनेगी केवल एक गीत, एक लय, एक सुर में/ ओढ़ेगी अब महज एक रंग / एक-सा पहनेगी/ बोलेगी एक सी भाषा में एक सी बात/ मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी/ गाएगी एक सुर में धर्मगान/ कोई दूसरा रंग, राग-लय-गान/ बचा न रहेगा- बचने न पाएगा/ धरती करेगी एक सुर में विलाप/”
फासीवादी ताकतें किस तरह तमाम स्वायत्त संस्थाओं को अपने अधीन करके लोकतंत्र का भ्रम बनाए रखती हैं और किस तरह लोकतंत्र के भीतर लिंचिंग और प्रशासनिक हत्याओं, कार्पोरेट लूट को आवाम पर थोपते हुए भी सत्ता में काबिज हत्यारे, लुटेरे और बलात्कारी जनतंत्र, न्यायतंत्र की दुहाई देते हुए झूठी संवेदना और बनावटी दुख व्यक्त करते हुए सार्वजनिक मंचों से अश्रुधारा बहाने का अभिनय करते हुए फिर से हत्या, लूट और बलात्कार के अपने मूल उद्देश्य में लग जाते हैं, ‘शांतिपाठ’ कविता इस पर एक करारा व्यंग्य करती है-
“अशांत लोगों ने किया आह्वान शांति का/ हत्यारों को हत्या करने का दुख था/ लुटेरों को दीख रही थी पीड़ा लुटे हुए लोगों की/ बलात्कारी क्लांत थे फिर भी खुश/ सबने किया शांतिपाठ/ एक-दूसरे के दुख में ढाढ़स बँढाया एक-दूसरे को/ और, समवेत स्वर में शांतिपाठ”
राकेश रेणु अपने कवि धर्म का निर्वाहन करते हुए ‘भय’ कविता में फासीवाद से आगाह करते हैं। जन को आगाह करना ही उनका प्रतिवाद है। राकेश रेणु अपने समय की राजनीति के साथ अपनी परंपरा का भी प्रतिवाद करते चलते हैं। तुलसीदास जहां सत्ता के समर्थन में लिखते हैं- ‘भय बिनु होय न प्रीत’ वहीं राकेश रेणु उस परंपरा का प्रतिवाद करते हुए ‘ भय’ शीर्षक कविता में फासीवाद के परिणाम की भयावह तस्वीर खींचते है। प्रतिवाद के लिए रेणु भाषण या नारेबाजी का सहारा नहीं लेते बल्कि अपनी सूक्ष्मतम संवेदना से ऐसा चित्र खींचते हैं अपने समय काल के बर्बर सच को अभिव्यक्त कर पाते हैं।
“शवों के अंबार में कठिन होगा/ पहचानना प्रियतम का चेहरा/ उस दिन पूरी सभ्यता बदल दी जाएगी दुनिया की/ एक नया संसार शुरु होगा उस दिन/ बर्बर और धर्मांधों का संसार/ कापालिक हुक्मरानों का संसार”
रेणु इतने पर ही नहीं रुकते आगे वो ‘अँधेरे समय की कविता-दो’ में राकेश रेणु लोकतंत्र में सांप्रदायिकता और फासीवाद के समावेश की शिनाख्त करते हैं और अपने समय के इतिहास को भविष्य की पीढ़ी के लिए बतौर सबक अपनी कविता में दर्ज करते हैं-
“ये उन दिनों की बात है/ जब कुतर्क ही राष्ट्रीय विमर्श था/ जो उग्र था सौम्य की स्वीकृति चाहता था/ हत्यारा रामनामी चादर ओढ़े था/ और अहिंसा का सिरमौर बनना चाहता था/”
इस संग्रह में परंपरा से प्रतिवाद की ही एक और कविता है ‘गिरगिट’। एक सीधे सादे शांति प्रकृति के निर्विष जीव के प्रति भय का निमार्ण करके परंपरा किस तरह उसे समाज का शत्रु बना देती है। किस तरह परंपरा एक सीधे जीव विशेष के प्रति भय और घृणा जबकि एक जहरीले प्राणी के प्रति आस्था भरकर समाज में उसे पूज्य बना देती है, ‘गिरगिट’ कविता इसकी पड़ताल करती है। अति संवेदनशील होने के चलते भय, क्रोध या काम की उत्तेजना में होने पर गिरगिट रंग बदलता है, उत्तेजना शांत होते ही गिरगिट का रंग फिर बदल जाता है। इस तरह गिरगिट का रंग बदलना उसके मनोत्तेजना की अभिव्यक्ति है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था समाज के उपेक्षित जमात के लोगों को जीवन के तमाम भावों और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को निषिद्ध करती आई है। गिरगिट उसी वंचित समाज का प्रतिनिधि है। उसके सिर हिलाने और रंग बदलने के लेकर परंपरा ने समाज को कई नकरात्मक मुहावरे दिए हैं। राकेश रेणु ‘गिरगिट’ कविता में पारंपरिक मुहावरे को तोड़कर गिरगिट के पक्ष में अस्मिता के तर्क खड़े करते हुए कहते हैं-
“परंपरा से सीखा हमने/ कि जहर है इसका जल-मल गेंहू की दाने जितना/ मनुष्य के गू मूत के बारे में/ क्या राय रखती है परंपरा?/ समाज के सबसे उपेक्षित लोगों की जमात-सा है यह / ठंड से ठिठुरता, शीतलहर की पेट भरता / मनुष्य का बेहतर मित्र हो सकता है/ लेकिन मनुष्य में आस्था कैसे भरे यह/ परंपरा से कैसे लड़े यह?”
