समकालीन जनमत
स्मृति

बरनवाल साहब : मेरे प्रेरक, मेरे गुरु

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल साहब 1969 में गनपत सहाय डिग्री कालेज सुल्तानपुर में अंग्रेज़ी के प्रवक्ता बन कर आये. इलाहाबाद में रह कर पढ पाना मेरे लिए संभव न होने के कारण मै भी दो महीने बाद सी एम पी डिग्री कालेज की बी एस सी की पढ़ाई छोड़ कर गाँव लौट आया और गनपत सहाय डिग्री कालेज में बी.ए. में एडमिशन के लिए चक्कर लगाने लगा. फीस का इन्तज़ाम नहीं था. बडे बाबू यह कह कर ले गये थे कि फीस माफ़ करा देंगे लेकिन बात बन नहीं रही थी.

एक दिन मैं प्रिंसिपल पितामह जी के कमरे के बाहर खड़ा था कि उनकी नज़र पड़े तो मैं घुस कर फ़रियाद करूँ.तभी बरनवाल साहब एक अन्य अध्यापक के साथ कमरे में गये. उन लोगों के बीच तुलसी के दोहे के एक शब्द को लेकर बहस थी कि -जिमि पाखंड विवाद से’ है कि’ जिमि पाखंडवाद से’? अचानक मेरे मुँह से निकल गया-जिमि पाखंड विवाद से.’ अपने विचार से तो शाबाशी लेने और ध्यान आकर्षित करने के लिए ही बोला था पर प्रिंसिपल साहब नाराज़ हुए. कौन हो ? तुम्हें किसने कहा बीच में कूदने को ?मैं तुरंत आड में हो गया. लेकिन बरनवाल साहब बाहर आकर मुझे अंदर ले गये. बोले इतना जागरूक स्टुडेंट है तो बाहर क्यों खड़ा है ? जानना चाहिए.

समस्या जानकर उन्होंने तुरंत प्रार्थनापत्र लिखवाया और फीसमाफी की संस्तुति करवा दी.

वे मेरी साहित्यिक अभिरुचि के बारे में बात करते और प्रोत्साहित करते रहते थे. मेरी एक कहानी उन्हीं दिनों छपी तो बहुत खुश हुए थे. वे नौ दस महीने ही वहाँ पढा पाये फिर भारतीय राजस्व सेवा में चले गये लेकिन मेरी कहानी कहीं छपती तो विस्तार से मुझे पत्र लिखते.

2012 में लमही पत्रिका मेरे साहित्य पर केन्द्रित विशेषांक निकाल रही थी तो सुशील सिद्धार्थ जी ने उनसे भी कुछ लिखने का आग्रह किया. उनका आलेख पढ कर मुझे हैरत हुयी कि पुरानी सारी बातें उन्हें याद थीं. मेरी उस कहानी का शीर्षक और पत्रिका का नाम तक.तब की मेरी स्थिति, रूप रंग और कपड़े तक.

वे अपने आलेख में लिखते हैं-जहाँ तक मुझे याद है यह कहानी ‘मुझे जीना है’ शीर्षक से उस समय की कहानियों की एक लोकप्रिय पत्रिका में छपी थी.इसके छपते ही शिवमूर्ति को कालेज में सब जान गये थे.

वे आगे लिखते हैं -साँवले दुबले पतले किशोर शिवमूर्ति सफ़ेद चौड़ी मोहरी के पैजामें और पूरी बाँह की सफ़ेद क़मीज़ में होते थे. दोनो कपड़े घर पर धुलने से धूसर लगते थे.व्यक्तित्व में यदि कोई वैशिष्टय था तो वह था उनका चश्मा. शायद तब कोई दूसरा छात्र यहाँ तक कि प्राध्यापकों में भी कोई चश्मा इस्तेमाल नहीं करता था…..शिवमूर्ति अक्सर कालेज पुस्तकालय से कई किताबें साइकिल के पीछे लाद कर घर ले जाते थे.
और भी स्मृतियों कई स्पष्ट बिंब.सुखद आश्चर्य है कि चौवालीस पैंतालीस साल बाद भी उनकी स्मृति में मेरी स्पष्ट छवि अंकित थी.

बरनवाल साहब अच्छे इतिहासज्ञ और अनुवादक थे.कला और देशज यथार्थ के मर्मज्ञ थे. देशी खान पान के मुरीद भी. अपने उसी आलेख में वे लिखते हैं- दो ही लोग निमोना बनाना जानते हैं.एक मेरी नानी बनाती थीं और दूसरे,शिवमूर्ति के घर खाने को मिलता है.

जब तक उनकी नानी जीवित रहीं वे कहीं भी रहें साल में दो तीन बार उनसे मिलने पहुँचते थे.एक बार जब मैं जौनपुर में पोस्टेड था तो हम दोनों लोग जौनपुर की बाजार में उनकी नानी के लिए देर तक दोपहर में सुरमा खोजते रहे थे.उस पुराने ब्रांड का सुरमा मुश्किल से मिला था.

बरनवाल साहब हर परिचित की ज़रूरत पर सदा खड़े मिले.सब की कुशलता जानने को व्यग्र. वे हज़ारों के दिल में मौजूद रहेंगे. इसी अप्रैल में एक दिन फोन किया तो बोले- तबियत खराब रहती है शिवमूर्ति. वही
सारी ओल्ड एज बीमारियाँ. दिल्ली आओ तो मिलो. रखता हूँ.
आवाज में कमज़ोरी थी.

और अब वे जा चुके हैं .फिर कभी न मिलने के लिए. उन्हें प्रणाम !

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