अप्सरा संग्रह की महत्वपूर्ण कविता है। कवि राकेश रेणु स्त्रियों के यौन-उत्पीड़न की जड़ें परंपरा में खोजते हैं और यौन उत्पीड़न को महिमामंडित करके मिथकीय आख्यानों के जरिए धर्म की रक्षा के लिए ज़रूरी कार्य सिद्ध करने वाली ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति को कटघरे में खड़ा करते हैं-
“पुरुष सत्तात्मक समाज में/ भोग की अक्षत परंपरा है वह/ लागू नहीं होते शील के/ मध्यवर्गीय मानदंड उसपर / न उनके साथी पर/ ऋषि बना रह सकता है ऋषि, तत्वेत्ता, समाज सुधारक, सिद्धांतकार/ राजा केवल अपनी थकान मिटाता है,/ वह फैसले सुना सकता है दुराचार के ख़िलाफ़/ कौमार्य,यौवन/ और सतत् कामेच्छा के सूत्र बेंचने वाले क्या तब भी मौजूद थे देवलोक में?”
संग्रह की एक कविता ‘हमारे समय में इंद्र’ में राकेश रेणु वर्तमान समय की सबसे भयावह दुर्घटना ‘क्रोनीकैपिटलिज्म’ को परत दर परत उकेरते हुए लिखते हैं –
“चापलूसों को कल का इंद्र कहा जाता/डाली पहुँचाने वालों के लिए सुरक्षित/ कर दिया जाता भविष्य/ सुरंगे बनाई जाती नितांत गोपनीय/ दलालों और कुबेरों के लिए”
एक जनतांत्रिक व्यवस्था में जनता की चुप्पी सबसे खतरनाक़ बात है। बदलते विश्व के बारे में कविता में रेणु सामूहिक चेतनाविहीन समाज की चुप्पी पर सवाल खड़े करते हुए लोगों को झकझोरते हैं-
“हम सो रहे होंगे इस तरह/ और किसी की प्रेयसी गुम हो जाएगी/ अचानक किसी दिन किसी की पत्नी/ किसी का पति गायब हो जाएगा/ किसी का पिता अगली बार”
पढ़ने निकले बच्चे कविता हमारे समय का सबसे भयावह यथार्थ की अभिव्यक्ति है। स्कूल कैब में बैठकर पढ़ने निकले मासूम बच्चों की मौत की खबरें आए दिन की घटनाएं हैं। लेकिन इसे लेकर भारतीय समाज कभी आंदोलित उद्वेलित नहीं होता। सत्ता चंद रुपए के मुआवजे का ऐलान करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है, लेकिन कविता पाठक के मन में संवेदना का सृजन करके अपना काम करती है –
“एक की जेब में कुछ टाफियां मिलीं/ एक की आँखों में उम्मीद थी मानो ठहर गई/ गुब्बारे के लिए जो मां ने दिए थे / एक का लंचबॉक्स खुलकर बिखर गया था/ जल्दी में केवल पावरोटी रख पाई थी माँ उसमें/ एक का थैला कीचड़ में धँस गया था/ पतंग, तितलियाँ और फूलों वाली किताब भीग गई थी”
‘रमज़ान चचा’ कविता संग्रह की बेहतरीन कविता है। कवि निज अनुभूति पगे यथार्थ के धरातल पर धनुर्धारी राम का रजाई धुनने वाले रमज़ान चचा के बरअक्श खड़ा करके उन्मादी आध्यात्मिकता को खारिज कर देता है। आज जिन क्रोधित मुद्रा वाले धनुर्धारी राम को हिंदुत्व राष्ट्र का ब्रांड बनाकर गैरहिंदुओं की हत्याओं को भीड़ का न्याय बताया जा रहा है, कविता अपने धरातल पर उसका प्रतिवाद करती है। कविता हत्या के हथियारों पर जीवन-राग की सिरजने वाले औजारों को श्रेष्ठता प्रदान करके पाठक की चेतना को अध्यात्म के भावात्मक दलदल से निकालकर, यथार्थ की ठोस जमीन प्रदान करती है। यथार्थ की इसी भौतिक धरातल पर खड़े करके कविता पाठक में आत्मविवेक का निर्माण करती है।
“धनुर्धर राम से ज्यादा सशक्त लगते उनके हाथ/ हाथों की गति अधिक सधी हुई/ धनुखे की टंकार में होती धनुष से ऊँची खनक/ निश्चित लय और गति होती उसमें/ हमारी आँखों में झांकते वह पहाड़ के पीछे से/ रुई का सफेद गोला ऐसे बढ़ाते/ मानों सौंप रहे हों पृथ्वी/ वह भर देते अपनी सारी उष्मा सारा स्नेह हमारी रजाई में”
दशरथ मांझी कविता आजाद देश के जनतंत्र में जन कहां है, किस पायदान पर, इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति करती है-
“पच्चीस साल से वह तोड़ रहा था पहाड़/ पच्चीस साल तक देखते रहे जन-तंत्र उसे”
नवउदारवादी पूंजीवाद मनुष्य से उसका सर्वस्व छीन लेने पर आमादा है। जबकि खोने की इस प्रक्रिया में व्यक्ति अपनी अस्मिता और आत्म को भी गँवाकर अलगाव व वस्तुकरण का शिकार होकर आत्मनिर्वासित है। आधुनिकतावादी जीवन के तमाम घपाघोपों बीच लगातार मशीन बनते जाते मनुष्य से आदिम मनोभाव छिनते जाते हैं और बाज़ार मानवीय मनोभावों को उत्पादों से प्रतिस्थापित कर देता। राकेश रेणु बाज़ार के आदिम मनोभावों पर अवैध कब्जे का तोड़ फोड़ करते हैं। आदिम मनोभावों पर इस संग्रह में कई कविताएं हैं। लौटना, स्मृतियां, प्रतीक्षा, चुपचाप, बातें, संताप, अनुनय मिलना आदि कविताएं उल्लेखनीय हैं। प्रतीक्षा कविता की कुछ पंक्तियां-
“कुछ भी इतना महत्वपूर्ण नहीं/ जितनी प्रतीक्षा/ प्रियतम के संवाद की, संस्पर्श की/ मुस्कान की प्रतीक्षा”
राकेश रेणु के इस कविता संग्रह में प्रतिवाद और संघर्ष मुख्य स्वर है इसके अलावा इस संग्रह में प्रेम पर कई कविताएं हैं, गझिन ऐंद्रिक अनुभूतियों से लबरेज। स्त्रियों पर भी कई कविताएं हैं इस संग्रह में। ‘स्त्री : चार’ कविता में रेणु कहते हैं- “स्त्रियां जहां कहीं हैं / प्रेम में निमग्न हैं / एक हाथ से थामे दलन का पहिया/ दूसरे से सिरज रही दुनिया”
राकेश रेणु की काव्यभाषा जितनी संप्रेषणशील और सहजग्राह्य है, काव्यबिंब उतने ही चुटीले। ये अपने समय की विषयवस्तु पर नजदीकी नज़र, अनुभूति की ठोस जमीन, अपने वैचारिकी की राजनीति में स्पष्टतावादी होने व जनसरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता से ही संभव है। कुछ बानगी देखिए-
“जांच आयोग की तरह/ हाथ आएगा केवल शून्य!” (बर्फ)
अपने काव्य भाषा में राकेश रेणु शब्दसजग हैं, और अपने समय की राजनीतिक विद्रूपताओं की सटीक अभिव्यक्ति के लिए भाषा का अतिक्रमण करके नई काव्य भाषा व ‘कापालिक हुक्मरान’ और ‘कुत्ता राज’ जैसे नए शब्द गढ़ते हैं। राजनीतिक विद्रूपताओं, विसंगतियों को अपनी कविता का विषयवस्तु बनाते हुए वो वक्रोक्ति शैली का प्रयोग करते हैं- राजनेताः दो कविता में उनका शब्द संयोजन कमाल का है-“जब तक हमारे बीच रहा/ एक भरा-पूरा आदमी था वह/ पहले उसकी आँखें और कान गायब हुए/ फिर उसका सिर और बाहें और पांव”
राकेश रेणु कहीं पारंपरिक मुहावरों को तोड़कर नए मुहावरे गढ़ते हैं तो कहीं पारंपरिक मुहावरों से ही काम चलाते हैं। समस्या तब शुरु होती है जब पारंपरिक मुहावरों में वो नया अर्थबोध नहीं भर पाते और अवचेतन में शेष बचे सामंती शब्द-संस्कार में फँसते चले जाते हैं।
“धंधेवाली की संदूक बन गया है/ हर हाल में भरा हुआ” (राजनेता-दो)
राकेश रेणु समय समाज सापेक्ष कवि है। उनका सौंदर्यबोध अपने समय और समाज की विद्रपूताओं से संघर्ष से निर्मित होता है। सामूहिक चेतना की संश्लिष्ट समग्रता में विसंगतिबोध एवं मानवीय अस्तित्व का संघर्ष व संवेदनात्मक रागात्मक अंतर्द्वंद उनके सौंदर्यबोध का मूल है।
“एक चिता जल रही भीतर-भीतर/ धू-धू कर/ सुकुमार इच्छाओं की चिता/ एक अनंत श्मसान में बदल रहा तन मन / क्या चिता बनकर, श्मसान बनकर/ मिल पाते हैं प्रेमी जन?/ या, फिर भी जलते रहते हैं निरंतर/ एक अस्सी घाट -सा/ दूसरी मणिकर्णिका सी/ अतृप्त, दग्ध, अलग अलग?” (अतृप्ति)
राकेश रेणु जीवन के कवि हैं, कविता उनके यहां पंचभूत है। आकाश, वायु, अग्नि, जल पृथ्वी उनकी कविता में ज़रूरी तत्व की तरह आते हैं। लेकिन ये दर्शन की कोरे ज्ञान के अर्थ में नहीं प्रकृति और जीवन के ज़रूरी अवयव के रूप में आते हैं। जल संवेदना के अर्थ में आता है, चुंबन के गीलेपन, आँखों में नमी के अर्थ में आता है, पृथ्वी स्त्री के रूप में आती है, अग्नि उनके यहाँ जीवन और उम्मीद के रूप में उष्मा शब्द की आवृत्ति बार बार होती है। ‘बचा रहेगा जीवन’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां उम्मीद जगाती हैं कि जीवन इनके जरिए बचा रहेगा-
‘कठुआते जाड़े की सुबह वह ऐसे मिला/ जैसे मिलती है प्रेयसी/ अजब-सी पुलक से थरथराती हुई/ सूर्य की गर्मी अच्छी लगी/ अभी अभी लौटा था वह गांव से/ गाँव की गंध बाकी थी उसमें/’
राकेश रेणु का कवि उम्मीद से भरा हुआ सपने देखता है, फासीवाद, जातिवाद पूंजीवाद से आजादी के सपने और इस सपने में वो एक यूटोपिया रचते हैं –
“अपने हिस्से का दूध/ खुद दूह लाए हैं लोग/ रोप और काट लाए हैं/ ज़रूरत भर अनाज सब लोग/ खुश्बू और नाक के बीच/ खत्म हो गई है दलाली इश्तहारों की/ प्यार करने के लिए/खत्म हो गई है योग्यता अब जाति की/ गले मिलने के लिए/ ज़रूरी नहीं रहा है धर्म/ आदमी से आदमी/ मिलकर गा रहा है/ पैसा मुँह छुपा रहा है/”
कविता संग्रह: इसी से बचा जीवन
कवि: राकेश रेणु
प्रथम संस्करण- 2019
प्रकाशक- लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली- 110032
आवरण चित्र- अनुप्रिया
मूल्य- रू- 250
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